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शुक्रवार, 5 मार्च 2021

दोहा सलिला - बसंत

दोहा सलिला - बसंत 
*
खिली मंजरी देखकर, झूमा मस्त बसंत
फगुआ के रंग खिल गए, देख विमोहित संत
*
दोहा-पुष्पा सुरभि से, दोहा दुनिया मस्त
दोस्त न हो दोहा अगर, रहे हौसला पस्त
*
जब से ईर्ष्या बढ़ हुई, है आपस की जंग
तब से होली हो गयी, है सचमुच बदरंग
*
दोहे की महिमा बड़ी, जो पढ़ता हो लीन
सारी दुनिया सामने, उसके दिखती दीन
*
लता सुमन से भेंटकर, है संपन्न प्रसन्न
सुमन लता से मिल गले, देखे प्रभु आसन्न
*
भक्ति निरुपमा चाहती, अर्पित करना आत्म
कुछ न चाह, क्या दूँ इसे, सोच रहे परमात्म
*
५-३-२०१८

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

दोहा सलिला

दोहा सलिला मुग्ध
संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..

चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शरच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..

नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..

सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..

वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..

देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..

दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..

दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..

वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..

रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..

रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..

कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..

रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..

गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..

जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..
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२१-२-२०११ 

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

बसंती दोहा सलिला

बसंती दोहा सलिला  
संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..
चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..
दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..
रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..
रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..
रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..
गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..
जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..
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