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सोमवार, 20 जुलाई 2009

नवगीत - एक गाँव में देखा मैंने

एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर
अधनंगा था, बच्‍चे नंगे,
खेल रहे थे मिटिया पर।



मैंने पूछा कैसे जीते
वो बोला सुख हैं सारे
बस कपड़े की इक जोड़ी है
एक समय की रोटी है
मेरे जीवन में मुझको तो
अन्‍न मिला है मुठिया भर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।



दो मुर्गी थी चार बकरियां
इक थाली इक लोटा था
कच्‍चा चूल्‍हा धूआँ भरता
खिड़की ना वातायन था
एक ओढ़नी पहने धरणी
बरखा टपके कुटिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।



लाखों की कोठी थी मेरी
तन पर सुंदर साड़ी थी
काजू, मेवा सब ही सस्‍ते
भूख कभी ना लगती थी
दुख कितना मेरे जीवन में
खोज रही थी मथिया पर
एक गाँव में देखा मैंने
सुख को बैठे खटिया पर।