दोहा सलिला:
पावस है त्यौहार
संजीव 'सलिल'
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नभ-सागर-मथ गरजतीं, अगणित मेघ तरंग.
पावस-पायस पी रहे, देव-मनुज इक संग..

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रहें प्रिया-प्रिय संग तो, है पावस त्यौहार. मरणान्तक दुःख विरह का, जल लगता अंगार..
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आवारा बादल करे, जल बूंदों से प्यार.
पवन लट्ठ फटकारता, बनकर थानेदार..
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रूप देखकर प्रकृति का, बौराया है मेघ.
संयम तज प्रवहित हुआ, मधुर प्रणय-आवेग..
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मेघदूत जी छानते, नित सारा आकाश.
डायवोर्स माँगे प्रिय, छिपता यक्ष हताश..
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उफनाये नाले-नदी, कूल तोड़ती धार.
कुल-मर्यादा त्यागती, ज्यों उच्छ्रंखल नार..
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उमड़-घुमड़ बादल घिरे, छेड़ प्रणय-संगीत.

अन-आमंत्रित अतिथि लख, छिपी चाँदनी भीत..
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जीवन सतत प्रवाह है, कहती है जल-धार.
सिखा रही पाषाण को, पगले! कर ले प्यार..
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नील गगन, वसुधा हरी, कृष्ण मेघ का रंग.
रंगहीन जल-पवन का, सभी चाहते संग..
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किशन गगन, राधा धरा, अधरा बिजली वेणु.
'सलिल'-धार शत गोपियाँ, पवन बिरज की रेणु.
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कजरी, बरखा गा रहीं, झूम-झूम जल-धार.
ढोल-मृदंग बजा रहीं, गाकर पवन मल्हार.
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युवा पड़ोसन धरा पर, मेघ रहा है रीझ.
रुष्ट दामिनी भामिनी, गरज रही है खीझ.
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वन प्रांतर झुलसा रहा, दिनकर होकर क्रुद्ध.
नेह-नीर सिंचन करे, सलिलद संत प्रबुद्ध..
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निबल कामिनी दामिनी, अम्बर छेड़े झूम.
हिरनी भी हो शेरनी, उसे नहीं मालूम..
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पानी रहा न आँख में, देखे आँख तरेर.
पानी-पानी हो गगन, पानी दे बिन देर..
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अति हरदम होती बुरी, करती सब कुछ नष्ट.
अति कम हो या अति अधिक, पानी देता कष्ट..
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