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सोमवार, 19 मई 2025

निराला

महाप्राण निराला 
***
• निराला जी (२१ फरवरी १८९९ - १५ अक्टूबर १९६१) अपने जीवन-काल में ही मिथक बन चुके थे।
• सूर्यकान्त त्रिपाठी नाम के साथ जुड़ा 'निराला' दरअसल पहले उनका छद्म नाम था जिससे वे मतवाला नामक पत्र में कॉलम लिखते थे। बाद में यह छद्मनाम ऐसा चर्चित हुआ कि उनके नाम का हिस्सा हो गया।
• निराला जी सफल कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये।
• निराला जी ने आनंद मठ, विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुल्य, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भरत में विवेकानंद तथा राजयोग का बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद किया।
• १९१८ के इन्फ्लुएन्जा में उनके तमाम सगे-सम्बन्धी दिवंगत हो गए, पत्नी भी। सिर्फ़ दो बच्चे ही बचे- बेटा रामकृष्ण और बेटी सरोज। १९३५ में सरोज के निधन पर निराला ने चर्चित कविता 'सरोज-स्मृति' की रचना की थी।
• निराला ने जब मुक्त छंद में रचनाएँ लिखनी शुरू कीं तो बहुत विरोध हुआ। रबर छंद और केंचुआ छंद कहकर इसका मज़ाक उड़ाया गया। आज हिंदी कविता का यह मिज़ाज़ बन चुका है।
• निराला अपनी दानशीलता के लिए बहुत जाने जाते थे। अपना सर्वस्व दान करने की प्रवृत्ति से हमेशा तंगी में ही रहते रहे।
• हिन्दी कविता में छायावाद के साथ ही प्रगतिवाद होते हुए नयी कविता और नवगीत काव्यांदोलन उनसे अपना जुड़ाव महसूस करते रहे।
• हिंदी में अकेले निराला पर जितनी कविताएँ लिखी गयी हैं उतनी शायद किसी एक व्यक्ति पर कविताएँ कहीं नहीं लिखी गयीं।
• उनमें विरोध का सामर्थ्य था और असहमति का साहस। इसीलिए वे जनता के कवि थे।
• जब गांधी जी का दौर था, हिंदी के ही सवाल पर निराला जी ने गांधी का विरोध किया और 'बापू तुम मुर्गी खाते यदि' जैसी व्यंग्य कविता लिखी।
• उन्होंने नेहरू जी का विरोध किया और 'काले-काले बादल छाये न आये वीर जवाहर लाल' कविता लिखी।
• तमाम संघर्षों-विरोधों और समझौता-विहीन जीवन ने उन्हें मानसिक तौर पर तोड़ दिया था। लेखन के बूते आजीविका चलाने वाला यह कवि स्वतंत्रता मिलने के दौरान १८४६ से १९४९ तक कुछ भी न लिख सका। ये दिन विभाजन संत्रास के भी दिन थे। साहित्य में कई बार त्वरित प्रतिक्रिया नहीं होती। मौन भी मुखर होता है।
• एक बार महीयसी महादेवी वर्मा (जिन्हे निराला छोटी बहिन मानते थे) और अन्य साहित्यकारों ने उनके प्रकाशक दुलारे लाल भार्गव पर दबाब डालकर रॉयल्टी की कुछ राशि निराला जी को दिलवाई। अगले दिन वे राशि महादेवी जी को देने लगे तो उन्होंने मनाकर निराला जी को वापिस लौटा दी। कुछ दिन बाद भेंट होने पर महादेवी जी ने पूछा कि राशि का क्या किया? उत्तर मिला कि तुम्हारे घर से लौट रहा था पेड़ के नीचे एक दुखियारी बुढ़िया मिली, भीख माँग रही थी, उसे दे दी। महादेवी जी ने पूछा कि क्यों दे दी? निराला जी बोले कि माँ भीख माँग रही हो तो बेटा बिना दिए कैसे रह सकता है?   
• महादेवी जी को कश्मीर यात्रा में बहुमूल्य पशमीना का शाल भेंट किया गया। उनके इलाहाबाद लौटने पर निराला जी मिलने आए तो ठंड से काँप रहे थे, महादेवी जी ने वक शाल निराला जी को उढ़ा दिया। कुछ दिन निराला जी फिर वैसे ही मिले तो पूछा की शाल का क्या किया तो बोले कि भिखारी को उढ़ा दिया।
• १९७९ में मुक़दमा जीतने के बाद सारा निराला साहित्य एक जगह जुटाया गया और नन्दकिशोर    
नवल के संपादन में राजकमल प्रकाशन से निराला-रचनावली ८ खण्डों में प्रकाशित हुई। राज कमल प्रकाशन से ही डॉ। राम विलास शर्मा द्वारा लिखित निराला जी की जीवनी 'निराला की साहित्य साधना' २ भागों में प्रकाशित हुई। 
• निराला मांसाहारी थे किन्तु इससे परहेज़ करने वालों के प्रति बेहद सतर्क रहते थे। एक बार परम वैष्णव, राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के आगमन पर वे उन्हें कमरे में बैठाकर गायब हो गए। क़रीब आधे घंटे बाद जब कमरे में आए तो उनके हाथों में एक पत्तल था और कंधे पर घड़ा। पूछे जाने पर बताया कि दद्दा (गुप्त जी) उनके यहाँ न कुछ खाते, न पीते इसलिए वे गंगाजल से भरा घड़ा और फलाहारी बर्फी लेने चले गए थे।
• निराला जी के प्रकाशक दुलारेलाल भार्गव ने दोहा सतसई 'दुलारे दोहावली' प्रकाशित कराई तो उसके विमोचन कार्यक्रम में निराला जी को भी आमंत्रित किया। कार्यक्रम में चतुकारों ने दुलारे लाल जी के महिमा मंडन में अति का दी, यहाँ तक कि एक सज्जन ने दुलारे दोहावली के दोहों को बिहारी की सतसई के दोहों से भी श्रेष्ठ बता दिया। उस समय निराला जी वितरित किए गए शुद्ध घी के हलुए का भोग लगा रहे थे। तभी उनके नाम की घोषणा संबोधन के लिए की गई। निराला जी ने डन में शेष हलुआ समेटा, ग्रहण किया, दोन फेंककर कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा, सिर ऊँचा किए मंच पर पहुँचे और गरजते हुए अपनी जिंदगी का पहला और अंतिम दोहा कहा-  
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल। 
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल।।  
उसके बाद सन्नाटा तो छाया ही, आयोजन ही समाप्त हो गया और दुलारे लाल जी का मुँह देखते ही बनता था 'काटो तो खून नहीं'।  
• नेहरू जी के कहने पर निराला जी को १०० रुपये प्रतिमाह की मदद मिलनी तय हुई थी और यह भी तय हुआ कि यह राशि निराला को दी जायेगी तो वे इसे भी दान कर देंगे इसलिए कमलाशंकर सिंह जिनके यहाँ वे रहते थे, उन्हें दी जाती थी। इसके बाद भी निराला जी नेहरू जी के मुखर विरोधी बने रहे। क्या वर्तमान समय में कोई सत्ताधारी ऐसा हो सकता है जो अपने घोर विरोधी साहित्यकार को मदद करे और साहित्यकार सत्ता की सहायता के बदले कलम न बेचे?
• संस्कृत, हिंदी, बैसवाड़ी और बांग्ला के साथ रवींद्र संगीत के भी अच्छे जानकार थे निराला। उन्होंने 'विवेकानंद साहित्य' के बांग्ला से हिंदी अनुवाद में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। महादेवी जी कहती थीं कि निराला मानव नहीं महा मानव थे, ऐसा इंसान दुबारा नहीं हो सकता।    
• दारागंज में वे आज भी देवता की तरह पूजे जाते हैं। दुकानों के नाम भी उनके नाम के साथ ही हैं जैसे दारागंज स्थित उनकी प्रतिमा के सामने निराला मिष्ठान भण्डार या निराला चाट भण्डार। लखनऊ में उनके नाम पर एक कॉलोनी है निराला नगर किंतु उसमें निराला के व्यक्तित्व की कोई छाप नहीं है।  
• निराला जी ने पत्नी के ज़ोर देने पर ही हिन्दी सीखी थी। फिर बांग्‍ला में कविता लिखने के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरू कर दिया।
• स्कूल में पढ़ने से अधिक उनकी रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी।
• एक वक्‍त था जब हजारों निराला प्रेमियों को राम की शक्‍ति पूजा कविता याद थी और वे गर्व से सुनाते थे।
• उनके देहांत के बाद उनके पुत्र रामकृष्ण को १९ वर्ष तक प्रकाशकों से कॉपीराइट का मुकद्दमा लड़ना पड़ा। प्रकाशक जीवन भर शोषण करने के बाद भी कॉपीराइट स्वीकार नहीं कर रहे थे।

सोमवार, 25 मार्च 2024

होली, खुसरो, मीरा, नजीर, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, नज़रुल, बच्चन, शकील , 'रेणु,

महाकवियों की होली कविताएँ
*
अमीर खुसरो (१२५३-१३२५)
*
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।

जिसके कपरे रंग दिए सो धन-धन वाके भाग
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे।

जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे।
***

मीराबाई (१४९८-१५४७)
सील सन्तोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥
***

नजीर अकबराबादी (१७३५-१८३०)
*
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो
बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो
मय-नोशी हो बेहोशी हो ''भड़वे'' की मुँह में गाली हो
भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो
माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की
*
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।

गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
***

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (९ सितंबर १८५०-६ जनवरी १८८५)
*
गले मुझको लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में।

नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में।

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में।

है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुमी कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ मिरे दिलदार होली में।

रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आंख दिखाकर करो सरशार होली में।
*
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।
***

जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९-१५ नवंबर १९३७)

बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।

चांदनी धुली हुई है आज बिछलते है तितली के पंख
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख्य।

तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा है सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियां जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हां, होली की रात॥

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (२१ फ़रवरी १८९९-१५अक्तूबर १९६१)
*
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति-संग रति सनेह-रंग घोली,
दीपित दीप-प्रकाश, कंज-छवि मंजु-मंजु हँस खोली—
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस, अधर-दशन, अनबोली—
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल; श्रम-सुख की हद हो ली—
बनी रति की छबि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल; मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली—
रही यह एक ठठोली।
***

काज़ी नज़रुल इस्लाम (२४ मई १८९९-२९ अगस्त १९७६)
*
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
***

डॉ. हरिवंश राय बच्चन (२७ नवंबर १९०७-१८ जनवरी२००३)
*
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
*
यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं, ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का, वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाँहों में भर लो!
***

शकील बदायूँनी (३ अगस्त १९१६-२० अप्रैल १९७०)

होली आई रे कन्हाई
रंग छलके
सुना दे ज़रा बांसरी
बरसे गुलाल, रंग मोरे अंगनवा

अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा।

हो देखो नाचे मोरा मनवा
तोरे कारन घर से, आई हूं निकल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आयी रे!

होली घर आई, तू भी आजा मुरारी
मन ही मन राधा रोये, बिरहा की मारी
हो नहीं मारो पिचकारी
काहे! छोड़ी रे कलाई संग चल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आई रे!

***


फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल१९७७)
*
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!

आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!

वन-वन गुन-गुन बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई

कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
***

रविवार, 24 मार्च 2024

महादेवी, होली, यश मालवीय, निराला, बच्चन,

महीयसी महादेवी की अद्भुत होली
*
हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाली बुआ श्री (महीयसी महादेवी वर्मा) से जुड़े संस्मरण की शृंखला में इस बार होली चर्चा। बुआ श्री ने बताया कि रंग पर्व पर भंग की तरंग में मस्ती करने में साहित्यकार भी पीछे नहीं रहते थे किंतु मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाता था। हिन्दू पंचांग के अनुसार होली बुआ श्री का जन्म दिवस भी है। प्रयाग राज (तब इलाहाबाद) में अशोक नगर स्थित बंगले में साहित्यकारों का जमघट दो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु होता था। पहला महादेवी जी को जन्म दिवस की बधाई देना और दूसरा उनके स्नेह पूर्ण आतिथ्य के साथ साहित्यकारों की फागुनी रचनाओं का रसास्वादन कर धन्य होना। बुआ श्री होली की रात्रि अपने आँगन में होलिका दहन करती थीं। उसके कुछ दिन पूर्व से बुआश्री के साथ उनके मानस पुत्र डॉ. रामजी पांडेय का पूरा परिवार होली के लिए गुझिया, पपड़िया, सेव, मठरी आदि तैयार करा लेता था। एक एक पकवान इतनी मात्रा में बनता कि पीपों (कनस्तरों) और टोकनों में रखा जाता। होली का विशेष पकवान गुझिया (कसार की, खोवे की, मेवा की, नारियल चूर्ण की, चाशनी में पगी), सेव (नमकीन, तीखे, मोठे गुण की चाशनी में पगे), पपड़ी (बेसन की, माइडे की, मोयन वाली), खुरमे व मठरी, दही बड़ा, ठंडाई आदि आदि बड़ी मात्रा में तैयार करे जाते कि कम न हों।         

होली खेलत रघुबीरा

सवेरा होते ही शहर के ही नहीं, अन्य शहरों से भी साहित्यकार आते जाते, राई-नोन से उनकी नजर उतरी जाती, बुआ श्री स्वयं उन्हें गुलाल  का टीका लगाकार आशीष देतीं। आगंतुक साहित्यिक महारथियों में आकर्षण का केंद्र होते महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, उमाकांत मालवीय, रघुवंश,अमृत राय, सुधा चौहान, कैलाश गौतम, एहतराम इस्लाम आदि आदि। साहित्यकारों पर किंशुक कुसुम (टेसू के फूल) उबालकर बनाया गया कुसुंबी रंग डाला जाता था। यह रंग भी बुआ श्री की देख-रेख में घर पर हो तैयार किया जाता था। क्लाइव रोड से बच्चन जी की अगुआई में एक टोली 'होली खेलत रघुबीरा, बिरज में होली खेलत रघुबीरा आदि होली के लोक गीत गाते, झूमते मस्ताते हुए पहुँचती। बच्चन जी स्वयं बढ़िया ढोलक बजाते थे।   

 'बस करो भइया...'

महाप्राण निराला बुआ श्री को अपनी छोटी बहिन मानते थे, फिर होली पर बहिन से न मिलें यह तो हो ही नहीं सकता था। उनके व्यक्तित्व की दबंगई के कारण अनकहा अनुशासन बना रहता था। निराला विजय भवानी (भाँग) का सेवन भी करते थे। एक वर्ष अरगंज स्थित निराला जी के घर कुछ साहित्यकार भाँग लेकर पहुच गए, निराला जी को ठंडाई में मिलाकर जमकर भाँग पिला दी गई। भाँग के नशे में व्यक्ति जो करता है करता ही चला जाता है। यह टोली जब पहुंची तो गुजिया बाँटी-खाई जा रही थीं। निराला जी ने गुझिया खाना आरभ किया तो बंद ही न करें, किसका साहस की उन्हें टोंककर अपनी मुसीबत बुलाए। बुआ जी अन्य अतिथियों का स्वागत कर रही थी, किसी ने यह स्थिति बताई तो वे निराला जी के निकट पहुँचकर बोलीं- ''भैया! अब बस भी करो।और लोग भी हैं, उन्हें भी देना है, गुझिया कम पड़ जाएंगी।'' निराला जी ने झूमते हुआ कहा- 'तो क्या हुआ? भले ही कम हो जाए मैं तो जी भर खाऊँगा, तुम और बनवा लो।'' उपस्थित जनों के ठहाकों के बीच फिर गुझिया खत्म होने के पहले ही फिर से बनाने का अनुष्ठान आरंभ कर दिया गया।     

राम की शक्ति पूजा

एक वर्ष होली पर्व पर बुआ श्री के निवास पर पधारे साहित्यकारों ने निराला जी से उनकी प्रसिद्ध रचना ''राम की शक्ति पूजा'' सुनाने का आग्रह किया। निराला जी ने मना कर दिया। आग्रहकर्ता ने बुआ श्री की शरण गही। बुआ श्री ने खुद निराला जी से कहा- ''भैया! मुझे शक्ति पूजा सुन दो।'' निराला जी ने ''अच्छा,  इन लोगों ने तुम्हें वकील बना लिया, तब तो सुनानी ही पड़ेगी। उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में समा बाँध दिया। सभी श्रोता सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए।

खादी की साड़ी

महादेवी जी सादगी-शालीनता की प्रतिमूर्ति,  निराला जी के शब्दों में 'हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी' थीं।वे खादी की बसंती अथवा मैरून बार्डर वाली साड़ी पहनती थीं।  प्रेमचंद जी के पुत्र अमृत राय उन्हें प्रतिवर्ष जन्मदिन के उपहार स्वरूप खादी की साड़ी भेंट करते थे। उल्लेखनीय है की अमृत राय का विवाह महादेवी जी की अभिन्न सखी सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री सुधा चौहान के साथ बुआ श्री की पहल पर ही हुआ था। 

बिटिया काहे ब्याहते

बुआ श्री अपने पुत्रवत डॉ. रामजी पाण्डेय के परिवार को अपने साथ ही रखती थीं। उनके निकटस्थ लोगों में प्रसिद्ध पत्रकार उमाकांत मालवीय भी रहे। रामजी भाई की पुत्री के विवाह हेतु स्वयं महादेवी जी ने पहल की तथा यश मालवीय जी को जामाता चुना। विवाह का निमात्रण पत्र भी बुआ श्री ने खुद ही लिखा था। वर्ष १९८६ में यश जी होली की सुबह अमृत राय जी के घर पहुँच गए, वहाँ भाग मिली ठंडाई पीने के बाद सब महादेवी जी के घर पहुँचे। जमकर होली खेल चुके यश जी का चेहरा लाल-पीले-नीले रंगों से लिपा-पूत था, उस पर भाग का सुरूर, हँसी-मजाक होते होते यश जी ने हँसना शुरू किया तो रुकने का नाम ही न लें, ठेठ ग्रामीण ठहाके। बुआ श्री ने स्वयं भी हँसते हुई चुटकी ली '' पहले जाना होता ये रूप-रंग है तो अपनी बिटिया काहे ब्याहते?'' 

बुआ श्री ने हमेशा अपना जन्मोत्सव अंतरंग आत्मीय सरस्वती पुत्रों के के साथ ही मनाया। वे कभी किसी दिखावे के मोह में नहीं पड़ीं। होली का रंग पर्व किस तरह मनाया जाना चाहिए यह बुआ श्री के निवास पर हुए होली आयोजनों से सीखा जा सकता है।
*** 

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

निराला



सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी १८९९ - १५ अक्टूबर १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों[क] में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कई कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, तदनुसार २१ फ़रवरी, सन् १८९९ में हुआ था। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई। उनका जन्म मंगलवार को हुआ था। जन्म-कुण्डली बनाने वाले पंडित के कहने से उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया। उनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे।
निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बाङ्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। १९१८ में स्पेनिश फ्लू इन्फ्लूएंजा के प्रकोप में उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी सहित अपने परिवार के आधे लोगों को खो दिया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता।
उनके जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गँवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में १५ अक्टूबर १९६१ को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन किया, १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९३५ से १९४० तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता ‘जन्मभूमि’ प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध ‘बंग भाषा का उच्चारण’ अक्टूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ।
अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछन्द के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। १९३० में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में उन्होंने लिखा है-
“मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है।” मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"

बुधवार, 23 सितंबर 2020

विरासत तुलसीदास - 'निराला'

विरासत 
तुलसीदास 
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
१ 
भारत के नभ के प्रभापूर्य
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान;
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।
२ 
शत-शत शब्दों का सांध्य काल
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।
३ 
मोगल-दल बल के जलद-यान,
दर्पित-पद उन्मद पठान
बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,
छाया ऊपर घन-अन्धकार--
टूटता वज्र यह दुर्निवार,
नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।
४ 
रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान
संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।
५ 
वीरों का गढ़, वह कालिंजर,
सिंहों के लिए आज पिंजर
नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते
पीकर ज्यों प्राणों का आसव
देखा असुरों ने दैहिक दव,
बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।
६ 
लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,
हो शायित देश की पृथ्वी पर,
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
भारत के उर के राजपूत,
उड़ गये आज वे देवदूत,
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।
७ 
यों मोगल-पद-तल प्रथम तूर्ण
सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण
इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद
संचित जीवन की क्षिप्रधार,
इसलाम - सागराभिमुख पार,
बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।
८ 
अब धौत धरा खिल गया गगन,
उर-उर को मधुर तापप्रशमन
बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।
झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण
पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन
ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन
९ 
भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल
फैला-यह केवल-कल्प काल--
कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता
प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,
लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द
होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।
१० 
सोचता कहाँ रे, किधर कूल
कहता तरंग का प्रमुद फूल
यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता
छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,
वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल
निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।
११ 
पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर
यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,
वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;
यह एक उन्ही में राजापुर,
है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,
ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।
१२ 
युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन
समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन
जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;
आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,
अपने प्रकाश में निःसंशय
प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;
१३ 
नीली उस यमुना के तट पर
राजापुर का नागरिक मुखर
क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;
प्रियजन को जीवन चारु, चपल
जल की शोभा का-सा उत्पल,
सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।
१४ 
एक दिन सखागण संग, पास,
चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,
देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;
वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर
कुछ खुलती आभा में रँगकर,
वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।
१५ 
केवल विस्मित मन चिन्त्य नयन;
परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-
ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,
हो मध्य तरंगाकुल सागर,
निःशब्द स्वप्नसंस्कारागर;
जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।
१६ 
तरु-तरु वीरुध्-वीरुध् तृण-तृण
जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,
जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;
भर लेने को उर में, अथाह,
बाहों में फैलाया उछाह;
गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।
१७ 
कहता प्रति जड़ "जंगम-जीवन!
भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?
यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;
तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,
देखो यह धूलि-धूसरित छवि,
छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।"
१८ 
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
१९ 
"फिर असुरों से होती क्षण-क्षण
स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;
वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब
इस जग के मग के मुक्त-प्राण!
गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,
त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"
२० 
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
२१ 
"अब स्मर के शर-केशर से झर
रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;
छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;
छिप रहे उसी से वे प्रियतमम
छवि के निश्छल देवता परम;
जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"
२२ 
बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल
वन को कर जाती है व्याकुल,
हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;
वह उस शाखा का वन-विहग
छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।
२३ 
दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,
कर रहा पार मन नभोदेश,
सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,
छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार
उड़ती तरंग ऊपर अपार
संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।
२४ 
उस मानस उर्ध्व देश में भी
ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की
देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--
भारत का सम्यक देशकाल;
खिंचता जैसे तम-शेष जाल,
खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।
२५ 
बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल
क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;
पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;
हो रहा भस्म अपना जीवन,
चेतना-हीन फिर भी चेतन;
अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।
२६ 
इसने ही जैसे बार-बार
दूसरी शक्ति की की पुकार--
साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;
यह उसी शक्ति से है वलयित
चित देश-काल का सम्यक् जित,
ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!
२७ 
विधि की इच्छा सर्वत्र अटल;
यह देश प्रथम ही था हत-बल;
वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;
तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व
क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;
द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।
२८ 
चलते फिरते पर निस्सहाय,
वे दीन, क्षीण कंकालकाय;
आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जाते ज्यों, दल के दल
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।
२९ 
वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष,
पाते प्रहार अब हताश्वास;
सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के
होना ही उनका धर्म परम,
वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!
३० 
रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम
जो पहला पद, अब मद-विष-सम;
द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,
जो देशकाल को आवृत कर
फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,
देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।
३१ 
इस छाया के भीतर है सब,
है बँधा हुआ सारा कलरव,
भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर।
इसके भीतर रह देश-काल
हो सकेगा न रे मुक्त-भाल,
पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर।
३२
दीनों की भी दुर्बल पुकार
कर सकती नहीं कदापि पार
पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर,
जब तक कांक्षाओं के प्रहार
अपने साधन को बार-बार
होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर।
 ३३ 
सोचा कवि ने, मानस-तरंग,
यह भारत-संस्कृति पर सभंग
फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को;
इस अनिल-वाह के पार प्रखर
किरणों का वह ज्योतिर्मय घर,
रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो।
३४ 
है वही मुक्ति का सत्य रूप,
यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप;
वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे।
चाहिए उसे और भी और,
फिर साधारण को कहाँ ठौर?
जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के।
३५ 
करना होगा यह तिमिर पार-
देखना सत्य का मिहिर-द्वार-
बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय-
लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर,
रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर-
जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय।
३६ 
कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम
चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम
वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को--
करने को ज्ञानोद्धत प्रहार--
तोड़ने को विषम वज्र-द्वार;
उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को।
३७ 
उस क्षण, उस छाया के ऊपर,
नभ-तम की-सी तारिका सुघर;
आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम
प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम
शुभ रत्नावली-सरोज-दाम
वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम।
३८ 
'जाते हो कहाँ?' तुले तिर्यक्
दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक्
प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से;
फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल--
इन्दीवर के-से कोश विमल;
फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से।
३९ 
उस ऊँचे नभ का, गुंजनपर,
मंजुल जीवन का मन-मधुकर,
खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को
बैठा ही था सुख से क्षण-भर,
मुँद गये पलों के दल मृदुतर,
रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो।
४०  
उसके अदृश्य होते ही रे,
उतरा वह मन धीरे-धीरे,
केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय;
यह वही प्रकृति पर रूप अन्य;
जगमग-जगमग सब वेश वन्य;
सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय।
४१ 
यह श्री पावन, गृहिणी उदार;
गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार;
कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती;
सब जीवों पर है एक दृष्टि,
तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि,
प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती।
४२ 
ये जिस कर के रे झंकृत स्वर
गूँजते हुए इतने सुखकर,
खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते;
व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर,
रागिनी की लहर गिरि-वन-सर
तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते।
४३ 
यों धीरे-धीरे उतर-उतर
आया मन निज पहली स्थिति पर;
खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा;
विश्राम के लिए मित्र-प्रवर
बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर;
वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा।
४४  
फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल
गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल
सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे।
फिर कोटितीर्थ देवांगनादि
लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि
नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे।
४५ 
आये हनुमद्धारा द्रुततर,
झरता झरना वीर पर प्रखर,
लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर;
फिर उतरे गिरि, चल किया पार
पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार;
स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर।
४६ 
कामदागिरि का कर परिक्रमण
आये जानकी-कुण्ड सब जन;
फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम,
फिर भरतकूप, रह इस प्रकार,
कुछ दिन सब जन कर वन-विहार
लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम।
४७ 
प्रेयसी के अलक नील, व्योम;
दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम;
निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर;
पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर
देखता भूल दिक् उसी ओर;
कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर।
४८ 
जिस शुचि प्रकाश का सौर-जगत्
रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्,
वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से;
अविनश्वर वही ज्ञान भीतर,
बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर
वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से।
४९ 
देखता, नवल चल दीप युगल
नयनों के, आभा के कोमल;
प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के,
गृह की सीमा के स्वच्छभास--
भीतर के, बाहर के प्रकाश,
जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के।
५० 
पर वही द्वन्द्व के कारण,
बन्ध की श्रृंखला के धारण,
निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय;
वे पलकों के उस पार, अर्थ
हो सका न, वे ऐसे समर्थ;
सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।
५१ 
उस प्रियावरण प्रकाश में बँध,
सोचता, "सहज पड़ते पग सध;
शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर
यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल,
दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल;
बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।"
५२  
"बन्ध के बिना कह, कहाँ प्रगति ?
गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ?
रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति;
यह क्रम विनाश इससे चलकर
आता सत्वर मन निम्न उतर;
छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।"
५३ 
"देखो प्रसून को वह उन्मुख !
रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख,
देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह।
चटका कलि का अवरोध सदल,
वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल,
खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।"
५४ 
"जिस तरह गन्ध से बँधा फूल,
फैलता दूर तक भी समूल;
अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में
मैं बँधा एक शुचि आलिंगन,
आकृति में निराकार, चुम्बन;
युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।"
५५ 
सोचता कौन प्रतिहत चेतन-
वे नहीं प्रिया के नयन, नयन;
वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में;
अपने वश में कर पुरुष देश
है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश;
तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में?
५६ 
वह ऐसी जो अनुकूल युक्ति,
जीव के भाव की नहीं मुक्ति;
वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;
जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,
विश्व के प्राण के भी ऊपर;
माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।
५७ 
मृत्तिका एक कर सार ग्रहण
खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,
त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,
पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,
ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,
बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।
५८ 
वह रत्नावली नाम-शोभन
पति-रति में प्रतन, अतः लोभन
अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,
प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,
प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;
मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-
५९ 
लखती ऊषारुण, मौन, राग,
सोते पति से वह रही जाग;
प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;
प्रिय के जड़ युग कूलों को भर
बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;
नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।
६० 
धीरे-धीर वह हुआ पार
तारा-द्युति से बँध अन्धकार;
एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;
लख रत्नावली खुली सहास;
अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;
बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-
६१ 
"हो गयी रतन, कितनी दुर्बल,
चिन्ता में बहन, गयी तू गल
माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की
हैं विकल देखने को सत्वर
सहेलियाँ सब, ताने देकर
कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकी"
६२ 
"तुझसे पीछे भेजी जाकर
आयीं वे कई बार नैहर;
पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ?
हम कई बार आ-आकर घर
लौटे पाकर झूठे उत्तर;
क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ?
६३ 
"आँसुओं भरी माँ दुख के स्वर
बोलीं, रतन से कहो जाकर,
क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ?
जामाताजी वाली ममता
माँ से तो पाती उत्तमता।"
बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो-
६४ 
"कुछ ही दिन को हूँ कल-द्रुम;
छू लूँ पद फिर कह देना तुम।"
बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को;
फिर किया अनावश्यक प्रलाप,
जिसमें जैसी स्नेह की छाप !
पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को।
६५ 
"हम बिना तुम्हारे आये घर,
गाँव की दृष्टि से गये उतर;
क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला
केवल कहने को है नैहर?-
दे सकता नहीं स्नेह-आदर?-
पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला
६६ 
उस प्रतिमा का, आया तब खुल
मर्यादागर्भित धर्म विपुल,
धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन,
वह घेर-घेर निस्सीम गगन
उमड़े भावों के घन पर घन,
फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन।
६७ 
बोली वह, मृदु-गम्भीर-घोष,
"मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।"
जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता,
अंक में उसी के आज लीन-
निज मर्यादा पर समासीन;
दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता।
६८ 
बोला भाई, तो "चलो अभी,
अन्यथा, न होंगे सफल कभी
हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता।
जब लौटें वह, हम करें पार
राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।"
चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता।
६९ 
लेते सौदा जब खड़े हाट,
तुलसी के मन आया उचाट;
सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको;
जब देखो, तब द्वार पर खड़े
उधार लाये हम, चले बड़े !
दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनको ?
७० 
सामग्री ले लौटे जब घर,
देखा नीलम-सोपानों पर
नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर;
श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत,
अपने सुख से ज्यों सुमन भीत;
गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर।
७१ 
देखा वह नहीं प्रिया जीवन;
नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन;
आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के
अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य,
निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म !
नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते।
७२ 
यह नहीं आज गृह, छाया-उर,
गीति से प्रिया की मुखर, मधुर;
गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण;
व्यंजित नयनों का भाव सघन
भर रंजित जो करता क्षण-क्षण;
कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन।
७३ 
वह आज हो गयी दूर तान,
इसलिए मधुर वह और गान,
सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के;
छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान,
पग उठे उसी मग को अजान,
कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से।
७४ 
मग में पिक-कुहरिल डाल,
हैं हरित विटप सब सुमन - माल,
हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित।
पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात,
हैं चमक रहे सब कनक-गात,
बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित।
७५ 
धूसरित बाल-दल, पुण्य-रेणु,
लख चरण-वारण-चपल धेनु,
आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की;
वह यमुना-तट, वह वृन्दावन,
चपलानन्दित यह सघन गगन;
गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री।
७६ 
सुनते सुख की वंशी के सुर,
पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;
लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;
बैठाला देकर मान-पान;
कुछ जन बतलाये कान-कान;
सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !
७७ 
जल गये व्यंग्य से सकल अंग,
चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,
पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;
पति की इस मति-गति से मरकर,
उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,
रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।
७८ 
बोली मन में होकर अक्षम,
रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !
लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;
खींचता छोर, यह कौन ओर
पैठा उनमें जो अधम चौर ?
खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !
७९ 
कुछ काल रहा यों स्तब्ध भवन,
ज्यों आँधी के उठने का क्षण;
प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को
ले चली साथ भावज हरती
निज प्रियालाप से वश करती,
वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।
८० 
जेंए फिर चल गृह के सब जन,
फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;
प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल
पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग
सुनहला भरे पहला सुहाग,
रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।
८१ 
कवि-रुचि में घिर छलकता रुचिर,
जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-
बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,
लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु
लहराया जो उर मधुर सिन्धु,
विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।
८२ 
अस्तु रे, विवश, मारुत-प्रेरित,
पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित
घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;
उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,
लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च
वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।
८३ 
बिखरी छूटी शफरी-अलकें,
निष्पात नयन-नीरज पलकें,
भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,
निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,
जागी योगिनी अरूप-लग्न,
वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।
८४ 
कुछ समय अनन्तर, स्थित रहकर,
स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर
स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;
अचपल ध्वनि की चमकी चपला,
बल की महिमा बोली अबला,
जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-
८५ 
"धिक धाये तुम यों अनाहूत,
धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,
राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,
वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !
कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"
८६
जागा, जागा संस्कार प्रबल,
रे गया काम तत्क्षण वह जल,
देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;
इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,
हो गया भस्म वह प्रथम भान,
छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।
८७ 
देखा, शारदा नील-वसना
हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,
जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,
वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर
फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,
यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।
८८ 
दृष्टि से भारती से बँधकर
कवि उठता हुआ चला ऊपर;
केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;
धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर
धूसर समुद्र शशि-ताराहर,
सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।
८९ 
चमकी तब तक तारा नवीन,
द्युति-नील-नील, जिसमें विलीन
हो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;
आभा भी क्रमशः हुई मन्द,
निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;
आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।
९० 
थे मुँदे नयन, ज्ञानोन्मीलित,
कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;
अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;
जिस कलिका में कवि रहा बन्द,
वह आज उसी में खुली मन्द,
भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।
९१ 
जब आया फिर देहात्मबोध,
बाहर चलने का हुआ शोध,
रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,
खोलती मृदुल दल बन्द सकल
गुदगुदा विपुल धारा अविचल
बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-
९२ 
बाजीं बहती लहरें कलकल,
जागे भावाकुल शब्दोच्छल,
गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल
सूना उर ऋषियों का ऊना
सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,
आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।
९३ 
जागो, जागो आया प्रभात,
बीती वह, बीती अन्ध रात,
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल
बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,
तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,
आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।
९४ 
होगा फिर से दुर्धर्ष समर
जड़ से चेतन का निशिवासर,
कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर
भारती इधर, हैं उधर सकल
जड़ जीवन के संचित कौशल
जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।
९५ 
हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न
छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न
वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,
रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन
संचित कर करता है वर्षण,
लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।
९६ 
देश-काल के शर से बिंधकर
यह जागा कवि अशेष-छविधर
इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी
निश्चेतन, निज तन मिला विकल,
छलका शत-शत कल्मष के छल
बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।
९७ 
तम के अमार्ज्य रे तार-तार
जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार
जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो
इस कर अपने कारुणिक प्राण
कर लो समक्ष देदिप्यमान-
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।
९८ 
क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना,
कवि ने निज मन भाव में गुना,
साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,
देखा सामने, मूर्ति छल-छल
नयनों में छलक रही, अचपल,
उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।
९९ 
जगमग जीवन का अन्त्य भाष-
जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,
अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का
मेरा उससे गृह के भीतर,
देखूँगा नहीं कभी फिरकर,
लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।
१००
चल मन्द चरण आये बाहर,
उर में परिचित वह मूर्ति सुघर
जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-
संकुचित, खोलती श्वेत पटल
बदली, कमला तिरती सुख-जलष
प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।

समाप्त