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शनिवार, 6 जुलाई 2013

doha salila: madhu gupta

दोहा सलिला:

मधु गुप्ता
*
धन-दौलत का पुल बना,जिस पर धावक तीन                     
चढ़ मर्यादा-मान पर, अहं बजावे बीन  

दुःख का कितना माप है, आँसू कितने ग्राम  
नयन तराजू तौलते, भीतर-बाहर थाम 
                 
पत्थर-ईंटें चीन्हकर,  महल लिये चिनवाय 
पाहुन आवत देखकर, नाहक द्वार ढुकाये ?

ईश-दरश  को हम गए, माथे लिया प्रणाम 
क्षण में अर्पित कर दिया, जीवन प्रभु के नाम  
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Madhu Gupta via yahoogroups.com 

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

संस्मरण: मधु गुप्ता

संस्मरण:
           मधु गुप्ता 
 
प्रिय जनों ,
एक वाकया सुनाने का मन हो रहा है सो सुना रही हूँ ,
मेरे पति जो आर्मी में डाक्टर थे और लगभग  पच्चीस साल पहले उनकी पोस्टिंग जम्मू से आगे पूंछ पाकिस्तान बोर्डर के पास एक छोटा सा गाँव था सूरनकोट वहाँ के अस्पताल को कमांड कर रहे थे. वो फील्ड पोस्टिंग थी और परिवार नहीं जा सकते थे, अलबत्ता गरमी की छुट्टियों में हम दो महीने के लिए चले जाते थे, और पहाड़ी वादियों का भरपूर लुत्फ़ उठाते थे,  अन्य और भी परिवार आ जाते थे अच्छा खासा रिसोर्ट बन जाता था,वहाँ के स्थानीय कश्मीरी लोगों को भी कुछ नौकरी मिल जाती थी. रशीद नाम का एक सफाई कर्मचारी था जो हमारे कमरे आदि साफ़ करता था, बड़ा ही भला मानुस था. वो कई बार कहता था कि 'उसकी घरवाली अफ़सरान साहेब की मेमसाहब लोगों से मिलना चाहती हैं, मैंने कहा: "ले आओ किसी दिन भी "
एक दिन दोपहर में, हम बरामदे के बाहर कुर्सियों पर बैठे धूप खा रहे थे  कि  हमने देखा साफ़ सुथरे कपड़े पहने उसकी पत्नी, दो बेटियाँ व एक बेटा वहाँ आए, और ठिठकते हुए कुछ दूरी पर खड़े हो गए, स्नेहपूर्वक हमने उन्हें अपने पास बुलाया, कुर्सी की और इशारा किया बठने का, परन्तु वो लोग कुर्सी पर नहीं बैठे, बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गए. खाने-पीने के लिए मेस से कुछ ऑर्डर करना चाहा तो उन्होंने इनकार कर दिया, कहा 'रोज़े' चल रहे हैं, बच्चे  भी' रोजा' रखे थे.( रोजा रखने या न रखने से क्या फरक पड़ता है वैसे भी उनके घरों में कुछ खाने को नहीं होता था, हमने उनका जीवन बहुत नजदीक से देखा था) कुछ देर बाद उन्होंने सफ़ेद रूमाल की पोटली हमारे सामने खोली उसमें ताज़े भुने हुए मकई क दाने थे, और हमारे मुँह की ओर ताकते हुए कहा- "आपके वास्ते "
मेरा मुँह कलेजे में आ गया, घुटन महसूस हुई और दम घुटने लगा. अनायास ही महादेवी वर्मा जी की कहानी  "सिस्तर के वास्ते " याद हो आ . थोड़ी देर बाद 'उन्होंने पूछा बच्चे कहाँ है?'
मैंने दूर खेल रहे बच्चों की और इशारा किया कि, वो वहाँ खेल रहें हैं , कुछ बच्चे बैडमिंटन  खेल रहे थे,  कुछ क्रोके और कुछ यूँ ही भाग दौड़ कर कर रहे थे , मैंने अपनी दोनों बेटियों को आवाज़ दी , और उनसे मिलवाया, मिलने के तुरंत बाद उन्होंने फिर पूछा: "बच्चे कहाँ हैं ?" 
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, सोचा अभी तो इन्हें मिलवाया था, मैंने कहा: "ये ही तो हैं हमारे बच्चे "भोली-भोली सी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखकर उन्होंने अपना प्रश्न फिर दोहराया: "बच्चे कहाँ है?"
मैंने पुनः बेटियों की ओर इशारा किया, वो बोलीं: "ये तो लड़कियाँ हैं, साहब का बच्चा नहीं है ?" 
बाद में हमारी पोस्टिंग दिल्ली हों गई थी। रशीद एक दिन अचानक अपने बेटे के साथ वहाँ पहुँच गया, मेरे पति की यूनिट में आया  उसने बताया उसका एकलौता बेटा बीमार रहता है , मिलिटरी अस्पताल में मानवता के नाते उसकी जाँच करवाई, पता चला उसकी दोनों किडनी खराब हो गयी थी मात्र दस बरस का था।  उसके इलाज के लिए पैसा कहाँ से लाता, दिल्ली में कहाँ ठहरता? जो मदद हम कर सकते थे की, फिर उसे वापसी का किराया दे कर भेज दिया, बाद में पता चला वो बच नहीं पाया था। अब बस करतीं हूँ आज भी दिल डूबता है , .---.
Madhu Gupta <madhuvmsd@gmail.com>