कुल पेज दृश्य

प्रति रचना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्रति रचना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 28 जून 2019

रचना-प्रति रचना: अमलतास का पेड़

प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 16 अप्रैल 2017

pratirachna

माननीय राकेश जी को समर्पित
प्रति रचना:
जीवन के ढाई आखर को
संजीव
*
बीती उमर नहीं पढ़ पाये, जीवन के ढाई आखर को
गृह स्वामी की करी उपेक्षा, सेंत रहे जर्जर बाखर को...
*

रूप-रंग, रस-गंध चाहकर, खुदको समझे बहुत सयाना
समझ न पाये माया-ममता, मोहे मन को करे दिवाना
कंकर-पत्थर जोड़ बनायी मस्जिद, जिसे टेर हम हारे-
मन मंदिर में रहा विराजा, मिला न लेकिन हमें ठिकाना
निराकार को लाख दिये आकार न छवि उसकी गढ़ पाये-
नयन मुँदे मुस्काते पाया कण-कण में उस नटनागर को...
*
श्लोक-ऋचाएँ, मंत्र-प्रार्थना, प्रेयर सबद अजान न सुनता
भजन-कीर्तन,गीत-ग़ज़ल रच, मन अनगिनती सपने बुनता
पूजा-अनुष्ठान, मठ-महलों में रहना कब उसको भाया-
मेवे छोड़ पंजीरी फाके, देख पुजारी निज सर धुनता
खाये जूठे बेर, चुराये माखन, रागी किन्तु विरागी
एक बूँद पा तृप्त हुआ पर है अतृप्त पीकर सागर को...
*
अर्थ खोज-संचित कर हमने, बस अनर्थ ही सदा किया है
अमृत की कर चाह गरल का, घूँट पिलाया सतत पिया है
लूट तिजोरी दान टेक का कर खुद को पुण्यात्मा माना-
विस्मित वह पाखंड देखकर मनुज हुआ पाषाण-हिया है
कैकट्स उपजाये आँगन में, अब तुलसी पूजन हो कैसे?
देशनिकाला दिया हमीं ने चौपालों, पनघट गागर को
१६-४-२०१५
*