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बुधवार, 10 जुलाई 2019

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका 
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं 
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
***

बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

muktika

मुक्तिका
आपकी मर्जी
*
आपकी मर्जी नमन लें या न लें
आपकी मर्जी नहीं तो हम चलें
*
आपकी मर्जी हुई रोका हमें
आपकी मर्जी  हँसीं, दीपक जलें
*
आपकी मर्जी न फर्जी जानते
आपकी मर्जी सुबह सूरज ढलें
*
आपकी मर्जी दिया दिल तोड़ फिर 
आपकी मर्जी बनें दर्जी सिलें
*
आपकी मर्जी हँसा दे हँसी को
आपकी मर्जी रुला बोले 'टलें'
*
आपकी मर्जी, बिना मर्जी बुला
आपकी मर्जी दिखा ठेंगा छ्लें
*
आपकी मर्जी पराठे बन गयी
आपकी मर्जी चलो पापड़ तलें
*
आपकी मर्जी बसा लें नैन में
आपकी मर्जी बनें सपना पलें
*
आपकी मर्जी, न मर्जी आपकी
आपकी मर्जी कहें कलियाँ खिलें 
***



बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

मुक्तिका

एक रचना
(१४ मात्रिक , यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
*
आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
.
है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
.
कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
.
हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
.
शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
.
देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
.
मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
.
संजीव, १०.१०.२०१८

सोमवार, 17 सितंबर 2018

muktika

मुक्तिका * बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल . बात कहती है सलीके से सदा- नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल . आँख में सुरमे सरीखी यह सजी दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल . जो सुधरकर खुद पहुँचती लक्ष्य पर सबसे पहले भूल है हिंदी ग़ज़ल . दबाता जब जमाना तो उड़ जमे कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल . है गरम तासीर पर गरमी नहीं मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल . मुक्तिका है नाम इसका आजकल कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल ***
संजीव
१७.९.२०१८

गुरुवार, 1 मार्च 2018

aalekh:

आलेख:
हिंदी को ग़ज़ल को डॉ. रोहिताश्व अस्थाना का अवदान
आचार्य संजीव  वर्मा 'सलिल'
*
'हिंदी ग़ज़ल' अर्थात गंगा-यमुना, देशी भाषा और जमीन, विदेशी लय और धुन। फारसी लयखण्डों और छंदों (बहरों) की जुगलबंदी है हिंदी ग़ज़ल। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल की उत्पत्ति, विकास, प्रकार और प्रभाव पर 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' नामित शोध करनेवाले प्रथम अध्येता हैं। हिंदी ग़ज़लकरों को स्थापित-प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल पंचशती (५ भाग), हिंदी ग़ज़ल के कुशल चितेरे तथा चुनी हुई हिंदी गज़लें संकलनों के माध्यम से महती भूमिका का निर्वहन किया है। विस्मय यह कि शताधिक हस्ताक्षरों को उड़ान के लिए आकाश देनावाला यह वट-वृक्ष खुद को प्रकाश में लाने के प्रति उदासीन रहा। उनका एकमात्र गजल संग्रह 'बाँसुरी विस्मित है' वर्ष १९९९ में मायाश्री पुरस्कार (मथुरा) से पुरस्कृत तथा २०११ में दुबारा प्रकाशित हुआ। हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीति कराकर उसे मान्यता दिलाने वाले शलाका पुरुष के विषय में डॉ. कुंवर बेचैन ने ठीक ही लिखा है: ''रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने गज़ल को विषय बनाकर, उसे सम्मान देकर पहल शोध कार्य किया जिसके दो संस्करण सुनील साहित्य सदन दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने अनेक ग़ज़लकारों को सम्मिलित कर समवेत संकलनों के प्रकाशन की योजना को क्रियान्वित किया, एक ऐसा नाम जिसने गीत भी लिखे और गज़लें भी। .... साफ़-सुथरी बहारों में कही/लिखी इन ग़ज़लों ने भाषा का अपना एक अलग मुहावरा पकड़ा है। प्रतीक और बिम्बों की झलक में कवि का मंतव्य देखा जा है। उनकी ग़ज़लों में उनके अनुभवों का पक्कापन दिखाई देता है।''

डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' के अनुसार ''हिंदी में ग़ज़ल लिखनेवालों में गिने-चुने रचनाकार ही ग़ज़ल के छंद-विधान की साधना करने के बाद ग़ज़ल लिखने का प्रयास करते हैं जिनमें मैं डॉ. रोहिताश्व को अग्रणी ग़ज़लकारों में रखता हूँ।'' स्पष्ट है कि  हिंदी ग़ज़ल को छंद-विधान के अनुसार लिखे जाने की दिशा में रोहिताश्व जी का काम ध्वजवाहक का रहा है । उनके कार्य के महत्व को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए उस समय की परिस्थितियों का आकलन करना होगा जब वे हिंदी ग़ज़ल को पहचान दिलाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। तब उर्दू ग़ज़ल का बोल बाला था, आज की तरह न तो अंतर्जाल था, न चलभाष आदि। अपनी अल्प आय, जटिल पारिवारिक परिस्थितियों और आजीविकीय दायित्वों के चक्रव्यूह में घिरा यह अभिमन्यु हिंदी ग़ज़ल के पौधे की जड़ों में प्राण-प्रण  से जल सिंचन कर रहा था जबकि आज हिंदी गज़ल के नाम उर्दू की चाशनी मिलाने वाले हस्ताक्षर जड़ों में मठा  डालने की कोशिश कर रहे थे। उस जटिल समय में अस्थाना जी ने अपराजेय जीवत का परिचय देते हुए साधनों के अभाव में और बाल साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद भी हिंदी ग़ज़ल पर शोध करने का संकल्प किया और पूर्ण समर्पण के साथ उसे पूरा भी किया।

यही नहीं 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' शीर्षक शोध कार्य के समांतर अस्थाना जी ने 'हिंदी ग़ज़ल पंचदशी' के ५ संकलन सम्पादित-प्रकाशित कर ७५ हिंदी ग़ज़लकारों को प्रतिष्ठित करने में महती भूमिका निभाई। उनके द्वारा जिन कलमों को प्रोत्साहित किया गया उनमें लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', डॉ. योगेंद्र बख्शी, डॉ. रविन्द्र उपाध्याय, डॉ. राकेश सक्सेना, दिनेश शुक्ल, सागर मीरजापुरी, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, रवीन्द्र प्रभात, अशोक गीते, आचार्य भगवत दुबे, पूर्णेंदु कुमार सिंह, राजा चौरसिया, डॉ, राजकुमारी शर्मा 'राज', डॉ. सूर्यप्रकाश अस्थाना सूरज भी सम्मिलित हैं। संकलन प्रशन के २० वर्षों बाद भी अधिकाँश गज़लकार ण केवल सकृत हैं उनहोंने हिंदी ग़ज़ल को उस मुकान पर पहुँचाया जहाँ वह आज है। अस्थाना जी के इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, पद्म श्री नीरज, पद्म श्री चिरंजीत, कमलेश्वर कुंवर बेचैन, कुंवर उर्मिलेश,  चंद्रसेन विराट, डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी, ज़हीर कुरैशी, डॉ. महेंद्र कुमार अग्रवाल आदि ने की।

महाप्राण निराला के समीपस्थ रहे हिंदी साहित्य के पुरोधा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने डॉ. अस्थाना के अवदान का मूल्यांकन करते हुए लिखा- "डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़लों में नए प्राण फून्कनेवाले हैं, स्वयं रचकर और सुयोग्यों को प्रकाश में लाकर। उनका प्रसाद मुझे मिल चुका है।" पद्मश्री नीरज ने डॉ. अष्ठाना को आशीषित करते हुए लिखा- "आपने ग़ज़ल के विकास और प्रसार में इतना काम किया है कि अब आप ग़ज़ल के पर्याय बन गए हैं। हिंदी ग़ज़ल के सही रूप की पहचान करवाने और उसे जन-जन तक पहुंचाने में आपकी भूमिका ऐतहासिक महत्त्व की है और इसके लिए हिंदी साहित्य आपका सदैव ही ऋणी रहेगा।" पद्म श्री चिरंजीत ने भी डॉ. अस्थाना के काम के महत्त्व को पहचाना- "ग़ज़ल विधा को लेकर आपने बड़े लगाव और रचनात्मक परिश्रम से 'हिंदी गजल पंचदशी' जैसा सारस्वत संयोजन संपन्न किया है। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए आपको और पंचदशी के संकलनों को हमेशा याद किया जाएगा। ग़ज़ल  समन्वित संस्कृति की पैरोकार भी है और प्रमाण भी।"

समर्थ रचनाकार और समीक्षक डॉ. उर्मिलेश ने डॉ. अस्थाना को हिंदी ग़ज़ल को "पारिवेशिक यथार्थ और जीवन के सरोकारों से सम्बद्ध कर अपनी अनुभूतियों की बिम्बात्मक और पारदर्शी अभिव्यक्ति" करने का श्रेय देते हुए "हिंदी ग़ज़ल में हिंदी भाषा और साहित्य के संस्कारों को अतिरिक्त सुरक्षा देकर ग़ज़ल की जय यात्रा को  संभव बनाने के लिए उनकी प्रशस्ति की।

सारिका संपादक प्रसिद्ध उपन्यासकार कमलेश्वर ने अस्थाना जी के एकात्मिक लगाव और रचनात्मक परिश्रम का अभिनन्दन करते हुए हिन्दी ग़ज़ल के माध्यम से समन्वित संस्कृति की पैरोकारी करने के लिए उनके कार्य को चिरस्मरणीय बताया है।   ख्यात गीत-ग़ज़ल-मुक्तककार चन्द्रसेन विराट ने इन हिंदी ग़ज़लों में समय की हर धड़कन को सुनकर उसे सही परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने की छटपटाहट पाने के साथ भाषिक छन्दों, रूपाकारों से परहेज न कर अपनी विशिष्ट हिंदी काव्य परंपरा से उद्भूत आधुनिक मानव जीवन की सभी संभाव्य एवं यथार्थ संवेदनाओं को समेटती हुई अपनी मूल हिंदी प्रकृति, स्वभाव, लाक्षणिकता, स्वाद एवं सांस्कृतिक पीठिका का रक्षण करने की प्रवृत्ति देखी है।

हिंदी ग़ज़ल के शिखर हस्ताक्षर कुंवर बेचैन के अनुसार अस्थाना जी की गज़लें एक ओर तथाकथित राजनीतिज्ञों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर धर्मान्धता के विकराल नाखूनों की खरोंचों से उत्पीडित मानव की चीख को स्वर देती दिखाई देती हैं। वे एक ओर सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं क्रूर रूढ़ियों से भी हाथापाई करती हैं तो दूसरी ओर आर्थिक परिवेश में होनेवाली विकृतियों और अन्यायों का पर्दाफाश करती हैं। कथ्य की दृष्टि से इन ग़ज़लों में ऐसी आँच है जो अन्याय सहन करनेवाले इनसान के ठन्डेपन को गर्म कर उसे प्रोत्साहित करती है।  उर्दू ग़ज़ल के ख्यात हस्ताक्षर ज़हीर कुरैशी यह मानते हैं कि डॉ. अस्थाना की कोशिशों से लगातार आगे बढ़ रहा हिंदी ग़ज़ल का कारवां मंजिल पर जाकर ही दम लेगा। डॉ. तारादत्त निर्विरोध ने हिंदी ग़ज़लों में अपने समय की अभिव्यक्ति अर्थात समसामयिकता पाई है। डॉ. राम प्रसाद मिश्र ने हिंदी ग़ज़ल के प्रबल पक्षधर और उसकी अस्मिता के प्रतिपादक के रूप में डॉ. अस्थाना का मूल्यांकन किया है। वे हिंदी ग़ज़ल को धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद के साथ खड़ा पाते हैं।

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के सकल कार्य का अध्ययन करने के बाद उनकी हिंदी ग़ज़लों में कथ्य की छंदानुशासित अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य पाया है। समय साक्षी ग़ज़लों में हिंदी भाषा के व्याकरण और पिंगल के प्रति डॉ. अस्थाना की सजगता को उल्लेखनीय बताते हुए सलिल जी ने हिंदी के वैश्विक विस्तार के परिप्रेक्ष्य में भाषिक संकीर्णता और पारंपरिक शैथिल्यता से मुक्ति को विशेष रूप से इंगित किया है।
****
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, www.divyanarmada.in, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४ 

शनिवार, 6 जनवरी 2018

muktika

मुक्तिका:
संजीव
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
सूनी रहती सदा रसोई 
गर पालक का साग न होता 
चंदा कहलातीं कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
गुणा कोशिशों का कर पाते 
अगर भाग में भाग न होता  
नागिन क्वारीं मर जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
***
६.१.१५ 

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

tewari

तेवरी के तेवर :  
१.
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव.
सस्ता हुआ नमक का भाव..

मँझधारों-भँवरों को पार
किया, किनारे डूबी नाव..

सौ चूहे खाने के बाद
हुआ अहिंसा का है चाव..

ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव..

ठण्ड भगाई नेता ने.
जला झोपडी, बना अलाव..

डाकू तस्कर चोर खड़े.
मतदाता क्या करे चुनाव..

नेता रावण जन सीता
कैसे होगा 'सलिल' निभाव?.
***********
२.
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..

मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..

बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..

पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..

बने तीन के तेरह कब?
डुबा  दिया अपना धन मूल..

मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..

धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
****************    
३.
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..

पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम्..

जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..

सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..

जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?

टन-टन रुचे न मन्दिर की.
'सलिल' सुहाती साकी-रम
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ 

www.divyanarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर

सोमवार, 17 जुलाई 2017

muktika

मुक्तिका:
अम्मी
संजीव 'सलिल'
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
*
बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
*
भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
*
कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
*
अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
*
तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
*
तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२  
salil.sanjiv@gmail.com   
#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी_ब्लॉगर 

सोमवार, 3 जुलाई 2017

muktika

मुक्तिका-
*
सवाल तुमने किये सौ बिना रुके यारां
हमने चाहा मगर फिर भी जवाब हो न सके
*
हमें काँटों के बीच बागबां ने ठौर दिया
खिले हम भी मगर गुल-ए-गुलाब हो न सके
*
नसीब बख्श दे फुटपाथ की शहंशाही
किसी के दिल के कभी हम नवाब हो न सके
*
उठाये जाम जमाना मिला, है साकी भी
बहा पसीना 'सलिल' ही शराब हो न सके
*
जमीन पे पैर तो जमाये, कोशिशें भी करीं
मगर अफ़सोस 'सलिल' आफताब हो न सके
*
३-७-२०१६
#हिंदी_ब्लॉगिंग

मंगलवार, 23 मई 2017

muktika


मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल 
.
किस सा किस्सा?, कहे कहानी
गल्प- गप्प हँस कर मनमानी 
.
कथ्य कथा है जी भर बाँचो
सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी
.
बोध करा दे सत्य-असत का
बोध-कथा जो कहती नानी
.
देते पर उपदेश, न करते
आप आचरण पंडित-ज्ञानी
.
लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें
कभी पहेली, पर ज़िद ठानी
***

[ सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय, अरिल्ल छन्द]

मुक्तिका 
*
धीरे-धीरे समय सूत को, कात रहा है बुनकर दिनकर 
साँझ सुंदरी राह हेरती कब लाएगा धोती बुनकर 
.
मैया रजनी की कैयां में, चंदा खेले हुमस-किलकक
​​

तारे साथी धमाचौकड़ी मच रहे हैं हुलस-पुलककर
.
बहिन चाँदनी सुने कहानी, धरती दादी कहे लीन हो
पता नहीं कब भोर हो गयी?, टेरे मौसी उषा लपककर
.
बहकी-महकी मंद पवन सँग, क्लो मोगरे की श्वेतभित
गौरैया की चहचह सुनकर, गुटरूँगूँ कर रहा कबूतर
.
सदा सुहागन रहो असीसे, बरगद बब्बा करतल ध्वनि कर
छोड़
​ ​
न कल पर काम आज का, वरो सफलता जग उठ बढ़ कर
​​
**

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

एक रचना 
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की 
चप्पलबाज। 
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी 
है असभ्य मत कहो आदमी 
चुल्लू भर पानी में डूबे 
मुँह काला कर 
चप्पलबाज
धत्तेरे की 
चप्पलबाज। 
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी 
पगलाया है भ्रष्ट आदमी 
अपना ही थूका चाटे फिर 
झूठ उचारे 
चप्पलबाज 
धत्तेरे की 
चप्पलबाज। 
*
गलती करता अगर आदमी 
क्षमा माँगता तुरत आदमी 
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे 
क्या हो बोलो 
चप्पलबाज?
धत्तेरे की 
चप्पलबाज। 
*
नवगीत:
 समाचार है...
 संजीव 'सलिल'
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके' 
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
*
नवगीत:
संजीव
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.

दोहे:
*
बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त.
खर्राटे ऊँचे भरो, सब जग को कर त्रस्त..
*
दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ.
गर पीछे पड़ जायेगा, मुश्किल होगा साथ..
*
टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार.
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार..
*
करो गलत बोलो सही, बनकर चप्पलबाज.
क्षमा न माँगो भूलकर, यही कोढ़ में खाज
*
तुमने मौसम को किया, मनमानी कर तंग
रंग बदल मौसम करे, 'सलिल' रंग में भंग
*
देव! यही है प्रार्थना, देना इतना होश 
कर्म 'सलिल' ऐसे करे, दे न सके मन दोष 
*
दोहा सलिला
संजीव सलिल

ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत0
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त

तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द

तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
0
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
0
नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
000
मुक्तिका%
अम्मी
संजीव सलिल
0
माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
0000
मुक्तिका:
संजीव
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए
मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
 लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए
जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए
बस हाड-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए
तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए
***
मुक्तिका:
संजीव
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए
रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए
है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये
संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए
जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए
दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए
कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***

मंगलवार, 7 मार्च 2017

muktika

मुक्तिका
पदभार २६ मात्रा
छंद- महाभागवत जातीय
पदांत- रगण, यति १७-९
*
स्वार्थ को परमार्थ या सर्वार्थ कहना आ गया     २६
निज हितों पर देश हित कुर्बान करना भा गया
.
मतलबी हैं हम, न कहना मतलबी हर शख्स है
जब जिसे अवसर मिला वह बिन डकारे खा गया
.
सियासत से सिया-सत की व्यर्थ क्यों उम्मीद है?
हर बशर खुदगर्ज़ है, जो वोट लेने आ गया
.
ऋण उठाकर घी पियें या कर्ज़ की हम मय पियें*
अदा करना ही नहीं है, माल्या सिखला गया
.
जानवर मारें, कुचल दें आदमी तो क्या हुआ?
गवाहों को मिटाकर बचना 'सलिल जी' भा गया
***
* ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत- चर्वाक पन्थ
    कर्ज़ की पीते थे मय - ग़ालिब


बुधवार, 11 जनवरी 2017

muktika

मुक्तिका
*
ज़िंदगी है बंदगी, मनुहार है.
बंदगी ही ज़िंदगी है, प्यार है.

सुबह-संझा देख अरुणिम आसमां
गीत गाए, प्रीत की झंकार है.

अचानक आँखें, उठीं, मिल, झुक गईं
अनकहे ही कह गयीं 'स्वीकार है'.
.
सांस सांसों में घुलीं, हमदम हुईं
महकता मन हुआ हरसिंगार है.
मौन तजकर मौन बरबस बोलता
नासमझ! इनकार ही इकरार है.
***

सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

gazal

​हिंदी ग़ज़ल -
बहर --- २२-२२ २२-२२ २२२१ १२२२
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो'
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता, गाँठें निज मन की खोलो
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो
***

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

hindigazal / muktika

​हिंदी ग़ज़ल - 

बहर --- २२-२२  २२-२२  २२२१  १२२२ 
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो' 
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है 
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो 
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो 
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता,  गाँठें निज मन की खोलो 
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको 
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो 
***

शनिवार, 9 जुलाई 2016

hindi gazal

हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
***

शनिवार, 11 जून 2016

muktika

मुक्तिका-
धत्तेरे की
*
आँख खुले भी ठोकर खाई धत्तेरे की
नेता से उम्मीद लगाई धत्तेरे की
.
पूज रहा गोबर गणेश पोंगा पण्डज्जी
अंधे ने आँखें दिखलाई धत्तेरे की
.
चौबे चाहे छब्बे होना, दुबे रह गए
अपनी टेंट आप कटवाई धत्तेरे की
.
अपन लुगाई आप देख के आँख फेर लें
छिप-छिप ताकें नार पराई धत्तेरे की
.
एक कमा दो खरचें, ले-लेकर उधार वे
अपनी शामत आप बुलाई धत्तेरे की
*** 
[अवतारी जातीय सारस छंद]
१-५-२०१६, हरदोई

शुक्रवार, 10 जून 2016

muktika

 मुक्तिका
*
बाहर ताली, घर में गाली क्या नसीब है?
हर अपना हो गया सवाली क्या नसीब है??
.
काया की दुश्मन छाया, कैसी माया है?
अपनों से ही धोखा पाया क्या नसीब है??
.
अधिक गरीबों से गरीब हैं धनकुबेर ये
नींद चैन की कभी न पाते क्या नसीब है?
.
जैसा राजा प्रजा हुई है क्यों वैसी ही?
संसद बैठे चोर-मवाली क्या नसीब है?
.
छप्पन भोग लगाए जाते चखे न फिर भी
टुकुर-टुकुर ताका करता प्रभु क्या नसीब है?
.
हाड तोड़ मेहनत को रोटी-नोंन मिल रहा
चटखारे ले चटनी चाटे क्या नसीब है?
.
'ख़ास' न चाहे 'सलिल' बन सके 'आम' आदमी
'आम' न रहता, बने ख़ास गर, क्या नसीब है?
*****
[अवतारी जातीय, सारस छंद]
१०-६-२०१६    

गुरुवार, 9 जून 2016

muktika

हिंदी ग़ज़ल 
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल। 
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे 
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो 
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले 
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा 
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो 
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा 
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
[महाभागवत जातीय छन्द]
२-५-२०१६ 
सी २५६ आवास-विकास, हरदोई 

सोमवार, 6 जून 2016

muktika

मुक्तिका
*
आँख जब भी बोलती है
राज दिल के खोलती है
.
मन बनाता है बहाना
जुबां गुपचुप तोलती है
*
ख्वाब करवट ले रहे हैं
संग कोशिश डोलती है
*
कामना जनभावना हो
श्वास में रस घोलती है
*
वृत्ति आदिम सगा-साथी
झुका आँख टटोलती है
*
याचनामय दृष्टि, दाता
पेंडुलम संग डोलती है
***
{ मानव जातीय सखी छंद}