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शनिवार, 26 जून 2021

रचना - प्रति रचना राकेश खण्डेलवाल

रचना - प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 'सलिल'
*
रचना-
जिन कर्जों को चुका न पायें उनके रोज तकाजे आते
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी
हमने चाहा था मेघों के
उच्छवासों से जी बहलाना
इन्द्रधनुष बाँहों में भरकर
तुम तक सजल छन्द पहुँचाना
वनफूलोळ की छवियों वाली
मोहक खुश्बू को संवार कर
होठों पर शबनम की सरगम
आंखों में गंधों की छाया
किन्तु तूलिका नहीं दे सकी हमें कोई भी स्वप्न सिन्दूरी
रही मांहती रह रह सांसें अपने जीने की मजदूरी
सीपी रिक्त रही आंसू की
बून्दें तिरती रहीं अभागन
खिया रहा कठिन प्रश्नों में
कुंठित होकर मन का सर्पण
कुछ अस्तित्व नकारे जिनका
बोध आज डँसता है हमको
गज़लों में गहरा हो जाता
अनायास स्वर किसी विरह का
जितनी चाही थी समीपता उतनी और बढ़ी है दूरी
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी
नहीं सफ़ल जो हुये उन्हीं की
सूची में लिखलो हम को भी
पर की कब स्वीकार पराजय ?
क्या कुछ हो जाता मन को भी
बुझे बुझे संकल्प सँजोये
कटी फ़टी निष्ठायें लेकर
जितना बढ़े, उगे उतने की
संशय के बदरंग कुहासे
किसी प्रतीक्षा को दुलराते, भोग रहे ज़िन्दगी अधूरी
और मांगती रहती सांसें अपने जीने की मजदूरी.
***
प्रतिरचना-
हम कर्ज़ों को लेकर जीते, खाते-पीते क़र्ज़ जरूरी
रँग लाएगी फाकामस्ती, सोच रहे हैं हम मगरूरी
जिन कर्जों को चुका न पायें, उनके रोज तकाजे आते
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
मेघदूत से जी बहलाता,
अलकापुरी न यक्ष जा सका
इंद्रधनुष के रंग उड़ गए,
वन-गिरि बिन कब मेघ आ सका?
ऐ सी में उच्छ्वासों से जी,
बहलाते हम खुद को छलते
सजल छन्द को सुननेवाले,
मानव-मानस खोज न मिलते
मदिर साथ की मोहक खुशबू, सपनों की सरगम सन्तूरी
आँखों में गंधों की छाया, बिसरे श्रृद्धा-भाव-सबूरी
अर्पण आत्म-समर्पण बन जब, तर्पण का व्यापार बन गया
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
घड़ियाली आँसू गंगा बन,
नेह-नर्मदा मलिन कर रहे
साबरमती किनारेवाले,
काशी-सत्तापीठ वर रहे
क्षिप्रा-कुंभ नहाने जाते,
नीर नर्मदा का ही पाते
ग़ज़ल लिख रहे हैं मनमानी
व्यर्थ 'गीतिका' उसे बताते
तोड़-मरोड़ें छन्द-भंग कर, भले न दे पिंगल मंजूरी
आभासी दुनिया के रिश्ते, जिए पिए हों ज्यों अंगूरी
तजे वर्ण-मात्रा पिंगल जब, अनबूझी कविताएँ रचकर
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
मानपत्र खुद ही लिख लाये
माला श्रीफल शाल ख़रीदे
मंच-भोज की करी व्यवस्था
लोग पढ़ रहे ढेर कसीदे
कालिदास कहते जो उनको
अकल-अजीर्ण हुआ है गर तो
फर्क न कुछ, हम सेल्फी लेते
फाड़-फाड़कर अपने दीदे
वस्त्र पहन लेते लाखों का, कहते सच्ची यही फकीरी
पंजा-झाड़ू छोड़ स्वच्छ्ता, चुनते तिनके सिर्फ शरीरी
जनसेवक-जनप्रतिनिधि जनगण, को बंधुआ मजदूर बनाये
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
*****

रविवार, 28 जून 2020

रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'

रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*

२८-६-२०१७ 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'






रचना - प्रति रचना  :
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*



वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 


कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास की.




वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 

कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास



वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 

कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास की.

     

अमलतास = आरग्वध, मुकुल, राजतरु, राजवृक्ष, रेवत, रोचन, व्याघिघ्न, शंपाक, सियारलाठी, सुपर्णक, सुपुष्पक, स्वर्णपुष्पी, स्वर्णभूषण, हेमपुष्प, केसिया फिस्टुला, लेबरनम.  



*****************************************

 
गुलमोहर = अशरफी, गुल अशरफी, डेलोनिक्स रेग़िया.

 
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in


शनिवार, 30 जून 2012

रचना - प्रति रचना: विजय कुमार सप्पत्ती - संजीव 'सलिल'

रचना - प्रति रचना:

विजय कुमार सप्पत्ती - संजीव 'सलिल'

*

परायों के घर

कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई;
सपनो की आंखो से देखा तो,
तुम थी .....!!!

मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी,
उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था,
मैंने तुम्हारे लिये ;
एक उम्र भर के लिये ...!

आज कही खो गई थी,
वक्त के धूल भरे रास्तों में ;
शायद उन्ही रास्तों में ;
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो .......!!

लेकिन ;
क्या किसी ने तुम्हे बताया नहीं ;
कि,
परायों के घर भीगी आंखों से नहीं जाते........!!!
 Vijay  Kumar Sappatti <vksappatti@gmail.com>   

*
*
*
तुमने ठीक कहा
'परायों के घर
भीगी आँखों से नहीं जाते'.
तभी तो मैं साधिकार
यहाँ चली आयी.
ये बात और है कि
यहाँ आकर जान सकी
कि तुम ज़िंदगी का
सबसे बड़ा सच भूल गये
सुनोपरायों को लेकर
कही गयी नज्में
दिल से लगाकर
नहीं रखी जातीं।
लौटा दो मुझे
तमाम नज्मे,
जो मेरे-तुम्हारी
यादों से बावस्ता हैं।
और अब दिल से नहीं 
दिमाग से लिखो,
आईने में अपने आप को
खुद से ही अपरिचित दिखो.

*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in


***