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सोमवार, 25 मार्च 2024

होली, खुसरो, मीरा, नजीर, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, नज़रुल, बच्चन, शकील , 'रेणु,

महाकवियों की होली कविताएँ
*
अमीर खुसरो (१२५३-१३२५)
*
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।

जिसके कपरे रंग दिए सो धन-धन वाके भाग
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे।

जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे।
***

मीराबाई (१४९८-१५४७)
सील सन्तोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥
***

नजीर अकबराबादी (१७३५-१८३०)
*
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो
बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो
मय-नोशी हो बेहोशी हो ''भड़वे'' की मुँह में गाली हो
भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो
माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की
*
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।

गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
***

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (९ सितंबर १८५०-६ जनवरी १८८५)
*
गले मुझको लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में।

नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में।

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में।

है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुमी कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ मिरे दिलदार होली में।

रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आंख दिखाकर करो सरशार होली में।
*
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।
***

जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९-१५ नवंबर १९३७)

बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।

चांदनी धुली हुई है आज बिछलते है तितली के पंख
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख्य।

तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा है सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियां जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हां, होली की रात॥

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (२१ फ़रवरी १८९९-१५अक्तूबर १९६१)
*
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति-संग रति सनेह-रंग घोली,
दीपित दीप-प्रकाश, कंज-छवि मंजु-मंजु हँस खोली—
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस, अधर-दशन, अनबोली—
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल; श्रम-सुख की हद हो ली—
बनी रति की छबि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल; मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली—
रही यह एक ठठोली।
***

काज़ी नज़रुल इस्लाम (२४ मई १८९९-२९ अगस्त १९७६)
*
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
***

डॉ. हरिवंश राय बच्चन (२७ नवंबर १९०७-१८ जनवरी२००३)
*
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
*
यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं, ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का, वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाँहों में भर लो!
***

शकील बदायूँनी (३ अगस्त १९१६-२० अप्रैल १९७०)

होली आई रे कन्हाई
रंग छलके
सुना दे ज़रा बांसरी
बरसे गुलाल, रंग मोरे अंगनवा

अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा।

हो देखो नाचे मोरा मनवा
तोरे कारन घर से, आई हूं निकल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आयी रे!

होली घर आई, तू भी आजा मुरारी
मन ही मन राधा रोये, बिरहा की मारी
हो नहीं मारो पिचकारी
काहे! छोड़ी रे कलाई संग चल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आई रे!

***


फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल१९७७)
*
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!

आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!

वन-वन गुन-गुन बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई

कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
***

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

भारतेन्दु की रेल यात्रा

भारतेन्दु की रेल यात्रा

नगर में जन्म लेने के बावजूद मैट्रिकुलेशन तक मुझे कभी लंबी रेलयात्रा का शुभावसर प्राप्त न हो सका। इस बार जब मैंने कॉलेज में नाम लिखाया और काशी की बेहद प्रशंसा सुनी, तब मेरा मन वहाँ जाने के लिए मचल उठा। काशी के बारे में मैं भी जानता था कि यह भूतभावन परमकल्याणकारी त्रिशूलधारी विश्वनाथ महादेव की नगरी है, काशी चंद्रमौलि की कीर्तिकौमुदी से अहरह प्रकाशित होती रहती है। इसे ही वाराणसी कहते हैं-वरुण और असी नदियों के, गंगा के मिलन-बिंदु पर बसी वाराणसी ‘यस्य क्वचित् गतिर्नास्ति तस्य वाराणस्यां गतिः’ का उद्घोष करती है। सचमुच काशी-वाराणसी के माहात्म्य का ऐसा उदात्त वर्णन पुराणकार, श्रीहर्ष, तुलसीदास तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया है कि इस पूजावकाश में वहाँ की यात्रा मेरे लिए अनिवार्य बन गई।

आश्विन का समशीतोष्ण महीना। कंधे पर झोला लटकाए मैं पटना जंक्शन के द्वितीय श्रेणी टिकटघर की ओर गया, क्योंकि यही अब तृतीय श्रेणी के बराबर है। राष्ट्रपिता बापू ने लिखा है कि वे रेलवे के तीसरे दर्जे में इसलिए सफर करते रहे कि उसमें चौथा दर्जा होता ही नहीं। यदि चौथा दर्जा होता, तो वे उसमें ही यात्रा करते। यह उनका जीवनसिद्धांत था, उनका सादा रहन-सहन था, किंतु मेरी विवशता थी, पॉकेट की तंगी थी। इसलिए मुझे इधर आना पड़ा था, नहीं तो मैं प्रथम श्रेणी में ही यात्रा करता। टिकट-खिड़की के सामने एक लंबी लाइन (क्यू) लगी थी। गाड़ी आने का समय निकट आता जा रहा था, लोगों के धीरज का बाँध टूटता जा रहा था। कुछ लोग रेलपेल कर आगे बढ़ जाना चाहते थे। मैं भी किसी तरह बीच में घुसा, शरीर की अनचाही मालिश करवाई, कमीज नुचवाई और किसी तरह टिकट लेकर पुल पर दौड़ता हुआ उस प्लेटफार्म पर आया, जहाँ दिन के बारह बजकर पंद्रह मिनट पर काशी जानेवाली अपर इंडिया एक्सप्रेस आनेवाली थी।

सवा बारह क्या, सवा एक हो गया। गाड़ी नहीं आई। यात्री उत्सुक नेत्रों से अपनी प्रेयसी के आगमन की भाँति गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी, जैसे किसी संपन्न व्यक्ति की बारात ठहरी हो। खोमचे और अखबारवाले रंग-बिरंगी आवाज में चिल्ला रहे थे। इसी बीच गाड़ी की घरघराहट सुनाई पड़ी। आकृतियाँ सूर्यमुखी-सी खिल उठीं, प्लेटफार्म के सागर में तूफान उठ आया।

गाड़ी स्टेशन पर लगी क्या, चढ़ने-उतरनेवालों का मल्लयुद्ध शुरू हो गया। डिब्बे ठसाठस भरे थे। किसी तरह मैंने एक पावदान पर शरण पाई। गार्ड ने हरी झंडी दिखाई, सीटी मारी और गाड़ी प्लेटफार्म को उदास बनाती बढ़ चली। गाड़ी छकछक करती बढ़ी। सचिवालय का गुलाबी टावर दिखाई पड़ा, जिसके आगे देश पर कुर्बान होनेवाले वीरों का शहीद-स्मारक है। इसी सचिवालय में अधिकारियों की संचिकाओं में बिहार का भाग्य भटकता रहता है तथा विधानसभाओं के मखमली गद्दों पर जनता के प्रतिनिधि दंगल कर मंगल बनाते हैं। गाड़ी भागी जा रही है-फुलवारीशरीफ, दानापुर, नेउरा, सदीसोपुर, बिहटा, कोइलवर ! कोइलवर के पुल ने विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट किया। यह शोणनद पर बना पुल है। ब्रह्मलोक से जब देवी सरस्वती पृथ्वीतल पर उतरी थीं, तब उनका मन शोणतट का सौंदर्य देखकर इतना अभिभूत हो गया था कि उन्होंने यहीं विश्राम करने का निश्चय लिया। इस शोण के समक्ष उन्हें देवनदी मोक्षसरणि मंदाकिनी भी फीकी लगी थी। शोणनद वरुणदेव के हार के समान है,

चंद्रपर्वत से झरते हुए अमृतनिर्झर के समान है, विंध्यपर्वत से बहते हए चंद्रकांतमणि के प्रवाह के सदृश है, दंडकारण्य के कर्पूवृक्ष से बहते कर्पूरी प्रवाह के समान है, दिशाओं के लावण्य-रस के सोते के समान है, आकाशलक्ष्मी के शयन के लिए स्फटिक के शिलापट्ट के समान है। मैं बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ की स्मृति के चित्रों को सँजो ही रहा था कि गाड़ी आरा स्टेशन पर आ लगी। पता नहीं, आरा नाम यहाँ के लोगों की बोली के रुखड़ेपन के कारण पड़ा या आक्रामकों के शिरःछेद के कारण-समझ नहीं पाता। सुना, यहीं स्वातंत्र्य-संग्राम के अमर सेनानी बाबू कुँवर सिंह ने साम्राज्यवाद का कालपाश फैलानेवाले अंगरेजों को कैद कर रखा था और उनके छक्के छुड़ाए थे।

गाड़ी बेहताशा भागी जा रही थी। डिब्बे का शोरगुल थोड़ा कम हुआ। इस डिव का दखकर ही ऐसा मालूम पड़ता था कि भारत सचमच धर्मनिरपेक्ष राज्य हैं। हिंद, मुसलमान, सिक्ख-एक साथ बैठे चीनियाबादाम खाते, रामायण, कुरान-शरीफ और गुरुग्रंथसाहब पर प्रेमपूर्ण बातें करते जा रहे थे। बाहर जब नजर गई, तब लगा कि ट्रेन कई छोटे-छोटे स्टेशनों को बेरहमी से छोड़ती चली जा रही है। प्लेटफार्म पर मुसाफिर ऐसे दीनभाव से खड़े थे, जैसे उनके समक्ष अवसर का स्वर्णरथ आया और बिना कुछ लुटाए भाग गया। फिर रघुनाथपुर आया और गोस्वामी तुलसीदास की स्मृति ताजी हो उठी। कहा जाता है कि गोस्वामीजी की चरणधूलि इस स्थान को पवित्र कर गई थी। उसके बाद डुमराँव। लोगों ने बताया कि यहाँ एक बार पंजाबमेल की लोमहर्षक दुर्घटना हुई थी। न मालूम कितने व्यक्ति मौत के अंधे कुएँ में गिरे थे। कल्पना से जी सिहर उठता है और मुझे बाबा विश्वनाथ की याद हो आती है।

तब बक्सर आया। जी! सिद्धाश्रम। यहीं महर्षि विश्वामित्र ने महायज्ञ किया था और श्रीराम ने उनके यज्ञ की रक्षा करते हुए ताड़का-सुबाहु का वध किया था तथा मारीच को बाण की नोंक पर सैकड़ों मील दूर फेंक दिया था। उन्होंने यहीं गुरु को प्रसन्न कर बला और अतिबला नाम की दुर्लभ विद्याएँ पाई थीं। यहीं 22 अक्टूबर. 1764 के दिन शाहआलम, मीरकासिम और शुजाउदौला की सम्मिलित सेना अँगरेजों से पराजित हुई थी। यहीं भारत के भाग्य पर पूरी कालिमा छा गई और भारतमाता अँगरेजों के बंदीगह में पूरी तरह बंदिनी हो गई थीं। यही याद कर मेरे मन पर गहरा अवसाद छा गया। इतिहास के खंडहर में रेंगती हमारी दुर्गति की कहानियाँ बार-बार मेरे मन को कुरेदने लगीं।

और, अब जैसा स्टेशन आया है। यहीं 26 जून, 1539 में हुमायूँ शेरशाह से पराजित होकर कन्नौज की ओर भागा था। गंगा में कूदते समय उसकी जान एक भिश्ती ने अपनी मशक की सहायता से बचाई थी। उपहार में उसे एक दिन का राज्य मिला था और उसने चमड़े का सिक्का चलाया था। काश! हमें भी एक दिन का राज्य मिल पाता-मन में लोभ हो आता है। चौसा के बाद ही कर्मनाशा नदी है। कहा जाता है कि यह स्वर्गकामी त्रिशंकु की टपकी लार से बनी है। बात सच्ची हो या झूठी, किंतु अभी तो यह बिहार और उत्तरप्रदेश के बीच संधिविच्छेद के चिह्न-सी है।

चौसा के बाद गहमर । यहीं के सुप्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार गोपालराम गहमरी थे, जिन्होंने लगभग तीन सौ उपन्यास लिखे थे। इनके ‘यमुना का खन’, ‘गेरुआ बाबा’, ‘डाइन की लाश’, ‘भूतों का डेरा’, ‘जवाहरात की चोरी’ जैसे उपन्यास पढ़ें, तो कॉनन डॉयल के थ्रिलर भी फीके मालूम होंगे। गहमर के बाद भदौरा और भदौरा के बाद दिलदारनगर आ जाता है। कहा जाता है कि दिलदार साहब अठारहवीं शताब्दी के बड़े मशहूर आदमी थे और वे फुलवारीशरीफ के मुरीद थे। फिर कई छोटे-मोटे स्टेशनों को निष्ठुर नायिका की तरह छोड़ती हुई बेरहम गाड़ी मुगलसराय चली आती है। मुगलों के शासन की अनेक गमनाक कहानियाँ मानसपटल पर उभरती हैं। इसी बीच गाड़ी खुल जाती है।

खिड़की के बाहर धानखेतों की बहार नजर आती है। उजली गायों और काली-काली भैसों की गंगा-जमुनी हरे मखमली खेतों की पृष्ठभूमि में बड़ी सुहानी लगती है। और, हाँ! देखते-देखते भूभाग धारण करनेवाले शेषनाग की उज्ज्वल केंचुल की तरह, सत्ययुग के रथ के धुरे की तरह, कैलाश रूपी हाथी की रेशमी पताका की तरह, पुण्यरूपी पण्य की विक्रयवीथि की तरह देवनदी गंगा दूज के चाँद की तरह नजर आने लगती है। फिर इंद्रधनुष की तरह, किसी कामिनी के भौंह-घुमाव की तरह तना मालवीय-सेतु आ जाता है।

लगता है कि अब हमारे पुण्योदय की चिरप्रतीक्षित वेला आनेवाली है, हमारी आकांक्षाओं की पूर्तिवेला उपस्थित होने ही वाली है कि गाड़ी काशी स्टेशन पर खड़ी हो जाती है। जब भीड़ उँट जाती है, तब स्टेशन-गेट के बाहर आकर एक रिक्शे पर बैठ जाता हूँ। लाल गमछा कंधे पर लपेटे, गले में काली बद्धी बाँधे मस्त रिक्शावाला कह उठता है किधर बाबूजी!

‘बाबा विश्वनाथ की गली’ कहते ही मेरा ध्यान उनके दिव्य चरणों पर जा पहुँचा।
***
अयोध्या

कल साँझ को चिराग़ जले रेल पर सवार हुए, यह गए वह गए। राह में स्टेशनों पर बड़ी भीड़ न जाने क्यों? और मज़ा यह कि पानी कहीं नहीं मिलता था। यह कंपनी मजीद के ख़ानदान की मालूम होती है कि ईमानदारों को पानी तक नहीं देती। या सिप्रस का टापू सर्कार के हाथ आने से और शाम में सर्कार का बंदोबस्त होने से यह भी शामत का मारा शामी तरीका अख़तियार किया गया है कि शाम तक किसी को पानी न मिलै। स्टेशन के नौकरों से फ़र्याद करो तो कहते हैं कि डाक पहुँचावै, रोशनी दिखलावै कि पानी दे। ख़ैर जों तों कर अयोध्या पहुँचे। इतना ही धन्य माना कि श्री रामनवमी की रात अयोध्या में कटी। भीड़ बहुत ही है। मेला दरिद्र और मैलै लोगों का। यहाँ के लोग बड़े ही कंगली टर्रे हैं। इस दोपहर को अब उस पार जाते हैं। ऊँटगाड़ी यहाँ से पाँच कोस पर मिलती है।

कैंप हरैया बाज़ार

आज तक तीन पहर का समय हो चुका है। और सफ़र भी कई तरह का और तकलीफ देने वाला। पहिले सरा से गाड़ी पर चले। मेला देखते हुए रामघाट की सड़क पर गाड़ी से उतरे। वहाँ से पैदल धूप में गर्म रेती में सरजू के किनारे गुदाम घाट पर पहुँचे। वहाँ से मुश्किल से नाव पर सवार हो कर सरजू पार हुए। वहाँ से बेलवाँ जहाँ डाक मिलती है और शायद जिसका शुद्ध नाम बिल्व ग्राम है, दो कोस है। सवारी कोई नहीं, न राह में छाया के पेड़, न कुआँ, न सड़क... हवा ख़ूब चलती थी इस से पगडंडी भी नहीं नज़र पड़ती, बड़ी मुश्किल से चले और बड़ी ही तकलीफ़ हुई। ख़ैर, बेलवाँ तक रो-रो कर पहुँचे वहाँ से बैल की डाक पर छह बजे रात को यहाँ पहुँचे। यहाँ पहुँचते ही हरैया बाज़ार के नाम से यह गीत याद आया 'हरैया लागल झबिआ केरे लैहैं न' शायद किसी ज़माने में यहाँ हरैया बहुत बिकती होगी! इस के पास ही मनोरमा नदी है। मिठाई हरैया की तारीफ़ के लायक है। बालूशाही सचमुच बालूशाही भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए। लड्डू भूर के, बर्फ़ी अहा हा हा! गुड़ से भी बुरी । ख़ैर, लाचार हो कर चने पर गुज़र की। गुज़र गई गुज़रन क्या झोपड़ी क्या मैदान। बाकी हाल कल के ख़त में।

बस्ती

परसों पहिली एप्रिल थी, इससे सफ़र कर के रेलों में बेवक़ूफ़ बनने का और तकलीफ़ से सफ़र करने का हाल लिख चुके हैं। अब आज आठ बजे सुबह रें रें करके बस्ती से पहुँचे। वाह रे बस्ती! झख मारने को बसती है... अगर बस्ती इसी को कहते हैं तो उजाड़ किस को कहेंगे? सारी बस्ती में कोई भी पंडित बस्तीराम जो ऐसा पंडित नही, ख़ैर अब तो एक दिन यहाँ बसती होगी। राह में मेला ख़ूब था। जगह-जगह पर शहाब चूल्हे जल रहे हैं। सैकड़ो अहरे लगे हुए हैं, कोई गाता है, कोई बजाता है, कोई गप हाँकता है। रामलीला के मेले में अवध प्रांत के लोगों का स्वभाव, रेल अयोध्या और इधर राह में मिलने से ख़ूब मालूम हुआ। बैसवारे के पुरुष अभिमानी, रुखे और रसिकमन्य होते हैं। रसिकमन्य ही नहीं वीरमन्य भी। पुरुष सब पुरुष और सभी भीम, सभी अर्जुन, सभी सूत पौराणिक और सभी वाजिदअली शाह। मोटी-मोटी बातों को बड़े आग्रह से कहते सुनते हैं। नई सभ्यता अभी तक इधर नहीं आई है। रूप कुछ ऐसा नहीं, पर स्त्रियाँ नेत्र नचाने में बड़ी चतुर। यहाँ के पुरुषों की रसिकता मोटी चाल सुरती और खड़ी मोछ में छिपी है और स्त्रियों की रसिकता मैले वस्त्र और सूप ऐसे नथ में। अयोध्या में प्रायः सभी स्त्रियों के गोल गाते हुए मिले। उन का गाना भी मोटी-सी रसिकता का। मुझे तो उन की सब गीतों में 'बोलो प्यारी सखियाँ सीता राम राम राम' यही अच्छा मालूम हुआ। राह में मेला जहाँ पड़ा मिलता था, वहाँ बारात का आनंद दिखलाई पड़ता था ख़ैर मैं डाक पर बैठा-बैठा सोचता था कि काशी में रहते तो बहुत दिन हुए परंतु शिव आज ही हुए क्योंकि वृषभवाहन हुए फिर अयोध्या याद आई कि हा! वही अयोध्या है जो भारतवर्ष में सब से पहले राजधानी बनाई गई। इसी में महाराजा इक्ष्वाकु वंश मांधाता हरिश्चंद्र दिलीप अज रघु श्रीरामचंद्र हुए हैं और इसी के राजवंश के चरित्र में बड़े-बड़े कवियों ने अपनी बुद्धि शक्ति की परिचालना की है। संसार में इसी अयोध्या का प्रताप किसी दिन व्याप्त था और सारे संसार के राजा लोग इसी अयोध्या की कृपाण से किसी दिन दबते थे वही अयोध्या अब देखी नहीं जाती। जहाँ देखिए मुसलमानों की क़ब्रें दिखलाई पड़ती है। और कभी डाक पर बैठे रेल का दुख याद आ जाता कि रेलवे कंपनी ने क्यों ऐसा प्रबंध किया है कि पानी तक न मिले। एक स्टेशन पर एक औरत पानी का डोल लिए आई भी तो गुपला-गुपला पुकारती रह गई जब हम लोगों ने पानी माँगा तो लगी कहने कि ‘रहः हो पानियै पानी पड़ल हौ’ फिर कुछ ज़्यादा ज़िद में लोगों ने माँगा तो बोली ‘अब हम गारी देब’ वाह क्या इंतज़ाम था! मालूम होता है कि रेलवे कंपनी स्वभाव की बड़ी शत्रु है क्योंकि जितनी बातें स्वभाव से संबंध रखती हैं अर्थात खाना-पीना-सोना-मलमूत्र त्याग करना इन्हीं का इसमें कष्ट है। शायद इसी से अब हिंदुस्तान में रोग बहुत हैं। कभी सरा के खाट के खटमल और भटियारियों का लड़ना याद आया। यही सब याद करते कुछ सोते कुछ जागते-हिलते आज बस्ती पहुँच गए। बाकी फिर यहाँ एक नदी है उसका नाम कुआनम। डेढ़ रुपया पुल का गाड़ी का महसूल लगा। बस्ती के जिले के उत्तर सीमा नेपाल पश्चिमोत्तर की गोड़ा पश्चिम दक्षिण अयोध्या और पूरब गोरखपुर है। नदियाँ बड़ी इसमें सरयू और इरावती सरयू के इस पार बस्ती उस पार फ़ैज़ाबाद। छोटी नदियों में कुनेय मनोरमा कठनेय आमी बाणगंगा और जमतर है। बरकरा ताल और जिरजिरवा दो बड़ी झील भी है। बाँसी बस्ती और मकहर तीन राजा भी हैं। बस्ती सिर्फ़ चार-पाँच हज़ार की बस्ती है पर जिला बड़ा है क्योंकि जिले की आमदनी चौदह लाख है। साहब लोग यहाँ दस बारह हैं। उतने ही बंगाली हैं। अगरवाला मैंने खोजा एक भी न मिला सिर्फ़ एक है वह भी गोरखपुरी है। पुरानी बस्ती खाई के बीच बसी है। राजास के महल बनारस के अर्दली बाज़ार के किसी मकान से उमदा नही। महल के सामने मैदान पिछवाड़े जंगल और चारों ओर खाई है। पाँच सौ खटिकों के घर महल के पास हैं जो आगे किसी ज़माने में राजा के लूटमार के मुख्य सहायक थे। अब राजा के स्टेट के मैनेजर कूक साहब हैं।

यहाँ के बाज़ार का हम बनारस के किसी भी बाज़ार से मुकाबिला नहीं कर सकते। महज बहैसियत महाजन एक यहाँ है वह टूटे खपड़े में बैठे थे। तारीफ़ यह सुनी कि साल भर में दो बार क़ैद होते हैं क्योंकि महाजन का जाल करना फर्ज़ हैं और उसको भी छिपाने का शऊर नहीं। यहाँ का मुख्य ठाकुरद्वारा दो तीन हाथ चौड़ा उतना ही लंबा और उतना ही ऊँचा बस। पत्थर का कहीं दर्शन भी नहीं है। यह हाल बस्ती का है। कल डाक ही नहीं मिली कि जाएँ। मेंहदावल को कच्ची सड़क है, इस से कोई सवारी नहीं मिलती। आज कहार ठीक हुए हैं। भगवान ने चाहा तो शाम को रवाना होंगे। कल तो कुछ तबीयत भी घबड़ा गई थी इससे आज खिचड़ी खाई। पानी यहाँ का बड़ा बातुल है। अकसर लोगों का गला फूल जाता है आदमी ही का नहीं कुत्ते और सुग्गे का भी। शायद गलाफूल कबूतर यहीं से निकले हैं। बस अब कल मिंहदावल से ख़त लिखेंगे।
स्रोत :पुस्तक : भारतेंदु के निबंध (पृष्ठ 53)
संपादक : केसरीनारायण शुक्ल, रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रकाशन : सरस्वती मंदिर जतनबर,बनारस
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