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बुधवार, 15 नवंबर 2017

samasyapurti

​समस्यापूर्ति 
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर 
गीत रचो पंछियों पर 
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

गीत

समस्यापूर्ति 
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर 
गीत रचो पंछियों पर 
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

नवगीत

एक रचना 
कारे बदरा 
*
आ रे कारे बदरा
*
टेर रही धरती तुझे 
आकर प्यास बुझा 
रीते कूप-नदी भरने की 
आकर राह सुझा 
ओ रे कारे बदरा 
*
देर न कर अब तो बरस 
बजा-बजा तबला 
बिजली कहे न तू गरज 
नारी है सबला 
भा रे कारे बदरा 
*
लहर-लहर लहरा सके 
मछली के सँग झूम 
बीरबहूटी दूब में 
नाचे भू को चूम 
गा रे कारे बदरा 
*
लाँघ न सीमा बेरहम 
धरा न जाए डूब  
दुआ कर रहे जो वही 
मनुज न जाए ऊब 
जा रे कारे बदरा 
*
हरा-भरा हर पेड़ हो 
 नगमे सुना हवा 
'सलिल' बूंद नर्तन करे  
गम की बने दवा
छा रे कारे बदरा
*****

बुधवार, 26 नवंबर 2014

navgeet

नवगीत :

नीले-नीले कैनवास पर
बादल-कलम पकड़ कर कोई
आकृति अगिन बना देता है

मोह रही मन द्युति की चमकन
डरा रहा मेघों का गर्जन
सांय-सांय-सन पवन प्रवाहित
जल बूँदों का मोहक नर्तन
लहर-लहर लहराता कोई
धूसर-धूसर कैनवास पर
प्रवहित भँवर बना देता है

अमल विमल निर्मल तुहिना कण 
हरित-भरित नन्हे दूर्वा तृण 
खिल-खिल हँसते सुमन सुवासित
मधुकर का मादक प्रिय गुंजन  
अनहद नाद सुनाता कोई
ढाई आखर कैनवास पर
मन्नत कफ़न बना देता है

***

शनिवार, 4 अगस्त 2012

एक गीत -बादलों के नाम महेंद्र शर्मा

 
एक गीत -बादलों के नाम 

महेंद्र शर्मा
 

                  अब तो बरसो आ गया बरसात का मौसम ,
                                        ज़िंदगी में चन्द खुशियाँ, ढेर सारे गम...
 

 
                  बरसना बस में नहीं, क्या,नभ की रखवाली करोगे,
                  जो धरा से  जल पिया है,वह, कहाँ खाली करोगे,
                                    फ़र्ज  की सोचो, चढ़.रहा कर्ज सा मौसम...
 

 
                   भाग्य की अभ्यर्थना में , कर्म बौने हो रहे हैं,
                   खेलता प्रारब्ध हम से, हम खिलौने हो रहे हैं,
                                    नाव कागज़ की लिए है तरसता बचपन...
 

 
                   प्यास के आकर्षणों में ,समूचा ब्रम्हांड प्यासा ,
                   सूर्य प्यासा नवग्रहों का, इस धरा का चाँद प्यासा,
                                प्यास प्राणों की उमसती,है जल रहा जीवन...
 

                                                                 
 
 
                              
                                                  

मंगलवार, 8 मार्च 2011

एक कविता महिला दिवस पर : धरती संजीव 'सलिल'

एक कविता महिला दिवस पर :
                                                                                             
धरती

संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..

**************

शनिवार, 11 सितंबर 2010

मुक्तिका: डाकिया बन वक़्त... --- संजीव 'सलिल'

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मुक्तिका:

                          डाकिया बन  वक़्त...

संजीव 'सलिल'
*

*
सुबह की  ताज़ी  हवा  मिलती  रहे  तो  ठीक  है.
दिल को छूता कुछ, कलम रचती रहे तो ठीक है..

बाग़ में  तितली - कली  हँसती  रहे  तो  ठीक  है.
संग  दुश्वारी  के   कुछ  मस्ती  रहे  तो  ठीक  है..

छातियाँ हों  कोशिशों  की  वज्र  सी  मजबूत तो-
दाल  दल  मँहगाई  थक घटती  रहे  तो ठीक है..

सूर्य  को  ले ढाँक बादल तो न चिंता - फ़िक्र कर.
पछुवा या  पुरवाई  चुप  बहती रहे  तो ठीक  है.. 

संग  संध्या,  निशा, ऊषा,  चाँदनी  के  चन्द्रमा
चमकता जैसे, चमक  मिलती  रहे  तो ठीक है..

धूप कितनी भी  प्रखर हो, रूप  कुम्हलाये  नहीं.
परीक्षा हो  कठिन  पर फलती  रहे  तो ठीक  है..

डाकिया बन  वक़्त खटकाये  कभी कुंडी 'सलिल'-
कदम  तक  मंजिल अगर चलती रहे  तो ठीक है..

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Acharya Sanjiv Salil

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

दोहा सलिला: पावस है त्यौहार संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला:                                                                                                    
                                                                                            
पावस है त्यौहार

संजीव 'सलिल'
*
नभ-सागर-मथ गरजतीं, अगणित मेघ तरंग.                                                         
पावस-पायस पी रहे, देव-मनुज इक संग..
*
रहें प्रिया-प्रिय संग तो, है पावस त्यौहार.                                                              मरणान्तक दुःख विरह का, जल लगता अंगार..                                                
*
आवारा बादल करे, जल बूंदों से प्यार.
पवन लट्ठ फटकारता, बनकर थानेदार..
*                                                                                                                
रूप देखकर प्रकृति का, बौराया है मेघ.
संयम तज प्रवहित हुआ, मधुर प्रणय-आवेग..
*
मेघदूत जी छानते, नित सारा आकाश.
डायवोर्स माँगे प्रिय, छिपता यक्ष हताश..   
*  
उफनाये नाले-नदी, कूल तोड़ती धार.
कुल-मर्यादा त्यागती, ज्यों उच्छ्रंखल नार.. 
*
उमड़-घुमड़ बादल घिरे, छेड़ प्रणय-संगीत.
अन-आमंत्रित अतिथि लख, छिपी चाँदनी भीत..
*
जीवन सतत प्रवाह है, कहती है जल-धार.
सिखा रही पाषाण को, पगले! कर ले प्यार..
*
नील गगन, वसुधा हरी, कृष्ण मेघ का रंग.
रंगहीन जल-पवन का, सभी चाहते संग..
*
किशन गगन, राधा धरा, अधरा बिजली वेणु.
'सलिल'-धार शत गोपियाँ, पवन बिरज की रेणु.
*
कजरी, बरखा गा रहीं, झूम-झूम जल-धार.
ढोल-मृदंग बजा रहीं, गाकर पवन मल्हार.
*
युवा पड़ोसन धरा पर, मेघ रहा है रीझ.
रुष्ट दामिनी भामिनी, गरज रही है खीझ.
*
वन प्रांतर झुलसा रहा, दिनकर होकर क्रुद्ध.                                                                    
नेह-नीर सिंचन करे, सलिलद संत प्रबुद्ध..
*
निबल कामिनी दामिनी, अम्बर छेड़े झूम.
हिरनी भी हो शेरनी, उसे नहीं मालूम..
*
पानी रहा न आँख में, देखे आँख तरेर.
पानी-पानी हो गगन, पानी दे बिन देर..                                                                
*
अति हरदम होती बुरी, करती सब कुछ नष्ट.
अति कम हो या अति अधिक, पानी देता कष्ट..
*
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---------- दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम