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मंगलवार, 20 मई 2025

मई २०, हास्य, दोहा, काल है संक्रांति का, आँख, नवगीत, द्विपदी, रूपमाला छंद, अपूर्णान्वयी छंद

सलिल सृजन मई २०
विश्व मधुमक्खी दिवस 
*
गुरु से कुछ गुर बिन लिए, सलिल न हो संजीव।
सासों के फँदे फँसे, जामाता निर्जीव।।
जामाता निर्जीव, डुकरिया की कर सेवा।
बीबी बेटी हुई, खिलाए गुल हे देवा।।
कर भविष्य की फिक्र, ब्याह वह करे न फिर से।
सास जमाई साथ, न जाए गुर ले गुरु से।।
२०.५.२०२५
***
दोहा सलिला
*
नारी नदिया पुरुष की, नाव लगाती पार।
मचले तो देती डुबा, रूठ बीच मझधार।।
*
कांता जैसी चाँदनी, लिये हाथ में हाथ।
कांत चाँद सा सोहता, सदा उठाए माथ।।
*
कैसे हैं? क्या होएँगे?, सोच न आती काम।
जैसा चाहे विधि रखे, करे न बस बेकाम।
*
मन बच्चा-सच्चा रहे, कच्चा तन बदनाम।
बिन टूटे बादाम हो, टूटे तो बेदाम।।
*
मार न पड़ती उम्र की, बढ़ता अनुभव-तेज।
तब करते थे जंग, अब जमा रहे हैं रंग।।
*
समय छोड़ पाया नहीं, अपना तनिक प्रभाव।
तब सा अब भी चेहरा, आदत, सृजन, स्वभाव।।
*
छीन रहे थे और के, मुँह से रोटी-कौर।
अपने मुँह से छिन गया, आया ऐसा दौर।।
*
मन बच्चा-सच्चा रहे, कच्चा तन बदनाम।
बिन टूटे बादाम हो, टूटे तो बेदाम।।
*
कैसे हैं? क्या होएँगे?, सोच न आती काम।
जैसा चाहे विधि रखे, करे न बस बेकाम।
*
कांता जैसी चाँदनी, लिये हाथ में हाथ।
कांत चाँद सा सोहता, सदा उठाए माथ।।
*
मिल कर भी मिलती नहीं, मंजिल खेले खेल।
यात्रा होती रहे तो, हर मुश्किल लें झेल।।
*
मार न पड़ती उम्र की, बढ़ता अनुभव संग।
तब करते थे जंग, अब जमा रहे हैं रंग।।
२०-५-२०१८
***
पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
***
दोहों के रंग आँख के संग
*
आँख लड़ी झुक उठ मिली, मुंदी कहानी पूर्ण
लाड़ मुहब्बत ख्वाब सँग, श्वास-आस का चूर्ण
*
आँख कहानी लघुकथा, उपन्यास रस छंद
गीत गजल कविता भजन, सुख-दुःख परमानंद
*
एक आँख से देखते, धूप-छाँव जो मीत
वही उतार-चढ़ाव पर, चलकर पाते जीत
*
धूल झोंकते आँख में, आँख बिछाकर लोग
चुरा-मिला आँखें दिखा, झूठ मनाते सोग
*
कभी किसी की आँख का, बनें न काँटा आप
कभी आप की आँख में, सके न काँटा व्याप
*
***
नवगीत:
*
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
रही बाकी न दम.
*
इंद्र है युग लीन सुख में
तपस्याओं से डरे.
अहल्याओं को तलाशे
लाख मारो न मरे.
जन दधीची अस्थियाँ दे
बनाता विजयी रहा-
हुई हर आशा दुराशा
कभी कुछ संयम वरे.
कामनाओं से ग्रसित
होकर भ्रमित
बिखरे हैं हम.
वासनाओं से जड़ित
होते दमित
अँखियाँ न नम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
चलो मिलकर सनम.
*
पडोसी के द्वार पर जा
रोज छिप कचरा धरें.
चाह आकर विधाता-
नित व्याधियाँ-मुश्किल हरें .
सुधारों का शंख जिसने
बजाया विनयी रहा-
सिया को वन भेजता जो
देह तज कैसे तरे?
भूल को स्वीकार
संशोधन किये
निखरे हैं हम.
शूल से कर प्यार
वरते कूल
लहरें हैं न कम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
बढ़ें संग रख कदम.
*
***
द्विपदी सलिला:
*
जो दिखता होता नहीं, केवल उतना सत्य
छोटे तन में बड़ा मन, करता अद्भुत कृत्य
*
ओझा कर दे टोटका, फूंक कभी तो मन्त्र
मन-अँगना में भी लगे, फूलों का संयंत्र
*
नित मन्दिर में माँगते, किन्तु न होते तृप्त
दो चहरे ढोते फिरे, नर-पशु सदा अतृप्त
*
जब जो जी चाहे करे, राजा वह ही न्याय
लोक मान्यता कराती, राजा से अन्याय
*
पर उपकारी हैं बहुत, हम भारत के लोग
मुफ्त मशवरे दें 'सलिल', यही हमारा रोग
*
वक़्त सुनता ही नहीं सिर्फ सुनाता रहता
नजर घरवाली की ही इसमें अदा आती है
*
दिखाया आईना मैंने कि वो भी देख सके
आँख में उसकी बसा चेहरा मेरा ही है
*
आसमां को थाम लें हाथों में अपने हम अगर
पैर ज़माने के लिये जमीं रब हमें दे दे
*
तुम्हें जानना है महज इसलिए ही
दुनिया के सारे शिखर नापते हैं
*
दिले-दिलवर को खटखटाते रहे नज़रों से
आँख का डाकिया पैगाम कभी तो देगा
*
बेरुखी लाख दिखाये वो सरे-आम मगर
नज़र जो मिल के झुके प्यार भी हो सकती है
*
अंत नहीं है प्यास का, नहीं मोह का छोर
मुट्ठी में ममता मिली, दिनकर लिया अँजोर
*
लेन-देन जिंदगी में इस कदर बढ़ा
बाकी नहीं है फर्क आदमी-दूकान में
*
साथ चलते हाथ छूटे कब-कहाँ- कैसे कहें
बेहतर है फिर मिलें मन मीत! हम कुछ मत कहें
*
सारे सौदे वो नगद करता है जन्म से ही रहे उधार हैं हम
सारी दुनिया में जाके कहते हैं भारत में हुए सुधार हैं हम
२०-५-२०१५
*
छंद सलिला:
रूपमाला छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति चौदह-दस, पदांत गुरु-लघु (जगण)
लक्षण छंद:
रूपमाला रत्न चौदह, दस दिशा सम ख्यात
कला गुरु-लघु रख चरण के, अंत उग प्रभात
नाग पिंगल को नमनकर, छंद रचिए आप्त
नव रसों का पान करिए, ख़ुशी हो मन-व्याप्त
उदाहरण:
१. देश ही सर्वोच्च है- दें / देश-हित में प्राण
जो- उन्हीं के योग से है / देश यह संप्राण
करें श्रद्धा-सुमन अर्पित / यादकर बलिदान
पीढ़ियों तक वीरता का / 'सलिल'होगा गान
२. वीर राणा अश्व पर थे, हाथ में तलवार
मुगल सैनिक घेर करते, अथक घातक वार
दिया राणा ने कई को, मौत-घाट उतार
पा न पाये हाय! फिर भी, दुश्मनों से पार
ऐंड़ चेटक को लगायी, अश्व में थी आग
प्राण-प्राण से उड़ हवा में, चला शर सम भाग
पैर में था घाव फिर भी, गिरा जाकर दूर
प्राण त्यागे, प्राण-रक्षा की- रुदन भरपूर
किया राणा ने, कहा: 'हे अश्व! तुम हो धन्य
अमर होगा नाम तुम हो तात! सत्य अनन्य।
२०-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
अपूर्णान्वयी छंद:
(Enjambment poetry in Hindi)
झूठ न होता झूठ
*
'झूठ कभी मत बोलना', शिक्षक ने दी सीख
पूछा बालक ने: 'कहाँ इससे बढ़कर झूठ।
झूठ न बोलें तो कहें, कैसे होगा काम?
काम बिना हो जाएगा, अपना काम तमाम।
झूठ बिना क्या कहेगा? नेता, पंडित, चोर।
रहे मौन तो नहीं क्या, होगा संकट घोर?
झूठ बिना थाने सभी, हो जायेंगे बंद।
सभी वकील-अदालतें, गायेंगे क्या छंद?
झूठ बिना क्या कहेंगे, दफ्तर जाकर लेट?
छापा मारे आयकर, जिस पर वह अपसेट।
झूठ बिना खुद सत्य भी, मर जाए बिन मौत।
क्या कह दें? पूछे पुलिस कौन हुआ है फौत?
'झूठ न होता झूठ गर सच दें उसको नाम।'
शिक्षक बोला, छात्र ने सविनय किया प्रणाम।।
***
हास्य रचना
बतलायेगा कौन?
*
मैं जाता था ट्रेन में, लड़ा मुसाफिर एक.
पिटकर मैंने तुरत दी, धमकी रखा विवेक।।
मुझको मारा भाई को, नहीं लगाना हाथ।
पल में रख दे फोड़कर, हाथ पैर सर माथ ।।
भाई पिटा तो दोस्त का, उच्चारा था नाम।
दोस्त और फिर पुत्र को, मारा उसने थाम।।
रहा न कोई तो किया, उसने एक सवाल।
आप पिटे तो मौन रह, टाला क्यों न बवाल?
क्यों पिटवाया सभी को, क्या पाया श्रीमान?
मैं बोला यह राज है, किन्तु लीजिये जान।।
अब घर जाकर सभी को रखना होगा मौन।
पीटा मुझको किसी ने, बतलायेगा कौन??
२०-५-२०१३
+++

गुरुवार, 29 अगस्त 2024

अगस्त २९, बाल गीत, छंदानुशासन, दोहा, द्विपदी, संवाद कथा, अन्ना आन्दोलन, लोकतंत्र

सलिल सृजन अगस्त २९
*
बाल गीत
आरव-अनव
*
आरव-अनव शरारत करते
मम्मी पापा उनसे डरते
इसने-उसको किया इशारा
फेंकी गेंद शॉट झट मारा
गेंद गई खिड़की से टकरा
टूटा काँच फर्श पर बिखरा
कॉलेज से मम्मी जब आई
कुछ चकराई, कुछ घबराई
देखा दोनों गुमसुम पढ़ते
खिंचें न कान सोचकर डरते
करें सफाई पापा आकर
दोनों को समझाते जाकर
खेलो पर नुकसान मत करो
सच बतलाओ तनिक मत डरो
२९.८.२४
•••
विशेष लेख:
कविता में छंदानुशासन
*
शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी.
रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी.
गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं.
गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं.
हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है.
एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं.
हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है.
गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं.
हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है.
छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं, किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं​​​
मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-
१. हर अंश अन्य अंशों से मुक्त या अपने आपमें स्वतंत्र होता है.
२. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है. इसका साम्य कुछ-कुछ उर्दू ग़ज़ल के काफिया-रदीफ़ से होने पर भी यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें काफिया मिलाने के नियमों का पालन न किया जाकर हिन्दी व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा जाता है.
२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है. इसमें लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती.
३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.
४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा (१३-११), सोरठा मुक्तिका में सोरठा (११-१३), रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.
५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.
६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.
७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.
२९-८-२०१९
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एक दोहा
*
राधा धारा भक्ति की, कृष्ण कर्म-पर्याय.
प्रेम-समर्पण रुक्मिणी,कृष्णा चाहे न्याय.
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मंगलवार, 29 अगस्त 2017
आज की बात
कल से नयी पारी आरंभ हो गई-शासकीय कला निकेतन पोलीटेकनिक जबलपुर में पदार्थ तकनीकी (मटीरियल टैकनालाजी) पढाना आरंभ कर दिया. बरसों पहले अंग्रेजी में पढ़ा था, पाठ्यक्रम में बदलाव स्वाभाविक है. अब हिंदी में तकनीकी विषय पढ़ाना सचमुच चुनौतीपूर्ण है. माँ शारदा के भरोसे आगे बढ़ता हूँ.
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बाबा राम रहीम को,
गोली मारो यार.
सीख-सिखाये कुछ नया,
स्वप्न करें साकार.
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सु मन रहे तो ही गहे,
श्री वास्तव मे आप.
सुमन सुरभि सम कीर्ति-यश,
जाए जग में व्याप.
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सिंधु-सायना ने किया,
असामान्य संघर्ष.
महिला जीवट को मिला,
एक और उत्कर्ष.
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सीमा से संदेश है,
रहिये सदा सतर्क.
शांति शक्ति से ही रहे,
करें न व्यर्थ कुतर्क.
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नन्हा दीपक भी सके,
विपुल अँधेरा लील.
न्यायिक देरी को कफ़न,
मिले ठोंक दें कील.
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अवध शरण अवधेश को,
देकर है न प्रसन्न.
रामालय में राज्य हो,
रहे न कोई विपन्न.
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सुषमा तभी स्वराज की,
जब प्रभु हो हर आम.
सेवक प्रथम नरेंद्र हो,
काम करे निष्काम.
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दोहा सलिला
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कर मत कर तू होड़ अब, कर मन में संतोष
कर ने कर से कहा तो, कर को आया होश
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दिनकर-निशिकर सँग दिखे, कर में कर ले आज
ऊषा-संध्या छिप गयीं, क्या जाने किस व्याज?
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मिले सुधाकर-प्रभाकर, गले-जले हो मौन
गले न लगते, दूर से पूछें कैसा कौन?
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प्रणव नाद सुन कुसुम ले, कर जुड़ होते धन्य
लख घनश्याम-महेश कर, नतशिर हुए अनन्य
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खाकर-पीकर चोर जी, लौकर लॉकर तोड़
लगे भागने पुलिस ने, पकड़ा पटक-झिंझोर
२९-८-२०१६
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दोहा छंद अनूप :
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जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है१। संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है। दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है२। दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है३। आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी४। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा पला-बढ़ा और अनेक नामों से विभूषित हुआ।
दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद.
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.
द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूहडा, दोहा ललित ललाम.
दोहा मुक्तक छंद है :
संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।
हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषियउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु.
८ वीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गये अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
दोहा उतम काव्य है :
दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.
हिन्दी ही नहीं विश्व की समस्त भाषाओँ के इतिहास में केवल दोहा ही ऐसा छंद है जिसने युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, पराजित और बंदी राजा को अरि-मर्दन का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन भी करानेये। यह दोहे की अतिरेकी प्रशंसा नहीं, सच है। कुछ कालजयी दोहों से साक्षात कीजिये।
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)
दोहा है इतिहास:
दसवीं सदी में पवन कवि द्वारा हरिवंश पुराण में कउवों के अंत में प्रयुक्त 'दत्ता' छंद दोहा ही है.
जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.
११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि(अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.
कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ
मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है । एक दोहा देखें-
वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु
दोहा उलटे सोरठा :
सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) को नतमस्तक प्रणाम करता दोहा अपने विषम-सम अर्धांश को आपस में बदलकर सोरठा हो गया । कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया । मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किये पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। दोहा गत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठा बनकर गा रहा है-
वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.
दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.
आतंकवा दी कुछ लोगों को बंदी बना लें तो संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की बंधक बना ली जाए तो भी आतंकवादी छोड़े जाते हैं। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
अर्थात - भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.
दोहा दिल का आइना:
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.
दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता से कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
अर्थात्
अवगुण कोई न चाहता, गुण की सबको चाह.
चम्पकवर्णी कुंवारी, कन्या देती दाह.
प्रियतम की बेव फाई पर प्रेमिका और दूती का मार्मिक संवाद दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं. दूती क्यों नत मुख.
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख.
हर प्रियतम बेवफा नहीं होता. सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है. जिस विरहणी की अंगुलियाँ पीया के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
जाते हुए प्रवास पर, प्रिय ने कहे जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.
परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गए तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आए तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी।
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.
मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है. सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है अथवा मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.
इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा हेतु उकसाया। परीक्षण के समय कवि मित्र ने एक दोहा पढ़ा। दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम कर लक्ष्य पर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे. बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरण करत, आल्हा छंद बनाय.
इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.
चल पानी पिला:
हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात अमीर खुसरो (संवत् १३१२-१३८२)एक दिन घूमते हुए दूर निकल गये, जोर से प्यास लगी.. गाँव के बाहर कुँए पर औरतों को पानी भरते देख खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। उनमें से एक ने कहा पानी तभी पिलायेंगी जब खुसरो उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो समझ गये कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं और उन्हें पहचान चुकने पर उनकी झुंझलाहट का आनंद ले रही हैं। कोई और उपाय न देख खुसरो ने विषय पूछा तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया खीर... चरखा... कुत्ता... और ढोल... खुसरो की प्यास के मरे जान निकली जा रही थी, इन बेढब विषयों पर कविता करें तो क्या? पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप, सबसे छोटे छंद दोहा का दमन थमा और एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली. खुसरो का वह दोहा है:
खीर पकाई जतन से,चरखा दिया चलाय
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय
ला पानी पिला
खुसरो पानी तो मिला ही, पहला दुमदार दोहा रचने का श्रेय भी मिला।
कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चाँद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतीय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.
गृहस्थ संत कबीर (सं. १४५५-१५७५) के लिये 'यह दुनिया माया की गठरी'थी। कबीर जुलाहा थे, जो कपड़ा बुनते उसे बेचकर परिवार पलता पर कबीर वह धन साधुओं पर खर्च कर कहते 'आना खाली हाथ है, जाना खाली हाथ'। उनकी पत्नी लोई नाराज होती पर कबीर तो कबीर... लोई ने पुत्र कमाल को कपड़ा बेचने भेजा, कमाल कपड़ा बेच पूरा धन घर ले आया, कबीर को पता चला तो नाराज हुए। दोहा ही कबीर की नाराजगी का माध्यम बना-
'बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.
हरि का सुमिरन छोड़ के, भरि लै आया माल.
कबीर ने कमाल को भले ही नालायक माना पर लोई प्रसन्न हुई. पुत्र को समझाते हुए कबीर ने कहा-
चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय.
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय.
कमाल था तो कबीर का ही पुत्र, उसका अपना जीवन-दर्शन था। दो पीढियों में सोच का जो अंतर आज है वह तब भी था। कमाल ने कबीर को ऐसा उत्तर दिया कि कबीर भी निरुत्तर रह गये। यह उत्तर भी दोहे में हैं:
चलती चक्की देखकर, दिया कमाल ठिठोय
जो कीली से लग रहा, मार सका नहिं कोय
नीर गया मुल्तान:
सतसंगति की चाह में कबीर गुरुभाई रैदास के घर गये। रैदास कुटिया के बाहर चमड़ा पका रहे थे। कबीर को प्यास लगी तो रैदास ने चमड़ा पकाने की हंडी में से लोटा भर पानी दे दिया। कबीर को वह पानी पीने में हिचक हुई तो उन्होंने अँजुरी होंठ से न लगाकर ठुड्डी से लगायी, पानी मुँह में न जाकर कुर्ते की बाँह में चला गया। घर लौटकर कबीर ने कुरता बेटी कमाली को धोने के लिये दिया। कमाली ने कुर्ते की बाँह का का लाल रंग छूटने पर चूस-चूसकर छुड़ाया जिससे उसका गला लाल हो गया। कुछ दिनों बाद वह अपनी ससुराल चली गयी।
सद्गुरु रामानंद शिष्य कबीर के साथ पराविद्या (उड़ने की सिद्धि) से काबुल-पेशावर गये।बीच में कमाली का ससुराल आया तो मिलने पहुँच गये। कबीर यह देख चकित हुए पूर्व सूचना पहुँचने पर भी कमाली ने हाथ-मुँह धोने के लिये द्वार पर बाल्टी में पानी, अँगोछा लिये खड़ी थी। कमरे में २ बाजोट-गद्दी, २ लोटों में पीने के लिये पानी था। उनके बैठते ही कमाली गरम भोजन ले आयी मानो उसे पूर्व सूचना हो। कमाली से पूछा उसने बताया कि राँगा लगा अँगरखा से चूसकर रंग निकालने के बाद से उसे भावी का आभास हो जाता है। अब कबीर समझे कि रैदास बिना बताये कितनी बड़ी सिद्धि दे रहे थे।
लौटने के कुछ समय बाद कबीर फिर रैदास के पास गये। प्यास लगी तो पानी माँगा। रैदास ने स्वच्छ लोटे में लाकर जल दिया। कबीर बोले: पानी तो यहीं कुण्डी में भरा है, वही दे देते। रैदास ने दोहा कहा:
जब पाया पीया नहीं, मन में था अभिमान
अब पछताए होत क्या, नीर गया मुल्तान
कबीर ने भूल सुधारकर अहं से मुक्त हो अंतर्मन में छिपी प्रभु-प्रेम की कस्तूरी को पहचानकर कहा:
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे वन माँहि
ऐसे घट-घट राम है, दुखिया देखे नाँहि
पिऊ देखन की आस
सूफी संतों ने दोहा को प्रगाढ़ आध्यात्मिक रंग दिया:
कागा करंग ढढ़ोलिया, सगल खाइया मासु
ए दुइ नैना मत छुहउ, पिऊ देखन की आस -बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५ई.)
प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख मोहिदी के शागिर्द, पद्मावत, अखरावट तथा आख़िरी कलाम रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी ने आज के भाषा विवाद के हल पारदर्शी दृष्टि से ५०० वर्ष पहले ही जानकर दोहा के माध्यम से कह दिया:
तुरकी अरबी हिंदवी, भाषा जेती आहि
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि
प्रेमपथ के पथिक नानक ने भी दोहा को गले से लगाये रखा:
इक दू जीभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस
लखु-लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस - गुरु नानक (१५२६-१५९६)
सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्य लहरी रचयिता चक्षुहीन संत सूरदास (सं. १५३५-१६२०) ने दोहे को प्रगल्भता, रस परिपाक, नाद सौंदर्य आलंकारिकता, रमणीयता, लालित्य तथा स्वाभाविकता की सतरंगी किरणों से सार्थकता दी। सूर एक बार कुँए में पड़े, ६ दिन तक पड़े रहे। ७ दिन बाँकेबिहारी को पुकारा तो भक्तवत्सल भगवान ने आकर उन्हें बाहर निकाला। भगवन जाने लगे तो सूर की अंतर्व्यथा लेकर एक दोहा प्रगट हुआ जिसे सुन भगवान भी अवाक् रह गये:
बाँह छुड़ाकर जात हो, निबल जानि के मोहि
हिरदै से जब जाहिगौ, मरद बदूंगौ तोहि
दोहा आदि से अब तक संतों का प्रिय छंद है:
रोम-रोम में रमि रह्या, तू जनि जानै दूर
साध मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनंद मूर - दादूदयाल (सं. १६०१-१६६०)
बाजन जीवन अमर है, मोवा कह्यो न कोय
जो कोई मोवा कहे, वो ही सौदा होय - बाजन
उसका मुख इक जोत है, घूँघट है संसार
घूँघट में वो छिप गया, मुख पर आँचर डार - बुल्लेशाह
काला हंसा निर्मला, बसे समंदर तीर
पंख पसारे बकह हरे, निर्मल करे सरीर - शेख शर्फुद्दीन याहिया मनेरी
साबुन साजी साँच की, घर-घर प्रेम डुबोय
हाजी ऐसा धोइये, जन्म न मैला होय - हाजी अली
सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय - बू अली कलंदर
कागा सब तन खाइयो, चुन खइयो मास
दू नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस -केशवदास, नागमती
महाकवि तुलसी (सं.१५५४-१६८०) के जन्म, पत्नी रत्नावली द्वारा धिक्कार, श्रीराम-दर्शन, राम-कृष्ण अद्वैत, साकेतगमन तथा स्थान निर्धारण पर दोहा ही साथ निभा रहा था:
पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीत?
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति
चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर
कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ
तुलसी मस्तक तब नबै, धनुष-बाण लो हाथ
संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो सरीर
सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास
सूर ने श्रीकृष्ण को ह्रदय से निकलने की चुनौती दी तो रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) ने तुलसी को, माध्यम इस बार भी दोहा ही बना:
जदपि गये घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं
देनहार कोई और है:
मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना (संवत १६१० - संवत १६८२) श्रृंगार बृज एवं अवधी से किया । प्रश्नोत्तरी दोहे उनका वैशिष्ट्य है -
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।
असि (अस्त्र)-मसि (कलम) को समान दक्षता से चलानेवाले अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) अपने इष्टदेव श्री कृष्ण की तरह रणभेरी और वेणुवादन का आनंद उठाते थे। रहीम दानी थे। महाकवि गंग के एक छप्पय पर प्रसन्न होकर उन्होंने एक लाख रुपयों का ईनाम दे दिया था। रहीम को संपत्ति का घमंड नहीं था। उनकी नम्रता देख गंग कवि ने पूछा:
सीखे कहाँ नवाबजू, देनी ऐसी देन?
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करें, त्यों-त्यों नीचे नैन
रहीम ने तुरंत उत्तर दिया:
देनहार कोई और है, देत रहत दिन-रैन
लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन
उन्होंने दोहा को नट तरह कलाओं से संपन्न कहा:
देहा दीरघ अरथ के, आखर थोड़े आहिं
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि कूदि चढ़ि जाहिं
दोहा एक दोहाकार दो:
दोहा केवल दो पंक्तियों का छोटा सा छंद है. छंद को दो निपुण दोहाकारों ने पूर्ण किया।
तुलसी की कुटिया में एक दिन एक याचक आया। प्रणाम कर कहा कि बिटिया के हाथ पीले करने हैं, धन चाहिए। रमापति राम में मन रमाये तुलसी की कुटिया में रमा कैसे रहतीं? विप्र समझ गया कि इन तिलों में तेल नहीं है सो निवेदन किया कि बाबा एक कविता लिख दें, तो काम बन जायेगा। तुलसी ने पूछा कविता से बिटिया का ब्याह कैसे होगा? याचक ने बताया कि समीप ही मुग़ल सेना का पड़ाव है, सेनापति सवेरे श्रेष्ठ कविता लानेवाले को एक मुहर ईनाम देते हैं। याचक की चतुराई पर मन ही मन मुस्कुराते बाबा ने कागज़ पर एक पंक्ति घसीट कर दी और पीछा छुड़ाकर पूजन-पाठ में रम गये याचक ने मुग़ल सेनापति के शिविर की ओर दौड़ लगा दी। हाँफते हुए पहुँचा ही था कि सेनापति तशरीफ़ ले आये, उसकी घिघ्घी बँध गयी। किसी तरह हिम्मत कर सलाम किया और कागज़ बढ़ा दिया। सेनापति ने कागज़ लेते हुए उसे पैनी नज़र से देखा, पढ़ा और पूछा तुमने लिखा है? याचक ने सहमति में सर हिलाया तो सेनापति ने कड़ककर पूछा सच कहो नहीं तो सर कलम कर दिया जायेगा। मन मन ही मन बाबा को कोसते याचक ने सचाई बता दी। सेनापति हँस पड़े, कागज़ पर नीचे कुछ लिखा और बोले यह कागज़ बाबा को दे आओ तो तुम्हें दो मुहरें ईनाम में मिलेंगी। सेनापति थे अब्दुर्रहीम खानखाना । कागज़ पर था एक दोहा जिसकी पहली पंक्ति तुलसी ने लिखी थी दूसरी रहीम ने:
सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय
प्रीत करो मत कोय:
गिरिधर गोपाल की बावरी आराधिका मीरांबाई (१५०३ई.-१५४६ई.) के दोहे देश-काल की सीमा के परे व्याप्त हैं:
जो मैं ऐसा जाणती, प्रीत किये दुःख होय
नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न कीज्यो कोय
दोहा रक्षक लाज का:
महाकवि केशवदास की शिष्या, ओरछा नरेश इंद्रजीत की प्रेयसी प्रवीण विदुषी-सुन्दरी थीं। नृत्य, गायन, काव्य लेखन तथा वाक् चातुर्य में उन जैसा कोई अन्य नहीं था। मुग़ल सम्राट अकबर को दरबारियों ने उकसाया कि ऐसा नारी रत्न बादशाह के दामन में होना चाहिए। अकबर ने ओरछा नरेश को संदेश भेजा कि राय प्रवीण को दरबार में हाज़िर करें।नरेश धर्म संकट में पड़े, प्रेयसी को भेजें तो आन-मान नष्ट होने के साथ राय प्रवीण की प्रतिष्ठा तथा सतीत्व खतरे में न भेजें तो शक्तिशाली मुग़ल सेना के आक्रमण का खतरा।राज्य बचायें या प्रतिष्ठा? राज्य को बचाने लिये अकबर के दरबार में महाकवि तथा राय प्रवीण उपस्थित हुए। अकबर ने महाकवि का सम्मान कर राय प्रवीण को तलब हरम में रहने को कहा। राय प्रवीण ने बादशाह को सलाम करते हुए एक दोहा कहा लौटने की अनुमति चाही। दोहा सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। बादशाह ने राय प्रवीण को न केवल सम्मान सहित वापिस जाने दिया अपितु कई बेशकीमती नजराने भी दिये। राय अस्मिता बचानेवाला दोहा है:
बिनत रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥
दोहा साक्षी समय का:
मुग़ल सम्राट अकबर हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने के लिये बेक़रार रहता था।
गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी। महारानी का चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में काँटे की तरह गड़ रहे थे। अधारसिंग के कारण सुव्यवस्था तथा सफ़ेद हाथी कारण समृद्धि होने का बात सुन अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-
अपनी सीमा राज की, अमल करो फरमान.
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान.
मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। दरबार में अधारसिंह ने सिंहासन खाली देख दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की।चमत्कृत अकबर ने अधार से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना? अधारसिंह ने नम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर न दिखने पर अन्य जानवर उस पर निगाह रखते हैं वैसे दरबारी उन पर नज़र रखे थे इससे अनुमान किया। अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और दरबार में रहने को कहा। अधारसिंहने चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर ने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया। दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?
इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान.
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान.
असाधारण बहादुरी से लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती देश पर शहीद हुईं। मुग़ल सेना ने राज्य लूटा, भागते हुए लोगों और औरतों तक को । महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया। जनगण ने अपनी लोकमाता दुर्गावती को श्रद्धांजलि देने के लिये समाधि के समीप सफ़ेद पत्थर एकत्र किये, जो भी वहाँ से गुजरता एक सफ़ेद कंकर समाधि पर चढा देता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय इस परंपरा का पालनकर आजादी के लिये संघर्ष का संकल्प लिया गया। दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर.
हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर.
अर्थात बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा से प्रेरित हो आपकी भुजाएँ फड़कने लगती हैं।
महाकवि गंग का अंतिम दोहा:
'तुलसी-गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार' प्रसिद्ध महाकवि गंग (सं. १५३८-१६१७) मुग़ल दरबारियों के षड्यंत्र के शिकार हुए, उन्हें क्षमायाचना का हुक्म मिला किन्तु स्वाभिमानी कवि स्वीकार नहीं हुआ. हाथी के पैर तले कुचलवाने का आदेश मिलने पर उन्होंने गज में गणेश-दर्शन कर कर बिदा ली:
कबहुँ न भडुआ रन चढ़ै, कबहुँ न बाजी बंब
सकल सभहिं प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग
माई एहणा पूत जन:
दुर्गावती के बाद अकबर की नज़र में चित्तौरगढ़ महाराणा प्रताप (१५४० ई.-१५९७ई.) खटकते रहे। प्रताप की मौत पर कवि पृथ्वीराज राठौड़ रचित दोहा अकबर को उसकी औकात बताने में नहीं चूका:
माई! एहणा पूत जण, जेहणा वीर प्रताप
अकबर सुतो ओझके, जाण सिराणे साँप
तानसेन के तान:
अकबर के नवरत्नों में से एक महान गायक तानसेन नमन करता दोहा की गुणग्राहकता देखिए:
विधना यह जिय जानिकै, शेषहिं दिये न कान
धरा-मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान
दोहा रोके युद्ध भी:
मुग़ल दरबारियों ने अकबर के साले और नवरत्नों में अग्रगण्य पराक्रमी मानसिंह को चुनौती दी कि उन्हें अपने बाहुबल पर भरोसा है तो श्रीलंका को जीतकर मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिखाएँ। मानसिंह से समक्ष इधर खाई उधर कुआँ, चारों तरफ धुआं ही धुआँ' की हालत पैदा हो गयी। दूर सेना ले जाकर, समुद्र पार युद्ध अति खर्चीला, सैनिक जाने को तैयार नहीं, जीत की सम्भावना नगण्य, बिना कारण युद्ध हेतु न जाएँ तो सम्मान गँवाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में राजगुरु द्वारा कहा गया निम्न दोहा संकटमोचन सिद्ध हुआ:
विप्र विभीषण जानी कै, रघुपति कीन्हों दान
दिया दान किमि लीजियो, महामहीपति मान
सूर्यवंशी मानसिंह अपने पूर्वज श्रीराम द्वारा बाद विप्र विभीषण को दाम में दी गयी लंका कैसे वापिस लें? दोहे ने युद्ध टालकर असंख्य जान-धन की हानि रोक दी।
मतिराम के अलंकारिक दोहा की रूप छटा मन मोहती है:
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक
अजगर करे न चाकरी
सुखवादियों सिद्धांत सूफियों से बिलकुल उलट होने पर भी दोनों में दोहा-प्रेम समान है।रत्नखान और ज्ञानबोधकार मलूकदास (सं. १६३२-१७३९) ने डूबते शाही जहाज को पानी से निकालकर बचाया और रुपयों का तोड़ा उफनाती गंगा में तैराकर कड़ा से इलाहाबाद भेजा।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम
सुखवादियों को चड़वांक / चार्वाक कहकर लोक ने उन पर व्यंग्य किया। उसका वाहक दोहा ही हुआ:
परे पराई पौर में, बनी बनाई खाँय
रिन-धन कौ खटका नहीं, काए खें दुबराँय
दोहा आँखें खोलता:
जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह जब कमसिन नवोढ़ा रानी के रूपजाल में बँधकर कर्तव्य भूल बैठे तो राजगुरु महाकवि बिहारी (सं.१६६०-१७२०) ने मारक दोहा पढ़कर उन्हें दायित्व बोध कराया:
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल
अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल?
महाराज एक दोहा सुनते और एक अशर्फी समर्पित करते। ऐसे ७०० दोहों से बिहारी की दोहा सतसई बनी। श्लेष, वक्रोक्ति, श्रृंगार की त्रिवेणी बिहारी के दोहों में सर्वत्र प्रवाहित है।
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलअत लजियात
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात
मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने कुटिलतापूर्वक राजा जयसिंह को मु ग़ल सेना के साथ शिवजी से युद्ध का आदेश दिया। विजय हो तो श्रेय सेना को मिलता, पराजय का ठीकरा जयसिंह फोड़ा जाता। एक बार फिर महाकवि बिहारी ने दोहा को हथियार बनाया और जयसिंह को आत्मघाती युद्ध पर जाने से रोका:
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देख विहंग विचार
बाज पराये पानि पर, तू पंछीन न मार
दोहा रसनिधि अमर है:
ठाकुर पृथ्वीसिंह 'रसनिधि' (सं. १६६०-१७१७) ने सतसई हजारा तक पहुँचाया।रसनिधि का वैशिष्ट्य परिमार्जित बृज भाषा में फारसी के तत्सम शब्दों का प्रयोग, तथा प्रसाद गुण प्रधान शैली है:
हिन्दू मैं क्या और है, मुसलमान मैं और?
साहिब सबका एक है, व्याप रहा सब ठौर.
लोक-प्राण दोहा बसे:
दोहा विद्वज्जनों और जनसामान्य दोनों के कंठ में वास करता है। वृंद (१६४३ई.-१७२३ई.) रचकर जनमानस को आत्मानुशासन का पाठ पढ़ाया। उनके दोहे कहावत बनकर अमर हो गये:
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौरि
तेते पाँव पसारिये, जेती लाम्बी सौरि
मतिराम (सं.१६७४-१७४५) के अलंकारिक दोहों की रूप छटा मन मोहती है:
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक
धीरे-धीरे रे मना:
बुंदेलखंड में संतों ने दोहा की नर्मदा को सतत प्रवहमान बनाये रखा. विस्मय है कि आज साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता और भाषिक मतभेद के जिन विवादों से राष्ट्रीय एकता संकट है, उनके समाधान संतों ने सुझाये हैं। महामति प्राणनाथ (१६५८-१७०४ ई.) ने औरंगज़ेब की दमनकारी नीतियों का विरोधकर राष्ट्रीय गौरव के पर्याय छत्रसाल को समर्थन और सर्व धर्म समभाव का उपदेश दोहा माध्यम से दिया:
बाम्हन कहे हमहि उत्तम, यवन कहे हम पाक
दोउ मिट्टी इक ठौर की, एक राख इक खाक
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय
छत्रसाल औरंगजेबी दमन विरुद्ध जननायक तरह लोकप्रिय हुए
चौंकि-चौंकि सब दिस उठै, सूबा खान सुभान
अब धौं धावै कौन पर, छत्रसाल बलवान
छत्रसाल खुद भी निपुण दोहाकार थे:
निज स्वारथ सौं पाप नहिं, परस्वारथ सौं पुन्न
दिए इकाई सुन्न ज्यों, हो छत्ता दसगुन्न
छत्रसाल (१६८८-१७३१ ई.) की वृद्धावस्था में पर मुग़ल सिपहसालार मुहम्मद खां बंगश ने भारी भरकम लाव लश्कर के साथ हमला कर दिया। डूबते को तिनके का सहारा, काम आया दोहा जो छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को लिख भेजा:
जो बीती गजराज पे, सो बीती अब आय
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज
दोहा ने पेशवा का मर्म छुआ, उनकी ताकतवर फ़ौज ने बंगश की मुग़ल फ़ौज को धूल चटा दी।
प्राणनाथ के शिष्य देवचंद कायस्थ दोहा को धार्मिक सहिष्णुता का संदेशवाहक बनाया:
ए जो मोहरे खेल के, धरते भेख विवाद
एक भान पूजा धरें, कहते होत सबाब
महाकवि देव (सं. १७३०-१८३२) ने प्रेम के संयोग पक्ष तथा मानवर्णन को सांगीतिक उल्लास सहित दोहों का कथ्य बनाया। प्रथमतः शब्द शक्तियों पर दोहे कहे:
अमिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन
अधम व्यंजना रस बिरस, उल्टी कहत नवीन
प्रतापगढ़ निवासी भिखारीदास श्रीवास्तव (सं. ) श्रीवास्तव ने नायिका वर्णन कर दोहा को समृद्ध किया:
श्रीमानन के भौन में, भोग्य भामिनि और
तिनहूँ को सुकियाह में, गनें सुकवि सिरमौर
घनानंद कायस्थ (सं. १७४६-१७४६) के काव्य में शुद्धता,लाक्षणिक वक्रता, शैल्पिक सौष्ठव तथा माधुर्य अन्तर्निहित है:
मो से अनपहचान को, पहचाने हरि कौन?
कृपा कान मद नैन ज्यों, त्यों पुकार मति मौन
गिरधर कविराय (सं.१७७०- ) ने दोहा को कुंडलियों का शीश मुकुट बनाया:
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय
सैयद नबी बिलग्रामी "रसलीन"(सं. १७७१-१८३२) ने दोहों को रचना चातुर्य, उक्ति वैचित्र्य तथा चमत्कारिकता से समृद्ध किया:
अमिय हलाहल मदभरे, स्वेत-स्याम रतनार
जियत मरत झुक-झुक परत, जेहि चितवत इक बार
रीतिकालीन दोहाकारों की मणिमाला के अप्रतिम रत्न पद्माकर (सं. १८१०- १८९०) मधुर कल्पना को रस, भाव तथा अलंकार की त्रिवेणी से अलंकृत कर दोहा रचते रहे:
मनमोहन तन सघन घन, रमन राधिका मोर
श्री राधा मुखचंद को, गोकुल चंद चकोर
दोहा देता दिल मिला...
सिद्धहस्त दोहाकार आलम (जन्म से ब्राम्हण) दोहे का पहला पद लिखने के बाद पूरा सके तो संकल्प किया जो दोहा पूरा करेगा उसकी एक इच्छा पूरी करेंगे। वे दोहे की पर्ची पगड़ी में खोंसकर सो गये। शेख नामक रंगरेजिन धोने के लिये ले गयी, अधूरा दोहा पढ़ा, पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगड़ी में रख कर दे आयी। कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी। पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया, खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा था। चिंता हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने संकल्प के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी। आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया। शेख ने दोहा पूरा करना कुबूल किया, वह आलम को चाहती थी। मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... शेख कोई दूसरी इच्छा बताने को राजी न हुई, न आलम अपनी बात से पीछे हटाने को। आलम ने मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली। दो दिलों को जोड़नेवाला वह अमर दोहा है -
कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन? -आलम
कटि को कंचन काढ़ विधि, कुचन माँहि धरि दीन -शेख
राधापति हिय मैं धरौं:
अनेक कवियों के आश्रयदाता चरखारी नरेश विक्रम सिंह (१८३९-१८८६) के दोहे हृदयग्राही हैं:
राधापति हिय मैं धरौं, राधपति मुख-बैन
राधापति नैनन लहौं, राधापति सुखदैन
पंकज के धोखे मधुप, कियो केतकी संग
अंध भयो कंटक बिधौ, भयो मनोरथ भंग राम सतसई, वाणीभूषण, वृत्त तरंगिणी आदि ग्रंथों के रचयिता रामसहाय अष्ठाना 'राम' ( रचनाकाल १८६०-१८८०) दोहे भाषिक सौष्ठव, मनोरम व्यञ्जनाविधान तथा वाग्वैदग्धता के लिये उल्लेख्य हैं:
हरितन हरितन कत तकै, हरितन हरित निहारि
चरित न तो तन लखि परै, कित चित हित न बिसारि
अहे कहो कच सुमुखि के, बिधि बिरचे रूचि जोरि
छूटे बाँधत हैं बँधे, लेत ललन मन छोरि
बुंदेली के महाकवि ईसुरी (सं.१८९५-१९६६) श्रृंगार और आध्यात्मजड़ित दोहे और फागें रचकर अमर हैं:
आसमान में गरजना, कीको आय सुनाय
रिमझिम बरसत नीर है, बिजुरी खों चमकाय
लोकगीत राई ने दोहे को दिल में बसा रखा है:
बजाई आधी रात, बैरन मुरलिया सौत भई
पोर-पोर सब तन कटे, हरे न औगुन तोर
हरे बाँस की बाँसुरी, लै गई चित्त बटोर
बैरन मुरलिया तू सौत भई.…
विरह व्यथा का ह्रदय विदारक वर्णन हो या घोर श्रृंगार, ईश वंदना से ही गायन आरंभ होता है:
गिरिजसुत को सुमिरै कैं, धर सुरसती को ध्यान
आदिशक्ति जगजननि जू, कण्ठ बिराजो आन
आधुनिक हिंदीभवन के नींव के पत्थर भारतेंदु हरिश्चंद्र रचित दोहा नेता कंठस्थ कर सके होते हिंदी की दुर्दशा का कारण न बनते:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल
रीतिकालीन दोहायुग की कीर्ति पताका थामकर गिरिधर दास ( गोपालचन्द्र सं. १८९०-१९१७) मात्र २७ वर्ष की आयु में ४० ग्रंथ रचकर हिंदी को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने पुत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र के माध्यम से नव संस्कार भी किया:
सिंधु जनित गर हर पियो, मरे असुर समुदाय
नैन बान नैनन लग्यो, भरे करेजे धाय
निज भाषा उन्नति अहै:
प्राण-प्रण से हिंदी हेतु समर्पित भारतेंदु हरिश्चंद्र (१८५०-१८८५ई.) ने दोहा के साथ अन्य विधाओं को भी समृद्ध किया:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल
महाप्राण निराला जी (१८९६-१९६१ ई.) महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। असत्य, भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। उनके प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव के दोहा संकलन का विमोचन समारोह था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते॰खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कहा, निराला जी चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खडे होकर बडी॰बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया। वह दोहा है:
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
दोहा लगभग २००० वर्ष की यात्रा कर वर्तमान आधुनिक हिंदी के द्वार पर आ खड़ा हुआ। छंदहीनता के पक्षधर तथाकथित प्रगतिशील तत्वों की चुनौती झेलकर दोहा को नवस्फूर्ति के साथ सामायिक और प्रासंगिक बनाये रखने में अनेक समर्थ कलमों के योगदान पर चर्चा फिर कभी। नव पीढ़ी में हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित भाषा को ग्रहण करता दोहा नव प्रतीकों, बिम्बो, उपमानों से खुद को समृद्ध कर संजीवनी पा रहा है:
पल भर भी लगता नहीं, सपने हों अपलोड
निकल गयी सब ज़िंदगी, हुए न डाउनलोड
रैम-रॉम के फेर में, मॉनीटर संसार
कुछ भूले कुछ याद रख, कर दे बड़ा पार
हिंग्लिश की खिचड़ी पकी, वैलेंटाइन नाम
भूल वसन्तोसव रहे, साध्य न मन, है चाम
***
संदर्भ:१. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४, २. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७, ३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे, ४. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०.
२९-८-२०१४
***
द्विपदी सलिला:
इस आभासी जग में :
*
इस आभासी जग में सचमुच, कोई न पहरेदार
शिक्षित-बुद्धिमान हमलावर, देते कष्ट हजार
*
जिनसे जानते हैं जीवन में, उन्हें बनायें मित्र
'सलिल' सुरक्षित आप रहेंगे, मलिन न होगा चित्र
*
भली-भाँति कर जाँच- बाद में, भले मित्र लें जोड़
संख्या अधिक बढ़ाने की प्रिय!, कभी न करिए होड़
*
नकली खाते बना-बनाकर, छलिए ठगते मीत
प्रोफाइल लें जाँच, यही है, सीधी-सच्ची रीत
*
पढ़ें पोस्ट खाताधारी की, कितनी-कैसे लेख
लेखक मन की देख सकेंगे, रचनाओं में रेख
*
नकली चित्र लगाते हैं जो, उनसे रहिए दूर
छल करना ही उनकी फितरत, रही सजग जरूर
*
खाताधारक के मित्रों को देखें, चुप सायास
वस्त्र-भाव मुद्राओं से भी, होता कुछ आभास
*
देह-दर्शनी मोहकतामय, व्याल-जाल जंजाल
दिखें सोचिए इनके पीछे, कैसा है कंकाल?
*
संचित चित्रों-सामग्री को, देख करें अनुमान
जुड़ें-ना जुड़ें आप सकेंगे, उनका सच पहचान
*
शिक्षा, स्वजन, जीविका पर भी, तनिक दीजिए ध्यान
चिंतन धरा से भी होता, चिन्तक का अनुमान
*
नेता अभिनेता फूलों या, प्रभु के चिपका चित्र
जो परदे में छिपे- न उसका, विश्वसनीय चरित्र
*
स्वजनों के प्रोफाइल देखें, सच्चे या अनमेल?
गलत जानकारी देकर, कर सके न कोई खेल
*
शब्द और भाषा भी करते, गुपचुप कुछ संकेत
देवमूर्ति से तन में मन का, स्वामी कहीं न प्रेत
*
आक्रामक-अपशब्दों का जो, करते 'सलिल' प्रयोग
दूर रहें ऐसे लोगों से- हैं समाज के रोग
*
पासवर्ड हो गुप्त- बदलते रहिए बारम्बार
जान न पाए अन्य, सावधानी की है दरकार
२९-८-२०१३
***
संवाद कथा
अनदेखी
*
'आजकल कुछ परेशान दिख रहे हैं, क्या बात है?' मैंने मित्र से पूछा.
''क्या बताऊँ? कुछ दिनों से पोता विद्यालय जाने से मना करता है."
'क्यों?'
"कहता है रास्ते में कुछ बदतमीज बच्चे गाली-गलौज करते हैं. इससे उसे भय लगता है.''
'अच्छा, मैं कल उससे बात करूँगा, शायद उसकी समस्या सुलझ सके.'
अगले दिन मैं मित्र और उसके पोते के साथ स्थानीय भँवरताल उद्यान गया. मार्ग में एक हाथी जा रहा था जिसके पीछे कुछ कुत्ते भौंक रहे थे.
'क्यों बेटे? क्या देख रहे हो?'
बाबा जी! हाथी के पीछे कुत्ते भौंक रहे हैं.
'हाथी कितने हैं?'
बाबाजी ! एक.
'और कुत्ते?'
कई
'अच्छा, हाथी क्या कर रहा है?'
कुत्तों की ओर बिना देखे अपने रास्ते जा रहा है.
हम उद्यान पहुँच गए तो ओशो वृक्ष के नीचे जा बैठे. बच्चे से मैंने पूछा: ' इस वृक्ष के बारे में कुछ जानते हो?'
जी, बाबा जी! इसके नीचे आचार्य रजनीश को ज्ञान प्राप्त हुआ था जिसके बाद उन्हें ओशो कहा गया.
मैंने बच्चे को बताया कि किस प्रकार ओशो को पहले स्थानीय विरोध और बाद में अमरीकी सरकार का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी राह नहीं बदली और अंत में महान चिन्तक के रूप में इतिहास में अमर हुए.
वापिस लौटते हुई मैंने बच्चे से पूछा: 'बेटे! यदि हाथी या ओशो राह रोकनेवालों पर ध्यान देकर रुक जाते तो क्या अपनी मंजिल पा लेते?'
नहीं बाबा जी! कोई कितना भी रास्ता रोके, मंजिल आगे बढ़ने से ही मिलती है.
''यार! आज तो गज़ब हो गया, पोता अपने आप विद्यालय जाने को तैयार हो गया. कुछ देर बाद उसके पीछे-पीछे मैं भी गया लेकिन वह रास्ते में भौकते कुत्तों से न डरा, न उन पर ध्यान दिया, सीधे विद्यालय जाकर ही रुका.'' मित्र ने प्रसन्नता से बताया.
२९-८-२०१३
***
आकलन:अन्ना आन्दोलन
भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान:
*
अब जब अन्ना का आन्दोलन थम गया है, उनके प्राणों पर से संकट टल गया है यह समय समस्या को सही-सही पहचानने और उसका निदान खोजने का है.
सोचिये हमारा लक्ष्य जनतंत्र, प्रजातंत्र या लोकतंत्र था किन्तु हम सत्तातंत्र, दलतंत्र और प्रशासन तंत्र में उलझकर मूल लक्ष्य से दूर नहीं हो गये हैं क्या? यदि हाँ तो समस्या का निदान आमूल-चूल परिवर्तन ही है. कैंसर का उपचार घाव पर पट्टी लपेटने से नहीं होगा.
मेरा नम्र निवेदन है कि अन्ना भ्रष्टाचार की पहचान और निदान दोनों गलत दिशा में कर रहे हैं. देश की दुर्दशा के जिम्मेदार और सुख-सुविधा-अधिकारों के भोक्ता आई.ए.एस., आई.पी.एस. ही अन्ना के साथ हैं. न्यायपालिका भी सुख-सुविधा और अधिकारों के व्यामोह में राह भटक रही है. वकील न्याय दिलाने का माध्यम नहीं दलाल की भूमिका में है. अधिकारों का केन्द्रीकरण इन्हीं में है. नेता तो बदलता है किन्तु प्रशासनिक अधिकारी सेवाकाल में ही नहीं, सेवा निवृत्ति पर्यंत ऐश करता है.
सबसे पहला कदम इन अधिकारियों और सांसदों के वेतन, भत्ते, सुविधाएँ और अधिकार कम करना हो तभी राहत होगी.
जन प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता के तत्काल बाद की तरह जेब से धन खर्च कर राजनीति करना पड़े तो सिर्फ सही लोग शेष रहेंगे.
चुनाव दलगत न हों तो चंदा देने की जरूरत ही न होगी. कोई उम्मीदवार ही न हो, न कोई दल हो. ऐसी स्थिति में चुनाव प्रचार या प्रलोभन की जरूरत न होगी. अधिकृत मतपत्र केवल कोरा कागज़ हो जिस पर मतदाता अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिख दे और मतपेटी में डाल दे. उम्मीदवार, दल, प्रचार न होने से मतदान केन्द्रों पर लूटपाट न होगी. कोई अपराधी चुनाव न लड़ सकेगा. कौन मतदाता किस का नाम लिखेगा कोई जन नहीं सकेगा. हो सकता है हजारों व्यक्तियों के नाम आयें. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सब मतपत्रों की गणना कर सर्वाधिक मत पानेवाले को विजेता घोषित किया जाए. इससे चुनाव खर्च नगण्य होगा. कोई प्रचार नहीं होगा, न धनवान मतदान को प्रभावित कर सकेंगे.
चुने गये जन प्रतिनिधियों के जीवन काल का विवरण सभी प्रतिनिधियों को दिया जाए, वे इसी प्रकार अपने बीच में से मंत्री चुन लें. सदन में न सत्ता पक्ष होगा न विपक्ष, इनके स्थान पर कार्य कार्यकारी पक्ष और समर्थक पक्ष होंगे जो दलीय सिद्धांतों के स्थान पर राष्ट्रीय और मानवीय हित को ध्यान में रखकर नीति बनायेंगे और क्रियान्वित कराएँगे.
इसके लिये संविधान में संशोधन करना होगा. यह सब समस्याओं को मिटा देगा. हमारी असली समस्या दलतंत्र है जिसके कारण विपक्ष सत्ता पक्ष की सही नीति का भी विरोध करता है और सत्ता पक्ष विपक्ष की सही बात को भी नहीं मानता.
भारत के संविधान में अल्प अवधि में दुनिया के किसी भी देश और संविधान की तुलना में सर्वाधिक संशोधन हो चुके हैं, तो एक और संशिधन करने में कोई कठिनाई नहीं है. नेता इसका विरोध करेंगे क्योकि उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जायेंगे किन्तु जनमत का दबाब उन्हें स्वीकारने पर बाध्य कर सकता है.
ऐसी जन-सरकार बनने पर कानूनों को कम करने की शुरुआत हो. हमारी मूल समस्या कानून न होना नहीं कानून न मानना है. राजनीति शास्त्र में 'लेसीज़ फेयर' सिद्धांत के अनुसार सर्वोत्तम सरकार न्यूनतम शासन करती है क्योंकि लोग आत्मानुशासित होते हैं. भारत में इतने कानून हैं कि कोई नहीं जनता, हर पाल आप किसी न किसी कानून का जने-अनजाने उल्लंघन कर रहे होते हैं. इससे कानून के अवहेलना की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी है. इसका निदान केवल अत्यावश्यक कानून रखना, लोगों को आत्म विवेक के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देना तथा क्षतिपूर्ति अधिनियम (law of tort) को लागू करना है.
क्या अन्ना और अन्य नेता / विचारक इस पर विचार करेंगे?
२९-८-२०११

रविवार, 18 अगस्त 2024

अगस्त १८, कहमुकरी, शुद्धगीता छंद, सरसी कुण्डलिया, दोहा मुक्तिका, द्विपदी,

सलिल सृजन अगस्त १८  

कहमुकरी

*
अंतर्मन में चित्र गुप्त है
अभी दिख रहा, अभी लुप्त है
कुछ पहचाना, कुछ अनजान
क्या सखि साजन?, नहिं भगवान
*
मन मंदिर में बैठा आकर
कहीं नहीं जाता वह जाकर
उसकी दम से रहे बहार
क्या सखि ईश्वर?, ना सखि प्यार
*
है समर्थ पर कष्ट न हरती
पल में निर्भय, पल में डरती
मनमानी करती हर बार
मितवा सजनी?, नहिं सरकार
*
जब आता तब आग लगाता
इसे लड़ाता, उसे भिड़ाता
होने देता नहीं निभाई
भाग्यविधाता?, नहीं चुनाव
*
देख आप हर कर जुड़ जाता
बिना कहे मस्तक झुक जाता
भूल व्यथा, हो हर मन चंगा
देव?, नहीं है ध्वजा तिरंगा
*
दैया! लगता सबको भय
कोई रह न सके निर्भय
कैद करे मानो कर टोना
सखी! सिपैया, नहिं कोरोना
*
जो पाता सो सुख से सोता
हाय हाय कर चैन न खोता
जिसे न मिलता करता रोष
है सखि रुपया, नहिं संतोष
*
माया पाती तनिक न मोह
पास न फटके गुस्सा-द्रोह
राजा है या संत विशेष
सुन सखि! सूरज, ना मिथिलेश
*
जन प्रिय मोह न पाता काम
अभिवादन है जिसका नाम
भक्तों का भय पल में लें हर
प्रिय! मधुसूदन?, नहिं शिवशंकर
*
पल में सखि री! चित्त चुराता
अनजाने मन में बस जाता
नयन बंद तो भी दे दर्शन
सखि! साजन?, नहिं कृष्ण सुदर्शन
*
काम करे निष्काम रात-दिन
रक्षा कर, सुख भी दे अनगिन
फिर भी रहती सदा विनीता
सजनी?, ना ना नदी पुनीता
*
इसको उससे जोड़ मिलाए
शीत-घाम हँस सहता जाए
सब पग धरते निज हित हेतु
क्या सखि धरती?, ना सखि सेतु
*
वह आए रौनक आ जाती
जाए ज्यों जीवन ले जाती
आँख मिचौली खेले उजली
क्या प्रिय सजनी?, ना सखि बिजली
*
भर देता मन में आनंद
फूल खिला बिखरा मकरंद
सबको सुखकर जैसे संत
क्या सखि!साजन? नहीं बसंत
18-8-2020
***
शुद्धगीता छंद
छंद सलिला सतत प्रवहित, मीत अवगाहन करें।
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें।।
लक्षण:
१. ४ पंक्ति।
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा।
३. १४-१३ मात्राओं पर यति।
४. हर पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा।
५. हर २ पंक्ति में सम तुकांत।
लक्षण छंद:
शुद्धगीता छंद रचना, सत्य कहना कवि न भूल।
सम प्रशंसा या कि निंदा, फूल दे जग या कि शूल।।
कला चौदह संग तेरह, रहें गुरु-लघु ही पदांत।
गगनचुंबी गिरे बरगद, दूब सह तूफ़ान शांत।।
उदाहरण:
कौन है किसका सगा कह, साथ जो देता न छोड़?
गैर क्यों मानें उसे जो, साथ लेता बोल होड़।।
दे चुनौती, शक्ति तेरी बढ़ाता है वह सदैव।
आलसी तू हो न पाए, गर्व की तज दे कुटैव।।
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
*
मुक्तक
ढाले- दिल को छेदकर तीरे-नज़र जब चुभ गयी,
सांस तो चलती रही पर ज़िन्दगी ही रुक गयी।
तरकशे-अरमान में शर-हौसले भी कम न थे -
मिल गयी ज्यों ही नज़र से नज़र त्यों ही झुक गयी।।
***
छंद सलिला: पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख...
छंद सलिला सतत प्रवाहित, मीत अवगाहन करें
शारदा का भारती सँग, विहँस आराधन करें
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार
*
नव प्रयोग: सरसी कुण्डलिया
*
कुंडलिया छंद (एक दोहा + एक रोला, दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण, दोहारम्भ के अक्षर, शब्द, शब्द समूह या पंक्ति रोला के अंत में) और्सर्सी छंद (१६-११, पदांत गुरु-लघु) से हम पूर्व परिचित हो चुके हैं. इन दोनों के सम्मिलन से सरसी कुण्डलिया बनता है. इसमें कुछ लक्षण कुण्डलिया के (६ पंक्तियाँ, चतुर्थ चरण का पंचम चरण के रूप में दुहराव, आरंभ के अक्षर, शब्दांश, शब्द ता चरण का अंत में दुहराव) तथा कुछ लक्षण सरसी के (प्रति पंक्ति २७ मात्रा, १६-११ पर यति, पदांत गुरु-लघु) हैं. ऐसे प्रयोग तभी करें जब मूल दोनों छंद साध चुके हों.
लक्षण:
१. ६ पंक्ति.
२. प्रति पंक्ति २७ मात्रा.
३. पहली दो पंक्ति १६-११ मात्राओं पर यति, बाद की ४ पंक्ति ११-१६ पर यति.
४. पंक्ति के अंत में गुरु-लघु मात्रा.
५. चतुर्थ चरण का पंचम चरण के रूप में दुहराव.
६. छंदारंभ के अक्षर, शब्दांश, शब्द, या शब्द समूह का छंदात में दुहराव.
उदाहरण:
भारत के जन गण की भाषा, हिंदी बोलें आप.
बने विश्ववाणी हिंदी ही, मानव-मन में व्याप.
मानव मन में व्याप, भारती दिल से दिल दे जोड़.
क्षेत्र न पाए नाप, आसमां कितनी भी ले होड़.
कहता कवी 'संजीव', दिलों में बढ़े हमेशा प्यार.
हो न नेह निर्जीव, न नाते कभी बनेंगे भार.
***
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल
१८-८-२०१७
***
दोहा मुक्तिका-
*
साक्षी साक्षी दे रही, मत हो देश उदास
जीत बनाती है सदा, एक नया इतिहास
*
कर्माकर ने दिखाया, बाकी अभी उजास
हिम्मत मत हारें करें, जुटकर सतत प्रयास
*
जीत-हार से हो भले, जय-जय या उपहास
खेल खिलाड़ी के लिए, हर कोशिश है खास
*
खेल-भावना ही हरे, दर्शक मन की प्यास
हॉकी-शूटिंग-आर्चरी, खेलो हो बिंदास
*
कहाँ जाएगी जीत यह?, कल आएगी पास
नित्य करो अभ्यास जुट, मन में लिए हुलास
*
निराधार आलोचना, भूल करो अभ्यास
सुन कर कर दो अनसुना, मन में रख विश्वास
*
मरुथल में भी आ सके, निश्चय ही मधुमास
आलोचक हों प्रशंसक, डिगे न यदि विश्वास
१८-८-२०१६
***
रोचक चर्चा:
अगले २० वर्षों में मिटने-टूटनेवाले देश

यू ट्यूब के उक्त अध्ययन के अनुसार अगले २० वर्षों में दुनिया के १० देशो के सामने मिटने या टूटने का गंभीर खतरा है.
१. स्पेन: केटेलेनिआ तथा बास्क क्षेत्रों में स्वतंत्रता की सबल होती मांग से २ देशों में विभाजन.
२. उत्तर कोरिआ: न्यून संसाधनों के कारण दमनकारी शासन के समक्ष आत्मनिर्भरता की नीति छोड़ने की मजबूरी, शेष देशों से जुड़ते ही परिवर्तन और दोनों कोरिया एक होने की मान के प्रबल होने के आसार.
३. बेल्जियम: वालोनिआ तथा फ्लेंडर्स में विभाजन की लगातार बढ़ती मांग.
४. चीन: प्रदूषित होता पर्यावरण, जल की घटती मात्र, २०३० तक चीन उपलब्ध जल समाप्त कर लेगा। प्रांतों में विभाजन की माँग।
५. इराक़: सुन्नी, कुर्द तथा शीट्स बहुल ३ देशों में विभाजन की माँग.
६. लीबिया: ट्रिपोलिटेनिआ, फैजान तथा सायरेनीका में विभाजन
७. इस्लामिक स्टेट: तुर्किस्तान, सीरिया, सऊदी अरब, ईरान, तथा इराक समाप्त कर उसके क्षेत्र को आपस में बांटने के लिये प्रयासरत।
८. यूनाइटेड किंगडम: स्कॉट, वेल्स तथा उत्तर आयरलैंड में स्वतंत्र होने के पक्ष में जनमत।
९. यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका: ५० प्रांतों का संघ, अलास्का तथा टेक्सास में स्वतंत्र होने की बढ़ती माँग।
१०. मालदीव: समुद्र में डूब जाने का भीषण खतरा।
११. पाकिस्तान: पंजाब, सिंध तथा बलूचों में अलग होने की मांग.
१२. श्री लंका: तमिलों तथा सिंहलियों में सतत संघर्ष।
१८-८-२०१५
***
एक द्विपदी
हो चुका अवतार, अब हम याद करते हैं मगर
अनुकरण करते नहीं, क्यों यह विरोधाभास है?
१८-८-२०१४
***