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शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

गीत: प्रेम कविता... संजीव 'सलिल'

गीत:
प्रेम कविता...
संजीव 'सलिल'
*
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*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

कविताएँ: विस्थापन की त्रासदी --मदन गोपाल लढ़ा

कविताएँ:

विस्थापन की त्रासदी

मदन गोपाल लढ़ा

madanrajasthani@ gmail.com




राजस्थान के मरुकांतार क्षेत्र में वर्ष 1984 में सेना के तोपाभ्यास हेतु महाजन फ़ील्ड फ़ायरिंग रेंज की स्थापना हुई तो चौंतीस गांवों को उजड़ना पड़ा। ये कविताएँ विस्थापन की त्रासदी को सामुदायिक दृष्टिकोण से प्रकट करती हैं। कविताओं में प्रयुक्त मणेरा, भोजरासर, कुंभाणा उन विस्थापित गावों के नाम हैं जो अब स्मृतियों में बसे हैं।

1.

मरे नहीं हैं

शहीद हुए हैं

एक साथ

मरूधरा के चौंतीस गाँव

देश की ख़ातिर।

सेना करेगी अभ्यास

उन गाँवों की ज़मीन पर

तोप चलाने का

महफ़ूज रखेगी

देश की सरहद।

पर क्या देश के लोग

उन गाँवों की शहादत को

रखेंगे याद?

2.

गाड़ों में

लद गया सामान

ट्रालियों में

भर लिया पशुधन

घरों के

दरवाज़े-खिड़कियाँ तक

उखाड़ कर डाल लिए ट्रक में

गाँव छोड़ते वक़्त्त लोगों ने

मगर

अपना कलेजा

यहीं छोड़ गए।

3.

किसी भी कीमत पर

नहीं छोड़ूँगा गाँव

फूट-फूट कर रोए थे बाबा

गाँव छोड़ते वक़्त।

सचमुच नहीं छोड़ा गाँव

एक पल के लिए भी

भले ही समझाईश के बाद

मणेरा से पहुँच गए मुंबई

मगर केवल तन से

बाबा का मन तो

आज भी

भटक रहा है

मणेरा की गुवाड़ में।

बीते पच्चीस वर्षों से

मुंबई में मणेरा को ही

जी रहे हैं बाबा।

4.

घर नहीं

गोया

छूट गया हो पीछे

कोई बडेरा

तभी तो

आज भी रोता है

मन

याद करके

अपने गाँव को।

5.

तोप के गोलों से

धराशाई हो गई हैं छतें

घुटनें टेक दिए हैं दीवारों ने

जमींदोज हो गए हैं

कुएँ

खंडहर में बदल गया है

समूचा गाँव

मगर यहाँ से कोसों दूर

ऐसे लोग भी हैं

जिनके अंतस में

बसा हुआ है

अतीत का अपना

भरा-पूरा गाँव

6.

अब नहीं उठता धुआँ

सुबह-शाम

चूल्हों से

मणेरा गाँव में।

उठता है

रेत का गु्बार

जब दूर से आकर

गिरता है

तोप का गोला

धमाके के साथ

और भर जाता है

मणेरा का आकाश

गर्द से।

यह गर्द नहीं

मंज़र है यादों का

छा जाता है गाँव पर

लोगों के दिलों में

उठ कर

दूर दिसावर से।

7.

उस जोहड़ के पास

मेला भरता था

गणगौर का

चैत्र शुक्ला तीज को

सज जाती

मिठाई की दुकानें

बच्चों के खिलोने

कठपुतली का खेल

कुश्ती का दंगल

उत्सव बन जाता था

गाँव का जीवन।

उजड़ गया है गाँव

अब पसरा है वहाँ

मरघट का सूनापन

हवा बाँचती है मरसिया

गाँव की मौत पर।

8.

गाँव था भोजरासर

कुंभाणा में ससुराल

मणेरा में ननिहाल

कितना छतनार था

रिश्तों का वट-वृक्ष।

हवा नहीं हो सकती यह

ज़रूर आहें भर रहा है

उजाड़ मरुस्थल में पसरा

रेत का अथाह समंदर।

गाँवों के संग

उजड़ गए

कितने सारे रिश्ते।


9.


कौन जाने

किसने दिया श्राप

नक्शे से गायब हो गए

चौंतीस गाँव।

श्राप ही तो था

अन्यथा अचानक

कहाँ से उतर आया

ख़तरा

कैसे जन्मी

हमले की आशंका

हँसती-खेलती ज़िन्दगी से

क्यों ज़रूरी हो गया

मौत का साजो-सामान?

हज़ार बरसों में

नहीं हुआ जो

क्योंकर हो गया

यों अचानक।


10.


आज भी मौज़ूद है

उजड़े भोजरासर की गुवाड़ में

जसनाथ दादा का थान

सालनाथ जी की समाधि

जाल का बूढ़ा दरखत

मगर गाँव नहीं हैं।

सुनसान थेहड में

दर्शन दुर्लभ हैं

आदमजात के

फ़िर कौन करे

सांझ-सवेरे

मन्दिर मे आरती

कौन भरे

आठम का भोग

कौन लगाए

पूनम का जागरण

कौन नाचे

जलते अंगारों पर।

देवता मौन है

किसे सुनाए

अपनी पीड़ा।



11.


अब नहीं बचा है अंतर

श्मशान और गाँव में।

रोते हैं पूर्वज

तड़पती है उनकी आत्मा

सुनसान उजड़े गाँव में

नहीं बचा है कोई

श्राद्ध-पक्ष में

कागोल़ डालने वाला

कव्वे भी उदास हैं।

***************