संजीव वर्मा सलिल एक जुनूनी साहित्यकार
राजेश अरोरा शलभ
संजीव वर्मा सलिल एक जुनूनी साहित्यकार हैं...जैसा पिछले लगभग 25 वर्षों से मैंने उन्हें जाना ।उनसे मेरी पहली मुलाकात अभियंता साहित्यकारों की संस्था, 'अभियान' म.प्र.की लखनऊ शाखा के एक कार्यक्रम में हुई थी जब हम दोनों ने एक दूसरे को समझा और जाना था।हुआ यूं कि वर्ष 1996 में मेरी एक पुस्तक 'हास्य बम ' प्रकाशित हुई थी और सलिल जी ने मुझे इस पुस्तक को अभियान जबलपुर,मध्यप्रदेश (जो संस्था का मुख्यालय था ) द्वारा आयोजित होने वाली प्रकाशित पुस्तकों की एक प्रतियोगिता में भेजने के लिए प्रेरित किया ।बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि प्रतियोगिता साहित्य की सभी विधाओं हेतु अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित हो रही है और निर्णयोपरांत विजेताओं के लिए एक भव्य पुरस्कार व सम्मान कार्यक्रम प्रस्तावित है, साथ हीक्षअन्य सत्रों में कवि सम्मेलन व नाटक आदि भी आयोजित थे ।कुल मिलाकर मुझे यह प्रतियोगिता उचित और निष्पक्ष लगी क्योंकि प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल में मैं किसी को भी जानता - पहचानता नहीं था !अतः मैंने पुस्तक प्रविष्टि प्रतियोगिता हेतु भेज दी ।
उसके बाद सलिल जी से इस विषय पर कोई बातचीत नहीं हुई ।
लगभग एक माह के पश्चात मुझे उनके एक औपचारिक पत्र से ज्ञात हुआ कि निर्णायक मंडल ने सर्व सम्मति से हास्य विधा में 10 हिन्दी भाषी राज्यों से प्राप्त 107 हास्य व्यंग्य की पुस्तकों में से सम्यक् विचारोपरांत 'हास्य बम 'को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है और सम्मान व पुरस्कार कार्यक्रम जबलपुर, म.प्र. में फलां फलां तारीख को होना सुनिश्चित है ,जिसमें मैं सादर आमंत्रित किया गया था ।
निर्धारित तिथि पर मैं जबलपुर पहुंच गयाऔर मुझे स्टेशन पर रिसीव करने पूरी विनम्रतापूर्वक सलिल जी स्वयं आये । मैंने उनसे पूछा कि मैं कहा रुकूंगा तो उन्होंने बड़ी सदाशयता से कहा कि उनके रहते हुए आपको कोई परेशानी नहीं होगी।जहाँ तक रुकने की बात है तो आपके रुकने की व्यवस्था तोअन्य अतिथियों की भांति होटल में भी की गई है परंतु यदि आप उचित समझें तो मेरे घर भी रुक सकते हैं ,वहां आपको कदाचित अधिक आराम मिले ।मैंने भी सोचा कि सलिल जी ठीक ही कह रहे हैं, क्योंकि मैंने सुन रखा था कि उनकी पत्नी भी साहित्य प्रेमी हैं ,तो उनके घर से अच्छा साहित्यिक वातावरण और कहां हो सकता था ,अतः मैंने भी घरपर रुकने के लिए अपनी सहमति दे दी,जिससे सलिल जी प्रसन्न दिखे । तात्पर्य यह कि जबलपुर में मेरे प्रवास की सम्पूर्ण अवधि के दौरान सलिल जी ने मेरे आतिथ्य और आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी वरन् यह भी उलाहना दी कि मैं साथ अपनी धर्मपत्नी को क्यों नहीं लाया ? यही नहीं ,कार्यक्रम के उपरांत भी उन्होंने मुझे दो दिन जबलपुर में रोककर नर्मदा जी के दर्शन सहित पूरे जबलपुर नगर के रमणीक स्थलों की सैर भी कराई ।बाद में स्टेशन तक छोड़ने भी स्वयं आए ,जबकि अगर वह इतनी सदाशयता न भी दिखाते, तो भी मुझे उनसे मिलकर उनके व्यवहार से महती प्रसन्नता हुई थी ।
कदाचित सलिल जी के साथ मेरा यह संस्मरण उनके समूचे सरल व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है ।
कालांतर में जब मेरी एक अन्य पुस्तक 'अनंत हसंत' को 2001में अभियान ,जबलपुर द्वारा सभी विधाओं में सम्मिलित रूप से सर्वश्रेष्ठ निर्णीत किया गया तो सलिल जी ने लखनऊ में कार्यक्रम आयोजित करने की इच्छा व्यक्त की और मुख्य अतिथि के रूप में तत्कालीन राज्यपाल, उ.प्र. आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी को आमंत्रित करने का आग्रह मुझसे किया तब मैंने भी उनके उस कार्यक्रम हेतु तत्कालीन काबीना मंत्री,उ.प्र., शीमा रिज़्वी से (जो मुझसे व्यक्तिगत रूप से भली भांति परिचित थीं ) निवेदन कर राज्यपाल जी से इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के लिए उनकी सहमति सहजता से अल्प समय में ही प्राप्त कर ली ।इस कार्यक्रम के बाद सलिल जी से मेरे व्यक्तिगत संबंध और प्रगाढ़ हो गये ।राज्यपाल आचार्य विष्णु कांत शास्त्री जी ने भी जबलपुर से आकर लखनऊ में भव्य कार्यक्रम आयोजित करने हेतु अभियान संस्था और उसके संस्थापक संजीव वर्मा सलिल की भूरि- भूरि प्रशंसा की।
सलिल की साहित्य साधना
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यह तो सलिल जी के व्यक्तित्व की एक झलक थी..यदि बात करें उनकी साहित्य साधना की , उनकी रचनात्मकता की ,तो मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि शायद ही कोई दिन ऐसा होता होगा जब संजीव कुछ न कुछ रचना न करते हों..दोहा छंद तो उनके लिए बायें हाथ के एक खेल की तरह है.उन्हें चलते फिरते गूढ़ से गूढ़ बातों को दोहों में व्यक्त करने में महारथ प्राप्त है।विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण साहित्य में तर्कसंगत कथ्य रचने में उन्हें सहायता मिलती है । "भूकम्प से कैसे बचें "उनकी पुस्तक इसका एक अच्छा उदाहरण है।वे बीसियों साल "नर्मदा" साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर अपनी सम्पादन क्षमता का सबल परिचय देते रहे ।यहीं पर एक और बात का उल्लेख करना चाहूंगा ,वह यह कि नर्मदा का गेट अप देखकर मुझे लगता था कि शायद वह ज़रूरत से ज़्यादा घना था और उससे कुछ अधिक दर्शनीय बनाया जा सकता था , परंतु साथ ही मैंने ग़ौर किया कि कदाचित सलिल जी की सोच यह रही हो कि अधिक से अधिक पठनीय सामग्री को कम से कम स्थान व मूल्य में पाठकों को पहुंचाया जाये।बहरहाल, तात्पर्य यह है कि सलिल का वैज्ञानिक आधार उनकी रचनात्मकता में बाधक न होकर सहायक होता रहता है और अधिकतम प्राप्ति के सिद्धांत को पुष्ट करता है ।
सलिल जी को समय के साथ चलना भी बख़ूबी आता है ।जब सोशल मीडिया अपनी शैशवावस्था में था, तभी उन्होंने इसके भविष्य को भांपकर अपना लिया और नर्मदा का प्रकाशन इंटरनेट पर करना प्रारम्भ कर दिया जो एक दूरदर्शी कदम था और जिसका लाभ अब उन्हें मिल रहा है ।वे एक अभियंता से आचार्य के रूप में स्थापित हो चुके हैं और अपने ज्ञान,विज्ञान और वृहत साहित्य सृजनात्मकता से सैकड़ों साहित्यप्रेमियों के हृदयों पर राज कर रहे हैं..उनका सृजन अब काफी समृद्ध हो चुका है और उनकी ख्याति दिन ब दिन बढ़ती जा रही है जो अनायास नहीं, सायास प्रतीत होती है और उनके परिश्रम को प्रमाणित करती है ।
मैं सलिल जी के स्वस्थ व सक्रिय साहित्यिक दीर्घायु की कामना करता हूं ।