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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

एक कविता: पर्वतों पर... संजीव 'सलिल'

एक कविता:

पर्वतों पर...

संजीव 'सलिल'
*








*
पर्वतों पर
सघन वन प्रांतर में
मिलते हैं भग्नावशेष.
बताते हैं खंडहर
कभी बुलंद थीं इमारतें,
कुछ अब तक हैं बुलंद
किन्तु कब तक रहेंगी
कोई नहीं कह सकता.
*
पर्वतों पर
कभी हुआ करते थे
गगनचुम्बी वृक्षों से
होड़ लेते दुर्ग,
दुर्गों में महल,
महलों में राजा-रानियाँ,
बाहर आम लोग और
आम लोगों के बीच
लोकमान्य संत. 
*
राजा करते थे षड्यंत्र,
संत बनाते थे मंदिर.
राजा लड़ते थे सत्ता के लिये.
संत जीते थे
सबके कल्याण के लिये.
समय के साथ मिट गए
संतों के आश्रम
किन्तु
अमर है संतों की वाणी. 
*
समय के साथ
न रहे संत, न राजा-रानी
किन्तु शेष हैं दुर्ग और महल,
कहीं खंडित, कहीं सुरक्षित.
संतों की वाणी
सुरक्षित है पर अब
मानव पर नहीं होता प्रभाव.
दुर्ग और महल
बन गए होटल या
हो गए खंडहर.
पथदर्शक सुनाते हैं
झूठी-सच्ची कहानियाँ.
नहीं होता विश्वास या रोमांच
किन्तु सुन लेते हैं हम कुतूहल से.
वैसे ही जैसे संत-वाणी.
*
कहीं शौर्य, कहीं त्याग.
कहीं षड्यंत्र, कहीं अनुराग.
कहीं भोग, कहीं वैराग्य.
कहीं सौभाग्य, कहीं दुर्भाग्य.
भारत के हर कोने में फ़ैले हैं
अवशेष और कहानियाँ.
हर हिस्से में बताई जाती हैं
समझदारियाँ और नादानियाँ.
मन सहज सुने को
मानकर भी नहीं मानता.
बहुत कुछ जानकर भी नहीं जानता.
*
आज की पीढी
पढ़ती है सिर्फ एक पाठ.
कमाओ, उडाओ, करो ठाठ.
भूल जाओ बीता हुआ कल,
कौन जानता है के होगा कल,
जियो आज में, आज के लिये.
चंद सिरफिरे
जो कल से कल तक जीते हैं
वे आज भी, कल भी
देखेंगे किले और मंदिर,
खंडहर और अवशेष,
लेखेंगे गत-आगत.
दास्तां कहते-कहते
सो जायेंगे
पर कल की थाती
कल को दे जायेंगे.
भविष्य की भूमि में
अतीत की फसल
बो जायेंगे.
*