कुल पेज दृश्य

muktak geet लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
muktak geet लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

मुक्तक गीत

मुक्तक गीत:
अभियंता दिवस (१५ सितंबर) पर विशेष रचना:
हम अभियंता...
संजीव 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...
*
अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.
वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.
साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.
'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...
.***

रविवार, 3 जुलाई 2016

गीत

एक रचना 
हर कविता में कुछ अक्षर 
रस बरसा जाते आकर 
*
कुछ किलकारी भरते हैं 
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धुप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****

geet

एक रचना 
हर कविता में कुछ अक्षर 
रस बरसा जाते आकर 
*
कुछ किलकारी भरते हैं 
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धूप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****