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शुक्रवार, 3 मई 2019

samiksha

पुस्तक चर्चा:
'ऐसा भी होता है' गीत मन भिगोता है 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'  
*
[पुस्तक परिचय: ऐसा भी होता है, गीत संग्रह, शिव कुमार 'अर्चन', वर्ष २०१७, आईएसबीएन ९७८-९३-९२२१२- ८९-५, आकार २१ से.मी.x १४ से.मी., आवारण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य ७५/-, पहले पहल प्रकाशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, ९८२६८३७३३५, गीतकार संपर्क: १० प्रियदर्शिनी ऋषि वैली, ई ८ गुलमोहर विस्तार, भोपाल, ९४२५१३७१८७४]
*
                   सौंदर्य की नदी नर्मदा अपने अविरल-निर्मल प्रवाह के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आदिकाल से कलकल निनादिनी के तट पर शब्द-साधना और शब्द-साधकों की अविच्छिन्न परंपरा रही है। इस परंपरा को वर्तमान समय में आगे बढ़ाने में महती भूमिका का निर्वहन के प्रति सचेष्ट सरस्वती-सुतों में  शिवकुमार 'अर्चन' का नाम उल्लेखनीय है। शिवकुमार गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में दखल रखते हैं। विवेच्य कृति के पूर्व दो कृतियों ग़ज़ल क्या कहे कोई २००७ तथा गीत संग्रह उत्तर की तलाश २०१३ के माध्यम से हिंदी जगत ने अर्चन के कृतित्व में अंतर्निहित बाँकी बिम्बात्मकता और मौलिक कहन के गंगो-जमुनी संगम का आनंद लिया है। 
                   अर्चन के गीत आम आदमी के दर्द-दुःख, जीवन के उतार-चढ़ाव, मौसम की धूप-छाँव और संघर्ष-सफलता के बीच में से उभरते हैं। अर्चन आकाश कुसुम की तरह काल्पनिक कमनीयता, दिवास्वप्न की तरह वायवी आदर्शवादिता, कृत्रिम क्रंदन के कोलाहल, ऐ.सी. में बैठकर नकली अभावों की प्रदर्शनी लगाने, अथवा गले तक ठूस कर भोग लगाने के बाद भुखमरी को शोकेस में सजानेवाले शब्द-बाजीगरों से सर्वथा अलग शिष्ट-शांत, मर्यादित तरीके और सलीके से अपनी बात सामने रखने में दक्ष हैं। 
                   प्रेम और श्रृंगार अर्चन के प्रिय विषय है किन्तु सात्विकता के पथिक होने के नाते वे प्रदर्शनप्रियता, प्रगल्भता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं करते। साहित्यिक गोष्ठियों, काव्य मंचों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपने गीतों और ग़ज़लों के माधुर्य के लिए अर्चन जाने जाते हैं। सात्विक श्रृंगार की एक बानगी 'फूल पारिजात के' गीत से-
                   आँखों में उग आये / फूल पारिजात के
                   ऐसे अनुदान हुए / भीगी बरसात के
                   साँसों पर टहल रहीं / अनछुई सुगन्धियाँ
                   राजमार्ग जीती हैं / सूनी पगडंडियाँ
                   तितली के पंखों पर / हैं निबंध रात के
                   कविता का उत्स पीड़ा से सर्व मान्य है। भारतीय वांग्मय में मिथुनरत क्रौंच युगल पर व्याध के शर-प्रहार से नर का प्राणांत होने पर व्याकुल क्रौंची के आर्तनाद को काव्य का उद्गम कहा गया है तो अरब में हिरन शावक के वध पश्चात हिरनी के आर्तनाद को ग़ज़ल का मूल बताया गया है। पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' गीतकार शैलेन्द्र कहते हैं- ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'' अर्चन का अनुभव इनसे जुदा न होते हुए भी जुदा है। जुदा इसलिए नहीं कि अर्चन भी छंद का उत्स दर्द से मानते हैं, जुदा इसलिए कि यह दर्द मृत्युजनित नहीं, प्रेमजनित है।
जो ऐसे अनुबंध न होते / दर्द हमारे छंद न होते
अगर न पीड़ाओं को गाते / तो शायद कब के मर जाते
और
जब-जब हमने गीत उठाया / दौड़ा, दौड़ा आँसू आया
अर्चन गीत और नवगीत को एक शाख पर खिले दो फूलों की तरह देखते हैं। उन्हें गीत-नवगीत में भारत-पकिस्तान की तरह अनुल्लंघ्य सीमारेखा कहीं नहीं दिखती। इसलिए वे दोनों को साथ-साथ रचते, गुनगुनाते, गाते है नहीं छपाते भी रहे हैं। अर्चन के नवगीत 'अभाव' को सहजता से सहकर 'भाव' की भव्यता को जीते भारतीय मानस के आत्मानंद को अभिव्यक्त करते हैं। वे सहज सुलभ सुविधा से रहते हुए आडम्बरी असुविधा को शब्दों में गूँथने का पाखंड नहीं करते। संभवत: इसीलिये साम्यवादी विचारधारा समर्थक आलोचक अर्चन के नवगीतों में सामाजिक विघटन परक विसंगति-विडम्बना और ओढ़े हुए दर्द-अन्याय के भाव में उन्हें नवगीत कहते झिझकते हैं। अर्चन ने नवगीत को उत्सवधर्मी भावमुद्रा दी है। एक झलक 'धरती मैया' शीर्षक नवगीत से- जय-जय धरती मैया रे / चल-चल-चल हल भैया रे!
गीत उगायें माटी में / गीतों के राम रखैया रे!
झम्मर-झम्मर बदरा बरसे / महकी क्यारी-क्यारी...
... धरती के पृष्ठों पर लिख दें / श्रम की नयी कहानी...
... अमृत बाँटा, ज़हर पी लिया / श्रम इस तरह जिया है
 धरती पलना, डूब बिछौना / अम्बर ओढ़ लिया है
जिन्हें नहीं है श्रम से मतलब खाएं दूध मलैया रे!
यह नवगीत लोकगीत, जनगीत और पारंपरिक गीत तीनों में गिना जा सकता है। यह गीत अर्चन की समरसतापरक सोच की बानगी प्रस्तुत करता है।
'संध्या' शीर्षक नवगीत में ताम के हाथों तमाचा खाकर शंकाओं को जनम देने वाला उजियारा हो या प्रश्न चिन्ह लिए लौट रहा श्रम अथवा सौतन रात के कहर से रोती सूर्यमुखी तीनों का अंत आशा, उल्लास के सूर्य का वंश पालने से होता है। नवगीत के उद्गम के समय चिन्हित किये गए कुछ लक्षणों को पत्थर की लकीर मान रहे तथाकथित प्रगतिवादी खेमे के समीक्षक 'गीत' के मरने की घोषणा कर खुद को कालजयी मानने की मृग मरीचिका से छले जाकर इहलोक से प्रस्थान कर गए किन्तु गीत और छंद अदम्य जिजीविषा के पर्याय बनकर नवपरिवेशानुकूल साज-सज्जा के साथ सर उठाकर खड़े ही नहीं हुए, सृजनाकाश में अपनी पताका भी फहरा रहे हैं। नवगीत की उत्सवधर्मी भावमुद्रा के विकास में अर्चन का योगदान उल्लेखनीय है।
जले-जले, दीपक जले-जले
अँधियारों की गोदी / सूरज के वंश पले
पोखर में डूब गया / सूरज का गोला

  

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

कुण्डलिया

कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया 
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।।  -आभा सक्सेना 'दूनवी' 

लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।। 
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी। 
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
*** 
१.१२.२०१८ 

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका
*
नव हिलोर उल्लास की, बनकर सृजन-उमंग.
शब्द लहर के साथ बह, गहती भाव-तरंग .
*
हिय-हुलास झट उमगकर, नयन-ज्योति के संग.
तिमिर हरे उजियार जग, देख सितारे दंग.
*
कालकूट को कंठ में, सिर धारे शिव गंग.
चंद मंद मुस्का रहा, चुप भयभीत अनंग.
*
रति-पति की गति देख हँस, शिवा दे रहीं भंग.
बम भोले बम-बम कहें, बजा रहे गण चंग.
*
रंग भंग में पड़ गया, हुआ रंग में भंग.
फागुन में सावन घटा, छाई बजा मृदंग.
*
चम-चम चमकी दामिनी, मेघ घटा लग अंग.
बरसी वसुधा को करे, पवन छेड़कर तंग.
*
मूषक-नाग-मयूर, सिंह-वृषभ न करते जंग.
गणपति मोदक भोग पा, नाच जमाते रंग.
***
संजीव, ७९९९५५९६१८
१९.१०.२०१८, salil.sanjiv@mail.com

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

karya shala- doha / rola / kundaliya

कार्यशाला-
दोहा / रोला / कुण्डलिया
शब्द-शब्द प्रांजल हुए, अनगिन सरस श्रृंगार।
सलिल सौम्य छवि से द्रवित, अंतर की रसधार।।-अरुण शर्मा                                                                                                  अंतर की रसधार,  न सूखे स्नेह बढ़ाओ।                                                                                                                          मिले शत्रु यदि द्वार, न छोड़ो मजा चखाओ।।                                                                                                                      याद करे सौ बरस, रहकर वह बे-शब्द।                                                                                                                               टेर न पाए खुदा को, बिसरे सारे शब्द।।              - संजीव  
*** 

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
संजीव वर्मा "सलिल"
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
sanjiv verma 'salil'9425183244
salil.sanjiv@gmail.com

गुरुवार, 28 जून 2018

दोहा संवाद

दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
छंद अर्थात अनुशासन और अनुशासन के बिना समस्त ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं।
कहा जा सकता है कि यह जगत ही छांदसिक है। कोई लाख छंदमुक्त होना चाहे, हो
ही नहीं सकता। कब, कैसे और कहाँ छंद उसे अपने अंदर ले लेंगे, उसे खुद ही
पता नहीं चलेगा। ठीक यही बात हमारे लोकगीतों के ऊपर भी लागू होती है।
छंदबद्ध रचनाओं का इतिहास हमारी गौरवशाली परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग
है। धार्मिक से लेकर लौकिक साहित्य तक, छंदों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति
दर्ज कराई है। लोकगीत, स्थानीय भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति होते हैं।
उनके रचयिता अक्सर उनको किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखना चाहते परंतु
छंदों की सर्वव्यापकता के कारण ऐसा हो नहीं पाता। मैं बिहार के जिस
क्षेत्र से हूँ वहाँ मगही को स्थानीय बोली का पद प्राप्त है। हमारे देश
के अन्य हिस्सों की तरह यहाँ भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा रही है जो
कि निरंतर जारी है। इन गीतों को यदि हम छंदों की कसौटी पर परखें तो विविध
छंदों के सुंदर दृश्य सामने आते हैं। जैसे कि इसी गीत को लें,

कत दिन मधुपुर जायब, कत दिन आयब हे।
ए राजा, कत दिन मधुपुर छायब, मोहिं के बिसरायब हे॥1॥
छव महीना मधुपुर जायब, बरिस दिन आयब हे।
धनियाँ, बारह बरिस मधुपुर छायब, तोहंे नहिं बिसरायब हे॥2॥
बारहे बरिस पर राजा लउटे दुअरा बीचे गनि ढारे हे।
ए ललना, चेरिया बोलाइ भेद पूछे, धनि मोर कवन रँग हे॥3॥
तोर धनि हँथवा के फरहर,, मुँहवा के लायक हे।
ए राजा, पढ़ल पंडित केर धियवा, तीनों कुल रखलन हे॥4॥
उहवाँ से गनिया उठवलन, अँगना बीचे गनि ढारे हे।
ए ललना, अम्माँ बोलाइ भेद पुछलन, कवन रँग धनि मोरा हे॥5॥
तोर धनि हँथवा के फरहर, मुँहवा के लायक हे।

इसकी पंक्तियों में "सुखदा छंद" जो कि १२-१० मात्राओं पर चलता है और अंत
गुरु से होता, उसकी झलक स्पष्ट देखी जा सकती। इसी प्रकार

देखि-देखि मुँह पियरायल, चेरिया बिलखि पूछे हे।
रानी, कहहु तूँ रोगवा के कारन, काहे मुँह झामर[1] हे॥1॥
का कहुँ गे[2] चेरिया, का कहुँ, कहलो न जा हकइ हे।
चेरिया, लाज गरान[3] के बतिया, तूँ चतुर सुजान[4] हहीं गे॥2॥
लहसि[5] के चललइ त चेरिया, त चली भेलइ झमिझमि[6] हे।
चेरिया, जाइ पहुँचल दरबार, जहाँ रे नौबत[7] बाजहइ हे॥3॥
सुनि के खबरिया सोहामन[8] अउरो मनभावन हे।
नंद जी उठलन सभा सयँ[9] भुइयाँ[10] न पग परे हे॥4॥
जाहाँ ताहाँ भेजलन धामन,[11] सभ के बोलावन हे।
केहु लयलन पंडित बोलाय, केहु रे लयलन डगरिन हे॥5॥
पंडित बइठलन पीढ़ा[12] चढ़ि, मन में विचारऽ करथ[13] हे।
राजा, जलम लेतन[14] नंदलाल जगतर[15] के पालन हे॥6॥
जसोदाजी बिकल सउरिया,[16] पलक धीर धारहु हे।
जलम लीहल तिरभुवन नाथ, महल उठे सोहर हे॥7॥

यह गीत विद्या छंद के १४-१४ मात्राओं का काफी हद तक पालन करता दिखा है।

तिलक समारोह में गाया जाने वाला एक सुंदर गीत देखिए

सभवा बइठले रउरा[1] बाबू हो कवन बाबू।
कहवाँ से अइले पंडितवा, चउका[2] सभ घेरि ले ले॥1॥
दमड़ी दोकड़ा के पान-कसइली।
बाबू लछ[3] रुपइया के दुलहा, बराम्हन भँडुआ ठगि ले ले॥2॥
बाबू, लछ रुपइया के दुलहा, ससुर भँडुआ ठगि ले ले॥3

इसको गाते समय जो लय होती है, वह कुकुभ के १६-१४ के बेहद निकट जान पड़ती।
अंत में दो गुरुओं का भी दर्शन यहाँ हो रहा है।

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
बाल शिक्षा में छंद ..
सवाल उठता हैं कि छंद आखीर है क्या ? तो मन तुरंत जवाब देता है कि व्याकरण के
नियमों में बंधे हुए वाक्य को छंद कहते हैं | जिसमे यति,गति,तुक,मात्रा, विराम अदि का
ध्यान रखा जाता है | तो अब प्रश्न यह उठता है कि इतना सब एक छोटे से बच्चे के
कोमल मन-मस्तिष्क में कैसे समाए ? बाल मन जिज्ञासू होता है पर कोमल भी वह
जिज्ञासा वश सीखने को आतुर रहता है पर ब्याकरण के कठिन नियमों को वह इतनी
जल्दी आत्मसात नहीं कर पाता; तो छंद क्या है उसके लिए ? उसके नन्हें कोमल मन
को छंदों से कैसे परिचित कराया जाय ? ये सारे प्रश्न एक साथ मन में उठने स्वाभाविक
हैं |
बाल शिक्षा में छंद का प्रथम ज्ञान
मेरा ऐसा मानना है कि एक शिशु जब जन्म लेता है तो उसका पहला स्पर्श माँ से होता
है | वह माँ के स्पर्श में जो सुख पाता है वही उसका पहला छंद है जिसका माध्यम स्पर्श
है क्यों कि सैकड़ों हजारों में वह माँ का स्पर्श पहचान लेता है | फिर जब माँ उसके माथे
पर हाथ फेरते हुए कुछ गुनगुनाती है, भले ही उनमें कोई शब्द ना हो..सिर्फ बंद होठों से
कोई ध्वनी फूट रही हो; जिसमें किसी आचार्य मम्मट के काव्यशास्त्र का ज्ञान नही..
यति..गति..तुक..विराम नहीं..उस टूटी-फूटी ध्वनि में हैं तो सिर्फ वात्सल्य..! शिशु के लिए
वही छंद है | उसी छंद के रस में डूबा वह माँ की गोद में दुनिया जहान से बेखबर सुख
की नींद सो जाता है | फिर जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसके लिए चिड़ियों की चहक..
कोयल की कूक में जो सुर है..लय है..वही उसका छंद है..वर्षा की बूँदों की छम-छम
उसका छंद है..पवन के वेग से पत्तों की खनक ही उसका छंद है..जिसमे कहीं कोई
व्याकरण का नियम नहीं है | अपनी शैशवावस्था में बाल मन इन्हीं सब चीजों से एक
लय को आत्मसात करता है जो उसके लिए छंद है ऐसा मैं मानती हूँ | क्यों कि जिसमें
सुर है..स्वर है,,लय है..वही उसका छंद है | बच्चे का छंदों से प्रथम परिचय मैं इसे ही
मानती हूँ |
द्वितीय..विद्यालय में
बचपन की कुछ धुंधली सी यादें हैं जब हमारी कक्षा वृक्षों की छाँव में लगा करती थी..लम्बी-
लम्बी चटाइयों के रोल हम सब छात्र-छात्राएँ मिल कर बिछाते और उसी पर कतारबद्ध बैठते,
एक कक्षा में सिर्फ एक ही लकड़ी की कुर्सी होती थी जिसपर मा-साब बैठा करते थे और
उनके हाथ में पतली नीम की छड़ी हुआ करती थी | मुझे आज भी याद आता है, अपने
विद्यालयी यात्रा की वो पहली प्रार्थना (जो आज-कल लुप्त-सी हो गयी है) जो गाते हुए हम

ऐसे भक्ति रस में डूबते थे कि राष्ट्रगान के लिए आँखें न खुलती थीं | वह प्रार्थना आज भी
कंठस्थ है -
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जावें।
पर-सेवा पर-उपकार में हम, जग(निज)-जीवन सफल बना जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
हम दीन-दुखी निबलों-विकलों के सेवक बन संताप हरें।
जो हैं अटके, भूले-भटके, उनको तारें खुद तर जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
छल, दंभ-द्वेष, पाखंड-झूठ, अन्याय से निशिदिन दूर रहें।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम-सुधा रस बरसावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे...॥
निज आन-बान, मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे।
जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें॥
॥वह शक्ति हमें दो दयानिधे ||
प्रार्थना..राष्ट्रगान और भारतमाता की जय के बाद पहली कक्षा हिन्दी की होती थी | रहीम
और कबीर के दोहे हम स-स्वर गा कर याद किया करते थे | तब हमें लेश मात्र भी ये ज्ञान
नही था कि ये दोहा छंद है और इसमें चार चरण और १३-११ की मात्राएँ भी होती हैं | बिना
किसी मात्रिक ज्ञान के ही हमने काबीर और रहीम के सारे दोहे उसी समय रट लिए थे जो
आज भी काम आ रहे हैं |
‘रूठ के बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला’..’यदि होता किन्नर नरेश मैं’..’उठो लाल अब
आँखें खोलो’ आदि कवितायें आज ढूढें नहीं मिलतीं पर मैं आज तक नहीं भूली | ये तो रही मेरे
बालपन की बात जो आज के दौर में बहुत पीछे छूट हाई है |
एक समय था, जब बच्चों को पाँच वर्ष के बाद ही विद्यालय भेजा जाता था विद्याध्ययन के
लिए |पर आज ऐसा नहीं है | आज के सामय में अगर बच्चा ढाई या तीन वर्ष की उम्र में
विद्यालय नहीं गया तो वह अपनी शिक्षा की दौड़ में पिछड़ जाता है; ऐसा माना जाता है |
क्यों कि आज की शिक्षा विद्याध्ययन के लिए नहीं बल्कि धनार्जन के लिए ली और दी जा
रही है | इस लिए आज माता-पिता अपने नन्हें-नन्हें बच्चों की पीठ पर शिक्षा का भारी बोझ
लाद कर स्कूल भेज देते हैं | परन्तु जो बात आज भी एक-सी है, वह है; वो पहली प्रार्थना जो
बच्चा पहले दिन ही हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है गाने ले लिए, भले ही भाषा कोई भी हो
| यहीं उसका परिचय होता है स्कूल के पहले छंद से फिर धीरे-धेरे वह सीखने लगता है |

कक्षा में जब अध्यापिका गा-गा कर, ‘तितली रानी इतने सुन्दर पंख कहाँ से लायी हो’ ..
‘चुहिया रानी बड़ी सयानी’..’मछली जल की रानी है’ आदि कविताएँ बच्चे को सुनाती है तो
बच्चा भी सुर में सुर मिलाता है और यूँ ही वह मात्रा, यति, गति, तुक, विराम के ज्ञान के
बिना भी छंदों को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ने लगता है |
कहने का तात्पर्य ये कि बाल मन में सीखने की तीव्र इच्छा होती है, ललक होती है |
समस्या तब आती है जब शिक्षक उसे व्याकरण के आधार पर सिखाने का प्रयास करते हैं
तब सीखना बच्चे के लिए कठिन हो जाता है | जहाँ सुर है..लय है वहीँ छंद है | बच्चे को
यदि लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाने का प्रयास किया जाय तो बालपन का सीखा हुआ आजीवन
नहीं भूलता |
बाल शिक्षा में छंदों का प्रभाव
अभी तक मैं यही कहने का प्रयास कर रही थी कि बाल शिक्षा में छंदों कितना गहरा प्रभाव
है यदि उसे हम लालित्यपूर्ण ढंग से सिखाते हैं तो वह आसानी से सब सीखता है | एक बच्चे
को सीधे तौर पर हम नहीं सिखा सकते कि छन्द कितने प्रकार के होते हैं और उसके पहचान
क्या-क्या है ? बच्चा ऊब जाएगा और उसके लिए सीखना बोझिल हो जाएगा | विद्यालय
जाने से कतराने लगेगा | इस लिए आज शिक्षक और माता-पिता दोनों का दायित्व बढ़ जाता
है | शिक्षा बच्चे का सर्वांगीण विकास करती है परन्तु आज की शिक्षा केवल व्यवसायिक हो
कर रह गयी है | विद्यालय में ढेर सारा कक्षा कार्य और घर में शिक्षक का दिया हुआ गृह
कार्य करने में ही बच्चे का पूरा दिन व्यतीत हो जाता है और वह रोबोट या रट्टू तोता बन
कर रह जाता है |
नैतिक..सामजिक और मानसिक प्रभाव
वैसे तो सीखने की कोई उम्र नहीं होती परन्तु बालपन में जो हम सीखते हैं; मन पर उसका
प्रभाव हमेशा बना रहता है | बच्चे की प्रथम शिक्षा घर पर ही आरम्भ होती है जब वह
विद्यालय में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने जता है तब वह एक व्यक्तित्व के साथ जाता है
जो उसकी अनौपचारिक शिक्षा का परिणाम होता है | यदि घर और विद्यालय में बच्चों को
छंदों के माध्यम से प्रकृति का ज्ञान कराया जाय तो वह आसानी से अपने को प्रकृति से जोड़
सकेगा | आज जो पर्यावर का भीषण संकट उत्पन्न हुआ है उसके बारे में अगर हम उन्हें
छंदों के माध्यम से समझाएं तो वह आसानी से समझेंगे कि जल और वायु उनके लिए क्या
महत्व रखते हैं, वृक्ष उनके लिए क्यों उपयोगी हैं, नदियाँ उनके जीवन को किस तरह
प्रभावित करती हैं ! आज वह समय आ गया है कि इन बातों से बच्चे बाल्यकाल से ही
परिचित हों | इन सब बातों का ज्ञान उन्हें किसी भारी-भरकम तकनीकी के माध्यम से नहीं
बल्कि छंदों के माध्यम से उनको दिया जा सकता है | इस बात को अभिभावक और शिक्षक
दोनों को गम्भीरता से समझना होगा |

आज समाज में स्त्री हिंसा, भ्रष्टाचार, चोरी, बलात्कार आदि विभिन्न प्रकार की बुराइयाँ बढ़ती
जा रहीं हैं उसके बारे में भी यदि छन्दों के माध्यम से बच्चों को बताया जाय कि कैसे इनसे
दूर रहना है तो बच्चे आसानी से समझ सकेगें | बचपन में ही उनके मन में इन बुराइयों से
दूर रहने की प्रवृत्ति जागेगी और यही बच्चे कल सच्चे और इमानदार नागरिक के रूप में एक
स्वस्थ समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहायक होंगे | आज विद्यालयों में नैतिक शिक्षा पर
विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है जो कि आज के समय में अति आवश्यक है |
अंत में इतना ही कहूँगी कि बाल शिक्षा में छंदों का विशेष महत्व है | कहते हैं कि बालपन
की सीख ही एक बच्चे की आगे की सोच तय करती है इस लिए अभिभावक और शिक्षक
दोनों को इस ओर विशेष ध्यान देना होगा | बच्चे को ये समझाना होगा कि वह प्रकृति,
समाज और राष्ट्र का ऋणी है और उसे ये ऋण भविष्य में प्रकृति का संरक्षण व समाज और
राष्ट्र के प्रति ईमानदार हो कर उतारना है | ये सारी महत्वपूर्ण बातें बड़ी आसानी से छंदों के
माध्यम से बच्चों के मन-मस्तिष्क में बैठाया जा सकता है | कहते हैं ना कि एक बच्चा आगे
चल कर कैसा नागरिक बनेगा इसकी नींव बचपन में ही पड़ जाती है और इस नींव को
मजबूत करने में छन्दों का विशेष योगदान है | बाल शिक्षा में छंद उतना ही महत्व रखता है
जितना कि मृत्य शैय्या पर पड़े हुए व्यक्ति के लिए साँसें | ऐसा मेरा मानना है |
मीना धर
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परिचय
नाम- मीना धर
कार्य – अध्यापन, स्वतंत्र लेखन
शिक्षा- कानपुर यूनिवर्सिटी, हिन्दी से परास्नातक
रूचि- संगीत सुनना, साहित्यिक कर्यक्रमों में भाग लेना , किताबें पढना , प्राकृतिक स्थलों
पर घूमना .
'अंतर्मन ' ब्लॉग का सफल संचालन ,
प्रकाशित कृति – (साझा संग्रह)-‘अपना-अपना आसमा’, ‘सारांश समय का’, ‘जीवन्त
हस्ताक्षर-2’, ‘काव्य सुगंध भाग-2’, ‘सहोदरी सोपान-2’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’ ‘लघुकथा
अनवरत’ और ‘जीवंत हस्ताक्षर -4’
‘लमही’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘जागरण’, ‘कथाक्रम’ विश्वगाथा, भाषा-भारती, ‘निकट’, उत्तर प्रदेश
सरकार की पत्रिका ‘उत्तर-प्रदेश’ व भारत सरकार की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’ समहुत
आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं ,
विभिन्न ई -पत्रिकाओं और ब्लॉग परभी रचनाएँ प्रकाशित हुईं हैं .
सम्मान - शोभना वेलफेयर सोसायटी द्वारा-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012, माण्डवी
प्रकाशन द्वारा 2014 में ‘साहित्यगरिमा’, अनुराधा प्रकाशन से ‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान

तथा ‘विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन,कनाडा द्वारा उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’
में रचना धर्मिता के लिए सम्मान 2015 प्राप्त हुआ और कहानी ‘शापित’ 92.7 big fm
द्वारा सम्मानित हुई ..
ई - मेल आईडी-- meenadhardwivedi1967@gmail.com
फोन-0 9838944718
पता-
मीना पाठक
437, दामोदर नगर, बर्रा,
कानपुर-208027

(U.P.)

सोमवार, 18 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी ३. लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा


शोधलेख:
३. लोकनाट्य और करमा-गीतों में वाचिक छंद परंपरा   
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
परिचय: पृष्ठ     पर। 
लोक-काव्य और लोक-नाट्य का साथ चोली-दामन का सा है। मनुष्य के जन्म के साथ रुदन अर्थात ध्वनि में लय और गति-यति का समन्वय छंद का तथा नेत्र, हाथ-पैर आदि अंग सञ्चालन में अभिनय अर्थात नाट्य का उद्भव देखा जा सकता है मनुष्य के तन और मन के विकास के साथ इन दोनों का भी विकास होता रहता है आदि मानव ने पशु-पक्षियों से अलग होकर उन्नति पथ पर पग रखते समय उनकी विशेषताओं को आत्मसात करने का अथक प्रयास ही नहीं किया अपितु उन्हें अधिक विकसित भी किया शेर के आगमन की सूचना हूक-हूककर देते वानरों से मानव ने ध्वनि का उपयोग सीखा होगा पशु-पक्षियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि के कारण मानव ने कलकल बहते निर्जर, सनन-सनन-सन चलती पवन, मेघगर्जन, विद्युत्पात,  बरसात आदि की ध्वनियों को मस्तिष्क में संगृहीत कर अन्य मानव समूहों को सूचित किया होगाइन ध्वनियों के उच्चारण के साथ उनकी लय, गति-विराम, उतार-चढ़ाव आदि में पारंगत होने के साथ उन्हें उच्चारित करना और सुनने पर पहचानकर तदनुसार आचरण करना मानव-स्वभाव हो गया कालांतर में ध्वनि उच्चारण ने भाषा और लिपि के साथ समन्वित होकर लोक-काव्य तथा आचरण ने लोक-नाट्य को जन्म दिया होगाइसलिए लोक-काव्य की आत्मा छंद और लोक-नाट्य के मध्य अनुभूति और प्रतिक्रिया के तंतु उन्हें सहोदर सिद्ध करते हैं। ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’, ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’, जैसी अभिव्यक्तियाँ इसी नाते की पुष्टि करती हैं समय के साथ दोनों विधाओं का स्वतंत्र विकास होना स्वाभाविक है आज स्थिति यह है कि अधिकांश जन लोक-नाट्य में छंद की अनुभूति कठिनाई से ही करते हैं जबकि छंद में लोक- नाट्य की उपस्थिति को असंभव मान लिया गया है
काव्य:
शास्त्रानुसार काव्य मन-रंजन का उत्तम साधन है भारतीय आचार्यों ने आदिकाल से काव्य का सूक्ष्म विवेचन कर स्वरूप निर्धारण का कार्य किया है ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वपि’ –मम्मट (काव्य रचना के शब्दार्थों में दोष कतई न हों, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हो हों),  ‘काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ –दंडी (काव्य की शोभा अलंकार से है), अलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्रच्यानाम मतं’ –रुय्यक (अलंकार ही काव्य में मुख्य है), ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम. व्यसनेषु च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा.’ (काव्य शास्त्रर विनोद हेतु है), रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ –पं. जगन्नाथ (रमणीय अर्थ प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं), लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यनामभाक’ –अंबिकादत्त व्यास (लोकोत्तर आनंद देनेवाली रचना काव्य है’), ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ –महापात्र विश्वनाथ (रसपूर्ण वाक्य काव्य है), ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ –वामन (रीति काव्य की आत्मा है), वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ –कुंतक (काव्य वक्रोक्ति में जीवित है), काव्यस्यात्मा ध्वनिरति: -आनंदवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि और रति में है), औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं; -क्षेमेन्द्र ( रस सिद्धि के औचित्य में काव्य जीवित है) तथा ‘वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं’ –आग्निपुरंकार (वाग्वैधदग्ध्य प्रधान होते हुए भी काव्य का प्राण रस है) कहकर काव्याचार्यों ने समय-समय पर काव्यांगों और काव्य-रूप का चिंतन किया है
दृश्य काव्य:  
पूर्व के वन मानुष या आज के आदिवासियों में शिकार करने, शिकार मिलने पर नाचने-गाने, मिल-बाँटकर खाने की परंपरा लोकनाट्य और लोककाव्य का संगम ही है जिसके मूल में छंद समाहित है आरंभ में वाचिक परंपरा में पले-पुसे काव्य रूपी छंद और लोक-जीवन में घुले-मिले लोकाचार रूपी नाट्य को भाषा और लिपि के विकास ने उसी तरह अलग-अलग किया जैसे एक साथ पलते शिशु विकास के क्रम में किशोर-किशोरी के रूप में अलग-अलग हो जाते हैं छंद, गीत, नृत्य और वाद्य एक-दूसरे के पूरक और रस के कारक हैं ई. पू. तीसरी सदी में ऋषि नंदिकेश्वर ने काव्य और नाट्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर ‘नांदीपाठ श्री गणेश किया भरत मुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र तथा महर्षि पिंगल द्वारा रचित ‘छंदशास्त्र’ विश्व वांग्मय की निधि हैं वैदिक ज्ञान राशि के संहिताकरण में लोक का अभूतपूर्व योगदान रहा किन्तु सत्ता सूत्र आभिजत्यों के हाथों में केंद्रित होने पर ज्ञान और अस्त्र संपन्नों और पुरोहितों के हाथ में केंद्रित हो गए फलत:, उपेक्षित लोक के आक्रोश का शमन करने हेतु वेदेतर ज्ञान-विधाओं को वेदांग बताकर लोक को उपलब्ध कराया गया इस तरह वेद का पैर ’पिंगल या छंदशास्त्र’ तथा पंचम वेद आयुर्वेद व नाट्यशास्त्र को कहा गया. ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस लेकर नाट्य-वेद रचना की संकल्पना में लोक-काव्य (छंद) और लोक-नाट्य (रंगमंच) समाहित हैं
कालिदास के अनुसार नाट्यवेद का उद्देश्य ‘नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनं’ अर्थात भिन्न रुचि के लोगों का बहुत प्रकार से मन-रंजन करना है गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी से लोक-नाट्य को जन्म मिला. तीसरी सदी में सीतावेंगरा सरगुजा तथा मोगीमारा की गुफाओं में प्रेक्षागृहों की उपलब्धता है पाणिनि के सूत्रों में नटों का उल्लेख, पतंजलि के महाभाष्य में नाट्य मंचन, बौद्ध भिक्षुओं के लिए नाट्य-निषेध, उत्तर भारत में ‘रामलीला’ व ‘रासलीला’, मालवा में ‘माच’, राजस्थान में ‘ख़याल’, पंजाब में ‘स्वांग’, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नौटंकी, ग्राम्यांचलों में ‘स्वांग’, बृज में ‘भगत’, गुजरात में ‘भवाई’, बुंदेलखंड में आल्हा, बम्बुलिया और राई, बंगाल में ‘जात्रा’ और ‘गंभीरा’, महाराष्ट्र में ‘तमाशा’ और ‘बहुरूपिया’, दक्षिण भारत में ‘यक्षगान’ आदि लोककाव्य और लोकनाट्य के सम्मिलित रूप रहे हैं जिनके मूल में लोक-छंद धड़कन की तरह रचा-बसा था लोक-नाट्य और लोक-काव्य में सरल-सहज लोक-भाषा, ग्रामीण-देशज शब्दावली, न्यूनतम आलंकारिकता, बोधगम्यता, पारदर्शिता, धार्मिक व सामाजिक प्रसंग, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली, गति-यति-लय का सम्मिश्रण दृष्टव्य है अभिव्यक्ति के इन दोनों रूपों में छंद की उपस्थिति ही नहीं, चेतना भी आद्योपांत अनुभव की जा सकती है
आदिवासी बाल लोक-नाट्य बाघ-बकरी खेलते समय बच्चे गाते हैं: ‘अड्डल गड्डल काठे क माला/टेंकीचीरो तोड़ो बाला/ कडुवा तेल कवल की बाती/ठांय-ठूँय ठस्स/उंचकी छाती दर्द’ यहाँ प्रथम तीन पंक्तियों में संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की अनगढ़ उपस्थिति सहज दृष्टव्य है
अन्य बाल लोक नाट्य दोल्हा-पाती में बच्चे गाते हैं: ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो/अस्सी-नब्बे पूरे सौ/सौ में लागा धागा/चोर निकल के भागा’ यहाँ प्रथम दो पद मानव जातीय हाकलि छंद की तथा अंतिम दो पंक्तियाँ आदित्य जातीय छंद की हैंआजकल नवगीतों में विविध छंदों के मिश्रण (फ्यूजन) को अपनी खोज बतानेवाले देखें कि यह कार्य उनसे सदियों वर्ष पूर्व अनपढ़ कहे जानेवाले लोक-गायक कर चुके हैं
बिहार तथा मध्यप्रदेश के घसिया आदिवासियों स्त्री-पुरुषों द्वारा किये जानेवाले लोकनाट्य ‘डोमकच’ के समय गाये जानेवाले गीत ‘हँकावे ननदा हो रे!/बछरू चरना हम जाब रे!/हरंका ननदों सातो कियारी/सूगा लागे हो रे!’ में क्रमश:१३-१५-१८-१२ मात्रा की पंक्तियाँ तथा ८-११-११-६ वर्ण हैं ‘डोमकच’ नृत्य-गीत की एक अन्य अभिव्यक्ति देखिए- ‘आपन मैना हो मैनाधन,/काहे मैना हो?/काहे भूँजि गइल मैना भुटाना हो/भूँजि देला तीला चउरवा-/मैना आइ गइला हो.’ १६-१०-२१-१६-१३ मात्रा (१०-५-१३-१०-८ वर्ण) के इस लोकगीत का छंद खोजने और रचने की चुनौती क्या कभी वे कूप-मंडूक स्वीकार सकेंगे जो दोहे के विषम चरण में ‘सरन’ के अतिरिक्त अन्य गण प्रयोग देखकर छाती कूटने लगते हैं, वह भी तब जबकि छंद प्रभाकर के पूर्व और पश्चात् भी तुलसी, कबीर और बिहारी जैसे कालजयी दोहाकारों के बीसियों दोहों में ऐसा किया गया है
आषाढ़ की पहली बूँदों के साथ क्वाँरी आदिवासी कन्या वन में किसी धारदार हथियार से एक ही वार में ‘कदंब’ वृक्ष की तीन डालियाँ काटती हैं। इन्हें अन्य क्वाँरी कन्याएँ भूमि पर गिरने से पूर्व हवा में पकड़कर मादलवादन के साथ देवस्थान पर बने मंडप में लाती हैं। यहाँ घी, गुड, जल-कलश, त्रिशूल तथा पक्की शराब आदि पूजा सामग्री एकत्र कर बैगा भूमि में दो वार कर गड्ढा बनाता है। अन्य व्यक्ति ३ गड्ढे बनाकर युवतियों द्वारा लाई गयी डालियाँ तथा एक डाल ‘भेला’ वृक्ष की गाड़ देते हैं। डाली काटी जाते समय दो पंक्तियाँ गई जाती हैं: ‘करमा जे कटले धांगर तोरे हाथे पगेरा पड़ जाय/आज क रहले करम खूंटा, कालि जइबे गंगा-तीरे.’ अर्थात हे धांगर! तुमने कदंब की शाख काटी तुम्हारे हाथ में पगेरा पड़ जाएगा। तुम गंगा-स्नान करो। मात्रा पतन को उर्दू की बपौती माननेवाले देखें कि उर्दू का जन्म होने के सदियों पहले से वनवासी-आदिवासी अपने गीतों में मात्रा-पतन करते रहे हैं. ३२-३० मात्रा की इन काव्य पंक्तियों का छंद वर्तमान में उपलब्ध किसी पिंगल-पोथी में नहीं है। कर्म देव की स्थापना करते समय गीत गाया जाता है: ‘के खनल?, के खनल?/अहरा पोखरे बदग/राजा खनल. पूजा हेतु लाई गयी शराब में भक्तों द्वारा लाई गयी शराब मिलकर देव को अर्पित करने के बाद प्रसाद के रूप में बाँटी जाती है जिसे पीकर सब आदिवासी रात्रीपर्यंत नाचते-गाते हैं:‘जोगिया भिच्छा माँगे कि/झिलमिल पोखरी क पानी.’(१४-१४ मात्रा)
जौ को बालू में मिलाकर गाँव के हर जाति-वर्ग के घर में नौ दिन पूर्व बाँट दिया जाता है। उसी दिन जौ जमा (बो) दी जाती है। करमा के दिन उसे देवस्थान पर लाकर अर्धरात्रि में पूजा की जाती है। इस समय का गीत है: ‘हे! हो! हाथी-घोड़ा से कइले सिंगार/हे! हो! बैगा के देबो सीधा सेर/घरे रहबू, घर अगोरबू/ना देखबू, काम बिगड़ि जाइ.’(२२-२२, १५-१५ मात्राएँ) अर्थात हाथी-घोड़े आदि ले जाकर देवस्थान की सजावट की गयी है बैगा को सेर भर सीधा दिया गया है हे सखी! तुम घर की रक्षा के लिए रुक गईं, पूजा के लिए नहीं गईं जाओ, दर्शन कर आओ, अन्यथा देव रूठ गए तो सब काम बिगड़ जाएँगे
करमा समरसता, सहभागिता और सहकारिता का लोकपर्व है। कर्मा गीतों में सामान्य जन के जीवन से सम्बंधित सुख-दुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, हास-परिहास आदि के दृश्य संगीत की भाव-लहरियों में अभिव्यक्त किए जाते हैं करमा गीतों में आलाप की महती भूमिका है मात्रिक अथवा वार्णिक असंतुलन आलाप द्वारा संतुलित कर लिया जाता है। वाचिक छंद को मात्रिक या वार्णिक छंद की कसौटी पर कसें तो बहुधा पंक्तियाँ समान न होने से दुविधा उपस्थित होती है किंतु गायक को कहीं असंतुलन नहीं प्रतीत होता इसलिए वाचिक लोक-काव्य को छंद की कसौटी पर कसते समय आलाप तथा टेर को भी गणना में लेना होगा पहार तरे मुगिया मो बनके/साईं मोंगिया हरल झबरा के डार/ननदी सिरी किसुना बंसिया बजावे/ ब्रिन्दावन सिरी किसुना बंसिया हो बजावे/कवन बन गइया रे चरावे/ननदी कवन घट पनिया हो पियावे/ननदी धीरे-धीरे गइया ठुकरावे/ननदी कदम तरे गइया रखवावे/नीबी तारे बछरू छ्नावे/ननदी अपने कदम चढ़ि जावे/जब लगि अपने कदम चढ़ि जाई/बाघिन लपसत आवे/केकर धइले छेरिया बछरुवा/ननदी हो केकर धइले धेनुगाय/ननदों हो लइकवा में कइले बा गोहार/ननद हो कोई नाहीं धवले गोहार/ननदी हो राम-लछिमन धवले गोहार। भावार्थ: वृंदावन में धेनु चराते हुए श्रीकृष्ण  कदंब वृक्ष पर चढ़ जाते हैं तभी एक बाघिन आकर गाय-बछड़ों को मारकर खा जाना चाहती है, गुहार मचने पर राम-लक्षमण रक्षा के लिए आ जाते हैं
भुइंया आदिवासियों का करमा गीत:
लीप-लीप पिपरी क पात डोले/दीप-दीप उगेले जोन्हइया/तील-तील बढ़ेले गोरी के देहिया/ दड़हर खोजै, बड़हर खोजै कतहूँ न मिलल जोड़ी जवान/केकर घरे तेल माड़े, केकर घरे ककही/केकर घरे मान सँवारे/बाँह ले सुरूजा मंड़र खीया/भरि माँग सेन्हुआ भरावै/भरि माथ टिकुल ढमकावै/टक-टक मथवा निहारे निलजिया। 
भावार्थ: पीपल का पत्ता धीरे-धीरे डोल रहा है, चाँदनी दिपदिपा रही है। किशोरी का तन तिल-तिल कर बढ़ रहा है। यहाँ-वहाँ खोजने पर भी सुयोग्य वर नहीं मिल रहा। किसी के घर से तेल, किसी के घर से कंघी माँगकर, सिंदुर से माँग भरकर, माथे पर टिकुली लगाकर लाज छोड़कर गोरी अपना रूप आप ही निहारती है। 
धांगर आदिवासियों का करमा गीत:
देवरा दुलरू हव हो/कहि के आवें आधी रतिया/देवरा दुलरू हव हो/घरवा में सूतल रहली/ भउजी एक दिन दुपहरिया/देवरा खिड़की में ठाढ़/तूंत बइठ देवरा माया के पलंगिया/देवरा दुलरू कहें/भउजी हमत बइठब तोहरे पलंगिया/भउजी बइठावे देवरा हो / देवरा दुलरू तूं अइसन मजा पइबा/बहरा तूं घूंमबा अकेल/घरवा म गाव ला गीत हो/देवरा दुलरू हवं हो। 
भावार्थ: दुलारा देवर आधी रात में भाभी के पास क्यों आता है? एक दोपहर देवर खिड़की में खड़ा, घर में सोती भौजी को निहारता है। भाभी देख लेती है और कहती है कि वह माँ के पलंग पर सो जाए। देवर जिद करता है कि वह भाभी के पलंग पर ही बैठेगा। भाभी उसे बैठा लेती है। देवर बाहर अकेला घूमता रहता है पर घर में गीत गाता रहता है। देवर दुलारा है। 
इस गीत का मुखड़ा तथ अंतिम पंक्तियाँ भागवतजातीय तथा संस्कारीजातीय सिंह छंद में निबद्ध हैं. पदों में क्रमश:३७ मात्रिक दंडक छंद का प्रयोग है। 
वाचिक परंपरा के लोकगीत पिंगलशास्त्रीय ग्रंथ-सृजन के पूर्व रचे गए या उसी परंपरा में रचे जा रहे हैं। इन गीतों की रचना मात्रा संख्या या वर्ण संख्या पर आधारित न होकर उस अंचल विशेष में प्रचलित उच्चारणों और गायन के तरीके पर निर्भर है। इनमें मात्रा पतन तथा मात्रा जोड़ने की छूट ली गई है। इनकी रचना गायन शैली के आधार पर की जाती है। लोकनाट्य के कथ्य को उभारने, रोचकता तथा सरसता वृद्धि के लिए अनजाने ही छंदों का प्रयोग चिरकाल से होता रहा है।  वर्तमान काल में चलचित्रों के गीतों में छंद-प्रयोग निरंतर हो रहा है किंतु आधुनिक रंगमंच पर छंद-प्रयोग सीमित हो गया है। ग्राम्यांचलों में लोकमंच पर छांदस गीतों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है किंतु उनकी विषयवस्तु स्तरीय नहीं है। 
संदर्भ: १. लोकनाट्य मंच की पीठिका- डॉ. अर्जुनदास केसरी व मोहनलाल बाबुलकर,   

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

कार्यशाला: लता यादव - संजीव

कार्यशाला:
एक कविता - दो कवि
*
लता यादव
मैं क्या जानूं बड़ी बड़ी गहरी बातों को मैं क्या जानूं मन में उठते जज्बातों को
लहर संग मैं उठती गिरती लहर सदृश ही चाँद पकड़ने निकली पूनम की रातों को
कभी लगे अम्बर में खेले कोई छौना
कभी लगे ये तो है मेरा स्वप्न सलोना
अरे! याद आया बाबा ने दिलवाया जो
अम्बर के हाथों में मेरा वही खिलौना
संजीव
चंदा कूद पड़ा नभ से सरवर में आया
पकड़ा हाथों में, गुम होकर मुझे छकाया
मैं नटखट, वह चंचल कोई हार न माने
रूठ चंद्रिका गयी, गया वह उसे मनाने
हुई अमावस काली मन को तनिक न भाए
बादल जाकर मेरा चंदा फिर ले आए
अब न चंद्रिका से मैं झगड़ा कभी करूँगी
स्नेह सलिल तट लता बनूँगी, खूब खिलूँगी
लता
हौले से जो लहर उठी नभ से टकराई
चंदा की कोई युक्ति फिर काम न आई
संजीव
झिलमिल-झिलमिल बहा नीर ज्यों चाँदी पिघली
हाथ न आई, झट से फिसल गयी फिर मछली
***