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सोमवार, 24 मार्च 2025

मार्च २४, पैरोडी, सत श्लोकी दुर्गा, चित्रगुप्त, मुक्तिका, परिवार,

सलिल सृजन मार्च २४
*
पूर्णिका . बदल रहीं रुख मीत हवाएँ घिरी जा रहीं सघन घटाएँ . ध्यान-ज्ञान से रखा न नाता बने साधु हैं बढ़ा जटाएँ . जनशोषक जन-धन पर पलते खुद को जनप्रतिनिधि बतलाएँ . दावा सबसे भिन्न-शिष्ट पर मनमानी से बाज न आएँ . नफ़रत के सौदागर हैं वे खोटे सिक्के खरे बताएँ . कोई जीते कोई हारे हम अपनी सरकार बनाएँ . देशभक्ति की दावेदारी खुद को खुद बेदाग बताएँ . आम आदमी नाम भले हो आम आदमी तनिक न भाएँ . चोर चोर मौसेरे भाई संसद में भत्ते बढ़वाएँ . उठा रहे औरों पर ऊँगली खुद पर उठती देख न पाएँ . अपने मुँह मिट्ठू बन कौए कोयल को कर्कश बललाएँ . धवल न होते मन के काले गंग-कुंभ में लाख नहाएँ . नाम पाक नापाक हरकतें बचो पीठ में छुरा घुसाएँ . सगा रहा कब कौन किसी का संकट में हों दाएँ-बाएँ . अमल विमल हो सलिल लहरकर भुज भर लहरें गले लगाएँ २४.३.२०२५ *
मुक्तिका
परिवार
*
चोट एक को, दर्द शेष को, जिनमें वे ही, हैं परिवार।
जहाँ रहें वे,उसी जगह हो, स्वर्ग करें सुख, सभी विहार।।
मेरा-तेरा, स्वार्थ नहीं हो, सबसे सबको, प्यार असीम।
सब सबका हित, रहें साधते, करें सभी का, सब उद्धार।।
नेह नर्मदा, रहे प्रवाहित, विमल सलिल की, धार अपार।
जो अवगाहे, वही सुखी हो, पाप मिटें सब, दें-पा प्यार।।
शूल फूल हों, पतझर सावन, दर्द हर्ष हो, संग न दूर।
हो मनभेद न, रहे एकता, मरुथल में भी, रहे बहार।।
मुझको वर दो, प्रभु बन पाए, मेरा भारत, घर-परिवार।
बने रवायत, जनसेवा कर, बने सियासत, हरि का द्वार।।
(मात्रिक सवैया, यति ८-८-८-७, पदांत गुरु लघु)
२४.३.२०२३
***
दोहा
है भवि शुचि तो कीजिए, खुश रहकर आनंद.
'सलिल' जीव संजीव हो, रचकर गाए छंद.
***
पैरोडी
'लेट इज बैटर दैन नेवर', कबहुँ नहीं से गैर भली
होली पर दिवाली खातिर धोनी और सब मनई के
मुट्ठी भर अबीर और बोतल भर ठंडाई ......
होली पर एगो ’भोजपुरी’ गीत रऊआ लोग के सेवा में ....
नीक लागी तऽ ठीक , ना नीक लागी तऽ कवनो बात नाहीं....
ई गीत के पहिले चार लाईन अऊरी सुन लेईं
माना कि गीत ई पुरान बा
हर घर कऽ इहे बयान बा
होली कऽ मस्ती बयार मे-
मत पूछऽ बुढ़वो जवान बा--- कबीरा स र र र र ऽ
अब हमहूँ७३-के ऊपरे चलत, मग्गर ३७ का हौसला रखत बानी ..
भोजपुरी गीत : होली पर....
कईसे मनाईब होली ? हो धोनी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
बैटिंग के गईला त रनहू नऽ अईला
एक गिरउला ,तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
कोहली त धवन, रनहू कम दईला
निगली का भंग की गोली? हो धोनी !
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
ओवर में कम से कम चउका तऽ चाही
मौका बेमौका बाऽ ,छक्का तऽ चाही
बीस रनन का रउआ रे टोटा
सम्हरो न दुनिया में होवे हँसाई
रीती न रखियो झोली? हो राजा !
लड़ के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
मारे बँगलदेसीऽ रह-रह के बोली
मुँहझँऊसा मुँह की खाऽ बिसरा ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अश्विन-जडेजा? कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़ के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल गए ले के मुँह लटका
नानी स्टंपन ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जम के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा,
अईसे मनाईब होली...
२४.३.२०१६
***
सत श्लोकी दुर्गा
हिंदी भावानुवाद
शिव बोले- हो सुलभ भक्त को, कार्य नियंता हो देवी!
एक उपाय प्रयत्न मात्र है, कार्य-सिद्धि की कला यही।।
देवी बोलीं- सुनें देव हे!, कला साधना उत्तम है।
स्नेह बहुत है मेरा तुम पर, स्तुति करूँ प्रकाशित मैं।।
ॐ मंत्र सत् श्लोकी दुर्गा, ऋषि ‌नारायण छंद अनुष्टुप।
देव कालिका रमा शारदा, दुर्गा हित हो पाठ नियोजित।।
ॐ चेतना ज्ञानी जन में, मात्र भगवती माँ ही हैं।
मोहित-आकर्षित करती हैं, मातु महामाया खुद ही।१।
भीति शेष जो है जीवों में, दुर्गा-स्मृति हर लेती,
स्मृति-मति हो स्वस्थ्य अगर तो, शुभ फल हरदम है देती।
कौन भीति दारिद्रय दुख हरे, अन्य न कोई है देवी।
कारण सबके उपकारों का, सदा आर्द्र चितवाली वे।२।
मंगलकारी मंगल करतीं, शिवा साधतीं हित सबका।
त्र्यंबका गौरी, शरणागत, नारायणी नमन तुमको।३।
दीन-आर्त जन जो शरणागत, परित्राण करतीं उनका।
सबकी पीड़ा हर लेती हो, नारायणी नमन तुमको।४।
सब रूपों में, ईश सभी की, करें समन्वित शक्ति सभी।
देवी भय न अस्त्र का किंचित्, दुर्गा देवि नमन तुमको।५।
रोग न शेष, तुष्ट हों तब ही, रुष्ट काम से, अभीष्ट सबका।
जो आश्रित वह दीन न होता, आश्रित पाता प्रेय अंत में।६।
सब बाधाओं को विनाशतीं, हैं अखिलेश्वरी तीन लोक में।
इसी तरह सब कार्य साधतीं, करें शत्रुओं का विनाश भी।७।
•••
चित्रगुप्त-रहस्य
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
२४.३.२०१४

*** 

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

अप्रैल ९, तुम, बाँस, नवगीत, दोहा गजल, भोजपुरी, दंतेश्वरी, कोरोना, रामायण-मुक्तक, सॉनेट, गजल, सत श्लोकी दुर्गा

सलिल सृजन अप्रैल ९
*
सॉनेट 
नवसंवत्सर 
*
नव संवत्सर 
ज्यों ही आया
हाथ मिलाया 
दौड़ा दिनकर। 
भू से मिलकर 
नभ मुसकाया  
गीत सुनाया 
झूमे नभचर। 
ऊषा लजाई 
रूप देख निज 
सलिल-लहर में। 
ज्योत मिलाई 
राम नाम भज 
कर ले कर में। 
***
सॉनेट 
नव संवत्सर 
*
नवसंवत्सर 
और न सोओ 
जागो सत्वर 
समय न खोओ। 
नव आशा की 
फसल उगाओ 
प्रत्याशा के 
सपन सजाओ। 
रास रचे अब 
कोशिश श्रम की
हो न अदेखी   
अँखिया नम की। 
जगमग हो घर
शुभ संवत्सर।   
***
सॉनेट 
दूब 
*
नहीं माने हार 
खूब है यह खूब 
कर रही तकरार 
सूख ऊगी दूब  
गिरे जाते रूख 
जड़ न देती साथ 
बढ़ी जाती भूख 
झुके जाते माथ 
भूलकर औकात 
आदमी नीलाम 
दीख जाती जात 
भाग्य हो जब वाम 
अश्क सींचो खूब 
हो हरी हँस दूब 
९.४.२०२४ 
***
सत श्लोकी दुर्गा

हिंदी भावानुवाद

शिव बोले- ‘देवी! कार्यों की, तुम्हीं नियंता भक्त सुलभ।  

कला एक ही कार्य सिद्धि की, है उपाय नित सतत प्रयत्न।

देवी बोलीं- देव! समझ लें, कला सभी इष्टों का साधन।   

मेरा तुम पर स्नेह बहुत है,अंबास्तुति का करूँ प्रकाशन।। 

ॐ मंत्र सत श्लोकी दुर्गा, ऋषि नारायण छंद अनुष्टुप।  

देवी काली रमा शारदा, दुर्गा हित यह पाठ नियोजित।।   

ॐ चेतना ज्ञानी जन को, देती हैं भगवती सदा।  

बरबस ही मोहा करती हैं, मातु महामाया खुद ही।१।  

दुर्गे माँ! स्मरण मात्र से, हर लेतीं भक्तों का भय।  

जो हो स्वस्थ्य सुमिरते तुमको, देती हो उनको शुभ फल।।  

दुःख-दरिद्रता-भय हर्ता है, देवी! सिवा आपके कौन?

आतुर हो उपकार सभी का, करने सदा आपका चित्त।२।  

सब मंगल की मंगलकारी, शिवा! साधतीं सबका हित।  

शरण मातृ त्रय शारद गौरी, नारायणी नमन तुमको।३।    

शरणागत जो दीन-आर्त जन, उनको कष्ट मुक्त करतीं।  

सबकी पीड़ा हर लेती हो, नारायणी नमन तुमको।४।    

सब रूपों में, ईश सभी की, शक्ति समन्वित सब तुममें।

देवी! भय न अस्त्र का किंचित्, दुर्गा देवि नमन तुमको।५।

रोग न होते यदि प्रसन्न तुम, रुष्ट अगर तो काम न होते।  

जो शरणागत दीन न होता, शरणागत दे शरण अन्य को।६।  

करो नष्ट सारी बाधाएँ, हे अखिलेश्वरी! तीन लोक की।  

इसी तरह सब कार्य साध दो, करो शत्रुओं का विनाश भी।७।  

•••

हिंदी गजल 
*
नज़रों से छलकी 
प्रीतम की झलकी 

गालों पे लाली 
मगर हल्की हल्की 

खुशबू ने घेरा 
चूनर जो ढलकी  

मिलन की शिकायत 
किसी ने न हल की 

हसीं की हँसी हाय 
उम्मीद कल की 

पिपासा युगों की 
है संतुष्टि पल की 

बड़ी तीखी ये तल्खी है,
तेरी नज़रों से छलकी है....

भरोसा विरासत है 
तकदीर छल की 
***
देवी गीत -
*
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
नीले गगनवा से उतरो हे मैया! २१
धरती पे आओ तनक छू लौं पैंया। २१
माँगत हौं अँचरा की छैंया। १६
न मो खों मैया बिसारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
खेतन मा आओ, खलिहानन बिराजो २१
पनघट मा आओ, अमराई बिराजो २१
पूजन खौं घर में बिराजो १५
दुआरे 'माता!' गुहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
*
साजों में, बाजों में, छंदों में आओ २२
भजनों में, गीतों में मैया! समाओ २१
रूठों नें, दरसन दे जाओ १६
छटा संतानें निहारें। १४
अंबे! पधारो मन-मंदिर, १५
हुलस संतानें पुकारें। १४
***
आज के समय में दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय हो गया है। यहाँ दंतेश्वरी मंदिर की अवस्थिति के कारण इसे एक धार्मिक पर्यटन नगर होने का गौरव प्राप्त है। बस्तर में काकतीय/चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव से तो दंतेश्वरी देवी की अनेक कथायें जुड़ी ही हुई हैं साथ ही अंतिम शासक महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव को भी देवी का अनन्य पुजारी माना जाता था। राजाओं के प्राश्रय के कारण दंतेवाड़ा लम्बे समय तक माफी जागीर रहा है। दन्तेवाड़ा को हालांकि देवी पुराण के 51 शक्ति पीठों में शामिल नहीं किया गया है लेकिन इसे देवी का 52 वां शक्ति पीठ माना जाता है तथा मां दंतेश्वरी की महिमा को अत्यंत प्राचीन धार्मिक कथा "शिव और सती" से जोड़ कर भी देखा जाता है। यह प्रबल आस्था है कि इसी स्थल पर देवी सती का दंत-खण्ड गिरा था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ग्यारहवी शताब्दी में जब नागवंशी राजाओं ने गंगवंशी राजाओं पर अधिकार कर बारसूर को अपनी राजधानी बनाया; उन्हें पास के ही गाँव तारलापाल (वर्तमान दंतेवाड़ा) में स्थित देवी गुड़ी में अधिष्ठापित देवी की प्रसिद्धि ने आकर्षित किया। नागवंशी राजा जगदेश भूषण धारावर्ष स्वयं देवी के दर्शन करने के लिये तारलापाल उपस्थित हुए तथा बाद में इसी स्थल पर उन्होंने अपनी कुल देवी मणिकेश्वरी की प्रतिमा को स्थापित कर मंदिर बनवाया। चौदहवी शताब्दी में काकतीय राजा अन्नमदेव ने जब नाग राजाओं को पराजित किया उन्होंने भी इस मंदिर में ही अपनी कुल देवी माँ दंतेश्वरी की मूर्ति स्थापित कर दी।
सिंह द्वार से भीतर प्रविष्ठ होते ही मंदिर के समक्ष एक खुला अहाता मौजूद है। माता के मंदिर के सामने ही एक भव्य गरुड़ स्तंभ स्थापित है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे बारसूर से ला कर यहाँ स्थापित कर दिया गया है। मंदिर सादगीपूर्ण है तथा बहुतायत हिस्सा आज भी काष्ठ निर्मित ही है। मंदिर में मुख्य प्रतिमा से अलग अधिकांश मूर्तियाँ नाग राजाओं के समय की हैं। द्वार से घुसते ही जो पहला कमरा है यहाँ दाहिने ओर एक चबूतरा बना है। रियासत काल में राजधानी जगदलपुर से राजा जब भी यहाँ आते तो वहीं बैठ कर पुजारी और प्रजा से बातचीत किया करते थे। मंदिर का दूसरा कक्ष यद्यपि दीवारों की सादगी तथा किसी कलात्मक आकार के लिये नहीं पहचाना जाता किंतु यहाँ प्रवेश करते ही ठीक सामने भैरव बाबा, दोनो ओर द्वारपाल और यत्र-तत्र गणेश, शिव आदि देवों की अनेक पाषाण मूर्तियाँ स्थापित हैं। मंदिर के समक्ष तीसरे कक्ष में अनेक स्तम्भ निर्मित हैं, कुछ शिलालेख रखे हुए हैं, स्थान स्थान पर अनेक भव्य प्रतिमायें हैं साथ ही एक यंत्र भी स्थापित किया गया है।
इस स्थान से आगे किसी को भी पतलून पहन कर जाने की अनुमति नहीं है चूंकि आगे ही गर्भ-गुड़ी निर्मित है, जहाँ माता दंतेश्वरी विराजित हैं। दंतेवाड़ा में स्थापित माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी प्रतिमा काले ग्रेनाइट की निर्मित है। दंतेश्वरी माता की इस प्रतिमा की छह भुजाओं में से दाहिनी ओर के हाथों में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाईं ओर के हाँथों में में घंटी, पद्म और राक्षस के बाल हैं। यह प्रतिमा नक्काशीयुक्त है तथा इसके ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप बना हुआ है। प्रतिमा को सर्वदा श्रंगारित कर रखा जाता है तथा दंतेश्वरी माता के सिर पर एक चांदी का छत्र भी स्थापित किया गया है। गर्भगृह से बाहर की ओर द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं खड़े हैं जो चतुर्भुजी हैं। द्वारपालों के बायें हाथ में सर्प और दायें हाथ में गदा धारित है।
मंदिर की गर्भगुड़ी से पहले, उसकी बाई ओर विशाल गणेश प्रतिमा स्थापित है जिसके निकट ही एक द्वार बना हुआ है। इस ओर से आगे बढ़ने पर सामने मणिकेश्वरी देवी का मंदिर है। यहाँ अवस्थित प्राचीन प्रतिमा अष्ठभुजी है तथा अलंकृत है। मंदिर के गर्भगृह में नव ग्रहों की प्रतिमायें स्थापित है। साथ ही दीवारों पर नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की प्रतिमायें हैं। मंदिर के पीछे की ओर चल कर माई जी की बगिया से आगे बढ़ते हुए शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम की ओर जाया जा सकता है।
***
एक मुक्तकी रामायण
राम जन्मे, वन गए, तारी अहल्या, सिय वरी।
स्वर्णमृग-बाली वधा, सुग्रीव की पीड़ा हरी ।।
तार शबरी, मार रावण, सिंधु बाँधा, पूज शिव।
सिय छुड़ा, आ अवध, जन आकांक्षा पूरी करी।।
यह विश्व की सबसे छोटी रामायण है।
'रामायण' = 'राम का अयन' = 'राम का यात्रा पथ', अयन यात्रापथवाची है।
दोहा सलिला
ऊग पके चक्की पिसे, गेहूँ कहे न पीर।
गूँथा-माढ़ा गया पर, आँटा हो न अधीर।।
कनक मुँदरिया से लिपट, कनक सराहे भाग।
कनकांगिनि कर कमल ले, पल में देती त्याग।।
लोई कागज पर रचे, बेलन गति-यति साध।
छंदवृत्त; लय अग्नि में, तप निखरे निर्बाध।।
दरस-परस कर; मत तरस, पाणिग्रहण कर धन्य।
दंत जिह्वा सँग उदर मन, पाते तृप्ति अनन्य।।
ग्रहण करें रुचि-रस सहित, हँस पाएँ रस-खान।
रस-निधि में रस-लीन हों, संजीवित श्रीमान।।
९-४-२०२२
***
कोरोना गीत
*
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
मैया को स्वच्छता सुहाए
देख गंदगी सजा सुनाए
सुबह सूर्य का लो प्रकाश सब
बैठ ईश का ध्यान लगाए
रखो स्वच्छता दस दिश मिलकर
शुद्ध वायुमंडल हो अक्षय
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
खिड़की रोशनदान जरूरी
छोड़ो ए सी की मगरूरी
खस पर्दे फिर से लटकाओ
घड़े-सुराही को मंजूरी
कोल्ड ड्रिंक तज, पन्हा पिलाओ
हो ओजोन परत फिर अक्षय
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
व्यर्थ न घर से बाहर घूमो
मत हग करो, न लिपटा चूमो
हो शालीन रहो मर्यादित
हो मदमस्त न पशु सम झूमो
कर प्रणाम आशीष विहँस लो
शुभाशीष दो जग हो मधुमय
कोरोना मैया की जय
वर दे माता कर दो निर्भय
*
रखो संक्रमण दूर सभी मिल
भाप नित्य लो फूलों सम खिल
हल्दी लहसुन अदरक खाओ
तज ठंडा कुनकुना पिओ जल
करो योग व्यायाम स्वतः नित
रहें फेफड़े सबल मिटे भय
कोरोना मैया की जय जय
वर दे माता कर दो निर्भय
९.४.२०२१
***
नवगीत:
करना होगा...
हमको कुछ तो
करना होगा...
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
एक दोहा
उषा संग छिप झाँकता, भास्कर रवि दिन-नाथ.
गाल लाल हैं लाज से, झुका न कोई माथ.
***
भोजपुरी दोहा:
खेत हुई रहा खेत क्यों, 'सलिल' सून खलिहान.
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट के पहचान.
९.४.२०१७
***
कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश : लोक में नैतिकता अब भी हैं शेष
समीक्षक ; प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, सेवानिवृत्त प्राध्यापक,
*
कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश, संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी लेमिनेटेड पेपरबैक, पृष्ठ संख्या ७०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स नई दिल्ली।
*
लोक कथाएँ ग्राम्यांचलों में पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रहीं ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें लोक जीवन, लोक मूल्यों और लोक संस्कृति की झलक अंतर्निहित होती है। ये कहानियाँ श्रुतियों की तरह मौखिक रूप से कही जाते समय हर बार अपना रूप बदल लेती हैं। कहानी कहते समय हर वक्ता अपने लिए सहज शब्द व स्वाभाविक भाषा शैली का प्रयोग करता है। इस कारण इनका कोई एक स्थिर रूप नहीं होता। इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्य साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने देश के केंद्र में स्थित प्रांत मध्य प्रदेश की एक प्रमुख लोकभाषा बुंदेली में कही-सुनी जाती २१ लोक कथाएँ प्रस्तुत की हैं। पुस्तकारंभ में प्रकाशक नरेंद्र कुमार वर्मा द्वारा भारत की स्वतंत्रता के ७५ वे वर्ष में देश के सभी २८ राज्यों और ९ केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित नारी मन, बाल मन, युवा मन और लोक मन की कहानियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना की जानकारी दी है।
पुरोवाक के अन्तर्गत सलिल जी ने पाठकों की जानकारी के लिये लोक कथा के उद्गम, प्रकार, बुंदेली भाषा के उद्भव तथा प्रसार क्षेत्र की लोकोपयोगी जानकारी दी है। लोक कथाओं को चिरजीवी बनाने के लिए सार्थक सुझावों ने संग्रह को समृद्ध किया है। लोक कथा ''जैसी करनी वैसी भरनी'' में कर्म और कर्म फल की व्याख्या है। लोक में जो 'बोओगे वो काटोगे' जैसे लोकोक्तियाँ चिरकाल से प्रचलित रही हैं। 'भोग नहीं भाव' में राजा सौदास तथा चित्रगुप्त जी की प्रसिद्ध कथा वर्णित है जिसका मूल पदम् पुराण में है। यहाँ कर्म में अन्तर्निहित भावना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। लोक कथा 'अतिथि देव' में गणेश जन्म की कथा वर्णित है. साथ ही एक उपकथा भी है जिसमें अतिथि सत्कार का महत्व बताया गया है। 'अतिथि देवो भव' लोक व्यवहार में प्रचलित है ही। सच्चे योगी की पहचान संबंधी उत्सुकता को शांत करने के लिए एक राज द्वारा किए गए प्रयास और मिली सीख पर केंद्रित है लोक कथा 'कौन श्रेष्ठ'। 'दूधो नहाओ, पूतो फलो' का आशीर्वाद नव वधुओं के घर के बड़े देते रहे हैं। छठ मैया का पूजन बुंदेलखंड में बहुत लोक मान्यता रखता है। यह लोक कथा छठ मैया पर ही केंद्रित है।
लोक कथा 'जंगल में मंगल' में श्रम की प्रतिष्ठा और राज्य भक्ति (देश भक्ति) के साथ-साथ वृक्षों की रक्षा का संदेश समाहित है। राजा हिमालय की राजकुमारी पार्वती द्वारा वनवासी तपस्वी शिव से विवाह करने के संकल्प और तप पर केंद्रित है लोक कथा 'सच्ची लगन'। यह लोक कथा हरतालिका लोक पर्व से जुडी हुई है। मंगला गौरी व्रत कथा में प्रत्युन्नमतित्व तथा प्रयास का महत्व अंतर्निहित है। यह संदेश 'कोशिश से दुःख दूर' शीर्षक लोक कथा से मिलता है। आम जनों को अपने अभावों का सामना कर, अपने उज्जवल भविष्य के लिए मिल-जुलकर प्रयास करने होते हैं। यह प्रेरक संदेश लिए है लोककथा 'संतोषी हरदम सुखी'। 'पजन के लड्डू' शीर्षक लघुकथा में सौतिया डाह तथा सच की जीत वर्णित है। किसी को परखे बिना उस पर शंका या विश्वास न करने की सीख लोक कथा 'सयाने की सीख' में निहित है।
भगवान अपने सच्चे भक्त की चिंता स्वयं ही करते हैं, दुनिया को दिखने के लिए की जाती पिजा से प्रसन्न नाहने होते। इस सनातन लोक मान्यता को प्रतिपादित करती है लोक कथा 'भगत के बस में हैं भगवान'। लोक मान्यता है की पुण्य सलिला नर्मदा शिव पुत्री हैं। 'सुहाग रस' नामित लोक कथा में भक्ति-भाव का महत्व बताते हुए इस लोक मान्यता के साथ लोक पर्व गणगौर का महत्व है। मध्य प्रदेश के मालवांचल के प्रतापी नरेश विक्रमादित्य से जुडी कहानी है 'मान न जाए' जबकि 'यहाँ न कोई किसी का' कहानी मालवा के ही अन्य प्रतापी नरेश राजा भोज से संबंधित है। महाभारत के अन्य पर्व में वर्णित किन्तु लोक में बहु प्रचलित सावित्री-सत्यवान प्रसंग को लेकर लिखी गयी है 'काह न अबला करि सकै'। मनुष्य को किसी की हानि नहीं करनी चाहिए और समय पर छोटे से छोटा प्राणी भी काम आ सकता है। यह कथ्य है 'कर भला होगा भला' लोक कथा का। गोंडवाना के पराक्रमी गोंड राजा संग्रामशाह द्वारा षडयंत्रकारी पाखंडी साधु को दंडित करने पर केंद्रित है लोक कथा 'जैसी करनी वैसी भरनी'। 'जो बोया सो काटो' …
९-४-२०२२
***
एक गीत -
अभिन्न
*
हो अभिन्न तुम
निकट रहो
या दूर
*
धरा-गगन में नहीं निकटता
शिखर-पवन में नहीं मित्रता
मेघ-दामिनी संग न रहते-
सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता
अविच्छिन्न हम
किन्तु नहीं
हैं सूर
*
देना-पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है
तन का द्वैत, अद्वैत हो गया
काया-छाया सत्य-ख्वाब है
नयन न हों नम
मिले नूर
या धूर
*
विरह पराया, मिलन सगा है
अपना नाता नेह पगा है
अंतर साथ श्वास के सोया
अंतर होकर आस जगा है.
हो न अधिक-कम
नेह पले
भरपूर
९.४.२०१६
***
मुक्तिका
*
मेहनत अधरों की मुस्कान
मेहनत ही मेरा सम्मान
बहा पसीना, महल बना
पाया आप न एक मकान
वो जुमलेबाजी करते
जिनको कुर्सी बनी मचान
कंगन-करधन मिले नहीं
कमा बनाए सच लो जान
भारत माता की बेटी
यही सही मेरी पहचान
दल झंडे पंडे डंडे
मुझ बिन हैं बेदम-बेजान
उबटन से गणपति गढ़ दूँ
अगर पार्वती मैं लूँ ठान
सृजन 'सलिल' का है सार्थक
मेहनतकश का कर गुणगान
२०-४-२१
***
नवगीत:
संजीव
.
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
अब तक किसने-कितने काटे
ढो ले गये,
नहीं कुछ बाँटें.
चोर-चोर मौसेरे भाई
करें दिखावा
मुस्का डांटें.
बँसवारी में फैला स्यापा
कौन नहीं
जिसका मन काँपा?
कब आएगी
किसकी बारी?
आहुति बने,
लगे अग्यारी.
उषा-सूर्य की
आँखें लाल.
रो-रो
क्षितिज-दिशा बेहाल.
समय न बदले
बेढब चाल.
ठोंक रहा है
स्वारथ ताल.
ताल-तलैये
सूखे हाय
भूखी-प्यासी
मरती गाय.
आँख न होती
फिर भी नम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
.
करे महकमा नित नीलामी
बँसवट
लावारिस-बेनामी.
अंधा पीसे कुत्ते खायें
मोहन भोग
नहीं गह पायें.
वनवासी के रहे नहीं वन
श्रम कर भी
किसान क्यों निर्धन?
किसकी कब
जमीन छिन जाए?
विधना भी यह
बता न पाए.
बाँस फूलता
बिना अकाल.
लूटें अफसर-सेठ कमाल.
राज प्रजा का
लुटते लोग.
कोंपल-कली
मानती सोग.
मौन न रह
अब तो सच बोल
उठा नगाड़ा
पीटो ढोल.
जब तक दम
मत हो बेदम
बाँस रोपने
बढ़ा कदम
९.४.२०१५
***
दोहा मुक्तिका
*
झुरमुट से छिप झाँकता, भास्कर रवि दिननाथ।
गाल लाल हैं लाज से, दमका ऊषा-माथ।।
*
कागा मुआ मुँडेर पर, बैठ न करता शोर।
मन ही मन कुछ मानता, मना रहे हैं हाथ।।
*
आँख टिकी है द्वार पर, मन उन्मन है आज।
पायल को चुप हेरती, चूड़ी कंडा पाथ।।
*
गुपचुप आ झट बाँह में, भरे बाँह को बाँह।
कहे न चाहे 'छोड़ दो', देख न ले माँ साथ।।
*
कुकड़ूँ कूँ ननदी करे, देवर देता बाँग।
बीरबहूटी छुइमुई, छोड़ न छोड़े हाथ।।
***
भोजपुरी दोहा:
*
खेत खेत रउआ भयल, 'सलिल' सून खलिहान।
सुन सिसकी चौपाल के, पनघट भी सुनसान।।
*
खनकल-ठनकल बाँह-पग, दुबुकल फउकल देह।
भूख भूख से कहत बा, कित रोटी कित नेह।।
*
बालारुण के सकारे, दीले अरघ जहान।
दुपहर में सर ढाँकि ले, संझा कहे बिहान।।
*
काट दइल बिरवा-बिरछ, बाढ़ल बंजर-धूर।
आँखन ऐनक धर लिहिल, मानुस आँधर-सूर।।
*
सुग्गा कोइल लुकाइल, अमराई बा सून।
शूकर-कूकुर जस लड़ल, है खून सँग खून
***
दोहा मुक्तिका
*
सत्य सनातन नर्मदा, बाँच सके तो बाँच.
मिथ्या सब मिट जाएगा, शेष रहेगा साँच..
*
कथनी-करनी में कभी, रखना तनिक न भेद.
जो बोया मिलता वही, ले कर्मों को जाँच..
*
साँसें अपनी मोम हैं, आसें तपती आग.
सच फौलादी कर्म ही सह पाता है आँच..
*
उसकी लाठी में नहीं, होती है आवाज़.
देख न पाते चटकता, कैसे जीवन-काँच..
*
जो त्यागे पाता 'सलिल', बनता मोह विछोह.
एक्य द्रोह को जय करे, कहते पांडव पाँच..
***
द्विपदियाँ
*
परवाने जां निसार कर देंगे.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में भटको न तुम.
फूल बन महको चली आएँगी ये..
*
जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.
मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..
*
बाप की दो बात सह नहीं पाते
अफसरों की लात भी परसाद है..
*
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..
*
९-४-२०१०

रविवार, 24 मार्च 2024

मार्च २४, मुक्तिका, परिवार, पैरोडी, होली, भोजपुरी, सत श्लोकी दुर्गा

सलिल सृजन २४ मार्च
*
मुक्तिका
परिवार
*
चोट एक को, दर्द शेष को, जिनमें वे ही, हैं परिवार।
जहाँ रहें वे,उसी जगह हो, स्वर्ग करें सुख, सभी विहार।।
मेरा-तेरा, स्वार्थ नहीं हो, सबसे सबको, प्यार असीम।
सब सबका हित, रहें साधते, करें सभी का, सब उद्धार।।
नेह नर्मदा, रहे प्रवाहित, विमल सलिल की, धार अपार।
जो अवगाहे, वही सुखी हो, पाप मिटें सब, दें-पा प्यार।।
शूल फूल हों, पतझर सावन, दर्द हर्ष हो, संग न दूर।
हो मनभेद न, रहे एकता, मरुथल में भी, रहे बहार।।
मुझको वर दो, प्रभु बन पाए, मेरा भारत, घर-परिवार।
बने रवायत, जनसेवा कर, बने सियासत, हरि का द्वार।।
(मात्रिक सवैया, यति ८-८-८-७, पदांत गुरु लघु)
२४.३.२०२३
***
दोहा
है भवि शुचि तो कीजिए, खुश रहकर आनंद.
'सलिल' जीव संजीव हो, रचकर गाए छंद.
***
पैरोडी
'लेट इज बैटर दैन नेवर', कबहुँ नहीं से गैर भली 
होली पर दिवाली खातिर धोनी और सब मनई के 
मुट्ठी भर अबीर और बोतल भर ठंडाई ......

होली पर एगो ’भोजपुरी’ गीत रऊआ लोग के सेवा में ....
नीक लागी तऽ ठीक , ना नीक लागी तऽ कवनो बात नाहीं....
ई गीत के पहिले चार लाईन अऊरी सुन लेईं
माना कि गीत ई पुरान बा
हर घर कऽ इहे बयान बा
होली कऽ मस्ती बयार मे-
मत पूछऽ बुढ़वो जवान बा--- कबीरा स र र र र ऽ

अब हमहूँ७३-के ऊपरे चलत, मग्गर ३७ का हौसला रखत बानी ..

भोजपुरी गीत : होली पर....

कईसे मनाईब होली ? हो धोनी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ

बैटिंग के गईला त रनहू नऽ अईला
एक गिरउला ,तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
कोहली त धवन, रनहू कम दईला
निगली का भंग की गोली? हो धोनी !
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
ओवर में कम से कम चउका तऽ चाही
मौका बेमौका बाऽ ,छक्का तऽ चाही
बीस रनन का रउआ रे टोटा
सम्हरो न दुनिया में होवे हँसाई
रीती न रखियो झोली? हो राजा !
लड़ के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ

मारे बँगलदेसीऽ रह-रह के बोली
मुँहझँऊसा मुँह की खाऽ बिसरा ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अश्विन-जडेजा? कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़ के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ

जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल गए ले के मुँह लटका
नानी स्टंपन ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जम के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ

अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा, 
अईसे मनाईब होली...
२४.३.२०१६
***
सत श्लोकी दुर्गा
हिंदी भावानुवाद
शिव बोले- हो सुलभ भक्त को, कार्य नियंता हो देवी!
एक उपाय प्रयत्न मात्र है, कार्य-सिद्धि की कला यही।।
देवी बोलीं- सुनें देव हे!, कला साधना उत्तम है।
स्नेह बहुत है मेरा तुम पर, स्तुति करूँ प्रकाशित मैं।।
ॐ मंत्र सत् श्लोकी दुर्गा, ऋषि ‌नारायण छंद अनुष्टुप।
देव कालिका रमा शारदा, दुर्गा हित हो पाठ नियोजित।।
ॐ चेतना ज्ञानी जन में, मात्र भगवती माँ ही हैं।
मोहित-आकर्षित करती हैं, मातु महामाया खुद ही।१।
भीति शेष जो है जीवों में, दुर्गा-स्मृति हर लेती,
स्मृति-मति हो स्वस्थ्य अगर तो, शुभ फल हरदम है देती।
कौन भीति दारिद्रय दुख हरे, अन्य न कोई है देवी।
कारण सबके उपकारों का, सदा आर्द्र चितवाली वे।२।
मंगलकारी मंगल करतीं, शिवा साधतीं हित सबका।
त्र्यंबका गौरी, शरणागत, नारायणी नमन तुमको।३।
दीन-आर्त जन जो शरणागत, परित्राण करतीं उनका।
सबकी पीड़ा हर लेती हो, नारायणी नमन तुमको।४।
सब रूपों में, ईश सभी की, करें समन्वित शक्ति सभी।
देवी भय न अस्त्र का किंचित्, दुर्गा देवि नमन तुमको।५।
रोग न शेष, तुष्ट हों तब ही, रुष्ट काम से, अभीष्ट सबका।
जो आश्रित वह दीन न होता, आश्रित पाता प्रेय अंत में।६।
सब बाधाओं को विनाशतीं, हैं अखिलेश्वरी तीन लोक में।
इसी तरह सब कार्य साधतीं, करें शत्रुओं का विनाश भी।७।
•••
चित्रगुप्त-रहस्य
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
२४.३.२०१४
***

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

सत श्लोकी दुर्गा

सत श्लोकी दुर्गा
हिंदी भावानुवाद

शिव बोले- हो सुलभ भक्त को, कार्य नियंता हो देवी!
एक उपाय प्रयत्न मात्र है, कार्य-सिद्धि की कला यही।।

देवी बोलीं- सुनें देव हे!, कला साधना उत्तम है।
स्नेह बहुत है मेरा तुम पर, स्तुति करूँ प्रकाशित मैं।।

ॐ मंत्र सत् श्लोकी दुर्गा, ऋषि ‌नारायण छंद अनुष्टुप।
देव कालिका रमा शारदा, दुर्गा हित हो पाठ नियोजित।।

ॐ चेतना ज्ञानी जन में, मात्र भगवती माँ ही हैं।
मोहित-आकर्षित करती हैं, मातु महामाया खुद ही।१।

भीति शेष जो है जीवों में, दुर्गा-स्मृति हर लेती,
स्मृति-मति हो स्वस्थ्य अगर तो, शुभ फल हरदम है देती।
कौन भीति दारिद्रय दुख हरे, अन्य न कोई है देवी।
कारण सबके उपकारों का, सदा आर्द्र चितवाली वे।२।

मंगलकारी मंगल करतीं, शिवा साधतीं हित सबका।
त्र्यंबका गौरी, शरणागत, नारायणी नमन तुमको।३।

दीन-आर्त जन जो शरणागत, परित्राण करतीं उनका।
सबकी पीड़ा हर लेती हो, नारायणी नमन तुमको।४।

सब रूपों में, ईश सभी की, करें समन्वित शक्ति सभी।
देवी भय न अस्त्र का किंचित्, दुर्गा देवि नमन तुमको।५।

रोग न शेष, तुष्ट हों तब ही, रुष्ट काम से, अभीष्ट सबका।
जो आश्रित वह दीन न होता, आश्रित पाता प्रेय अंत में।६।

सब बाधाओं को विनाशतीं, हैं अखिलेश्वरी तीन लोक में।
इसी तरह सब कार्य साधतीं, करें शत्रुओं का विनाश भी।७।
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