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सोमवार, 10 मई 2010

मातृ दिवस पर माँ को अर्पित चौपदे: ---संजीव 'सलिल'

मातृ दिवस  पर माँ को अर्पित चौपदे: संजीव 'सलिल'                            


बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*  
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
*
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ.. 
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी- 
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..     
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ 
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल श्रेया है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ                                 
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम





रविवार, 9 मई 2010

मातृ दिवस पर स्मृति गीत: माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.... संजीव 'सलिल'


मातृ दिवस पर स्मृति गीत:

माँ की सुधियाँ  पुरवाई सी....

संजीव 'सलिल'
*
तन पुलकित मन प्रमुदित करतीं माँ की सुधियाँ  पुरवाई सी
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ... 
*
दूर रहा जो उसे खलिश है तुमको देख नहीं वह पाया.
निकट रहा मैं लेकिन बेबस रस्ता छेक नहीं मैं पाया..
तुम जाकर भी गयी नहीं हो, बस यह है इस बेटे का सच.
साँस-साँस में बसी तुम्हीं हो, आस-आस में तुमको पाया..
चिंतन में लेखन में तुम हो, शब्द-शब्द सुन हर्षाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
तुम्हें देख तुतलाकर बोला, 'माँ' तुमने हँस गले लगाया.
दौड़ा गिरा बिसूरा मुँह तो, उठा गुदगुदा विहँस हँसाया..
खुशी न तुमने खुद तक रक्खी,
मुझसे कहलाया 'पापा' भी-
खुशी लुटाने का अनजाने, सबक तभी माँ मुझे सिखाया..
लोरी भजन आरती कीर्तन, सुन-गुन धुन में छवि पाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
भोर-साँझ, त्यौहार-पर्व पर, हुलस-पुलकना तुमसे पाया.
दुःख चुप सह, सुख सब संग जीना, पंथ तुम्हारा ही अपनाया..
आँसू देख न पाए दुनिया, पीर चीर में छिपा हास दे-
संकट-कंटक को जय करना, मन्त्र-मार्ग माँ का सरमाया.
बन्ना-बन्नी, होरी-गारी, कजरी, चैती, चौपाई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
गुदड़ी, कथरी, दोहर खो, अपनों-सपनों का साथ गँवाया..
चूल्हा-चक्की, कंडा-लकड़ी, फुंकनी सिल-लोढ़ा बिसराया.
नथ, बेन्दा, लंहगा, पायल, कंगन-सज करवाचौथ मनातीं-
निर्जल व्रत, पूजन-अर्चन कर, तुमने सबका क्षेम मनाया..
खुद के लिए न माँगा कुछ भी, विपदा सहने बौराई सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...
*
घूँघट में घुँट रहें न बिटियाँ, बेटा कहकर खूब पढाया.
सिर-आँखों पर जामाता, बहुओं को बिटियों सा दुलराया.
नाती-पोते थे आँखों के तारे, उनमें बसी जान थी-
'उनका संकट मुझको दे', विधना से तुमने सदा मनाया.
तुम्हें गँवा जी सके न पापा, तुम थीं उनकी परछाईं सी.
तुमको खोकर खुद को खोया, संभव कभी न भरपाई सी ...