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सोमवार, 5 अगस्त 2019

दोहा वार्ता छाया शुक्ल, सलिल

दोहा वार्ता
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सबकुछ अपना मानिये, छाया तो प्रतिरूप । ढल जाती है वह सदा, रूप रूप व अरूप ।। छाया शुक्ल
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गलती-ढलती है नहीं, लुकती-छिपती खूब
बृज-छलिया की तरह ही, जड़ें जमीं ज्यों दूब संजीव सलिल
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छाया जिसपर देव की, बन जाये वो दूब । फिर चढ़ जाए प्रभु चरण, तब जँचती है ख़ूब ।। छाया शुक्ल
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छाया की माया अजब, गर्मी में दे शांति
कर अशांत दे शीत में, मिटे किस तरह भ्रान्ति संजीव सलिल
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छाया को करिए नमन, सिर रह दे आशीष
प्रभु की छाया चाहते, सब संजीव मनीष
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रविवार, 10 जून 2018

कार्यशाला: रचना एक रचनाकार दो

कार्यशाला: 
रचना एक रचनाकार दो 
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पथरीले थे रास्ते, दुख का नहीं हिसाब ।
अनुभव अनुभव जोड़कर, छाया बनी किताब ।। -छाया शुक्ला

छाया बनी किताब, धूप हँस पढ़ने बैठी।  
छोड़ न पाई चाह, ह्रदय में छाया पैठी।।  
देखें दर्पण सलिल, न टिकते बिंब हठीले।  
लिख कविता संजीव, स्वप्न पाए नखरीले।।  -संजीव 
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१०.६.२०१८