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सोमवार, 13 सितंबर 2010

एक तेवरी : रमेश राज, अलीगढ़.

एक तेवरी :

रमेश राज, अलीगढ़.
*
*
नैन को तो अश्रु के आभास ने अपना पता-
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता..
*
सादगी-मासूमियत इस प्यार को हम क्या कहें?
खुरपियों को दे दिया है घास ने अपना पता..
*
मरूथलों के बीच भी जो आज तक भटके नहीं.
उन मृगों को झट बताया प्यास ने अपना पता..
*
फूल तितली और भँवरे अब न इसके पास हैं-
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता..
*
बात कुछ थी इस तरह की चौंकना मुझको पड़ा-
चीख के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता..
*****************
प्रेषक: http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 6 सितंबर 2010

नव गीत: क्या?, कैसा है?... संजीव 'सलिल'

नव गीत:

क्या?, कैसा है?...

संजीव 'सलिल'
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*****************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.कॉम



बुधवार, 21 जुलाई 2010

दोहा दर्पण: संजीव 'सलिल' *


दोहा दर्पण:

संजीव 'सलिल'

*
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*
कविता की बारिश करें, कवि बादल हों दूर.
कौन किसे रोके 'सलिल', आँखें रहते सूर..

है विवेक ही सुप्त तो, क्यों आये बरसात.
काट वनों को, खोद दे पर्वत खो सौगात..

तालाबों को पाट दे, मरुथल से कर प्यार.
अपना दुश्मन मनुज खुद, जीवन से बेज़ार..

पशु-पक्षी सब मारकर खा- मंगल पर घूम.
दंगल कर, मंगल भुला, 'सलिल' मचा चल धूम..

जर-ज़मीन-जोरू-हुआ, सिर पर नशा सवार.
अपना दुश्मन आप बन, मिटने हम बेज़ार..

गलती पर गलती करें, दें औरों को दोष.
किन्तु निरंतर बढ़ रहा, है पापों का कोष..

ले विकास का नाम हम, करने तुले विनाश.
खुद को खुद ही हो रहे, 'सलिल' मौत का पाश..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com