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रविवार, 17 दिसंबर 2023

समीक्षा, ब्रजेश श्रीवास्तव, निर्मल शुक्ल, नवगीत

कृति चर्चा:
बाँसों के झुरमुट से : मर्मस्पर्शी नवगीत संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बाँसों के झुरमुट से, नवगीत संग्रह, ब्रजेश श्रीवास्तव, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ११२, २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हिंदी साहित्य का वैशिष्ट्य आम और खास के मध्य सेतु बनकर भाव सरिता की रस लहरियों में अवगाहन का सुख सुलभ कराना है. पाषाण नगरी ग्वालियर के नवनीत हृदयी वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव का यह नवगीत संग्रह एक घाट की तरह है जहाँ बैठकर पाठक-श्रोता न केवल अपने बोझिल मन को शांति दे पाता है अपितु व्यथा बिसराकर आनंद भी पाता है. ब्रजेश जी की वाणी का मखमली स्पर्श उनके नवगीतों में भी है.
बाँसों के झुरमुट से आती चिरैया के कलरव से मन को जैसी शांति मिलती है, वैसी ही प्रतीति ये नवगीत कराते हैं. राग-विराग के दो तटों के मध्य प्रवहित गीतोर्मियाँ बिम्बों की ताज़गी से मन मोह लेती हैं:
नीड़ है पर स्वत्व से हम / बेदखल से हैं
मूल होकर दिख रहे / बरबस नकल से हैं
रास्ता है साफ़ फ्रूटी, कोक / कॉफी का
भीगकर फूटे बताशे / खूब देखे हैं
पारिस्थितिक विसंगतियों को इंगित करते हुए गीतकार की सौम्यता छीजती नहीं। सामान्य जन ही नहीं नेताओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और पाषाण हृदयता पर एक व्यंग्य देखें:
सियाचिन की ठंड में / पग गल गये
पाक -भारत वार्ता पर / मिल गये
एक का सिंदूर / सीमा पर पुछा
चाय पीते पढ़ लिया / अखबार में
ब्रजेश जी पर्यावरण और नदियों के प्रदूषण से विशेष चिंतित और आहत हैं. यह अजूबा है शीर्षक नवगीत में उनकी चिंता प्रदूषणजनित रोगों को लेकर व्यक्त हुई है:
कौन कहता बह रही गंगो-यमुन
बह रहा उनमें रसायन गंदगी भी
उग रही हैं सब्जियाँ भी इसी जल से
पोषते हम आ रहे बीमारियाँ भी
नारी उत्पीड़न को लेकर ब्रजेश जी तथाकथित सुधारवादियों की तरह सतही नारेबाजी नहीं करते, वे संग्रह के प्रथम दो नवगीतों 'आज अभी बिटिया आई है' और 'देखते ही देखते बिटिया' में एक पिता के ममत्व, चिंता और पीड़ा के मनोभावों को अभिव्यक्त कर सन्देश देते हैं. इस नवगीत के मुखड़े और अंतरांत की चार पंक्तियों से ही व्यथा-कथा स्पष्ट हो जाती है:
बिटिया सयानी हो गई
बिटिया भवानी हो गई
बिटिया कहानी हो गई
बिटिया निशानी हो गई
ये चार पंक्तियाँ सीधे मर्म को स्पर्श करती हैं, शेष गीत पंक्तियाँ तो इनके मध्य सोपान की तरह हैं. किसी नवगीत में एक बिम्ब अन्तरा दर अन्तरा किस तरह विकसित होकर पूर्णता पाता है, यह नवगीत उसका उदहारण है. 'सरल सरिता सी समंदर / से गले मिलने चली' जैसा रूपक मन में बस जाता है. कतिपय आलोचक अलंकार को नवगीत हेतु अनावश्यक मानते हैं कि इससे कथ्य कमजोर होता है किन्तु ब्रजेश जी अलंकारों से कथ्य को स्पष्टा और ग्राह्यता प्रदान कर इस मत को निरर्थक सिद्ध कर देते हैं.
ब्रजेश जी के पास सिक्त कंठ से इस नवगीत को सुनते हुए भद्र और सुशिक्षित श्रोताओं की आँखों से अश्रुपात होते मैंने देखा है. यह प्रमाण है कि गीतिकाव्य का जादू समाप्त नहीं हुआ है.
ब्रजेश जी के नवगीतों का शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है. वे मुखड़े में सामान्यतः दो, अधिकतम सात पंक्तियों का तथा अँतरे में छ: से अठारह पंक्तियों का प्रयोग करते हैं. वस्तुतः वे अपनी बात कहते जाते हैं और अंतरे अपने आप आकारित होते हैं. उनकी भाषिक सामर्थ्य और शब्द भण्डार स्वतः अंतरों की पंक्ति संख्या और पदभार को संतुलित कर लेते हैं.कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सायास संतुलन स्थापित किया गया है. 'आज लिखी है घर को चिट्ठी' नवगीत में अभिव्यक्ति की सहजता देखें:
माँ अब भी रोटी-पानी में / ही खटती होगी
साँझ समय बापू के संग / मुझको रटती होगी
उनका मौन बुलावा आया / बहुत दिनों के बाद
यहाँ 'रटती' शब्द का प्रयोग सामान्य से हटकर किन्तु पूरी तरह स्वभाविक है. नव रचनाकारों को किसी शब्द का सामान्य अर्थ से हटकर प्रयोग कैसे किया जाए और बात में अपना रंग भरा जाए- ऐसे प्रयोगों से सीखा जा सकता है. 'मौन बुलावा' भी ऐसा ही प्रयोग है जो सतही दृष्टि से अंतर्विरोधी प्रतीत होते हुए भी गहन अभिव्यंजना में समर्थ है.
ब्रजेश जी की भाषा आम पाठक-श्रोता के आस-पास की है. वे क्लिष्ट संस्कृत या अरबी-फ़ारसी या अप्रचलित देशज शब्द नहीं लेते, इसके सर्वथा विपरीत जनसामान्य के दैनंदिन जीवन में प्रचलित शब्दों के विशिष्ट उपयोग से अपनी बात कहते हैं. उनके इन नवगीतों में आंग्ल शब्द: फ्रॉक, सर्कस, ड्राइंग रूम, वाटर बॉटल, ऑटो, टा टा, पेरेंट्स, होमवर्क, कार्टून, चैनल, वाशिंग मशीन, ट्रैक्टर, ट्रॉली, रैंप, फ्रूटी, कोक, कॉफी, बाइक, मोबाइल, कॉलों, सिंथेटिक, फीस, डिस्कवरी, जियोग्राफिक, पैनल, सुपरवाइजर, वेंटिलेटर, हॉकर आदि, देशज शब्द: रनिया, ददिया, दँतुली, दिपती, तलक, जेवना, गरबीला, हिरना, बतकन, पतिया, पुरवाई, बतियाहट, दुपहरी, चिरइया, बिरचन, खटती, बतियाना, तुहुकन, कहन, मड़िया, बाँचा, पहड़ौत, पहुँनोर, हड़काते, अरजौ, पुरबिया, छवना, बतरस, बुड़की, तिरे, भरका, आखर, तुमख, लोरा, लड़याते आदि तथा संस्कृत निष्ठ शब्द भदृट, पादप, अंबर, वाक्जाल, अधुना-युग, अंतस, संवेदन, वणिक, सूचकांक, स्वेदित, अनुनाद, मातृ, उत्ताल, नवाचार आदि नित्य प्रचलित शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं.
इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता से हुआ है जो सरसता में वृद्धि करता है. कमल-नाल, मकड़-जाल, जेठ-दुपहरी, बात-बेबात, सरिता-धार, झूठ-साँच, जंतर-मंतर, लीप-पोत, घर-आँगन, राजा-राव, घर-आँगन-दीवाल, रोटी-पानी, कपड़े-लत्ते, सावन-कजरी, भादों-आल्हा, ताने-बाने, लाग-ठेल, धमा-चौकड़ी, पोथी-पत्रा, उट्टी-कुट्टी, सीरा-पाटी, चूल्हा-चकिया, बासन-भाड़े जैसे शब्द युग्म एक ओर नवगीतकार के परिवेश और जन-जीवन से जुड़ाव इंगित करते हैं तो दूसरी ओर भिन्न परिवेश या हिंदीतर पाठकों के लिये कुछ कठिनाई उपस्थित करते हैं. शब्द-युग्मों और देशज शब्दों के भावार्थ सामान्य शब्द कोषों में नहीं मिलते किन्तु यह नवगीत और नवगीतकार का वैशिष्ट्य स्थापित करते हैं तथा पाठक-श्रोता को ज्ञात से कुछ अधिक जानने का अवसर देकर सांस्कृतिक जुड़ाव में सहायक अस्तु श्लाघ्य हैं.
ब्रजेश जी ने कुछ विशिष्ट शब्द-प्रयोगों से नवबिम्ब स्थापित किये हैं. बर्फीला ताला, जलहीना मिट्टी, अभिसारी नयन, वासंतिक कोयल, नयन-झरोखा, मौन बुलावा, फूटे-बताशे, शब्द-निवेश, बर्फीला बर्ताव, आकाशी भटकाव आदि उल्लेख्य हैं.
'बांसों के झुरमुट से' को पढ़ना किसी नवगीतकार के लिए एक सुखद यात्रा है जिसमें नयनाभिराम शब्द दृश्य तथा भाव तरंगें हैं किन्तु जेठ की धूप या शीत की जकड़न नहीं है. नवगीतकारों के लिए स्वाभाविकता को शैल्पिक जटिलता पर वरीयता देता यह संग्रह अपने गीतों को प्रवाहमयी बनाने का सन्देश अनकहे ही दे देता है. ब्रजेश जी के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा करने का पाठकीय मन ही इस संग्रह की सफलता है.
***
कृति चर्चा:
एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश
[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.
स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं:
शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना
परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना
.
शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में
नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में
संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.
जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता।
ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.
शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.
लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं:
'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही
उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस
'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.
'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं:
'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं
अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी
काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं'
क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है:
'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार
सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार
मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'
विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है:
बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम
निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम
'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है:
'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके
मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके
शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत
.
लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे
सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'
सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-चयन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'
वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है.
१७-१२-२०१४
***

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

राम, शिव, सॉनेट, गीत, ब्रजेश श्रीवास्तव, निर्मल शुक्ल, सरदार पटेल,

दोहा सलिला 
शंभु नाथ सब सृष्टि के, उमानाथ जगदीश।
रहें सलिल पर सदय प्रभु, सह पार्वती गिरीश।।
*
रेखा खींचे भक्ति की, हो जिज्ञासु विवेक।
पुष्पा सरला मुकुल मन, वसुधा हर्षित नेक।।
*
दें संतोष सुरेश आ, राम नाम अविनाश।
सुख-दुःख में तजिए नहीं, धीरज रहें सुभाष।।
*
रहे सुनीता ज़िंदगी, हँस मर्यादापूर्ण। 
सुधा राम का नाम ले, अहंकार हो चूर्ण।।
*
विषपायी प्रिय राम को, शंकर को प्रिय राम। 
सलिल न भरमा नित्य जप, दोनों का ही नाम।।
*
रत रहते हैं राम में, जो वे भरत महान। 
धर्म नहीं है भरत बिन, भरत राम का मान।।
*
पीताम्बर मर्याद है, नीलाम्बर है अंत। 
रक्ताम्बर से नाश हो, श्वेताम्बर  है संत।। 
*
धर्म-प्रेम का पथ चुनें, प्रेम-धर्म रख साथ। 
जब तब ही साकार हों, भरत और रघुनाथ।।
धर्म-प्रेम की राह में, हो न हार; नहिं जीत। 
प्रेम-धर्म के पंथ पर, कर जो चाहे मीत।।
*
प्रेम-धर्म संयोग का, भक्ति भाव है नाम। 
भक्ति और अनुरक्ति में, नहीं भेद का काम।।   
***
सॉनेट
नमन
*
तूलिका को, रंग को, आकार को नमन ।
कल्पना की सृष्टि, दृष्टि ईश का वरदान।
शब्द करें कला-ओ-कलाकार को नमन।।
एक एक चित्र है रस-भावना की खान।।
रेखाओं की लय सरस सूर-पद सुगेय।
वर्तुलों में साखियाँ चित्रित कबीर की।
निराला संसार है प्रसाद शारदेय।।
भुज भेंटती नीराजना, दीपशिखा भी।।
ध्यान लगा, खोल नयन, निरख छवि बाँकी।
ऊँचाई-गहराई-विस्तार है अगम।
झरोखे से झाँक, है बाँकी नवल झाँकी।।
अधर पर मृदु हास ले, हैं कमल नयन नम।।
निशा-उषा-साँझ, घाट-बाट साथ-साथ।
सहेली शैली हरेक, सलिल नवा माथ।।
१७-१२-२०२१
***
सॉनेट
गुरुआनी
*
गुरुआनी गुरु के हृदय, अब भी रहीं विराज।
देख रहीं परलोक से, धीरज धरकर आप।
विधि-विधान से कर रहे, सारे अंतिम काज।।
गुरु जी उनको याद कर, पल-पल सुधियाँ व्याप।।
कवि-कविता-कविताइ का, कभी न छूटे साथ।
हुई नर्मदा की सुता, गंगा-तनया मीत।
सात जन्म बंधन रहे, लिए हाथ में हाथ।।
देही थी अब विदेही, हुई सनातन प्रीत।।
गुरुआनी जी थीं सरल, पति गौरव पर मुग्ध।
संस्कार संतान को, दिए सनातन शुद्ध।
व्रत-तप से हर अशुभ को, किया निरंतर दग्ध।।
संगत पाकर साँड़ भी, गुरु हो पूज्य प्रबुद्ध।।
दिव्यात्मा आशीष दे, रहे सुखी कुल वंश।
कविता पुष्पित-पल्लवित, हो बन सुधि का अंश।।
१६-१२-२०२१
***
छंद सलिला
रूपमाला
२४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद
*
पदभार २४, यति १४-१०, पदांत गुरु लघु।
विविध गणों का प्रयोग कर कई मापनियाँ बनाई जा सकती हैं।
उदाहरण
रूपमाला फेरता ले, भूप जैसा भाग।
राग से अनुराग करता, भोग दाहक आग।।
त्यागता वैराग हँसकर, जगत पूजे किंतु-
त्याग देता त्याग को ही, जला ईर्ष्या आग।।
कलकल कलकल अमल विमल, जल प्रवह-प्रवहकर।
धरणि-तपिश हर मुकुलित मन, सुखकर दुख हरकर।।
लहर-लहर लहरित मुखरित, छवि मनहर लखकर-
कलरव कर खगगण प्रमुदित, खुश चहक-चहककर।
जो बोया सो काटेगा, काहे को रोना।
जो पाया सो खोएगा, क्यों जोड़े सोना?
आएगा सो जाएगा, छोड़ेगा यादें-
बागों के फूलों जैसे, तू खुश्बू बोना
१७-१२-२०२०
***
पुस्तक चर्चा:
नई उम्र की नई फसल: दोहा सलिला निर्मला
डॉ. अरुण मिश्र
*
प्रतिभा कवित्व का बीज है जिसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है। 'कवित्तं दुर्लभं लोके' काव्य रचना सृष्टि में सर्वाधिक दुर्लभ कार्य है। आचार्यों के अनुसार काव्य के ३ हेतु हैं।
' नैसर्गिकी च प्रतिभा, श्रुतञ्च बहु निर्मलं।
अमंदश्चाभियोगश्च, कारणं काव्य संपद:।।' दंडी काव्यादर्श १ / १०३
निसर्गजात प्रतिभा, निर्भ्रांत लोक-शास्त्र ज्ञान और अमंद अभियोग यही काव्य के लक्षण हैं। कावय की रचना शक्ति, निपुणता और अभ्यास द्वारा ही संभव है। काव्य छंद-विधान से युक्त सरस वाणी है जिसका सीधा संबंध लोक मंगल से होता है। आचार्य शुक्ल भी यही स्वीकार करते हैं कि जिस काव्य में लोक के प्रति अधिक भावना होगी, वही उत्तम है। छंद-शास्त्र का ज्ञान सभी को प्राप्त नहीं है, वाग्देवी की कृपा ही छंद-युक्त काव्य के लिए प्रेरित करती है।
आचार्य श्री संजीव वर्मा 'सलिल' एवं डॉ. साधना वर्मा के संपादन में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा शांतिराज पुस्तक माला के अंतर्गत प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा २ 'दोहा सलिला निर्मला' कृति का प्रकाशन हुआ है। आज के दौर में साहित्य-लेखन में छंदों का प्रयोग नगण्य होता जा रहा है तथापि कुछ रचनाकार ऐसे हैं जिन्होंने छंदों के प्रति असीम निष्ठा का भाव अपनाकर छंद-रचना से खुद को अलग नहीं किया है। वे छंद-विधान में निष्णात हैं। संपादक द्वय ने इनकी प्रतिभा का आकलन कर पंद्रह-पंद्रह दोहाकारों द्वारा रचित सौ-सौ दोहों को इस कृति में संग्रहित किया है। यह संग्रह उपयुक्त व सटीक है। इस संग्रह की विशेष बात यह है कि हर दोहाकार के दोहों पर पहले संपादक द्वारा समीक्षकीय टिप्पणी करने के साथ-साथ पाद टिप्पणी में दोहा में ही दोहा विषयक जानकारी दी गई है।
संग्रह के पहले रचनाकार अखिलेश खरे 'अखिल' के दोहों में ग्राम्य जीवन की सुवास महकती है-
खेतों से डोली चली, खलिहानों में शोर।
पिता-गेह से ज्यों बिदा, पिया गेह की ओर।।
निम्न दोहे में ग्राम्य व नगर जीवन की सटीक तुलना की गई है-
शहर-शहर सा सुघर है, उससे सुंदर गाँव।
सुदिन बांचता भोर से, कागा कर-कर काँव।।
श्रृंगार रस से भरपूर दोहे भी अखिल जी द्वारा लिखे गए हैं-
नैना खुली किताब से, छुपा राज कह मौन।
महक छिपे कब इत्र की, कहो लगाए कौन।।
प्रेम की भाषा मौन रहती है पर प्रेम छिपाये नहीं छिपता। यह प्रेम स्वर्गीय ज्योति से प्रकाशित रहता है।
दोहाकार अरुण शर्मा की चिंता गंगा-शुद्धि को लेकर है। निर्मल पतित पावनी, राम की गंगा को मैली होते देख कवि ने अनायास यह दोहा कहा होगा-
गंगा नद सा नद नहीं, ना गंगे सा नीर।
दर्जा पाया मातु का, फिर भी गंदे तीर।।
करते गंगा आरती, लेकर मन-संताप।
मन-मैला धोया नहीं, कहाँ मिटेंगे पाप।।
बरही कटनी निवासी श्री उदयभानु तिवारी के दोहों में भक्ति और प्रेम की रसधारा प्रवाहित है। महारास लीला शीर्षक उनके दोहों में मधुरा भक्ति का प्राकट्य हुआ है। मन को आल्हादित करने वाले एक-एक दोहे में पाठक का मन रमता जाता है और वह ब्रम्हानंद सहोदर का आनंद उठाता है-
गोपी जीवन प्रेम है, कान्हा परमानंद।
मोहे खग नर नाग सब, फैला सर्वानंद।।
श्री कृष्ण योगिराज हैं। 'वासुदेव पुरोज्ञानं वासुदेव पराङ्गति।' इन दोहों को हृदयंगम कर बरबस ही स्मरण हो आते हैं ये दोहे-
कित मुरली कित चंद्रिका, कित गोपियन के साथ।
अपने जन के कारने, कृष्ण भये यदुनाथ।।
महारास में 'मैं-'तुम' का विभेद नहीं रहता, सब प्रेम-पयोधि में डूब जाते हैं। बिहारी कहते हैं-
गिरि वे ऊँचै रसिक मन, बूड़ै जहाँ हजार।
वहै सदा पशु नरन को, प्रेम पयोधि पगार।।
बरौंसा, सुल्तानपुर के ओमप्रकाश शुक्ल गाँधीवादी विचारधारा के पोषक हैं। समसामयिक परिवेश में जो घटित है, उसके प्रति उनकी चिंता स्वाभाविक है-
भरे खज़ाना देश का, पर अद्भुत दुर्योग।
निर्धन हित त्यागें; करें, चोर-लुटेरे भोग।।
समानता, न्याय का सभी को अधिकार प्राप्त हो कवि की यही कामना है-
सबको सबका हक मिले, बिंदु-बिंदु हो न्याय।
ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म-पर्याय।।
जीवन में सहजता और सारल्य ही शक्ति देता है, इसलिए दोहाकार ने संतोष व्यक्त किया है। उसकी इच्छा है कि सब प्रेम से रहें, सन्मार्ग पर चलें-
सत का पथ मत छोड़ना, हे भारत के लाल।
राजभोग क्यों लालसा, जब है रोटी दाल।।
नरसिंहपुर निवासी जयप्रकाश श्रीवास्तव गीत-नवगीत के रचनाकार हैं। वे निसर्ग से संवाद करते नज़र आते हैं-
यूँ तो सूरज नापता, धरती का भूगोल।
पर कोइ सुनता नहीं गौरैया के बोल।।
पेड़ हुए फिर से नए, पहन धुले परिधान।
फूलों ने हँसकर किया, मौसम का सम्मान।।
हिंदी में प्रारंभ से ही नीतिपरक दोहों का चलन रहा है। इसी परंपरा में नीता सैनी के दोहों का सृजन हुआ है-
नैतिकता कायम रहे, करिए चरित-विकास।
कोरे भाषण नीति के, तनिक न आते रास।।
उनके इस दोहे में गंगा के प्रति असीम निष्ठा का भाव अभिव्यक्त हुआ है-
युगों-युगों से धो रहीं, गंगा मैया पाप।
निर्मल मन करतीं सदा, हरतीं पीड़ा-पाप।।
सोहागपुर, शहडोल निवासी डॉ. नीलमणि दुबे का व्यक्तित्व ही काव्यमय है। छंदविधान उनकी बाल्य जीवन की कविताओं में दृष्टव्य है। वे हिंदी प्रध्यापाल होने के पहले काव्य-रचयिता हैं। कविता उनके आस-पास विचरती है। संस्कृतनिष्ठ पदावली में उनकी गीत-रचना पाठकों को सहज ही लुभाती है। वर्तमान समय में बेमानी होते संबंधों को वे दोहे के माध्यम से उजागर करते हैं-
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
प्रकृति के प्रति असीम लगाव है उन्हें। खेतों की हरियाली, वासंतिक प्रभा उन्हें विमोहित करती है। प्रकृति के पल-पल बदलते परिवेश का वे स्वागत करती हैं-
आम्र-मंजरी मिस मधुर, देते अमृत घोल।
हिय में गहरे उतरते, पिक के मीठे बोल।।
सरसों सँकुचाई खड़ी, खिला-खिला कचनार।
कर सिंगार सँकुचा गई, हरसिंगार की डार।।
धौलपुर, राजस्थान के कवि बसंत कुमार शर्मा राजस्थान की वीरभूमि व् टैग-बलिदान की माटी की सुवास लेकर दोहे रचते हैं। उन्हें छंदों के प्रति विशेष लगाव है। शोष्हित वर्ग के प्रति उनके मन में विशेष करुणा है। हमारे कृषि प्रधान देश में किसान प्रकृति के रूठ जाने से लचर हो जाता है-
रामू हरिया खेत में, बैठा मौन उदास।
सूखा गया असाढ़ तो, अब सावन से आस।.
सिवनी मध्य प्रदेश के रहनेवाले डॉ. रामकुमार चतुर्वेदी वर्तमान व्यवस्था से आक्रोशित हैं। वे अपने परिवेश को व्यंग्य-धार से समझाते हैं-
पाँव पकड़ विनती करैं, सिद्ध करो सब काम।
अपना हिस्सा तुम रखो, कुछ अपने भी नाम।।
विषय चयन के क्षेत्र में, गाए अपना राग।
कौआ छीने कान को, कहते भागमभाग।।
सिवान, बिहार की रीता सिवानी युवा कवयित्री हैं। वे समतामूलक समाज में पूर्ण आस्था रखती हैं-
धरा जगत के एक है, अंबर सबका एक।
मनुज एक मिट्टी बने, रंगत रूप अनेक।।
रिश्ते में जब प्रीत हो, तभी बने वह खास।
प्रीत बिना रिश्ते लगें, बोझिल मूक उदास।।
प्रेम जहाँ है, वहाँ तर्क नहीं है क्योंकि तर्क से विद्वेष बढ़ता है। जहाँ प्रेम हो, निष्ठां हो, वहां कुतर्कों का स्थान नहीं है, प्रेम के बिना जीवन सूना है। अहंकार को त्यगना ही सच्चा प्रेम है। कबीर की वाणी में- 'जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नाहिँ'। ईश्वर को पाना है, अच्छा इंसान बनना है तो अहंकार का त्याग आवश्यक है-
गर्व नहीं करना कभी, धन पर ऐ इंसान!
कर जाता पल में प्रलय, छोटा सा तूफ़ान।।
शुचि भवि भिलाई (छत्तीसगढ़)निवासी हैं। विरोधाभास की जिंदगी उनहोंने देखी है। परिवार-समाज से वे कुछ चाहती हैं। समाज में विश्वास नहीं रहा है। सहज-सरल लोगों का आज जीना दुश्वार हो गया है। भवि को समाज से सिर्फ निराशा ही नहीं है अपितु कहीं न कहीं वह आशान्वित भी हैं।भवि जीवन में सरलता के साथ ही विनम्रता को प्रश्रय देते हुए कहती हैं-
कटु वचनों से क्या कहीं, बनती है कुछ बात?
बोलो मीठे वचन तो, सुधरेंगे हालात।।
तुलसीदास जी भी यही कहते हैं-
लसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन इक मंत्र है, परिहरु बचन कठोर।।
'भवानी शंकरौ वजनदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' की अनुगूँज भवि के इस दोहे में व्यंजित है-
बूँद-बूँद विश्वास से, बनती है पहचान।
पल भर में कोई कभी, होता नहीं महान।।
दिल्ली में जन्में शोभित वर्मा में एक अभियांत्रिकी महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष होने के बाद भी पारिवारिक संस्कार के कारण हिंदी के प्रति रूचि है। सलिल जी से जुड़ाव ने उनमें और छंद के प्रति लगाव उत्पन्न कर दिया। उनका कवि पर्यावरण के प्रति जागरूक है-
काट रहे नित पेड़ हम, करते नहीं विचार।
आपने पाँव कुल्हाड़ पर, आप रहे हैं मार।।
अभियंता होने के नाते वे जानते हैं की किसी निर्णय का समय पर होना कितना आवश्यक है-
यदि न समय पर लिया तो निर्णय हो बेअर्थ।
समय बीतने पर लिया निर्णय करे अनर्थ।।
सुदूर ईटानगर अरुणांचल में पेशे से शिक्षिका सरस्वती कुमारी ने अपने दोहों में सामाजिक विसंगतियों को उद्घाटित किया है। वे नारी शक्ति की समर्थक और राधा-कृष्ण के प्रेम की उपासिका हैं-
रंग-रँगीली राधिका, छैल छबीला श्याम।
रास रचाते जमुन-तट, दोनों आठों याम।।
गीता का कर्म योग भी उनके दोहों में व्याप्त है-
ढूँढ जरा ऐ ज़िंदगी!, तू अपनी पहचान।
भाग्य बदल दे कर्म कर, लिख अपना उन्वान।।
हिंदी प्राध्यापक फैज़ाबाद निवासी हरी फ़ैज़ाबादी अवधि के कवि हैं। वे कविता की पारम्परिकता को बरकरार रखे हुआ माँ को श्रेष्ठ मानते हैं-
कर देती नौ रात में, जीवन का उद्धार।
माँ की महिमा यूँ नहीं, गाता है संसार।।
स्वच्छता अभियान के लिए वे जागरूक हैं। उनकी पीड़ा यह कि स्वच्छ रहने के लिए भी अभियान चलना पड़ रहा है-
आखिर चमके किस तरह मेरा हिंदुस्तान।
यहाँ सफाई भी नहीं, होती बिन अभियान।।
सारण बिहार में जन्मे, रांची में कार्यरत हिमकर श्याम इस दोहा संग्रह के अंतिम रचनाकार हैं। पत्रकारिता में स्नातक होने के साथ ही वे दोहा, ग़ज़ल, रिपोर्ताज लिखने में सिद्धहस्त हैं। सहज व्यक्तित्व होने के कारण ही वे पर्यावरणीय विक्षोभ से चिंतित हैं। प्रकृति के प्रति असीम अनुराग उनके लेखन में व्याप्त है-
झूमे सरसों खेत में, बौराए हैं आम।
दहके फूल पलाश के, है सिंदूरी शाम।।
वृक्षों की अंधाधुंध कटाई उन्हें चिंतित करती है। आँगन में लगे तुलसी के पौधे के नीचे रखे दीपक अब ध्यान में नहीं है-
आँगन की तुलसी कहाँ, दिखे नहीं अब नीम।
जामुन-पीपल कट गए, ढूँढे कहाँ हकीम।।
आचार्य संजीव सलिल तथा प्रो। साधना वर्मा द्वारा 'शान्तिराज पुस्तक मालांतर्गत संपादित 'दोहा शतक मञ्जूषा २ "दोहा सलिला निर्मला" छंद विधान की परंपरा को सुदृढ़ बना सकी है। स्वतंत्रता के बाद विशेषकर नवें-दसवें दशक से छंद यत्र-तत्र ही दिखते हैं। छंद लेखन कठिन कार्य है। आचार्य संजीव सलिल जी ने अथक श्रम कर दोहाकारों को तैयार कर उनके प्रतिनिधि दोहों का चयन कर यह दोहा शतक मंजूषा श्रृंखला बनाई है जो वर्तमान परिवेश और सामयिक समस्याओं के अनुकूल है। ये रचनाकार अपने परिवेश से सुपरिचित हैं। अत; उसे अभिव्यक्त करने में वे संकोच नहीं करते हैं। कुल मिलाकर सभी दृष्टियों से संग्रहीत कवियों के दोहे छंद-विधान के उपयुक्त व् सटीक हैं। संपादक द्वय को ढेर सी
बधाई
और शुभकानाएँ। विश्वास है कि भविष्य में ये दोहे पाठकों को दिशा-सोची बना सकेंगे।
*
संपर्क: से.नि. विभागाध्यक्ष हिंदी, शासकीय मानकुँवर बाई स्नातकोत्तर स्वशासी महिला महाविद्यालय, जबलपुर ४८२००१
१७-१२-२०१८
***
एक नवगीत
आओ! तनिक बदलें
*
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
सिर्फ स्यापा ही नहीं,
मुस्कान भी सच है।
दर्द-पीड़ा है अगर, मृदु
हास भी सच है।।
है विसंगति अगर तो
संगति छिपी उसमें-
सम्हल कर चलते चलें,
लड़कर नहीं फसलें।।
समय है बदलाव का,
आओ! तनिक बदलें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
बैठ ए. सी. में अगर
लू लिख रहे झूठी।
समझ लें हिम्मत किसी की
पढ़ इसे टूटी।
कौन दोषी कवि कहो
पूछे कलम तुझसे?
रोकते क्यों हौसले
नव गीत में मचलें?
पार कर सरहद न ग़ज़लें
गीत में धँस लें।।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
*
व्यंग्य में, लघुकथा में,
क्यों सच न भाता है?
हो रुदाली मात्र कविता,
क्यों सुहाता है?
मनुज के उत्थान का सुख
भोगते हो तुम-
चाहते दुःख मात्र लिखकर
देश को ठग लें।
हैं न काबिल जो वही
हर बात का यश लें।
प्रिय! मिलन, सहकार के
नवगीत कुछ रच लें।
१६-१२-२०१८
***
राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल
जन्म- ३१.१०.१८७५, नाडियाद, बंबई रेसीड़ेंसी (अब गुजरात), आत्मज- लाड बाई-झबेर भाई पटेल, पत्नी- झबेर बा, भाई- विट्ठल भाई पटेल, शिक्षा- विधि स्नातक १९१३, पुत्री- मणि बेन पटेल, पुत्र- दया भाई पटेल, निधन- १५ दिसंबर १९५०। १९१७- सेक्रेटरी गुजरात सभा, १९१८- कैरा बाढ़ के बाद 'कर नहीं' किसान आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन हेतु ३ लाख सदस्य बनाये, १.५० लाख रूपए एकत्र किए, १९२८ कर वृद्धि विरोध बारडोली सत्याग्रह, १९३० नमक सत्याग्रह कारावास, १९३१ गाँधी-इरविन समझौता मुक्ति, कोंग्रेस अध्यक्ष कराची अधिवेशन, १९३४ विधायिका चुनाव, नहीं लदे, दल को जयी बनाया, १९४२ भारत छोडो, गिरफ्तार, १९४५ रिहा, १९४७ गृह मंत्री भारत सरकार, ५६२ रियासतों का एकीकरण, १९९१ भारत रत्न।
गीत-
राजनीति के
रंगमंच पर
अपनी आप मिसाल थे.
.
गोरी सत्ता
रौंद अस्मिता भारत की मदमाती थी.
लौह पुरुष की
राष्ट्र भक्ति से डर जाती, झुक जाती थी.
भारत माँ के
कंठ सुशोभित
माणिक-मुक्त माल थे.
.
पैर जमीं पर जमा
हाथ से छू पाए आकाश को.
भारत माँ की
पराधीनता के, तोड़ा हर पाश को.
तिमित गुलामी
दूर हटाया
जलती हुई मशाल थे.
.
आम आदमी की
पीड़ा को सके मिटा सरदार बन.
आततायियों से
जूझे निर्भीक सबक किरदार बन.
भारतवासी
तुम सा नेता
पाकर हुए निहाल थे.
१५-१२-२०१७
***
नवगीत:
अपनी ढपली
*
अपनी ढपली
अपना राग
*
ये दो दूनी तीन बतायें
पाँच कहें वे बाँह चढ़ायें
चार न मानें ये, वे कोई
पार किसी से कैसे पायें?
कोयल प्रबंधित हारी है
कागा गाये
बेसुर फाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
अचल न पर्वत, सचल हुआ है
तजे न पिंजरा, अचल सुआ है
समता रही विषमता बोती
खेलें कहकर व्यर्थ जुंआ है
पाल रहे
बाँहों में नाग
अपनी ढपली
अपना राग
*
चाहें खा लें बिना उगाये
सत्य न मानें हैं बौराये
पाल रहे तम कर उजियारा
बनते दाता, कर फैलाये
खुद सो जग से
कहते जाग
अपनी ढपली
अपना राग
***
नवगीत:
परीक्षा
*
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
यह सोचे मैं पढ़कर आया
वह कहता है गलत बताया
दोनों हैं पुस्तक के कैदी
क्या जानें क्या खोया-पाया?
उसका ही जीवन है सार्थक
बिन माँगे भी
जो कुछ देता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
सोच रहा यह नित कुछ देता
लेकिन क्या वह सचमुच लेता?
कौन बताएं?, किससे पूछें??
सुप्त रहा क्यों मनस न चेता?
तज पतवारें
नौका खेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
*
मिलता अक्षर ज्ञान लपक लो
समझ न लेकिन उसे समझ लो
जो नासमझ रहा है अब तक
रहो न चिपके, नहीं विलग हो
सच न विजित हो
और न जेता
किसकी कौन
परीक्षा लेता?
***
नवगीत-
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
अपनी-अपनी
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
***
एक गीत-
भूमि मन में बसी
*
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
पाँच माताएँ हैं
एक पैदा करे
दूसरी भूमि पर
पैर मैंने धरे
दूध गौ का पिया
पुष्ट तन तब वरे
बोल भाषा बढ़े
मूल्य गहकर खरे
वंदना भारती माँ
न ओझल करे
धन्य सन्तान
शीश पर कर वरद यदि रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
माँ नदी है न भूलें
बुझा प्यास दे
माँ बने बुद्धि तो
नित नयी आस दे
माँ जो सपना बने
होंठ को हास दे
भाभी-बहिना बने
स्नेह-परिहास दे
हो सखी-संगिनी
साथ तब खास दे
मान उपकार
मन !क्यों करद तू रहे?
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
*
भूमि भावों की
रस घोलती है सदा
भूमि चाहों की
बनती नयी ही अदा
धन्य वह भूमि पर
जो हुआ हो फ़िदा
भूमि कुरुक्षेत्र में
हो धनुष औ' गदा
भूमि कहती
झुके वृक्ष फल से लदा
रह सहज-स्वच्छ
सबको सहायक रहे
भूमि मन में बसी ही हमेशा रहे
१७-१२-२०१५
***
कृति चर्चा:
बाँसों के झुरमुट से : मर्मस्पर्शी नवगीत संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बाँसों के झुरमुट से, नवगीत संग्रह, ब्रजेश श्रीवास्तव, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ११२, २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हिंदी साहित्य का वैशिष्ट्य आम और खास के मध्य सेतु बनकर भाव सरिता की रस लहरियों में अवगाहन का सुख सुलभ कराना है. पाषाण नगरी ग्वालियर के नवनीत हृदयी वरिष्ठ नवगीतकार श्री ब्रजेश श्रीवास्तव का यह नवगीत संग्रह एक घाट की तरह है जहाँ बैठकर पाठक-श्रोता न केवल अपने बोझिल मन को शांति दे पाता है अपितु व्यथा बिसराकर आनंद भी पाता है. ब्रजेश जी की वाणी का मखमली स्पर्श उनके नवगीतों में भी है.
बाँसों के झुरमुट से आती चिरैया के कलरव से मन को जैसी शांति मिलती है, वैसी ही प्रतीति ये नवगीत कराते हैं. राग-विराग के दो तटों के मध्य प्रवहित गीतोर्मियाँ बिम्बों की ताज़गी से मन मोह लेती हैं:
नीड़ है पर स्वत्व से हम / बेदखल से हैं
मूल होकर दिख रहे / बरबस नकल से हैं
रास्ता है साफ़ फ्रूटी, कोक / कॉफी का
भीगकर फूटे बताशे / खूब देखे हैं
पारिस्थितिक विसंगतियों को इंगित करते हुए गीतकार की सौम्यता छीजती नहीं। सामान्य जन ही नहीं नेताओं और अधिकारियों की संवेदनहीनता और पाषाण हृदयता पर एक व्यंग्य देखें:
सियाचिन की ठंड में / पग गल गये
पाक -भारत वार्ता पर / मिल गये
एक का सिंदूर / सीमा पर पुछा
चाय पीते पढ़ लिया / अखबार में
ब्रजेश जी पर्यावरण और नदियों के प्रदूषण से विशेष चिंतित और आहत हैं. यह अजूबा है शीर्षक नवगीत में उनकी चिंता प्रदूषणजनित रोगों को लेकर व्यक्त हुई है:
कौन कहता बह रही गंगो-यमुन
बह रहा उनमें रसायन गंदगी भी
उग रही हैं सब्जियाँ भी इसी जल से
पोषते हम आ रहे बीमारियाँ भी
नारी उत्पीड़न को लेकर ब्रजेश जी तथाकथित सुधारवादियों की तरह सतही नारेबाजी नहीं करते, वे संग्रह के प्रथम दो नवगीतों 'आज अभी बिटिया आई है' और 'देखते ही देखते बिटिया' में एक पिता के ममत्व, चिंता और पीड़ा के मनोभावों को अभिव्यक्त कर सन्देश देते हैं. इस नवगीत के मुखड़े और अंतरांत की चार पंक्तियों से ही व्यथा-कथा स्पष्ट हो जाती है:
बिटिया सयानी हो गई
बिटिया भवानी हो गई
बिटिया कहानी हो गई
बिटिया निशानी हो गई
ये चार पंक्तियाँ सीधे मर्म को स्पर्श करती हैं, शेष गीत पंक्तियाँ तो इनके मध्य सोपान की तरह हैं. किसी नवगीत में एक बिम्ब अन्तरा दर अन्तरा किस तरह विकसित होकर पूर्णता पाता है, यह नवगीत उसका उदहारण है. 'सरल सरिता सी समंदर / से गले मिलने चली' जैसा रूपक मन में बस जाता है. कतिपय आलोचक अलंकार को नवगीत हेतु अनावश्यक मानते हैं कि इससे कथ्य कमजोर होता है किन्तु ब्रजेश जी अलंकारों से कथ्य को स्पष्टा और ग्राह्यता प्रदान कर इस मत को निरर्थक सिद्ध कर देते हैं.
ब्रजेश जी के पास सिक्त कंठ से इस नवगीत को सुनते हुए भद्र और सुशिक्षित श्रोताओं की आँखों से अश्रुपात होते मैंने देखा है. यह प्रमाण है कि गीतिकाव्य का जादू समाप्त नहीं हुआ है.
ब्रजेश जी के नवगीतों का शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है. वे मुखड़े में सामान्यतः दो, अधिकतम सात पंक्तियों का तथा अँतरे में छ: से अठारह पंक्तियों का प्रयोग करते हैं. वस्तुतः वे अपनी बात कहते जाते हैं और अंतरे अपने आप आकारित होते हैं. उनकी भाषिक सामर्थ्य और शब्द भण्डार स्वतः अंतरों की पंक्ति संख्या और पदभार को संतुलित कर लेते हैं.कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि सायास संतुलन स्थापित किया गया है. 'आज लिखी है घर को चिट्ठी' नवगीत में अभिव्यक्ति की सहजता देखें:
माँ अब भी रोटी-पानी में / ही खटती होगी
साँझ समय बापू के संग / मुझको रटती होगी
उनका मौन बुलावा आया / बहुत दिनों के बाद
यहाँ 'रटती' शब्द का प्रयोग सामान्य से हटकर किन्तु पूरी तरह स्वभाविक है. नव रचनाकारों को किसी शब्द का सामान्य अर्थ से हटकर प्रयोग कैसे किया जाए और बात में अपना रंग भरा जाए- ऐसे प्रयोगों से सीखा जा सकता है. 'मौन बुलावा' भी ऐसा ही प्रयोग है जो सतही दृष्टि से अंतर्विरोधी प्रतीत होते हुए भी गहन अभिव्यंजना में समर्थ है.
ब्रजेश जी की भाषा आम पाठक-श्रोता के आस-पास की है. वे क्लिष्ट संस्कृत या अरबी-फ़ारसी या अप्रचलित देशज शब्द नहीं लेते, इसके सर्वथा विपरीत जनसामान्य के दैनंदिन जीवन में प्रचलित शब्दों के विशिष्ट उपयोग से अपनी बात कहते हैं. उनके इन नवगीतों में आंग्ल शब्द: फ्रॉक, सर्कस, ड्राइंग रूम, वाटर बॉटल, ऑटो, टा टा, पेरेंट्स, होमवर्क, कार्टून, चैनल, वाशिंग मशीन, ट्रैक्टर, ट्रॉली, रैंप, फ्रूटी, कोक, कॉफी, बाइक, मोबाइल, कॉलों, सिंथेटिक, फीस, डिस्कवरी, जियोग्राफिक, पैनल, सुपरवाइजर, वेंटिलेटर, हॉकर आदि, देशज शब्द: रनिया, ददिया, दँतुली, दिपती, तलक, जेवना, गरबीला, हिरना, बतकन, पतिया, पुरवाई, बतियाहट, दुपहरी, चिरइया, बिरचन, खटती, बतियाना, तुहुकन, कहन, मड़िया, बाँचा, पहड़ौत, पहुँनोर, हड़काते, अरजौ, पुरबिया, छवना, बतरस, बुड़की, तिरे, भरका, आखर, तुमख, लोरा, लड़याते आदि तथा संस्कृत निष्ठ शब्द भदृट, पादप, अंबर, वाक्जाल, अधुना-युग, अंतस, संवेदन, वणिक, सूचकांक, स्वेदित, अनुनाद, मातृ, उत्ताल, नवाचार आदि नित्य प्रचलित शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले मिलते हैं.
इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग पूरी स्वाभाविकता से हुआ है जो सरसता में वृद्धि करता है. कमल-नाल, मकड़-जाल, जेठ-दुपहरी, बात-बेबात, सरिता-धार, झूठ-साँच, जंतर-मंतर, लीप-पोत, घर-आँगन, राजा-राव, घर-आँगन-दीवाल, रोटी-पानी, कपड़े-लत्ते, सावन-कजरी, भादों-आल्हा, ताने-बाने, लाग-ठेल, धमा-चौकड़ी, पोथी-पत्रा, उट्टी-कुट्टी, सीरा-पाटी, चूल्हा-चकिया, बासन-भाड़े जैसे शब्द युग्म एक ओर नवगीतकार के परिवेश और जन-जीवन से जुड़ाव इंगित करते हैं तो दूसरी ओर भिन्न परिवेश या हिंदीतर पाठकों के लिये कुछ कठिनाई उपस्थित करते हैं. शब्द-युग्मों और देशज शब्दों के भावार्थ सामान्य शब्द कोषों में नहीं मिलते किन्तु यह नवगीत और नवगीतकार का वैशिष्ट्य स्थापित करते हैं तथा पाठक-श्रोता को ज्ञात से कुछ अधिक जानने का अवसर देकर सांस्कृतिक जुड़ाव में सहायक अस्तु श्लाघ्य हैं.
ब्रजेश जी ने कुछ विशिष्ट शब्द-प्रयोगों से नवबिम्ब स्थापित किये हैं. बर्फीला ताला, जलहीना मिट्टी, अभिसारी नयन, वासंतिक कोयल, नयन-झरोखा, मौन बुलावा, फूटे-बताशे, शब्द-निवेश, बर्फीला बर्ताव, आकाशी भटकाव आदि उल्लेख्य हैं.
'बांसों के झुरमुट से' को पढ़ना किसी नवगीतकार के लिए एक सुखद यात्रा है जिसमें नयनाभिराम शब्द दृश्य तथा भाव तरंगें हैं किन्तु जेठ की धूप या शीत की जकड़न नहीं है. नवगीतकारों के लिए स्वाभाविकता को शैल्पिक जटिलता पर वरीयता देता यह संग्रह अपने गीतों को प्रवाहमयी बनाने का सन्देश अनकहे ही दे देता है. ब्रजेश जी के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा करने का पाठकीय मन ही इस संग्रह की सफलता है.
***
कृति चर्चा:
एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश
[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]
*
हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.
स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं:
शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना
परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना
.
शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में
नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में
संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.
जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता।
ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.
शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.
लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं:
'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही
उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस
'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.
'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं:
'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं
अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी
काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं'
क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है:
'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार
सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार
मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'
विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है:
बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम
निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम
'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है:
'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके
मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके
शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत
.
लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे
सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'
सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-चयन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है.
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'

वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है.
१७-१२-२०१४
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मंगलवार, 1 मार्च 2022

छंद गंग, ईसुरी, फाग, बुंदेली, नवगीत, निर्मल शुक्ल, चित्र अलंकारदोहा, होली, सॉनेट

सॉनेट 
भस्मासुर
*
भस्मासुर हर युग में होता। 
अहंकार-मद-मोह ग्रस्त हो। 
बीज नाश के निशि-दिन बोता। 
करे और को; आप त्रस्त हो।

उन्नति देख न सके अन्य की। 
चाहे सब को कर दे काना। 
खुद अंधा चुन राह दैन्य की। 
विष्ठा खाता काग सयाना।। 
  
खुद अपने मुँह कालिख पोते। 
देख आइना लज्जित होता।
दाग न मिटता चेहरा धोते।। 
मान-प्रतिष्ठा पल में खोता।। 

जाल सिंह का मूस काटता। 
चींटी से गजराज हारता।। 
१-३-२०२२ 
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दोहा
श्याम राम के गाल पर, सीता मलें गुलाल।
पिचकारी ले राम जी, करते खूब धमाल।।
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फागुन
[ चित्र अलंकार: झंडा ]
*
ठंड के आलस्य को अलविदा कह
बसंती उल्लास को ले साथ, मिल-
बढ़ चलें हम ज़िदगी के रास्ते पर
आम के बौरों से जग में फूल-फल.
रुक
नहीं
जाएँ,
हमें
मग
देख
कर,
पग
बढ़ाना है.
जूझ बाधा से
अनवरत अकेले
धैर्य यारों आजमाना है.
प्रेयसी मंजिल नहीं मायूस हो,
कहीं भी हो, खोज उसको आज पाना है.
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salil. sanjiv@gmailcom
७९९९५५९६१८, १-३-२०१८
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छंदशास्त्र में लघु गुरु परिचय
मात्रा का संबंध माप या परिमाण से है। भाषा की लघुतम इकाई वर्ण है जिसकी मात्रा और परिमाण का ज्ञान उसके उच्चारण में लगने वाले समय से ही सकता है। अत: मात्रा को परिभाषित करते हुए हम कह सकते हैं-
“ वर्णों के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं।“
(यह स्मरण अवश्य रहे कि उच्चारण का गुण केवल स्वर वर्णों में ही है व्यंजन स्वत: उच्चरित नहीं हो सकते उनके उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता लेनी पड़ती है। अत: मात्रा गणना स्वरों के आधार पर ही की जाती है।)
लघु गुरु परिचय :-
जिस साहित्य की रचना मात्रा, वर्ण, यति, गति, लय आदि को ध्यान मे रख कर की जाती है वह छंदोबद्ध होती है और उसे पद्य कहते हैं। छंद विचार करते समय केवल स्वरों पर ही ध्यान दिया जाता है ,क्योंकि स्वर ही ‘वर्ण’ और मात्रा का मुख्य आधार है। स्वरों के दो भेद हैं – 1.ह्रस्व स्वर 2. दीर्घ स्वर। छंद शास्त्र में इन्हें ही लघु और दीर्घ के संज्ञा दी गई है। वास्तव में सम्पूर्ण छंदशास्त्र का मूलाधार ये ही लघु और गुरु है। लघु की एक मात्रा और गुरु की दो मात्राएँ होती है। लघु का चिह्न ‘।‘ और गुरु का चिह्न ‘s’ होता है।
लघु :-
1. ह्रस्व स्वर ( चाहे उनका उच्चारण निरनुनासिक हो चाहे सानुनासिक) यथा अ, इ, उ, ऋ, अँ, इँ, उँ, ऋँ, लघु होते है।
2. इनकी सहायता से जो व्यंजन बोले जाते हैं वे भी लघु होते है। जैसे विकल शब्द में तीनों व्यंजन ‘अ’ की सहायता( व् + इ =वि, क् +अ=क, ल् + अ = ल )से बोले जा रहे है अत: हम कह सकते हैं कि विकल शब्द में तीन लघु है और कुल तीन मात्राएँ है।
3. किसी एक ह्रस्व स्वर के साथ यदि दो या दो से अधिक व्यंजन जुड़े हों तो भी उसे लघु ही माना जाएगा जैसे – स्वर यहाँ स्व = स् + व् + अ ( ‘स्’ और ‘व्’ के साथ एक ही स्वर ‘अ’ है इस लिए स्व लघु माना जाएगा। आप स्मरण रखने के लिए इस प्रकार भी कह सकते है कि यदि ह्रस्व स्वर से युक्त व्यंजन से पूर्व कोई अन्य स्वर रहित व्यंजन भी आए तो वह लघु ही रहेगा।
4. स्वर की लघुता अथवा गुरुता का प्रमुख आधार उसके उच्चारण मेन लगाने वाला समय है। यदि किसी छंद दीर्घ स्वर का उच्चारण मेन लगाने वाला समय भी ह्रस्व की तरह लघु होता है तो उसे लघु ही माना जाए। जैसे – मानुस हौं तो वही रसखानि ….. में तो का उच्चारण ‘तु’ के अनुसार हो रहा है इसलिए ‘तो’ को लघु ही माना जाएगा।
गुरु :
1. दीर्घ स्वर और चाहे उनका उच्चारण निरनुनासिक हो या सानुनासिक गुरु होते है। यथा – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ औ, आँ, ईँ, ऊँ, एँ, ऐँ, ओँ,औँ गुरु होते हैं।
2. अनुस्वार युक्त वर्ण गुरु माने जाते है। जैसे ‘संत’ का ‘सं’, ‘कंस’ का ‘कं’ >
3. विसर्ग युक्त वर्णों की गणना भी गुरु में की जाती है। जैसे ‘अत: ‘ में ‘त:’>
4. शब्द में स्वर रहित व्यंजन से पूर्व का वर्ण गुरु माना जाता है। जैसे सम्बन्ध में ‘स’ और ‘ब’ ।
5. यदि स्वर रहित व्यंजन का का उच्चारणबल बाद के वर्ण पर पड़ता हो तो वह गुरु माना जाता है और पहले वाला यदि ह्रस्व है तो ह्रस्व ही रहता है। जैसे मक्खी मे क् को खी के साथ बोला जा रहा है तो ‘म’ हतासव ही रहेगा।
6. यदि किसी लघु वर्ण का उच्चारण भी गुरु वर्ण के होता है तो वह भी गुरु माना जाता है माना जाता है।
उपर्युक्त विधि से हम लघु और गुरु लगा कर किसी कविता के चरण में मात्रा और वर्णों की गणना कर सकते हैं।
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पुस्तक सलिला:
'नहीं कुछ भी असम्भव' कथ्य है नवगीत के लिये
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[कृति विवरण- नहीं कुछ भी असंभव, नवगीत, निर्मल शुक्ल, वर्ष २०१३, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, कपडे की बंधाई, सिलाई गुरजबंदी, पृष्ठ ८०, मूल्य २९५/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ सेक्टर के, आशियाना कॉलोनी लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ९८३९८२५०१२ / ९८३९१७१६६१]
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'नहीं कुछ भी असंभव' विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार-समीक्षक निर्मल शुक्ल का पंचम नवगीत संग्रह है। इसके पूर्व अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल तथा नील वनों के पार में नवगीत प्रेमी शुक्ल जी के विषय वैविध्य, साधारण में असाधारणता को देख सकने की दृष्टि, असाधारण में अन्तर्निहित साधारणता को देख-दिखा सकने की सामर्थ्य, अचाक्षुष बिम्बों की अनुभूति कर शब्दित कर सकने की सामर्थ्य, मारक शैली, सटीक शब्द-चयन आदि से परिचित हो चुके हैं। शुक्ल जी सक्षम नवगीतकार ही नहीं समर्थ समीक्षक, सुधी पाठक और सजग प्रकाशक भी हैं। भाषा के व्याकरण, पिंगल और नवगीत के उत्स, विकास, परिवर्तन और सामयिकता की जानकारी उन्हें उस अनुभूति और कहन से संपन्न करती है जो किसी अन्य के लिये सहज नहीं।
शुक्ल जी के अनुसार ''कविता रचनाकार की सर्वप्रथम अपने से की जानेवाली बातचीत का लयबद्ध स्वरूप है जो अवरोधों से अप्रभावित रहते हुए गतिमान रहती है, शाश्वत है। ......कविता पर समय काल की गति-स्थिति से आवश्यकतानुसार धारा-परिवर्तन होता रहता है जो उसे समय-काल का वैशिष्ट्य प्रदान करता है। ....समय चक्र में कविता जागृत हुई है, चेतना मुखरित हुई है और मुखरित हुई है एक नव-स्फूर्ति..... शनैः -शनैः दृष्टिगोचर हुआ काव्य का अपराजित उत्कर्ष 'गीत'। .....गीत और उसके अधुनातन संस्करण नवगीत की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए अनिवार्य है काव्य के गेयात्मक तत्व का रेखांकन। इस अनुपमेय आत्म बोध के पवित्र कलेवर, सर्वांगीण उपस्थिति एवं औचित्य पर मोह निद्रावश किसी साहित्यानुरागी द्वारा आडंबरों में निर्लिप्त पूर्वाग्रहों के चढ़ाये खोल को विदीर्ण कर उतार फेंकना ही होगा, तोडना ही होगा उन सड़ी-गली चितकबरी विडंबनाओं का अमांगलिक पिंजरा, प्रदान करना होगा स्वच्छंद गीत को उसका इंद्र धनुषी उन्मुक्त ललित आकाश।'' 'उपसर्ग' का यह सारांश शुक्ल जी के नवगीत लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। वे नवगीत को विडम्बनाओं, पीड़ाओं, शोषण, चीत्कार और प्रकारांतर से साम्यवादी नई कविता का गेय संस्करण बनाने के जड़ विधान तो खंडित करते हुए गीतीय मांगकी भाव से अभिषिक्त कर समूचे जीवन का पर्याय बनते हुए देखना चाहते हैं। उन नये-पुराने गीतकारों-नवगीतकारों के लिए यह दृष्टि बोध अनिवार्य है जो नवगीत के विधान, मान्यताओं और स्वरूप को लेकर अपनी रचना के गीत या नवगीत होने को लेकर भ्रमित होते हैं।
विवेच्य संग्रह में ३० नवगीत सम्मिलित हैं। प्रत्येक गीत बारम्बार पढ़े जाने योग्य है। पाठक को हर बार एक नए भावलोक की प्रतीति होती है। नवगीत के वरिष्ठतम हस्ताक्षर प्रो। देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' के शब्दों में "कविता (नवगीत) में व्यक्ति एक होकर भी अनेक के साथ जुड़ जाता है- यही है 'एकोsहं बहुस्याम' की भावना। इस भावना को आत्मविस्तार भी कहा जा सकता है। आत्म का यह विस्तार ही साहित्य अथवा काव्य में साधारणीकरण की दिशा में उसे ले जाता है। इस साधारणीकरण के अभाव में रस निष्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं होता। शुक्ल जी का रचनाकार इस तथ्य से अपरिचित नहीं है तभी तो वे लिखते हैं
तुम हमारे गाँव के हो / हम तुम्हारे गाँव के
एक टुकड़ा धुप का जो / बो गये तुम खेत में
अचकचाकर / जम गये हैं / कई सूरज रेत में
अब यहाँ आकाश हैं, तो / बस सुनहरी छाँव के"
इस काल में पल-पल उन्नति पहाड़ा पढ़ता मानव वास्तव में अपने आदिम स्वरूप की तुलना में बदतर होता जा रहा है। चतुर्दिक घट रही घटनाएं मानव के मानवीय कदाचरण की साक्षी हैं। इस सर्वजनीन अनुभूति की अभिव्यक्ति शुक्ल जी भी करते हैं पर उनका अंदाज़े-बयां औरों से भिन्न है-
राम कहानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है हवा-हवाई
ईसा से पहले के पहले / उसको आदिम नाम मिला था
इसके हिस्सेवाला सूरज / तब सबसे बेहतर निकला था
अब तो बस / सादा कागज़ है
भोर सुहानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है पीर-पराई
पैर पसारे तो कपड़ों से / नंगेपन का डर लगता है
एक सुनहरे दिन का सपना / केवल मुट्ठी भर लगता है
देह थकी है / ओस चाटते
रात सयानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है दुआ-दवाई
एक भरोसा खुली हवा का / टिका नहीं बेजान हो गया
राजावाली चिकनी सूरत / लुटा हुआ सामान हो गया
आगे सदी / बहुत बाकी है
अदा हुनर की / तुम्हें तुम्हारी
उसकी हाँफ चुकी चतुराई
निर्मल शुक्ल जी हिंदी, उर्दू, अवधी का मिश्रित प्रयोग करनेवाले लखनऊ से हैं, संस्कृत और अंग्रेजी उनके लिये सहज साध्य हैं। शब्दों के सटीक चयन में वे सिद्धहस्त हैं। कम शब्दों में अधिक कहना, मौलिक बिम्ब और प्रतीक प्रयोग करना, वर्तमान की विसंगतियों की अतीत के परिप्रेक्ष्य में तुलना कर भविष्य के लिये वैचारिक पीठिका तैयार करने की सामर्थ्य इन नवगीतों में है।
निर्मल जी का वैशिष्ट्य लक्षणा और व्यंजना के पथ पर पग रखते हुए भाषिक सौष्ठव और संतुलित भावाभिव्यक्ति है। वे अतिरेक से सर्वथा दूर रहते हैं। रेत के टीले को विदा होती पीढ़ी अथवा बुजुर्ग के रूप में देखते हुए कवि उसके संघर्ष और जीवट को व्यक्त किया है।
मेरे घर के आगे ऊँचा / रेत का टीला है १६-११
इक्का-दुक्का / झाड़ी-झंखड़ ८-८
यहाँ-वहाँ दिखते हैं १२
मरुथल के मरुथल / होने की १०-६
कुल गाथा लिखते हैं १२
जलता है ऊपर-ऊपर / पर, भीतर गीला है १४-१२
जहाँ हवा का / झोंका कोई ८-८
सीधा आता है १०
अक्सर रेत कणों से / सारा १२-४
घर घिर जाता है १०
बाबा का कालीन / अभी तक पूरा पीला है ११-१५
पल में तोला / पल में माशा ८-८
इधर-उधर उड़ता है १२
बाबा कहते / अब भी १२
काली आँधी से लड़ता है १६
टूट चुका है कण-कण में १४
पर अभी हठीला है १२
शुक्ल जी की छंदों पर पूरी पकड़ है वे कहीं छूट लेते हैं तो इस तरह की लय-भंग न हो। 'राम कहानी तुम्हें तुम्हारी' नवगीत सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद में है। 'तब सबसे बेहतर निकला था' में १७ मात्र होने पर भी लय बनी हुई है। उक्त दूसरे गीत में संस्कारी तथा आदित्य जातीय छंदों की एक-एक पंक्ति का प्रयोग दूसरे-तीसरे पद में है जबकि द्वितीय पद में संस्कारी तथा दैशिक छंद का प्रयोग है। ऐसा प्रयोग सिद्धस्तता के उपरान्त ही करना संभव होता है। उल्लेख्य है कि छंद वैविध्य के बावजूद तीनों पदों की गेयता पर विपरीत प्रभाव नहीं है।
नगरीय जीवन की सीमाओं, त्रासदियों, संघर्षों, आघातों, प्रतिकारों और पीछे छूट चुके गाँव की स्मृतियों के शब्द चित्र कई गीतों की कई पंक्तियों में दृष्टव्य हैं। नगरों के अधिकाँश निवासी आगे-पीछे ग्राम्य अंचलों से ही आये होते हैं अत:, ऐसी अनुभूति व्यक्तिपरक न रहकर समष्टिगत हो जाती है और रचना से पाठक / श्रोता को जोड़ती है। गुलमोहर की छाया में रिश्तों की पहुनाई (ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल), पुरखों से डाँट-डपट की चाह (ऊँचे स्वर के संबोधन), रेत का टीला और झाड़ी-झंखड़ (रेत का टीला), छप्पर और सरकंडे (छोटा है आकाश), सनातन परंपराओं के प्रति श्रद्धा (गंगारथ), मोहताजी और उगाही (पीढ़ी-पीढ़ी चले उगाही), पोखर-पंछी (रूठ गए मेहमान), सावन-दूब ढोर नौबत-नगाड़े (तुम जानो हम जाने) में गाँव-नगर के संपर्क सेतु सहज देखे जा सकते हैं।
निर्मल शुक्ल जी भाषिक सौष्ठव, कथ्य की सुगढ़ता, अभिव्यक्ति के अनूठेपन, मौलिक बिम्ब-प्रतीकों तथा चिंतन की नवता के लिये जाने जाते हैं। 'नहीं कुछ भी असंभव' के नवगीत इस मत के साक्ष्य हैं। उनकी मान्यता है कि समयाभाव तथा अभिरुचि ह्रास के इस काल में पाठक समयाभाव से ग्रस्त है इसलिए संकलन में रचनाएँ कम रखी जाएँ ताकि उन्हें पर्याप्त समय देकर पढ़ा, समझा और गुना जा सके। संकलन का मुद्रण, प्रस्तुतीकरण, कागज़, बंधाई, आवरण, पाठ्य शुद्धि आदि स्तरीय है। सामान्य पाठक, विद्वज्जन तथा समीक्षक शुक्ल जी अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
- २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
***
नवगीत:
तुम रूठीं
*
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
रहीं वन्दना,
भजन, प्रार्थना
सारी बिना सुनी।
*
घर-आँगन में
ऊषा-किरणें
बिन नाचे उतरीं।
ना चहके-
फुदके गौरैया
क्या खुद से झगड़ी?
गौ न रँभायी
श्वान न भौंका
बिजली गोल हुई।
कविताओं की
गति-यति-लय भी
अनजाने बिगड़ी।
सुड़की चाय
न लेकिन तन ने
सुस्ती तनिक तजी।
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
दफ्तर में
अफसर से नाहक
ठानी ठनाठनी ।
बहक चके-
यां के वां घूमे
गाड़ी फिसल भिड़ी.
राह काट गई
करिया बिल्ली
तनिक न रुकी मुई।
जेब कटी तो
अर्थव्यवस्था
लडखडाई तगड़ी।
बहुत हुआ
अनबोला अब तो
लो पुकार ओ जी!
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
१-३-२०१६

***
नवगीत
लौट घर आओ
*
लौट घर आओ.
मिल स्वजन से
सुख सहित पुनि
लौट घर आओ.
*
सुता को लख
बिलासा उमगी बहुत होगी
रतनपुर में
आशिषें माँ से मिली होंगी
शंख-ध्वनि सँग
आरती, घंटी बजी होगी
विद्यानगर में ख़ुशी की
महफ़िल सजी होगी
लौट घर आओ.
*
हवाओं में फिजाओं में
बस उदासी है.
पायलों के नूपुरों की
गूँज खासी है
कंगनों की खनक सुनने
आस प्यासी है
नर्मदा में बैठ आतीं
सुन हुलासी है
लौट घर आओ.
*
गुनगुनाहट धूप में मिल
खूब निखरेगी
चहचहाहट पंछियों की
मंत्र पढ़ देगी
लैम्ब्रेटा महाकौशल
पहुँच सिहरेगी
तुहिन-मन्वन्तर मिले तो
श्वास हँस देगी
लौट घर आओ.
*
२९-२-२०१६
***
नवगीत:
.
ठेठ जमीनी जिंदगी
बिता रहा हूँ
ठाठ से
.
जो मन भाये
वह लिखता हूँ.
नहीं और सा
मैं दीखता हूँ.
अपनी राहें
आप बनाता.
नहीं खरीदा,
ना बिकता हूँ.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
कलकल बहता
निर्मल रहता.
हर मौसम की
यादें तहता.
पत्थर का भी
वक्ष चीरता-
सुख-दुःख सम जी,
नित सच कहता.
जीने खातिर
हँस मरता हूँ.
अश्रु पोंछकर
मैं तरता हूँ.
खेत गोड़ता झूमता
दूर रहा हूँ
खाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
रासो गाथा
आल्हा राई
पंथी कजरी
रहस बधाई.
फाग बटोही
बारामासी
ख्याल दादरा
गरी गाई.
बनरी सोहर
ब्याह सगाई.
सैर भगत जस
लोरी भाई.
गीति काव्य मैं, बाँध मुझे
मत मानक की
लाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
***
***
लेख:
ईसुरी की अलौकिक फाग नायिका रजऊ और बुन्देली परम्पराएँ
*
बुन्देली माटी के यशस्वी कवि ईसुरी की फागें कालजयी हैं. आज भी ग्राम्यांचलों से लेकर शहरों तक, चौपालों से लेकर विश्वविद्यालयों तक इस फागों को केंद्र में रखकर गायन, संगोष्ठियों आदि के आयोजन किये जाते हैं. ईसुरी की फागों में समाज के अन्तरंग और बहिरंग दोनों का जीवंत चित्रण प्राप्य है. मानव जीवन का केंद्र नारी होती है. माँ, बहिन, दादी-नानी, सखी, भाभी, प्रेयसी, पत्नी, साली, सास अथवा इनसे सादृश्य रखनेवाले रूपों में नारी जीवन रथ के सञ्चालन में प्रेरक होती है. संभवतः इसीलिए वह नौ दुर्गा कहलाती है. ईसुरी की फागों में नारी का चित्रण उसे केंद्र में रखकर किया गया है.
नारी चित्रण की सहजता, स्वाभाविकता, जीवन्तता, मुखरता तथा सात्विकता के पञ्चतत्वों से ईसुरी ने अपनी फागों का श्रृंगार किया है. ईसुरी ने अपनी प्रेरणास्रोत ‘रजऊ’ को केंद्र में रखकर नारी-छवियों के मनोहर शब्द-चित्र अंकित किये हैं. रसराज श्रृंगार ईसुरी को परम प्रिय हैं. श्रृंगार के संयोग-वियोग ही नहीं ममत्व और सखत्व भाव से भी ईसुरी ने फागों को लालित्य और चारुत्व प्रदान किया है. अपनी व्याकुलता का वर्णन हो या रजऊ की कमनीय काया का रसात्मक चित्रण ईसुरी रसमग्न होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, अश्लील नहीं होते. रजऊ काल्पनिक चरित्र है या वास्तविक इस पर मतभेद हो सकते हैं किन्तु उसका चित्रण इतना जीवंत है की उसे वास्तविक मानने की प्रेरणा देता है. सम्भवत: ईसुरी अपनी पत्नि ‘राजाबेटी’ को ही रचनाओं में ‘रजऊ’ के रूप में चित्रित करते रहे. चलचित्र नवरंग के नायक-नायिका का चरित्र ईसुरी से प्रेरित होकर लिखा गया हो सकता है. जो भी हो रजऊ नारी की मनोरम छवियों के शब्दांकन का माध्यम तो है ही.
यह प्रश्न ईसुरी के जन्मकाल में भी सिर उठाने लगा होगा कि रजऊ कौन है? यदि उनकी पत्नि है तो ईसुरी को उसके रूप-सौन्दर्य की सार्वजनिक चर्चा रुचिकर न लगना स्वाभाविक है. यदि उनकी प्रेमिका थी, तो प्रेम की पवित्रता तथा प्रेमिका के पारिवारिक जीवन की शांति के लिये वे उसे प्रगट नहीं कर सकते होंगे. यदि कोई एक या अनेक नारियों से प्रेरणा लेकर रजऊ का चित्रण किया गया हो तो कौन कहाँ है कहना न ईसुरी के लिये वर्षों बाद संभव रहा होगा, न अन्यों के लिये पश्चातवर्ती काल में खोज पाना संभव होगा. अंतिम संभावना यह कि रजऊ काल्पनिक अथवा प्रकृति से प्रेरित होकर गढ़ा चरित्र हो, यह सत्य हो तो भी अन्य जन अलौकिकता की अनुभूति न कर पाने के कारण लौकिक मांसल देह की कल्पना करें यह स्वाभाविक है. स्वयं ईसुरी ने देहज मानी जा रही रजऊ को अदेहज कहकर इस विवाद के पटाक्षेप का प्रयास किया:
नइयाँ रजऊ काऊ के घर में बिरथा कोई न भरमें
सबमें है, सब सें है न्यारी सब ठौरन में भरमें
कौ कय अलख-खलक की बातें लखी न जाय नजर में
ईसुर गिरधर रँय राधे में राधे रँय गिरधर में
उल्लेख्य यह है कि यह rajरजऊ सब में होकर भी किसी में नहीं है तो यह आत्मा के सिवा और क्या हो सकती है? ईसुरी अलख-खलक अर्थात परमसत्ता और उसकी रचना का संकेत देकर बताते हैं कि रजऊ ईश्वरीय है सांसारिक नहीं. राधा-कृष्ण के उदाहरण के सन्दर्भ में यह तथ्य है कि गोकुलवासी कृष्ण के जीवन में राधा नाम का कोई चरित्र कभी नहीं आया. कृष्ण पर रचित सबसे पुरानी और प्रथम कृति हरिवंश पुराण में ऐसा कोई चरित्र नहीं है. राधा का चरित्र चैतन्य महाप्रभु की भावधारा के साथ-साथ कृष्ण की पराशक्ति के रूप में विकसित हुआ जबकि विष्णु के अवतार मान्य कृष्ण के साथ लक्ष्मी रूप में रुक्मणि उनकी अर्धांगिनी हैं. इस प्रसंग से ईसुरी यह संकेतित करते हैं कि जिस तरह कृष्ण के साथ संयुक्त की गयी राधा काल्पनिक हैं वैसे ही रजऊ भी काल्पनिक है.
रजऊ का रूप-लावण्य अलौकिक है. उसका अंग-अंग जैसा है वैसा त्रिभुवन में खोजने पर भी किसी अन्य का नहीं मिला. यह अनन्यता उसके काल्पनिक होने पर ही आ सकती है:
नग-नग बने रजऊ के नोने ऐसे की के होने
गाल नाक उर भौंह, चिबुक लग अँखियाँ करतीं टोने
ग्रीवा जुबन पेट कर जाँगें सब हुई भौत सलौने
ईसुरी दूजी रची न विधना छानौ त्रिभुवन कौने
ईसुरी रजऊ के प्रति इतने समर्पित हैं कि उसके घर की देहरी होना चाहते हैं ताकि उसके आते-जाते समय चरण-धूल का स्पर्श पा सकें. ऐसा अनन्य समर्पण भाव ईश्वरीय तत्व के प्रति ही होता है. यहाँ भी ईसुरी रजऊ का काल्पनिक और दैवीय होना इंगित करते हैं:
विधना करी देह ना मेरी रजऊ के घर की देरी
आउत-जात चरण की धूरा लगत जात हर बेरी
ईसुरी संसार के परम सत्य, तन की नश्वरता से सुपरिचित हैं. वे इस संसार में आकर बुरा काम करने से डरते हैं तो किसी अन्य की पत्नि से प्रेम कैसे कर सकते है? अपनी पत्नि की दैहिक सुन्दरता का सार्वजनिक बखान भी नैतिक नहीं माना जा सकता. स्पष्ट है कि उनमें कबीराना वैराग के प्रति लगाव है, वे देह-गेह-नेह की क्षणभंगुरता से सुपरिचित हैं तथा तुलसी की रत्नावली के प्रति दैहिक आसक्ति की तरह रजऊ में आसक्त नहीं हैं. उनकी रजऊ परमसत्ता से साक्षात् का माध्यम है, काल्पनिक है:
तन कौ कौन भरोसो करनें आखिर इक दिन मरनें
जौ संसार ओस कौ बूँदा पवन लगें सें ढुरनें
जौ लौ जी की जियन जोरिया की खाँ जे दिन मरनें
ईसुर ई संसार में आकें बुरे काम खाँ डरनें
कहते हैं ‘भगत के बस में हैं भगवान’. भक्त जितना भगवान् चाहता है उतना ही भगवान् भी उसे चाहते हैं. ‘राम ते अधिक राम कर दासा’, इस कसौटी पर भी रजऊ अलौकिक है. वह भी ईसुरी को उतना ही चाहती है जितना ईसुरी उसे चाहते हैं. वह कामना करती है कि ईसुरी उँगली का छल्ला हो जाएँ तो वह मुँह पोछते समय गालों पर उनका स्पर्श पा सके, बार-बार घूँघट खोलते समय आँखों के सामने रहेंगे, उसे ईसुरी के दर्शन पाने के लिये ललचाना नहीं पड़ता:
जो तुम छैल छला हो जाते परे उँगरियन राते
मो पोछ्त गालन खाँ लगते कजरा देत दिखाते
घरी-घरी घूँघट खोलत में नजर के सामें राते
ईसुर दूर दरस के लानें ऐसे कायँ ललाते
ईसुरी ने रजऊ के माध्यम से बुंदेलखंड की गरिमामयी नारी जीवन के विविध चरणों का चित्रण किया है. किशोरी रजऊ चंचलतावश आते-जाते समय घूँघट उठा-उठाकर कनखियों से ईसुरी को देखते हुए भी अनदेखा करना प्रदर्शित करते हुए उन्हें अपनी रूप राशि के दर्शन सुअवसर देती है:
चलती कर खोल खें मुइयाँ रजऊ वयस लरकइयाँ
हेरत जात उँगरियन में हो तकती हैं परछइयाँ
लचकें तीन परें करया में फरकें डेरी बइयाँ
बातन मुख झर परत फूल से जो बागन में नइयाँ
धन्य भाग वे सैयाँ ईसुर जिनकी आयँ मुनइयाँ
कैशोर्य में आभूषणों के प्रति आकर्षण और आभूषण मिलने पर सज्जित होकर गर्वसहित प्रदर्शन करना किस युवती को प्रिय नहीं होता? रजऊ बैगनी धोती, करधनी, पैंजना आदि से सज्जित हो अपनी गजगामिनी देह का प्रदर्शन करते हुई नित्य ही ईसुरी के दरवाजे के सामने से निकलती है:
दोरें कड़तीं रोज रजउआ हाँती कैसो छौआ
छीताफली पैजना पैरें होत जात अर्रौंआ
ककरिजिया धोती पै लटकै करदौनी की टौआ
ईसुर गैल गली उड़ जातीं जैसें कारो कौआ
लावण्यमयी रजऊ को कुदृष्टि से बचाने के लिये एक नहीं दस-दस बार राई-नोन से नज़र उतारना भी पर्याप्त नहीं है, ईसुर मंत्र पढ़वा कर लट बँधवाने, गले में यंत्र डालने के बाद भी संतुष्ट नहीं हो पाते और खुद राई-नोन उतारते हैं:
नौने नई नजर के मारें राती रजऊ हमारे
रोजई रोज झरैया गुनियाँ दस-दस बेराँ झारें
मन्त्र पढ़ा कें लट बँदवाई जन्तर गरे में डारें
ईसुर रोजऊँ रजऊ के ऊपर राई नौंन उतारें
समय के साथ रजऊ के मन में अपने स्वामी के घर जाने का भाव उदित हो तो क्या आश्चर्य? अलौकिक रजऊ आत्मा से मिलन की और लौकिक रजऊ प्रियतम से मिलन की राह देखे, यही जीवन का विकास क्रम है:
वे दिन गौने के कब आबैं जब हम ससुरे जाबैं
बारे बलम लिबौआ होकें डोला सँग सजाबैं
गा हा गुइयाँ गाँठ जोर कें दौरें नौ पौंचाबें
हांते लगा सास-ननदी के चरनन सीस नबाबैं
ईसुर कबै फलाने जू की दुलहिन् टेर कहाबैं
इस फाग में डोला सजना, गाँठ जोड़ना, द्वार पर हाथे लगाना और वधु को उसके नाम से न पुकार कर अमुक की दुलहिन कहकर पुकारना जैसी बुन्देली लोक परम्पराओं का सरस संकेतन अद्भुत मिठास लिये है. यहाँ ‘घर सें निकसी रघुबीर बधू’ कहते तुलसी की याद आती है.
परमात्मा एक है किन्तु आत्माएँ अनेक हैं. पारस्परिक द्वेष पाल कर उसे नहीं पाया जा सकता किन्तु ऐक्य भाव से उसे पाना सहज है. लौकिक जगत में सौतिया डाह से नर्क बनते घर सत्य सर्वज्ञात है. ईसुरी इस त्रासदी का जीवंत वर्णन करते हैं:
सो घर सौत सौत कें मारें सौंज बने ना न्यारें
नारी गुपता भीतर करतीं लगो तमासो द्वारे
अपनी-अपनी कोदें झीकें खसमें फारें डारें
एक म्यान में कैसें पटतीं ईसुर दो तरवारें
बुन्देलखंड में गुदना गुदाने का रिवाज़ चिरकाल से प्रचलित रहा है. अधुनातन युवा पीढ़ी ‘टैबू’ के नाम से इसे अपना रही है. ईसुरी की रजऊ अललौकिक है, वह सांसारिक नश्वरता से जुड़े चिन्हों का गुदना गुदवाना नहीं चाहती. अंततः वह गोदनारी से अपने अंग-अंग में कृष्ण जी के विविध नाम गोद दिये जाने का अनुरोध करती है:
गोदौ गुदनन की गुदनारी सबरी देह हमारी
गालन पै गोविन्द गोद दो कर में कुंजबिहारी
बइयन भौत भरी बनमाली गरे धरौ गिरधारी
आनंदकंद लेव अँगिया में माँग में लिखौ मुरारी
करया कोद करइयाँ ईसुर गोद मुखन मनहारी
अंगों के नाम के साथ कृष्ण के ऐसे नामों का चयन जिनका प्रथमाक्षर समान हो आनुप्रसिक सौन्दर्य तथा लालित्य संवर्धक है. अलौकिक हो या लौकिक रजऊ को मान-मर्यादा का पालन कर अपने लक्ष्य ताक पहुँचाने की सीख देना स्वजनों और वरिष्ठों का कर्त्तव्य है:
बाहर रेजा पैर कड़ें गये, नीचो मूड़ करें गये
जी सें नाव धरैं ना केऊ ऐसी चाल चलें गये
हवा चहै उड़ जैहे झूना घूँघट हाँत धरैं गये
ईसुर इन गलियन में बिन्नू धीरें पाँव धरैं गये
अपने प्रियतम को टेरती अलौकिक रजऊ को संसार में सर्वत्र चोर-लुटेरे दिखाई देते हैं. उसे प्रियतम को पाये बिना सागर में आगे यात्रा करने का चाव नहीं, वह कहती है कि मुर्गे के जागने पर जगाते रह जाओगे अर्थात उसके पहले ही रजऊ प्रभु प्राप्ति की राह पर जा चुकी होगी:
अब ना जाव मुसाफिर आगे जात बिदा दिन माँगें
मिलने नहीं गाँव कोसन लौं परती इकदम डांगें
है अँधियारी रात गैल में चोर-चबाई लाँगें
परों सुनत दो जने लूट लये मार मार के साँगें
ईसुर कात रओ उठ जइयो अरुनसिखा जब जागें
बुन्देलखण्ड के जन जीवन के सटीक चित्रण के साथ-साथ लोक रंग और लोक परंपराओं का सरस वर्णन, सांसारिकता और आध्यात्मिकता का सम्यक सम्मिश्रण, श्रृंगार के विविध पक्षों का अंकन, छंद विधान के प्रति सजगता, चारुत्व तथा लालित्यमय भाषा, सहज बोधगम्य भाषा ईसुरी की फागों का वैशिष्ट्य है. लोक के अंकन के साथ लोक के मंगल से अनुप्राणित ये फागें बुंदेलखंड के गाँवों-शहरों में निरंतर गायी जाती हैं. ईसुरी की फागें बुन्देली ही नहीं हिंदी साहित्य की भी अनमोल विरासत है जिसे आधुनिक भाषा, शब्दावली, सन्दर्भों और बिम्ब-प्रतीकों को समाहित करते हुई लिखा जाना चाहिए.
१-३-२०१५
***
छंद सलिला
गंग छंद
*
लक्षण: जाति आंक, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ९, चरणान्त गुरु गुरु
लक्षण छंद:
नयना मिलाओ, हो पूर्ण जाओ,
दो-चार-नौ की धारा बहाओ
लघु लघु मिलाओ, गुरु-गुरु बनाओ
आलस भुलाओ, गंगा नहाओ
उदाहरण:
१. हे गंग माता! भव-मुक्ति दाता
हर दुःख हमारे, जीवन सँवारो
संसार की दो खुशियाँ हजारों
उतर आस्मां से आओ सितारों
ज़न्नत ज़मीं पे नभ से उतारो
हे कष्टत्राता!, हे गंग माता!!
२. दिन-रात जागो, सीमा बचाओ
अरि घात में है, मिलकर भगाओ
तोपें चलाओ, बम भी गिराओ
सेना अकेली न हो सँग आओ
३. बचपन हमेशा चाहे कहानी
हँसकर सुनाये अपनी जुबानी
सपना सजायें, अपना बनायें
हो ज़िंदगानी कैसे सुहानी?
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, मनहरण घनाक्षरी, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
१-३-२०१४
***