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शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

कृति चर्चा: अगीत आंजुरी

kruti charcha: sanjiv 
कृति चर्चा: 
अगीत आँजुरी: गुनगुनाती बाँसुरी
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: अगीत आँजुरी, अगीत संग्रहइं. नारायण प्रकाश श्रीवास्तव ‘नजर, आकार क्राउन, आवरण पेपर बैक, २००४, पृष्ठ ५४, ३०/-, संपर्क: ५४० मार्ग २ राजेंद्र नगर लखनऊ २२६००४] 

जीवन में रस माधुरी की निरंतरता अपरिहार्य है. श्वास-आस का संगन ही जीवन की दैनंदिन तल्खियों में माधुर्य घोलकर काव्य सृजन का उत्स बनता है। काव्य का सरसतम रूप गीत है। संक्षिप्तता, भाषा सौष्ठव, कोमलकांत शब्दावली, न्यूनतम शब्द, अधिकतम अभिव्यक्ति के पञ्च तत्व गीत और अगीत दोनों में होते हैं। गीत, नवगीत और अगीत तीनों में अंतर छंदानुशासन का है। गीत पूरी तरह छान्दस अनुशासन और विधान में कसा-गसा होता है। उसमें छूट लेने की गुंजाइश नहीं होती। नवगीत छ्नादास तो होता है पर नवगीतकार को अपना स्वतंत्र छंद रचने की स्वतंत्रता होती है। अगीत छंदानुशासन से पूरी तरह मुक्त होता है किन्तु लय की सत्ता तीनों विधाओं में समान रूप से महत्वपूर्ण होती है।
 

अभियंता का काम ही कंकर-कंकर को तराश कर शंकर करना है। वह सिकता तट से सलिल-धार में पहुँचकर भावांजुरि भर ले तो तो उसमें सृजन और ध्वंस, लय और विलय, ताल और थाप, पार्थक्य और मिलन, दरस और परस एक साथ शब्दायित होते हैं। ऐसी मन:स्थिति ही अगीत आंजुरी के सृजन की भाव भूमि बनती है।

‘ पक्षी करते कलरव
पशु कुलाँचे भरते
संदेश उजागर करते
कटी काली-गहरी रात
मिटा अंधियार
निकला है दिन नया
लेकर आशाओं का सूर्य नया
उठो, जागो और बढ़ो’

भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘उत्तिष्ठ जागृत प्राप्य वरान्निबोधत’

झरते फूल हरसिंगार के, आयी बसंत बहार, सृजन का अधर, तेरी याद सता गयी, झरते हुए फूल ने, अस्ताचलगामी सूर्य की छह ने, पक्षी एक सुन्दर सा, आदि अगीत मन को बाँधते हैं। संकलन की लागत और मूल्य न्यून करने की चाह ने रचनाओं का मुद्रण इस तरह किया है जैसे पंक्तियाँ बाग़ में न टहलकर भण्डार गृह में भर दी गयी हों। लगभग १२० पृष्ठ की सामग्री ५६ पृष्ठ में ठूँस दी जाए तो पाठक का आनंद घटता है। उसे पंक्ति न छूट जाय की चंता करनी होती है जो रसानंद प्राप्ति में बाधक होती है। नज़र की नज़र में यह बात आ जाती तो कृति की नयनाभिरामिता के साथ उसकी पठनीयता भी बढ़ती। नज़र की यह कृति अन्य अगीत संग्रहों को पढ़ने की उत्सुकता जगाती है।

*** 

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

दो गीत : श्री प्रकाश शुक्ल


दो गीत :

श्री प्रकाश शुक्ल                                             

१. 

जाने क्यों यह मन में आया......

प्रकृति जननि आँचल में अपने, भरे हुए अनगिनत सुसाधन
चर-अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवनयापन  

बढ़ती आबादी, अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग   

जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक?
दुख है, भाव, , जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक
 
प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको  प्रतिपल  

असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर  ठहरा  

प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, ,  जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक               

हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानवजन्य उपकरण                                                 
सामूहिक सद्भाव  सहित, खोजेंगे   हल उतम  प्रगाड़
गतिविधियाँ  वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़

निश्चित उद्देश्य पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, , जाने क्यों यह, मन में आया अब  तक 
 
२.

जाने क्यों यह मन में आया

"जाने क्यों यह मन में आया?" अभी-अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुई इस पर?

कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल?             
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ  मनोबल.                         

कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएँ?
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की  ये  तृष्णाएँ?
                                                                                
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल  मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी, जब सुखद, मनोरम हो परिणाम 

हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तःस्वर? 
                                                  
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति?
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति?

छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे.
(टीप: उक्त दोनों गीत ई कविता की समस्या पूर्ति में प्रकाशित हुए थे.
    पाठक इनमें निहित प्रश्नों पर विचार कर उत्तर, सुझाव या अन्य जानकारियाँ बाँटें तो सभी का लाभ होगा. गीत, नवगीत, अगीत, प्रगीत, गद्य गीत आदि पर भी जानकारी आमंत्रित है.-सं.)
*
२८  अगस्त  २०१०

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

एक अगीत: बिक रहा ईमान है __संजीव 'सलिल'

एक अगीत:

बिक रहा ईमान है

__संजीव 'सलिल'



कौन कहता है कि...
मंहगाई अधिक है?

बहुत सस्ता

बिक रहा ईमान है.


जहाँ जाओगे

सहज ही देख लोगे.

बिक रहा

बेदाम ही इंसान है.


कहो जनमत का

यहाँ कुछ मोल है?

नहीं, देखो जहाँ

भारी पोल है.


कर रहा है न्याय

अंधा ले तराजू.

व्यवस्था में हर कहीं

बस झोल है.


आँख का आँसू,

हृदय की भावनाएँ.

हौसला अरमान सपने

समर्पण की कामनाएँ.


देश-भक्ति, त्याग को

किस मोल लोगे?

कहो इबादत को

कैसे तौल लोगे?


आँख के आँसू,

हया लज्जा शरम.

मुफ्त बिकते

कहो सच है या भरम?


क्या कभी इससे सस्ते

बिक़े होंगे मूल्य.

बिक रहे हैं

आज जो निर्मूल्य?


मौन हो अर्थात

सहमत बात से हो.

मान लेता हूँ कि

आदम जात से हो.


जात औ' औकात निज

बिकने न देना.

मुनाफाखोरों को

अब टिकने न देना.


भाव जिनके अधिक हैं

उनको घटाओ.

और जो बेभाव हैं

उनको बढाओ.

****************