गीति रचना :
संजीव
*
मात्र कर्म अधिकार है'
बता गये हैं ईश।
मर्म कर्म का चाहकर
बूझ न सके मनीष।
'जब आये संतोष धन
सब धन धूरि समान'
अगर सत्य तो कर्म क्यों
करे कहें इंसान?
कर्म करें तो मिलेगा
निश्चय ही परिणाम।
निष्फल कर्म न वरेगा
कोई भी प्रतिमान।
धर्म कर्म है अगर तो
जो न कर रहे कर्म
जीभर भरते पेट नित
आजीवन बेशर्म
क्यों न उन्हें दंडित करे
धर्म, समाज, विधान?
पूजक, अफसर, सेठ या
नेता दुर्गुणवान।
श्रम उत्पादक हो तभी
देश बने संपन्न।
अनुत्पादक श्रम अगर
होगा देश विपन्न।
जो जितना पैदा करे
खर्च करे कम मीत
तभी जुड़े कुछ, विपद में
उपयोगी हो, रीत।
हर जन हो निष्काम तो
निकल जाएगी जान
रहे सकाम बढ़े तभी
जीवन ले सच मान।
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 22 अगस्त 2021
गीति रचना
गुरुवार, 13 मई 2021
गीति रचना
एक गीति रचना:
करो सामना
संजीव
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
१३-५-२०१५
करो सामना
संजीव
*
जब-जब कंपित भू हुई
हिली आस्था-नीव
आर्तनाद सुनते रहे
बेबस करुणासींव
न हारो करो सामना
पूर्ण हो तभी कामना
ध्वस्त हुए वे ही भवन
जो अशक्त-कमजोर
तोड़-बनायें फिर उन्हें
करें परिश्रम घोर
सुरक्षित रहे जिंदगी
प्रेम से करो बन्दगी
संरचना भूगर्भ की
प्लेट दानवाकार
ऊपर-नीचे चढ़-उतर
पैदा करें दरार
रगड़-टक्कर होती है
धरा धीरज खोती है
वर्तुल ऊर्जा के प्रबल
करें सतत आघात
तरु झुक बचते, पर भवन
अकड़ पा रहे मात
करें गिर घायल सबको
याद कर सको न रब को
बस्ती उजड़ मसान बन
हुईं प्रेत का वास
बसती पीड़ा श्वास में
त्रास ग्रस्त है आस
न लेकिन हारेंगे हम
मिटा देंगे सारे गम
कुर्सी, सिल, दीवार पर
बैंड बनायें तीन
ईंट-जोड़ मजबूत हो
कोने रहें न क्षीण
लचीली छड़ें लगाओ
बीम-कोलम बनवाओ
दीवारों में फंसायें
चौखट काफी दूर
ईंट-जुड़ाई तब टिके
जब सींचें भरपूर
रैक-अलमारी लायें
न पल्ले बिना लगायें
शीश किनारों से लगा
नहीं सोइए आप
दीवारें गिर दबा दें
आप न पायें भाँप
न घबरा भीड़ लगायें
सजग हो जान बचायें
मेज-पलंग नीचे छिपें
प्रथम बचाएं शीश
बच्चों को लें ढांक ज्यों
हुए सहायक ईश
वृद्ध को साथ लाइए
ईश-आशीष पाइए
***
१३-५-२०१५
रविवार, 17 मार्च 2013
गीति रचना: पाती लिखी संजीव 'सलिल'
गीति रचना:
पाती लिखी
संजीव 'सलिल'
*
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
गीत, गजल, कविताएँ, छंद,
अनगिन रचे मिला आनंद.
क्षणभंगुर अनुभूति रही,
स्थिर नहीं प्रतीति रही.
वाह, वाह की चाह छले
डाह-आह भी व्यर्थ पले.
कैसे मिलता कभी सुनाम?
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
नाम हुए बदनाम सभी,
और हुए गुमनाम कभी.
बिगड़े, बनते काम रहे,
गिरते-बढ़ते दाम रहे.
धूप-छाँव के पाँव थके,
लेकिन तनिक न गाँव रुके.
ठाँव दाँव के मेटो राम!
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
सत्य-शील का अंत समीप,
घायल संयम की हर सीप.
मोती-शंख न शेष रहे,
सिकता अश्रु अशेष बहे.
मिटे किनारे सूखी धार,
पायें न नयना नीर उधार.
नत मस्तक कर हुए अनाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
लिखता कम, समझो ज्यादा,
राजा बना मूढ़ प्यादा.
टेढ़ा-टेढ़ा चलता है
दाल वक्ष पर दलता है.
दु:शासन नित चीर हरे
सेवक सत्ता-खेत चरे.
मन सस्ता मँहगा है चाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
पाती लिखी
संजीव 'सलिल'
*
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
गीत, गजल, कविताएँ, छंद,
अनगिन रचे मिला आनंद.
क्षणभंगुर अनुभूति रही,
स्थिर नहीं प्रतीति रही.
वाह, वाह की चाह छले
डाह-आह भी व्यर्थ पले.
कैसे मिलता कभी सुनाम?
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
नाम हुए बदनाम सभी,
और हुए गुमनाम कभी.
बिगड़े, बनते काम रहे,
गिरते-बढ़ते दाम रहे.
धूप-छाँव के पाँव थके,
लेकिन तनिक न गाँव रुके.
ठाँव दाँव के मेटो राम!
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
सत्य-शील का अंत समीप,
घायल संयम की हर सीप.
मोती-शंख न शेष रहे,
सिकता अश्रु अशेष बहे.
मिटे किनारे सूखी धार,
पायें न नयना नीर उधार.
नत मस्तक कर हुए अनाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
लिखता कम, समझो ज्यादा,
राजा बना मूढ़ प्यादा.
टेढ़ा-टेढ़ा चलता है
दाल वक्ष पर दलता है.
दु:शासन नित चीर हरे
सेवक सत्ता-खेत चरे.
मन सस्ता मँहगा है चाम
पाती लिखी तुम्हारे नाम...
*
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बुधवार, 9 नवंबर 2011
गीति रचना : चाहिए --संजीव 'सलिल'
गीति रचना :
चाहिए
संजीव 'सलिल'
*
शुभ भाव मन में उठें तो, लिखना-सुनाना चाहिए.
कविताओं की संसद सजी, करतल गुंजाना चाहिए..
नेताओं ने लूटा वतन यह, सच बताना चाहिए.
स्विस बैंक में जोड़ा-जमा धन, देश लाना चाहिए..
कुसुम कोशिश के दसों दिश, महमहाना चाहिए.
श्रम के परिंदों को निरंतर, चहचहाना चाहिए..
गीत मुक्तक गजल दोहे, गुनगुनाना चाहिए.
तिमिर-पथ पर दीप स्नेहिल जगमगाना चाहिए..
दुःख-दर्द आँसू पीर को, जग से छिपाना चाहिए.
बीती हुई यादें सलीके, से तहाना चाहिए..
तृषा प्यासे की 'सलिल', पल में मिटाना चाहिए.
प्रिय जब मिलें तो ईद-होली, हँस मनाना चाहिए..
************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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