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रविवार, 31 मई 2020

श्री-श्री चिंतन: दोहा गुंजन

श्री-श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
प्लास्टिक का उपयोग तज, करें जूट-उपयोग।
दोना-पत्तल में लगे, अबसे प्रभु को भोग।।
*
रेशम-रखे बाँधकर, रखें प्लास्टिक दूर।
माला पहना सूत की, स्नेह लुटा भरपूर।।
*
हम प्रकृति को पूज लें जीव-जंतु-तरु मित्र।
इनके बिन हो भयावह, मित्र प्रकृति का चित्र।।
*
प्लास्टिक से मत जलाएँ पैरा, खरपतवार।
माटी-कीचड में मिला, कर भू का सिंगार।।
*
प्रकृति की पूजा करें, प्लास्टिक तजकर बंधु।
प्रकृति मित्र-सुत हों सभी, बनिए करुणासिंधु।।
*
अतिसक्रियता से मिले, मन को सिर्फ तनाव।
अनजाने गलती करे, मानव यही स्वाभाव।।
*
जीवन लीला मात्र है, ब्रम्हज्ञान कर प्राप्त।
खुद में सारे देवता, देख सको हो आप्त।।
*
धारा अनगिन ज्ञान की, साक्षी भाव निदान।
निज आनंद स्वरुप का, तभे हो सके ज्ञान।।
*
कथा-कहानी बूझकर, ज्ञान लीजिए सत्य।
ज्यों का त्यों मत मानिए, भटका देगा कृत्य।।
*
मछली नैन न मूँदती, इंद्र नैन ही नैन।
गोबर क्या?, गोरक्ष क्या?, बूझो-पाओ चैन।।
*
जहाँ रुचे करिए वहीं, सता कीजिए ध्यान।
सम सुविधा ही उचित है, साथ न हो अभिमान
***
३१.५.२०१८, ७९९९५५९६१८

हिंदी शब्द सलिला

हिंदी शब्द सलिला
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संकेत: + स्थानीय / देशज, अ. अव्यय, अर. अरबी, अक. अकर्मक क्रिया, अप्र. अप्रचलित, आ. आधुनिक, आयु. आयुर्वेद, इ. इत्यादि, उ. उदाहरण, उप. उपसर्ग, उनि. उपनिषद, ए. एकवचन, का. कानून, काम. कामशास्त्र, ग. गणित, गी. गीता, चि. चित्रकला, छ. छत्तीसगढ़ी, ज. जर्मन, जै. जैन, ज्या. ज्यामिती, ज्यो. ज्योतिष, तं. तंत्रशास्त्र, ति. तिब्बती, तु. तुर्की, ना. नाटक/नाट्यशास्त्र, न्या. न्याय, पा. पाली, पु. पुल्लिंग, प्र. प्रत्यय, प्रा. प्राचीन, फा. फारसी, फ्रे. फ्रेंच, बं. बंगाली, ब. बर्मी, बहु. बहुवचन, बु. बुंदेली, बौ. बौद्ध, भा. भागवत, भू. भूतकालिक, म. मनुस्मृति, मभा. महाभारत, मी. मीमांसा, मु. मुसलमानी, यू. यूनानी, यो. योगशास्त्र, रा. रामायण, राम. रामचरितमानस, ला. लाक्षणिक, लै. लैटिन, लो. लोकप्रचलित, वा. वाक्य, वि. विशेषण, वे. वेदान्त, वै. वैदिक, व्य. व्यंग्य, व्या. व्याकरण, सं. संस्कृत, सक. सकर्मक क्रिया, सर्व. सर्वनाम, सां. सांख्यशास्त्र, सा. साहित्य, सू. सूफी, स्त्री. स्त्रीलिंग, स्म. स्मृतिग्रन्थ, हरि. हरिवंशपुराण, हिं. हिंदी।

चरण पूर्ति: मुझे नहीं स्वीकार

चरण पूर्ति:
मुझे नहीं स्वीकार -प्रथम चरण
*
मुझे नहीं स्वीकार है, मीत! प्रीत का मोल.
लाख अकिंचन तन मगर, मन मेरा अनमोल.
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मुझे नहीं स्वीकार है, जुमलों का व्यापार.
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे मिले सरकार.
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मुझे नहीं स्वीकार -द्वितीय चरण
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प्रीत पराई पालना, मुझे नहीं स्वीकार.
लगन लगे उस एक से, जो न दिखे साकार.
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ध्यान गैर का क्यों करूँ?, मुझे नहीं स्वीकार.
अपने मन में डूब लूँ, हो तेरा दीदार.
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मुझे नहीं स्वीकार -तृतीय चरण
*
माँ सी मौसी हो नहीं, रखिए इसका ध्यान.
मुझे नहीं स्वीकार है, हिंदी का अपमान.
*
बहू-सुता सी हो सदा, सुत सा कब दामाद?
मुझे नहीं स्वीकार पर, अंतर है आबाद.
*
मुझे नहीं स्वीकार -चतुर्थ चरण
*
अन्य करे तो सर झुका, मानूँ मैं आभार.
अपने मुँह निज प्रशंसा, मुझे नहीं स्वीकार.
*
नहीं सिया-सत सी रही, आज सियासत यार!.
स्वर्ण मृगों को पूजना, मुझे नहीं स्वीकार.
***
३१.५.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा सलिला

दुनिया में नित घूमिए, पाएँ-देकर मान।
घर में घर जैसे रहें, क्यों न आप श्रीमान।।

प्राध्यापक से क्यों कहें, 'खोज लाइए छात्र'।
शिक्षास्तर तब उठे जब, कहें: 'पढ़ाओ मात्र।।


जो अपूर्व वह पूर्व से, उदित हो रहा नित्य।
पल-पल मिटाता जा रहा, फिर भी रहे अनित्य।।


गौरव गरिमा सुशोभित, हो विद्या का गेह।
ज्ञान नर्मदा प्रवाहित, रहे लहर हो नेह।।


करे पूँछ से साफ़ भू, तब ही बैठे श्वान।
करे गंदगी धरा पर, क्यों बोले इंसान।।




माया सभ्यता

-----------------:माया सभ्यता का क्या रहस्य है ?:-------------------
*************************************
इधर कुछ वर्षों में भविष्यवाणी और माया सभ्यता पर टी वी और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से काफी चर्चा देखने, सुनने और पढ़ने को मिलती रही है। माया सभ्यता के रहस्य और उनके गणना करने के तरीके पर लोगों का ध्यान काफी आकृष्ट हुआ है। भारत की प्रखर प्रज्ञा ने भी अंतर्योग और ज्ञानयोग से योग-तंत्र और ज्योतिष पर अपना अन्वेषण कार्य समय-समय पर किया है। भारत से अन्य देशों में यह विद्या फैली है--ऐसा सुधी विद्वानों का मत है। लेकिन भारत से हज़ारों मील दूर माया सभ्यता कैसे फली-फूली, उन्हें ग्रह-नक्षत्रों आदि की सटीक जानकारी कैसे हुई--यह शोध का विषय है।
आज का विज्ञान दिन-प्रति-दिन नित नयी खोज करता जा रहा है और नये-नये आयाम को करता जा रहा है स्पर्श। विज्ञान के पास वह सारी आधुनकि सुविधा है--चाहे पृथ्वी से परे गहन अंतरिक्ष की जानकारी हो, सुदूर आकाश गंगाओं, निहारिकाओं में होने वाली हलचल की जानकारी हो--अपनी आधुनिक सुविधाओं से वह सबकुछ जानकारी प्राप्त करता जा रहा है और आगे भी करता रहेगा। लेकिन यह सुविधा हज़ारों वर्ष पूर्व नहीं थी। फिर भी वह सटीक जानकारी, गहन ज्ञान, भविष्य में घटित होने वाली घटना का ज्ञान पृथ्वी की मानव जाति को कैसे हुआ--यह आश्चर्य का विषय है। चाहे भारत हो, चीन हो, तिब्बत्त हो, मिश्र हो या हो सुदूर अमेरिका, कनाडा आदि--सभी के ज्ञान की समानता कहीं न कहीं मिलती है। सबसे बड़े आश्चर्य का विषय है गुम्बद का आकार। एक सभ्यता ने दूसरी सभ्यता को न जानते हुए भी पिरामिड के आकार के स्तूप का निर्माण किया।
जहाँतक भारतीय अध्यात्म के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि ऊर्ध्व त्रिकोण 'शिवतत्त्व' है और अधो त्रिकोण 'योनितत्व' है और इन दोनों के सामरस्य से जगत् में सृष्टि का शुभारंभ हुआ। ऊर्ध्व त्रिकोण समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक है और अधो त्रिकोण है प्रतीक शक्ति का। उर्ध्व त्रिकोण के अंदर सात आकाश अथवा सात मण्डल अथवा सात लोक हैं। सात आकाश की मान्यता लगभग सभी धर्मों में है। विज्ञान इन्हीं को सात आयाम (seven dimensions)मानता है।
हमारा जगत् तीन आयामों वाला है। कुछ समय पूर्व वैज्ञानिकों ने सात सूर्य की खोज की थी। तीसरा सूर्य हमारे सौरमण्डल का अधिपति है। यह बहुत संभव है कि इन सात आयामों का संबंध हमारी पृथ्वी से हो। वैज्ञानिकों के अनुसार चौथे आयाम का समय मन्द है अर्थात् काल का प्रभाव अति मन्द है। लेकिन पृथ्वी पर कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ कोण कटता है, वहां पर कोई भी वस्तु गायब हो सकती है। वर्तमान में सबसे अधिक रहस्यमय है--बरमूडा ट्राइएंगल। उसकी हद में कोई भी वस्तु चाहे हवाई जहाज हो या पानी का जहाज हो--गायब हो जाती है। उनका सबका आजतक भी कोई पता नहीं चल पाया। आज भी उनकी खोज जारी है। प्रश्न यह है कि क्या वे चतुर्थ आयाम में चले गए या फिर और कोई रहस्य है ?--यह तो विज्ञान को खोजना है।
बहरहाल गुम्बद अथवा पिरामिड के कोण के माध्यम से हमारे पूर्वज ध्यान की गहन अवस्था में सुदूर ग्रह के लोगों से संपर्क करते आ रहे थे और ज्ञान भी प्राप्त करते आ रहे थे। उन ग्रहों में रहने वाले प्राणी हमसे ज्यादा ज्ञान, तकनीक और बुद्धि में विकसित हैं। कई बार अंतरिक्ष के प्राणी (एलियंस) प्राचीन काल से ही पृथ्वी पर आते रहे हैं, उड़न तश्तरियों जैसे यानों में उतरते देखे गए हैं। लेकिन क्या माया सभ्यता के लोगों का सम्बंध रहा होगा ऐसे प्राणियों से प्राचीन काल से--यह विचारणीय प्रश्न है।

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
२५-५-२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
२५-५-२०१५

नवगीत

नवगीत:
संजीव
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*

*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
***
२७-५-२०१५

मुक्तिका

मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
*******
३१-५-२०१०

समीक्षा

पुस्तक सलिला-
'हिंदी साहित्य का काव्यात्मक इतिहास' एक साहसिक प्रयोग
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- हिंदी साहित्य का काव्यात्मक इतिहास, रजनी सिंह, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., सजिल्द, बहुरंगी, आंशिक लेमिनेटेड आवरण, जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य २५०/-, रजनी प्रकाशन, रजनी विल, डिबाई २०३३९३, दूरभाष ०५७३४ २६५१०१, कवयित्री संपर्क: चलभाष ९४१२६५३९८०, rajnisingh2009@yahoo.com]
*
भाषा साहित्य की ही, नहीं सभ्यता और संस्कृति की भी वाहिका होती है। किसी भाषा का इतिहास उस भाषा को बोलने-लिखने-पढ़नेवालों की जीवन शैली, जीवन मूल्यों और गतागत का परिचायक होता है।

विश्व वाणी हिंदी का प्रथम सर्वमान्य प्रामाणिक इतिहास लिखने का श्रेय स्वनामधन्य डॉ. रामचन्द्र शुक्ल को है। कालांतर में कुछ और प्रयास किये गये किन्तु कोेेई भी पूर्वापेक्षा अधिक लम्बी लकीर नहीं खींच सका।
इतिहास लिखना अपने आपमें जटिल होता है। अतीत में जाकर सत्य की तलाश, संशय होने पर स्वप्रेरणा से सत्य का निर्धारण विवाद और संशय को जन्म देता है। साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जो रचे जाते समय और रचे जाने के बाद कभी न कभी, कहीं न कहीं, कम या अधिक चर्चा में आता है किन्तु साहित्यकार प्रायः उपेक्षित, अनचीन्हा ही रह जाता है। शुक्ल जी ने साहित्य और साहित्य्कार दोनों को समुचित महत्त्व देते हुए जो कार्य किया, वह अपनी मिसाल आप हो गया।
हिंदी भाषा और साहित्य से सुपरिचित रजनी सिंह जी ने विवेच्य कृति का आधार शुक्ल जी रचित कृति को ही बनाया है। इतिहास शुष्क और नीरस होता है, साहित्य सरस और मधुर। इन दो किनारों के बीच रचनात्मकता की सलिल-धार प्रवाहित करने की चुनौती को काव्य के माध्यम से सफलतापूर्वक स्वीकार किया औेर जीता है कवयित्री ने।
उच्छ्वास के आलोक में, नमन करूँ शत बार, आदिकाल, वीरगतः काल, पूर्व मध्य (भक्ति) काल, उत्तर मध्य (रीति) काल, आधुनिक काल (गद्य साहित्य का प्रवर्तन, उत्थान, प्रसार, वर्तमान गति), छायावाद तथा उत्तर छायावाद शीर्षकों के अंतर्गत साहित्यिक कृतियों तथा कृतिकारों पर काव्य-पंक्तियाँ रचकर कवयित्री ने एक साहसिक और अभिनव प्रयोग किया है। डॉ. कुमुद शर्मा ने ठीक ही लिखा है 'हिंदी के विषयनिष्ठ ज्ञान की जगह वस्तुपरक ज्ञान पर आधारित रजनी सिंह की यह पुस्तक हिंदी साहित्य बहुविध छवियों की झाँकी प्रस्तुत करती है।' मेरे मत में यह झाँकी बाँकी भी है।
सामान्यतः साहित्यकार का समुचित मूल्यांकन उसके जीवन काल में नहीं होने की धारणा इस कृति में डॉ. अरुण नाथ शर्मा 'अरुण', डॉ. कुमुद शर्मा को अर्पित काव्य पंक्तियों को देखकर खंडित होती है। आलोच्य कृति के पूर्व विविध विधाओं में १८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकने से रजनी जी की सृजन सामर्थ्य असंदिग्ध प्रमाणित होती है। परम्परानुसार कृति का श्री गणेश सरस्वती स्तुति से किये जाने के पश्चात हिंदी वंदन तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को प्रणति निवेदन सर्वथा उचित तथा मौलिक सूझ है। इसी तरह विश्व विख्यात दर्शनशास्त्री ओशो को साहित्यिक अवदान हेतु सम्मिलित किया जाना भी नयी सोच है।
किसी भी कृति में उपलब्ध पृष्ठ संख्या के अंतर्गत ही विषय और कथ्य को समेटना होता है. यह विषय इतना विस्तृत है कि मात्र १२८ पृष्ठों में हर आयाम को स्पर्श भी नहीं किया जा सकता तथापि कृतिकार ने अपनी दृष्टि से साहित्यकारों का चयन कर उन्हें काव्यांजलि अर्पित की। शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती काव्य पंक्तियाँ गागर में सागर की तरह सारगर्भित हैं।
---------------
३१-५-२०१६ 
-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

कुंडली मिलान में गण-विचार

लेख:
कुंडली मिलान में गण-विचार
संजीव
*
वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी विचार किया जाता है.
कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता, दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं।
ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:
१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।'
अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।
२. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'
अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।
गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है.
2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।
३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।
शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा।
सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।
भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते। गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है। गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए।
३१-५-२०१४
***

अभियान २८ : कला पर्व

समाचार: 

२८वां दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान : कला  पर्व 
हरियाली मानसिक तनाव मिटाकर स्वास्थ्य-सुख देती है - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
जबलपुर, ३१-५-२०२०। संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित संस्था विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के २८ वे दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान कला पर्व के अंतर्गत विविध विषयों पर व्यापक विमर्श किया गया। संस्था तथा कार्यक्रम के संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कला को मानव के जन्म से मरण तक के सांसारिक-आत्मिक, व्यावहारिक-भावनात्मक क्रिया व्यवहार में सुरुचि और सौंदर्य का प्रवाह करनेवाली आदि शक्ति बताया। उद्घोषक छाया सक्सेना ने आरंभ में मुखिया डॉ. इला घोष व पाहुना रजनी शर्मा 'बस्तरिया' का शब्द-सुमन स्वागत पश्चात् मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' की मधु-मिश्रित वाणी में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा रचित सरस्वती वंदना के दोहों का गायन कराया-

"कर गायत्री वंदना, जप सावित्री नाम
वीणापाणी हो सदय शुभदा ललित ललाम'
वागीश्वरी स्वर शब्द दें, लय-रस से परिपूर्ण
नीरस-सरस झुलस मिटे, सरस् सलिल संपूर्ण
अरुण उषा कर वंदना, मुकुलमना हो धन्य
मनोरमा छाया मिले, सिद्धेश्वरी अनन्य
सपना भारत भारती, हों चंदा आलोक
प्रभा पुनिता रमन कर, ज्योतित कर दें लोक
सफल साधना कर सलिल, इला-उमा के साथ
कृपा मुद्रिका अनामिका, पहने बने सनाथ
कृष्ण कान्त आशीष पा, हो रजनी भी प्रात
गान करे अरविन्दहो, धन्य ससीम प्रभात
सात सुरों की स्वामिनी, मातु पुनीता दिव्य
करो अज्ञ को विज्ञ माँ, दमक तारिका भव्य"

दतिया से पधारे डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव 'असीम' ने विमर्श का श्री गणेश करते हुए वार्तालाप कला के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हुए इशब्द चयन व् भाषा ज्ञान को आवश्यक बताया। प्रीति मिश्रा ने पेंटिंग कला के अंतर्गत झाड़ू व माचिस की तीलियों, मोटी रेत व ग्लिटर का प्रयोग कर पेंटिंग बनाने की जानकारी साझा की। डाल्टनगंज कजारखंड के श्रीधर प्रसाद द्विवेदी ने 'जिसे देख-सुन के सुख मिले उस क्रिया को कला बताया। विद्वान वक्त ने चंद्र की १५ तथा सूर्य की १२ कलाओं की भी चर्चा की।

दुर्गा शर्मा जी ने वायलिन वाद्य यंत्र की चर्चा करते हुए उसका सरस वादन कर श्रोताओं का मन मोह लिया। रजनी शर्मा रायपुर ने बैठक कक्ष सज्जा के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला। प्रो। रेखा कुमारी सिंह जपला पलामू ने पाक कला के महत्त्व और प्रासंगिकता को महत्वपूर्ण बताया। डॉ. भावना दीक्षित जबलपुर ने सिलाई व् कसीदाकारी की जानकारी देते हुए पुराने हो चके कपड़ों का प्रयोग कर नया रूप देते हुए अन्य कार्य में प्रयोग करने के नमूने दिखाए। दमोह के डॉ. अनिल कुमार जैन ने राग यमन पर आधारित चित्रलेखा फिल्म के साहिर लुधियानवी द्वारा लिखित भजन ''मन रे! तू काहे न धीर धरे'' का गायन किया। दमोह से सम्मिलित हो रही बबीता चौबे शक्ति ने तिलक कला पर प्रकाश डालते हुए विविध प्रकारों के तिलक तथा उनके प्रयोग की जानकारी दी। मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' ने कला के प्रकारों पर प्रकाश डाला तथा उसका उद्देश्य जीवन को सत्यं-शिवं-सुंदरं का पर्याय बनाना बताया।

इंजी अरुण भटनागर ने अभिवादन कला के महत्व तथा प्रयोग पर विमर्श किया। डॉ. मुकुल तिवारी ने विविध साग-सब्जियों का प्रयोग कर भोजन के इमेज को सज्जित करने के नमूने प्रस्तुत किये। चंदादेवी स्वर्णकार से कला को जीवन की पूर्णता हेतु आवश्यक बताया। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने मंदिर निर्माण कला पर प्रकाश डालते हुए. मंदिर वे अंगोपांगों तथा शैलियों आदि की जानकारी दी। डॉ. सुमन लता श्रीवास्तव ने संगीत कला पर विद्वतापूर्ण विमर्श करते हुए नाद को सृष्टि का मूल बताया। पटल पर प्रवेश करते हुए श्रुति रिछारिया ने नर्तन कला पर विचार करते हुए जन्म के साथ ही मनुष्य में इस कला का विकास होना बताया। उन्होंने नृत्य कला को देव दनुज मनुज के लिए अपरिहार्य बताते हुए नटराज और नटनागर का उल्लेख किया। सपना सराफ ने स्वलिखित गीत प्रस्तुत किया। वरिष्ठ साहित्यकार राजलक्ष्मी शिवहरे ने वाचिक तथा लिखित अभिव्यक्ति की समानता व् भिन्नता का उल्लेख करते हुए, नवोदितों का मार्गदर्शन किया। पलामू झारखंड के डॉ. आलोकरंजन ने कला के विविध वर्गों का विश्लेषण किया। उद्घोषणा कर रही कहानीकार-कवयित्री छाया सक्सेना ने भगवान् के भोग हेतु फलाहारी व्यंजनों की थाली तथा शाकाहारी थाली की सज्जा पर प्रकाश डाला।

पाहुना रजनी शर्मा 'बस्तरिया' ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के ३० दिवसीय दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान को अभूतपूर्व बताया। उन्होंने इन अनुष्ठानों को विश्वद्यालयीन संगोष्ठियों की तुलना में अधिक उपयोगी बताया। मुखिया डॉ. इला घोष के अपने वक्तव्य में भारतीय कला में हस्तकौशल, बौद्धिक वैभव, हार्दिक सौंदर्य और आत्मिक आनंद का मणि-कांचन समन्वय होना बताया। विश्ववाणी हिंदी संस्थान के अथक प्रयास को सराहते हुए विदुषी वक्ता ने ऐसे आयोजनों की आवृत्ति की कामना की।
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शनिवार, 30 मई 2020

अभियान २७ : गृहवाटिका पर्व

समाचार: 

२७ वां दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान : हरियाली  पर्व 
हरियाली मानसिक तनाव मिटाकर स्वास्थ्य-सुख देती है - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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जबलपुर, ३०-५-२०२०। संस्कारधानी जबलपुर की प्रतिष्ठित संस्था विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के २७ वे दैनंदिन सारस्वत अनुष्ठान हरियाली पर्व के अंतर्गत गृह वाटिका पर व्यापक विमर्श किया गया। संस्था तथा कार्यक्रम के संयोजक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने विषय प्रवर्तन करते हुए भारतीय जन मानस और लोक परंपरा को उत्सव प्रधान बताते हुए हरियाली को उत्सवों का उत्स निरूपित किया। पौधों और वृक्षों में दैवीय शक्तियों के निवास तथा पर्वों पर पौधों का पूजन करने का उल्लेख करते हुए आचार्य सलिल ने महानगरों में पौधे न मिलने के कारण उत्सव न मना पाने की विवशता गृह वाटिका दूर कर सकती है। इसके पूर्व उद्घोषक डॉ. आलोक रंजन पलामू झारखण्ड ने आज की मुखिया छाया सक्सेना, जबलपुर मध्य प्रदेश तथा पाहुना विनोद जैन वाग्वर सागवाड़ा राजस्थान का स्वागत कर सरस्वती पूजनोपरांत कोकिलकंठी गायिका मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' से आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल द्वारा रचित सरस्वती वंदना का गायन कर विमर्श आरंभ कराया। पीताम्बरपीठ दतिया से पधारे डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव 'असीम' ने गृह वाटिका की उपादेयता बताते हुए, विविध पौधों से प्राप्त लाभों की जानकारी दी। प्रीति मिश्रा जबलपुर ने करेला, तुलसी, सदसुहागिन, पारिजात आदि पौधों से विविध रोगों की चिकित्सा के जानकारी दी।    
धान का कटोरा कहे जानेवाले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से तशरीफ़ लाई रजनी शर्मा 'बस्तरिया' ने  'कबाड़ से जुगाड़' कर विद्यालय में बनाई गयी बगिया की कहानी सुनाकर सबको ऐसा करने की प्रेरणा दी। उन्होंने पौधों-पेड़ों के साथ तख्ती पर पीड़ के नाम, उपयोग आदि लिखकर विद्यार्थियों  का सामान्य ज्ञान बढ़ाने का उल्लेख किया।  

दमोह से सम्मिलित हो रही मनोरमा रतले ने गिलोय, आक (धतूरा), अमरबेल आदि के उपयोग की जानकारी दी। जबलपुर से भाग ले रही भारती नरेश पाराशर ने घर में उपयोग की गए साग-सब्जियों के छिलकों से  कंपोस्ट खाद बनाने की विधि बताई। प्रसिद्ध पादप रोग विशेषज्ञ डॉ. अनामिका तिवारी ने जापानी कही जा रही पौध कला बोनसाई (बोन = छिछला पात्र, साईं = पौधा लगाना) का जन्म भारत में ऋषि आश्रमों में बताया। उन्होंने गूलर, शहतूत रबर गुड़हल, गुलमोहर संतरा, करौंदा आदि को हरियाली, पुष्प तथा फल हेतु उपयुक्त बताया। बोनसाई के लिए पात्र चयन को उन्होंने महत्वपूर्ण बताया। बोनसाई के लिए जलनिकासी वाली मिटटी को उन्होंने उपयुक्त बताया। डॉ. मुकुल तिवारी ने सूर्य प्रकाश न मिल पाने पर भी उगाये जा सकने वाले पौधों की जानकारी दी। जपला, पलामू से सहभागी रेख सींग ने कम्पोस्ट खाद बनाने की विधि पर प्रकाश डाला। दमोह की बबीता चौबे शक्ति ने बिना मिट्टी के ऑर्गनिक खेती की विधि बताई। मीनाक्षी शर्मा 'तारिका' ने गृह वाटिका में पौधों का महत्व बताया। 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने गृहवाटिका को सकारात्मक ऊर्जा का संसार बताते हुए पौधों और पर्वों के अंतर्संबंध पर प्रकाश डाला। इंजी. अरुण भटनागर ने गृह वाटिका में आयुर्वेदिक औषदीयों शतावर, मयूरपर्णी, ब्राह्मी आदि को लगाने की विधि व् उनसे लाभों की जानकारी दी। डॉ. संतोष शुक्ला ग्वालियर ने पर्यावरण के प्रति सजगता को आवश्यक बताया। दमोह के डॉ. अनिल जैन ने अपनी गृह वाटिका से पंछियों के कलरव की ध्वनि सुनवाई। माधुरी मिश्रा ने पौधारोपण पर एक कविता प्रस्तुत की। पाहुने की आसंदी से विनोद जैन ने पौधों की महत्ता पर पौराणिक संदर्भों की जानकारी दी। मुखिया छाया सक्सेना ने गृहवाटिका से घर के सदस्यों विशेषकर बच्चों के व्यक्तित्व में निखार होने की  जानकारी देते हुए हर घर में वाटिका बनाये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की। 
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विघ्नेश्वर-शारद नमन, अनुकम्पा-आलोक
दें विनोद-आमोद की, छाया हर ले शोक
प्रीति कीजिए प्रकृति से, हो असीम सुख-शांति 
बगिया बना कबाड़ से, दूर करें हर भ्रांति
खाद मिले कम्पोस्ट यदि, बढ़ते पौधे खूब 
मनोरमा हरीतिमा हो, सकें शांति में डूब 
रजनी से सूरज उगे, हो भारती प्रसन्न 
अनामिका हो नामिका, 



समीक्षा - सड़क पर - सुरेंद्र सिंह पवार

पुस्तक समीक्षा

जीवन कहता ''सड़क पर'' सलिल सलिल सम जान  
*

पुस्तक समीक्षा

जीवन कहता ''सड़क पर'' सलिल सलिल सम जान
*
नवगीत, कविता की पूर्व-पीठिका पर गूँजता सामवेदी गान है। नव गीत के वामन- स्वरूप में संवेदना की गहनता, सघनता, सांद्रता, विषयवस्तु की वैविध्यपूर्ण विस्तृति, नवोन्मेषमयी कल्पना की उत्तरंग उड़ान, इंद्रिय-संवेद्य बिंबों की प्रत्यग्रता तो होती ही है, वहीं लोक-भाषा, लोक-लय के प्रति आत्मीयता पूर्ण आग्रह ‘नव’ विशेषण युक्त अवदात्त गीतों के शिल्प में अतिरिक्त चारुत्व का आधान करती है.। अप्रासंगिक नहीं कि कविता ने ‘गीत’ और फिर ‘नव गीत’ की यात्रा में अपने प्राणतत्व ‘गेयता’ का दामन थामे रखा।

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का सद्य: प्रकाशित गीत - नवगीत संकलन ‘सड़क पर’ की रचनात्मक-गूढ़ता और बहुआयामिता, परिवेश और परिस्थिति का आवरण हटाकर अभिव्यक्ति के मौलिक संवेदन और विमर्श का दर्शन कराती है। इस संकलन के रचना विधान में नवगीतकार ने शीर्षक (सड़क पर) में ही अपनी विषयवस्तु की मनोवृति का प्रकाशन कर दिया है और उसे लेकर अपनी रचनात्मक या सर्जनात्मक भूमिका को विभिन्न कूचों-कुलियों, पगडंडियों, रास्तों, राजपथों पर प्रश्न के रूप में खड़ा किया है। भाषा, शब्द, मुहावरा, बिम्ब, प्रतीक और प्रयोगों द्वारा उसमें व्याप्त समस्याओं को परोसा ही नहीं है, अपितु गम्भीरतर प्रश्नों के रूप में प्रस्तुत किया है।

संकलन के अंतिम ९ गीतों में उठाए गए मूल्यगत प्रश्न परिचर्चा में वरीयता पर आवश्यक हैं। यथा; सड़क पर बसेरा, कचरा उठा हँस पड़ी जिंदगी, सड़क पर होती फिरंगी सियासत, जमूरा-मदारी का खेल, सड़क पर सोते लोगों को गाड़ी से कुचलना, सड़क विस्तार के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, लव जिहाद, नाचती बारात, हिंसा-वारदात, एम्बुलेंस को रास्ता न देना, सड़क पर गड्ढे, अतिक्रमण, पंचाट, प्यासा राहगीर, सरपट भागती गाड़ियाँ, कालिख हवा में डामल से ज्यादा इत्यादि। नव गीतकार सड़क और भवन निर्माण तकनीक में पारंगत अभियंता है और निर्माण के महत्वपूर्ण तत्वों, रागों, धुनों और सुरों के साथ प्रयुक्त शब्दावलियों को विस्तार से प्रस्तुत करता है। इस उद्यम में अनुभूत वेदना की व्यंजना से रचनात्मकता प्रभावित हुई जान पड़ती है। इतने पर भी नव गीतकार के शिल्प की विशेषता यह है कि उसने वेदना कि तीव्र आवृतियों को आत्मसात किया। अध्ययन-अध्यापन, गहन-चिंतन, विचार-मंथन उपरांत जो परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है, वह भिन्न है। बिंबों, प्रतीकों और मिथकों के सहारे सड़क पर चलता नव गीत-गायक, जब अपनी बात कहता है तो सीधे पाठकों-श्रोताओं के दिल को छू लेती है-

गौतम हौले से पग धरते
महावीर कर नहीं झटकते
’मरा’ नाम जप ‘राम’ पा रहे (सड़क पर- ६ पृ/९२ )

इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं
उस पर यह तुर्रा है खुद को
तीसमारखां पाते हैं
रास न आए
सच कबीर का
हम बुद बुद गुब्बारे हैं। -(दिशाहीन बंजारे-पृ/७२ )

यद्यपि दोराहे, तिराहे और चौराहे पर उपजता मति-भ्रम, सड़क के किनारे योगियों की भाँति साधना रत ट्रेफिक-सिग्नल और मील के पत्थर, सेतु, सुरंग और फ्लाई-ओवर जैसे सड़क-सत्य, कवि की ड्योढ़ी पर खड़े प्रतीक्षा करते रहे कि काश! उन्हें भी इन गीतों में स्थान मिलता।

नव गीतकार सलिल का पूर्व नवगीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। समीक्ष्य-संग्रह में भी बाल सूर्य को बिम्बित किया गया है, खग्रास का सूर्य भी है, वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है।

वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है। प्रकृति के लजीले-सजीले श्रंगार के साथ वह नए-नए बिम्ब तलाशता है। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियाँ, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नवजीवन पा जाना और इन सबसे इतर वर्षागमन से गरीब की जिंदगी में आई उथल-पुथल सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं। हाँ! इनमें अतिवृष्टि और अनावृष्टि की विसंगति भी दृष्टव्य होती है, परंतु जीवनदायिनी प्रकृति के सौन्दर्य के समक्ष क्षणिक दुखों या आवेगों को अनदेखा किया गया है।

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे/ठुमक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे।

नेह निमंत्रण था वसुधा का
झूम उठे बादल कानन
छाछ महेरी संग जिमाए
गुड़ की मीठी डली लली।

जन्मे माखन चोर
हरीरा भक्त पियें
गणपती बप्पा, लाये
मोदक, हुए मजे।

और यहीं से नव गीतकार की चिंता तथा चिंतन शुरू होता है। सही भी है। जब, दसों दिशाओं में श्रम जयकारा गूँज रहा हो, तो वह (मजदूर) दाने-दाने का मोहताज क्यों ? उसके श्रम का अपेक्षित भुगतान क्यों नहीं होता? उसे मूलभूत-सुविधाएं मुहैया क्यों नहीं होतीं? अपने ही देश में मजदूर, प्रवासी-अप्रवासी क्यों?

मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली खाली?
मोती तोंदों के महलों में
क्यों वसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में
सदा बताशा।(चूल्हा झाँक रहा-पृ ३९)

देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुँह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है, बिल्कुल बुंदेलखंड की 'गुलगुला' मिठाई जैसा। कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मल्हम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,

एक महल
सौ कुटी-टपरिया कौन बनाए?
ऊँच-नीच यह
कहो खुपड़िया कौन खपाए?
मेहनत भूखी
चमड़ी सूखी आँखें चमके
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हो न पराए

बहका-बहका
संभल गया पग
बढा रहा पर
ठिठका- ठिठका। -(महका-महका पृ/४२ )

नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सँभल-सँभल
चलना रपट न जाना
मिल-जुल
पार करो पाठ की फिसलन।
लड़ी-झुकी उठ-मिल चुप बोली
नजर नजर से मिली भली -(मन भावन सावन-पृ/२६ )

परंतु यहीं गीतकार “होईहि सोई जो राम रची राखा” की दुहाई देता है---
राजमार्ग हो या पगडंडी
पग की किस्मत
सिर्फ फिसलन। -(पग की किस्मत पृ/६३)

और, दिलासा देते हुए कहता है,

थक मत, रुक मत, झुक मत, चुक मत
फूल-शूल सम, हार न हिम्मत
सलिल मिलेगी पग तल किस्मत
मौन चला चल
नहीं पलटना।(पग की किस्मत –पृ/६३ )

और यहाँ अन्योक्ति में अपनी बात कहता है,

कहा किसी ने,- नहीं लौटता
पुन: नदी में बहता पानी
पर नाविक आता है तट पर
बार-बार ले नई कहानी
दिल में अगर
हौसला हो तो
फिर पहले सी बातें होंगी।
हर युग में दादी होती है
होते है पोती और पोते
समय देखता लाड़-प्यार के
रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते
नयी कहानी
नयी रवानी
सुखमय सारी बातें होंगी। -(कहा किसी ने-पृ/६२)

और सड़क पर गुजरती जिंदगी के मानी समझाता है,

अक्षर, शब्द, वाक्य पुस्तक पढ़
तुझे मिलेगा ज्ञान नया
जीवन पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है। (जिंदगी के मानी-पृ/४८ )

वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी-

जब भी मुड़कर पीछे देखा
गलत मिला कर्मों का लेखा
एक नहीं सौ बार अजाने
लाँघी थी निज किस्मत रेखा
माया ममता
मोह क्षोभ में
फँस पछताए जन्म गवाए। -(सारे जग में---पृ/६४)

बिक रहा
बेदाम ही इंसान है
कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू
व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है
सत्य जिह्वा पर
असत का गान है।
इसका क्या कारण है?-
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो
मान लेता हूँ कि आदम जात से हो ( बिक रहा ईमान पृ/६५ )

कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निशिदिन (आठों प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने कि नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है, समर्थ सहस्त्रबाहु की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है,

घट रहा भूजल
समुद्र तल बढ़ रहा
नियति का पारा
निरंतर बढ़ रहा
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है
दैव एक लुहार की अब जड़ रहा
क्यों करे क्रंदन
कि निकली जान है। -(बिक रहा ईमान—पृ६६)

नवगीतकार सलिल ने मध्यवर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास को स्वर तो दिया है उसमें सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न को भी मुखरित किया है। इसमें विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है, जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।

अपने नव गीतों में दोहा, जनक, सरसी, भजंगप्रयात और पीयूषवर्ष आदि छंदों को स्थान देकर कवि ने गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशजशब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गैल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर। भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुँह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, माँ की सौं, कम लिखता हूँ बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरा), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। छंद-शास्त्री सलिल की रस और अलंकारों पर भी अच्छी पकड़ है, उनके संग्रहित गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारो (उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग किया है। प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,

सागर उथला
पर्वत गहरा
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही
सौ अयोग्य पाये, तो
दस ने पायी वाहवाही
नाली का पानी बहता है
नदिया का जल ठहरा (सागर उथला पृ/५४ )

पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी-शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप-छाँव , सत्य-असत्य, क्रय-विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।

इन नव गीतों में “इलाहाबाद के पथ पर तोड़ती पत्थर”(तोड़ती पत्थर) तथा
“वह आता, पछताता, पथ पर जाता”(भिक्षुक) के भाव व स्वर झंकृत होते हैं। क्यों(?) न हों,महाकवि निराला ही तो वे आदि-गीतकार हैं जिन्होंने पहले-पहले “नव गति नव लय, ताल छंद नव” के मधुर घोष के साथ गीत की कोख से नवगीत के उपजने का पूर्व संकेत दे दिया था।

इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया, वरना सड़क कहाँ जाती है? वह तो जड़वत है, अचलायमान है, उसके न पैर हैं न पहिये, हाँ! उस पर पाँव-पाँव चलकर या हल्के/भारी वाहन दौडाकर अपने गंतव्य तक अवश्य पहुँचा जा सकता है। ‘ऊँघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (ओढ़ कुहासे की पृ/६३) में सतपुड़ा का नींद में ऊँघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियाँ’ (वही नेह नाता पृ/७८) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘हलधर हल धर शहर न जाएं’ का यमक, ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतना तथा ‘पथवारी मैया’ में लोक-चेतना के साथ–साथ दैवीय स्वरूप के दर्शन होते हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।

नव गीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का उम्दा-उपयोग किया है। यदि सम्पादन तथा मुद्रण की भूलों को अनदेखा कर दिया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय संकलन है। अंत में, सुप्रसिद्ध समीक्षाकार राजेंद्र वर्मा के स्वर-से-स्वर मिलाते हुए कहना चाहूँगा कि “इन गीतों में वह जमीन तोड़ने की कोशिश की गई है जो पिछले २०-२५ वर्षों से पत्थर हो गई है उसके सीलने, सौंधेपन, पपड़ाने जैसे गुण नष्ट हो गए हैं, उस भूमि में अंकुरण की संभावना न्यून है।“ फिर भी वह(गीतकार सलिल) मिट्टी पलटा रहा है, फसल-चक्र बदलने का प्रयास कर रहा है।

सलिल के गीतों-नवगीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से करना संभव नहीं है मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, राधेश्याम बंधु, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, नहीं! कदापि नहीं! मेरी निजी मान्यता है कि “सलिल सलिल सम जान” यानि, ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और न्यायसंगत होगा। एक बात-और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन संजीव सलिल इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य पर अच्छी पकड़ है। अध्येता-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं।

गीतकार संजीव वर्मा ‘सलिल’ के इस संग्रह (सड़क पर)के नवगीतों की
रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि आचार्य सलिल आज के नवगीतकारों से पृथक परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नव गीतकार हैं।
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सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ २०१, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
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कृति—सड़क पर (गीत-नवगीत संग्रह) / नवगीतकार –आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’/प्रकाशक-
विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर/ मूल्य- २५०/- मात्र