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मंगलवार, 26 मार्च 2019

चित्रगुप्त

चित्रगुप्त आख्यान
॥ ॐ यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नमः ॥
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं,
‘धर्मराज चित्रगुप्त: श्रवणों भास्करादय:
कायस्थ तत्र पश्यनित पाप पुण्यं च सर्वश:’
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम।
कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
(सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विधमान चित्रगुप्त को प्रमाण। कायस्थ का जन्म यर्थाथ के अन्वेषण (सत्य कि खोज ) हेतु ही हुआ है।
>> यजुर्वेद आपस्तम्ब शाखा चतुर्थ खंड यम विचार प्रकरण से ज्ञात होता है कि महाराज चित्रगुप्त के वंसज चित्ररथ ( चैत्ररथ ) जो चित्रकुट के महाराजाधिराज थे और गौतम ऋषि के शिष्य थे ।
बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे।
चित्रगुप्त: सिथति: स्वर्गे चित्रोहिभूमण्डले।।
चैत्ररथ: सुतस्तस्य यशस्वी कुल दीपक:।
ऋषि वंशे समुदगतो गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यो महाप्रशिचत्रकूटा चलाधिप:।।
“प्राचीन काल में क्षत्रियों में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके
पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र (वंसज ) चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश
के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।”
विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत।
स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने।
वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन।
यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म
किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते
हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है।

शनिवार, 5 जनवरी 2019

दोहा, कुण्डलिया

दोहे
*
सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम 
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम

*
चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान 
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान

*
महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब 
वर्मा संरक्षण करे,  रहे वीरता डूब

*
मित्र मनोहर हो अगर, अभय ज़िंदगी जान 
अभय संग पा मनोहर, जीवन हो रस-खान

*
उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत 
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत

*
कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
***

रविवार, 2 दिसंबर 2018

चित्रगुप्त

चित्रगुप्त वंदना: १
धन-धन भाग हमारे
*
धन-धन भाग हमारे, प्रभु द्वार पधारे। 
शरणागत को ट्रेन, प्रभु द्वार पधारे....

माटी तन, चंचल अंतर्मन,
पारस हो प्रभु कर दो कंचन।
जनगण-प्राण पुकारे,
प्रभु द्वार पधारे....

प्रीत की रीत सदैव निभाई,
लाज भगत की दौड़ बचाई।
कबहुँ न मन से बिसारें,
प्रभु द्वार पधारे....

मिथ्या जग की तृष्णा-माया,
अक्षय प्रभु की अमृत छाया।
'सलिल' ईश-जय गा रे!
प्रभु द्वार पधारे....

संजीव
७९९९५५९६१८  

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

दोहा दुनिया

महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब
वर्मा संरक्षण करे, रहे वीरता डूब
*
चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान
*
सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम
*
उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत 
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत
*

सोमवार, 1 जनवरी 2018

chitragupta dohanjali

चित्रगुप्त दोहांजलि:
*
हे चित्रगुप्त भगवान आपकी जय-जय
हे परमेश्वर मतिमान आपकी जय-जय

हे अक्षर अजर अमर अविनाशी अक्षय
हे अजित अमित गुणवान आपकी जय-जय

हे तमहर शुभकर विधि-हरि-हर के स्वामी
हे आत्मा-प्राण निधान आपकी जय-जय

हे चारु ललित शालीन सौम्य शुचि सुंदर
हे अविकारी संप्राण आपकी जय-जय

हे चिंतन मनन सृजन रचना वरदानी
हे सृजनधर्मिता-खान आपकी जय-जय

बेटे को कहती बाप बाप का दुनिया
विधि-पिता ब्रम्ह संतान आपकी जय-जय

विधि-हरि-हर को प्रगटाकर, विधि से प्रगटे
दिन संध्या निशा विहान आपकी जय-जय

सत-शिव-सुंदर सत-चित-आनंद हो देवा
श्री क्ली ह्री कीर्तिवितान आपकी जय-जय

तुम कारण-कार्य तुम्हीं परिणाम अनामी
हे शून्य सनातन गान आपकी जय-जय

सब कुछ तुमसे सब कुछ तुममें अविनाशी
हे कण-कण के भगवान आपकी जय-जय

हे काया-माया-छाया-पति परमेश्वर
हे सृष्टि-सृजन अभियान आपकी जय-जय
**********

रविवार, 24 दिसंबर 2017

doha

दोहा सलिला:
चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
***

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

chitragupta - kayastha

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?
विजय राज बली माथुर

विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद (बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर के कारण बरेली,शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८  में अपना मकान बना कर बस गए) अब अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में बस गए हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग  लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां दे  रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है. 
*

प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है । 'कायस्थ  बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहराकर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर, आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में  स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ। प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल  जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म  एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के  अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में अंकन के आधार  पर ही मिलता है। अतः, यह पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य  से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत  को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो  लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया है। इस पर्व  को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ, क=काया या ब्रह्मा ; अ=अहर्निश;इ=रहने वाला; स्थ=स्थित।

'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।
आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप  शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे  उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे। अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय  आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान- जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु  अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी  जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।

3-जो लोग व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे ।

4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था ये विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व इनकी शिक्षा प्रदान करने के पात्र थे।

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,
क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया
गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।

कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि -वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक
'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।

खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुए भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

***
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navgeet

नवगीत:  
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४, ७९९९५९६१८ 
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रविवार, 9 अप्रैल 2017

navgeet

नवगीत
संजीव 
.
पूज रहे हैं 
मूरत 
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
 कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.

बुधवार, 15 जून 2016

doha

दोहा सलिला- 
ब्रम्ह अनादि-अनन्त है, रचता है सब सृष्टि 
निराकार आकार रच, करे कृपा की वृष्टि 
*
परम सत्य है ब्रम्ह ही, चित्र न उसका प्राप्त 
परम सत्य है ब्रम्ह ही, वेद-वचन है आप्त 
*
ब्रम्ह-सत्य जो जानता, ब्राम्हण वह इंसान 
हर काया है ब्रम्ह का, अंश सके वह मान
*
भेद-भाव करता नहीं, माने ऊँच न नीच
है समान हर आत्म को, प्रेम भाव से सींच
*
काया-स्थित ब्रम्ह ही, 'कायस्थ' ले जो जान 
छुआछूत को भूलकर, करता सबका मान 
*
राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक 
ईश्वर को प्यारा वही, जिसकी करनी नेक 
*
निर्बल की रक्षा करे, क्षत्रिय तजकर स्वार्थ 
तभी मुक्ति वह पा सके, करे नित्य परमार्थ 
*
कर आदान-प्रदान जो, मेटे सकल अभाव 
भाव ह्रदय में प्रेम का, होता वैश्य स्वभाव 
*
पल-पल रस का पान कर, मनुज बने रस-खान 
ईश तत्व से रास कर, करे 'सलिल' गुणगान 
*
सेवा करता स्वार्थ बिन, सचमुच शूद्र महान 
आत्मा सो परमात्मा, सेवे सकल जहान 
*
चार वर्ण हैं धर्म के, हाथ-पैर लें जान 
चारों का पालन करें, नर-नारी है आन 
*
हर काया है शूद्र ही, करती सेवा नित्य 
स्नेह-प्रेम ले-दे बने, वैश्य बात है सत्य 
*
रक्षा करते निबल की, तब क्षत्रिय हों आप 
ज्ञान-दान, कुछ सीख दे, ब्राम्हण हों जग व्याप 
*
काया में रहकर करें, चारों कार्य सहर्ष 
जो वे ही कायस्थ हैं, तजकर सकल अमर्ष 
*
विधि-हरि-हर ही राम हैं, विधि-हरि-हर ही श्याम 
जो न सत्य यह मानते, उनसे प्रभु हों वाम 
*

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत
संजीव 
.
पूज रहे हैं 
मूरत 
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर में वह
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
.
५.४.२०१४

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

doha salila

दोहा :

सबको हितकर सृजनकर, पायें-दें आनंद
नाद-ताल-रस-भाव-लय, बिम्बित परमानंद

माया-मायापति मिलें, पा-दें शांति तलाश
नेह नर्मदा नित नहा, जीवन बने पलाश 

सुमिर कबीर कबीर के, तोड़ें माया-पाश
सबद रमैनी साखियाँ, पंक्ति-पंक्ति आकाश

रूढ़ि ढोंग आडंबरों, का हो पर्दा फाश
ज्ञान सूर्य मिल दें उगा, आत्मा सकें तराश

राम आत्म परमात्म भी, राम अनादि-अनंत
चित्र गुप्त है राम का, राम सृष्टि के कंत

विधि-हरि-हर श्री राम हैं, राम अनाहद नाद
शब्दाक्षर लय-ताल हैं, राम भाव रस स्वाद

राम नाम गुणगान से, मन होता है शांत
राम-दास बन जा 'सलिल', माया करे न भ्रांत

श्याम भाव मद-मोह का, पल में करता अंत
श्याम विराजें हृदय में, जिसके वह हो संत

श्याम ज्ञान अज्ञान तम, भक्ति अनंत उजास
राग-विराग सुहाग है, श्याम श्वास-प्रश्वास

विश्व राष्ट्र इंसानियत, पर जिसको अभिमान
सबका हित साधे सदा,जो उसका हो मान

सद्विचार सद्गुण रहे, सदा सभी को इष्ट
'सलिल' करे सतकर्म जो, उसके मिटें अनिष्ट

***
   




शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

chiitragupt aur kayasth

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?


विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद
 (बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर
 के कारण बरेली,शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८ 
में अपना मकान बना कर बस गए) अब  अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में  बस गए
 हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में
 भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक
 पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग 
लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां  दे 
रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है. 
*

प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर

कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ 
बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा 
कर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह 
रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में  
स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश 
चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ। 



प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। 

यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म 
शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल 
जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म 
एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के 
अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में  अंकन के आधार 
पर ही मिलता है। अतः, यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य 
से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। 



आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय 

समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत 
को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो 
लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया  है। इस पर्व 
को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
  
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं 
के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 

'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  



आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान 

का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप 
शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे 
उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  
अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिन
विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय 
आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान-
जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु 
अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी 
जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-



1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके

 द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था
 वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने
 के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको
 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी
 को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा
 से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 
 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित
 किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे । 

4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता
था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता
था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व  इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य मान्य थे। 



ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी

योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी
 योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,
क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों
 वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था।
 ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया
 गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ
 समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता
 और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि
-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक
 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको
 शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण
 ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को
 ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।
 खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही
 मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य'
 वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर
 रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के
 प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क
 जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते
 हुए  भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता
 आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

रविवार, 19 अक्टूबर 2014

pustak salila:

पुस्तक सलिला:

चित्रांशोत्सव स्मारिका, प्रकाशक चित्रगुप्त जयंती आयोजन समिति रायपुर

चित्रांशोत्सव १०४ पृष्ठीय पाठ्य सामग्री तथा ३२ पृष्ठीय बहिरंगी विज्ञापन सामग्री से सुसज्जित सुनियोजित स्मारिका है. स्मारिका का मुख्य विषय कायस्थ समाज का इतिवृत्त, संगठन और योगदान है. ऐसी स्मरिकाएँ स्थानीय सहयोगकर्ताओं के योगदान पर निर्भर करती हैं. अतः स्थानीय जनों की मान्यताओं के अनुरूप सामग्री प्रकाशित करती हैं. विविध लेखमों के विविध मतों के अनुसार अंतर्विरोधी सामग्री भी समाहित हो जाती है. चित्रांशोत्सव में एक स्थान पर चित्रगुप्त जी को ब्रम्हा से अवतरित दूसरे लेख में विष्णु का अवतार (नील वर्ण के कारण) कहा गया है. विष्णु के दशावतारों या २१ अवतारों में चित्रगुप्त जी का समावेश नहीं है, अतः यह मत अमान्य है. चित्रगुप्त जी को महामानव, देव, आदिपुरुष या आदि ब्रम्ह क्या माना जाए? इस पर भी विविध लेखों में विविध मत हैं. 
कुछ गणमान्य जनों की जीवनियाँ प्रेरणास्रोत के रूप में देना किन्तु उनके और स्थानीय जनों के साथ एक सामान विशेषण जोड़े जाना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता. इससे स्थानीय सहयोगियों का अहम संतुष्ट भले ही हो कद नहीं बढ़ता अपितु महान व्यक्तित्वों का अवमूल्यन प्रतीत होता है. इतनी साज-सज्जा के साथ निकली स्मारिका में युावा पीढ़ी के मार्गदर्शन, उनकी समस्याओं पर एक शब्द भी न होना विचारणीय है.      


मंगलवार, 25 मार्च 2014

chitragupt rakasya -sanjiv

चित्रगुप्त-रहस्य

संजीव
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान

*

सोमवार, 26 नवंबर 2012

लेख : :चित्रगुप्त रहस्य: आचार्य संजीव 'सलिल'

लेख                                               :चित्रगुप्त रहस्य:                                                                                                     

                                                                              आचार्य संजीव 'सलिल'

*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं

              परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
Photo: JAI CHITRAGUPTA MAHARAJ KI

DHARMVEER KHARE''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''

              अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
            
Photo: Ashutosh Shrivastava
|| चित्रगुप्त चालिसा ||

ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी ||
अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर ||
हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता ||
हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के ||
चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर || 
हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के ||
हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित ||
हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम ||
हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन ||
हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु हृद्‌य के रोमकुसुमघन ||
हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता ||
ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से ||
लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के ||
चक्राकृत गोला मुखमंडल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल ||
अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल स्रष्टा || 
तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो ||
चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन ||
कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में ||
कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो ||
तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित ||
गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन ||
पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के ||
सेवा करूँ अनेको बरसो, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों ||
बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल ||
ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई ||
जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर ||
जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे ||
तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है ||
श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता ||
तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश्य खिल जाए ||
निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये ||
हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्‌भुत योगी ||
मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे ||
चित्रगुप्त कर्मठता दिजे, मुझको वचन बध्दता दीजे ||
कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे ||
आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है ||
मैं बैठा किस्मत पे रोऊ, जो पाया उसको भी खोऊ ||
शब्द-शब्द का अर्थ मांगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते ||
आशीर्वाद आपका चाहू, मैं चरणो की सेवा चाहू ||
सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन || 
~Kayastha~सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं। 

चित्रगुप्त पूर्ण हैं            अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते                                                                                          पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।

चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं  
  
                                                                 
         चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।

अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।                                                 
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।

कर्म ही वर्ण का आधार 


           श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में  बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से  हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।

चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे? 


           श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।

सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
        
 

               आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।

बहुदेव वाद की परंपरा

          इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।

पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य 

        निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
          'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।

उदारता तथा समरसता की विरासत
          यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
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