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शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

३ फरवरी, सॉनेट, सुतवधु, मुक्तिका, संस्मरण, राजेन्द्र प्रसाद, उल्लाला, मुक्तक,

मुक्तिका
*
बादलों का मन धरा पर आ गया।
बूँद होकर भेंट करना भा गया।।

ताब किसमें थी हराता जो हमें।
क्या करे दिल हारकर दिल पा गया।।

नामवर होकर हुआ बदनाम क्यों।
जो रहा गुमनाम नाम कमा गया।।

अब न मन-मंदिर विराजें राम जी।
स्वर्ण मंदिर मोह मन भरमा गया।।

बैठ सत्ता पंक भी चंदन हुआ।
कायलों पे काग गा जाए पा गया।।
३.२.२०२४
***
सॉनेट
सुतवधु
*
सुतवधु आई, पर्व मन रहा।
गूँज रही है शहनाई भी।
ऋतु बसंत मनहर आई सी।।
खुशियों का वातास तन रहा।।
ऊषा प्रमुदित कर अगवानी।
रश्मिरथी करता है स्वागत।
नज़र उतारे विनत अनागत।।
शुभद सुखद हों मातु भवानी।।
जाग्रत धूम्रित श्वास वेदिका।
गुंजित दस दिश ऋचा गीतिका।
परचम ऊँचा रहे प्रीति का।।
वरद रहें नटवर अभ्यंकर।
रहे सुवासित नित मन्वन्तर।
सलिल साधना हो हरी सुखकर।।
३-१-२०२२
***
दोहा
चाह रही मनुहार पर, करती है तकरार।
श्वास-आस में पल रहा, 'सलिल' सनातन प्यार।।
*
व्योम बसे जगदीश से, मिल पाएं कब नैन।
सलिल कर रहा प्रार्थना, मिल जाए अब चैन।।
३.२.२०१८
***
लघुकथा : कल से कल
*
आदि मानव ने प्रकृति (नदियों, झरनों, हवा, भूकंप आदि), जंतुओं, पंछियों, पशुओं आदि के साथ ध्वनि का उच्चार तथा प्रयोग सीखकर उसे अपनी स्मृति में रखने और उसे किसी विशिष्ट अर्थ से संयुक्त कर अपने साथियों और संतति को सिखाने में जैसे-जैसे दक्षता प्राप्त की, वैसे-वैसे वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिकाधिक विकसित होता गया। अपने अनुभवों को चित्रांकित कर, सुरक्षित रखने की विधि विकसित करने के बाद भी वह अपने सब अनुभव अगली पीढ़ी को नहीं दे पा रहा था। अत:, उसने ध्वनि-समुच्चय को अर्थ के साथ जोड़कर शब्द, शब्द समुच्चय से वाक्य और वाक्य को सुरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार किया और अन्य जीवों से अधिक उन्नत हो गया। अपनी शारीरिक कमजोरी को बौद्धिक शक्ति से आवृत्त कर मनुष्य ने शेष सभी जीवों पर जय प्राप्त कर ली। अपने जीवनानुभवों और अनुभूतियों को अन्य जनों से बाँटने की चाह में मनुष्य ने भाषा (वाक् + लिपि), भाषा में गद्य-पद्य की शैलियाँ विकसित कीं। गद्य में वर्णनात्मकता और पद्य में चारुत्व के समावेशन ने मनुष्य को दोनों शैलियों में विविध विधाओं के विकास की और प्रवृत्त किया। लघुकथा गद्य के अंतर्गत विकसित ऐसी ही एक विधा है। इन विधाओं का विकास विश्व के विविध भागों में रह रहे मानव-समूहों में होता रहा जिसका कोई तुलनात्मक विवरण उपलब्ध नहीं है। मानव समूहों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय ये विधाएँ भी स्थानांतरित व विकसित होती रहीं।
आधुनिक लघुकथा की पृष्ठभूमि
आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था। विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छावनियों में हुआ जो लश्करी, रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद परिवर्तन की चाहत पाले युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। आधुनिक हिंदी को उद्भव के साथ ही संस्कृतनिष्ठ तथा बोलचाल की सहज दो शैलियाँ मिलीं। लघुकथा को भी इन दोनों शैलियों के माध्यम से ही आगे बढ़ना पड़ा।
लघुकथा की चुनौतियाँ
स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी रचनाकार सृजन और समीक्षा के मानकों को अपने विचारधारा के अनुरूप ढलने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, चित्रांकन, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया। संभवत: लक्ष्य सामाजिक टकराव को बढ़ाकर सत्ता पाना था किंतु उपलब्धि शिक्षा और साहित्य में विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने तक सीमित रह गई। भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तियुक्त है। पराभव काल में अशिक्षा, छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और जन्मना वर्ण विभाजन जैसी बुराइयाँ पनपीं किन्तु स्वतंत्रता की चाह ने एकता बनाए रखी। स्वाधीनता के पश्चात् सर्वोदय और नक्सलवाद जैसे समांतरी आंदोलल चले। उनके अनुरूप साहित्य की रचना हुई। लघुकथा को आरंभ में उपेक्षा और अवमानना झेलनी पड़ी। तथाकथित प्रगतिशीलों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में टकराव और बिखराव केंद्रित जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। कोढ़ में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की।
लघुकथा और पहचान का संकट कोई उपयोगी बात बार-बार कही जाने पर, वक्ता उसे अधिकाधिक रोचक बनाने के साथ देश-काल-परिस्थिति अनुसार कुछ जोड़ता-घटाता रहा। इस तरह कहने की कला का जन्म और विकास हुआ जिसे कहानी कहा गया। कहानी को गागर में सागर की तरह कम शब्दों में अधिक सार कहने को 'लघुकथा' संज्ञा प्राप्त हुई। हिंदी की आधुनिक लघुकथा, छोटी कहानी (शार्ट स्टोरी) नहीं है। उपन्यास, उपन्यासिका (आख्यायिका), कहानी, छोटी कहानी और लघुकथा में मुख्य अंतर उनके कथ्य में समाहित घटनाओं की संख्या और उन घटनाओं में अन्तर्निहित घटनाओं का होता है। उपन्यास समूचे जीवन, अनेक घटनाओं तथा अनेक पात्रों का समुच्चय होता है। उपन्यासिका अपेक्षाकृत कम कालावधि, पात्रों व घटनाओं को समेटती है। कहानी में कुछ घटनाएँ, जीवन का कुछ भाग, पात्रों का चरित्र-चित्रण आदि होता है। छोटी कहानी अपेक्षाकृत कम समय, कम घटनाओं, कम पात्रों से बनती है। लघुकथा क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्य-बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है। अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी (स्टोरी) लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की होती है। हिंदी लघु कथा सामान्यत: एक घटना पर केंद्रित, कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होती है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है 'लघुकथा' नहीं। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा' में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'
'लघु' अर्थात आकार में छोटी, 'कथा' अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। 'कहने' का कोई उद्देश्य भी होता ही है। उद्देश्य की विविधता लघुकथा के वर्गीकरण का आधार होती है। बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इनके माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गईं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई। दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाए रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आए संकटों-कष्टों के कारण शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बदलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाए रह सका।
लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी ने भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है।
सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघुकथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघुकथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत:, वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित करना सर्वमान्य कैसे हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति?
'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के संदर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है। अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?
लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रुचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोड़नेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।
सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से साँस लेने दी जाए। स्व. नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पाश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है? सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते हैं जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल विचारधारा विशेष को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में करने की परंपरा शासक दल को अपनी विचारधारा थोपने की ओर प्रवृत्त करेगा। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर देश की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा ही लघुकथा का मानक होना उचित है। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा 'माँ विहीन' कैसे हो सकता है? हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसकी शैली और विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किंतु किसी विचारधारा विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बंद करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।
लघुकथा के तत्व
कुँवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिकता एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'
बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, संदेश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व। बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'।नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे?
लघुकथा के तत्व
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री के अध्ययन-मनन से स्पष्ट है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३. तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग व विचार उपजते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
लघुकथा का उद्देश्य
लघुकथा का उद्देश्य घटित या विचारित कथ्य को प्रभावी या मारक रूप में पाठक-श्रोता तक पहुँचाना है। लघुकथाकार इस हेतु उपयुक्त शब्दावली, भाषा शैली, शिल्प (संवाद या वर्णन) का चयन करे किन्तु उसमें अपनी और से यथासंभव कुछ न कहे। लघुकथा से शिक्षा देना या न देना, बोध होना या न होना। किसी समस्या का समाधान होना या न होना जैसे बिंदुओं से लघुकथाकार को प्रेरित नहीं होना चाहिए किन्तु बचना भी नहीं चाहिए। निर्लिप्त भाव से कथ्य प्रस्तुति ही लघुकथाकार का साध्य है। एक ही लघुकथा से कोई पाठक कुछ ग्रहण कर सकता है तो दूसरा नहीं भी ग्रहण कर सकता है। लघुकथा निष्पक्षता, निस्संगता, तटस्थता तथा लेखकीय वैचारिक ईमानदारी की माँग करती है। कल से आज तक की रचना यात्रा में लघुकथा के कथ्य, शिल्प और विन्यास में जितने परिवर्तन हुए हैं उनसे अधिक परिवर्तन आज से कल की यात्रा में होना निश्चित है। परिवर्तन ही जीवन है हुए लघुकथा जीवित रहेगी यह मेरा विश्वास है।
***:
सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४
२. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७
***
मुक्तिका
*
लिखें हजल
कहें गजल
न जा शहर
उगा फसल
भुला बहर
कहें सजल
पुरा न तज
बना नवल
लिखें न खुद
करें नकल
रहे विमल
बहे सलिल
जमा कदम
नहीं फिसल
३-२-२०२०
***
संस्मरण
जैसे को तैसा
एक बार पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद नाव से अपने गाँव जा रहे थे। नाव में कई लोग सवार थे। राजेंद्र बाबू के नजदीक ही एक अंग्रेज बैठा हुआ था। वह बार-बार राजेंद्र बाबू की तरफ व्यंग्य से देखता और मुस्कराने लगता। कुछ देर बाद अंग्रेज ने उन्हें तंग करने के लिए एक सिगरेट सुलगा ली और उसका धुआँ जानबूझकर राजेंद्र बाबू की ओर फेंकता रहा।
कुछ देर तक राजेंद्र बाबू चुप रहे। लेकिन वह काफी देर से उस अंग्रेज की ज्यादती बर्दाश्त कर रहे थे। उन्हें लगा कि अब उसे सबक सिखाना जरूरी है। कुछ सोचकर वह अंग्रेज से बोले- 'महोदय! यह जो सिगरेट आप पी रहे हैं क्या आपकी है?' यह प्रश्न सुनकर अंग्रेज व्यंग्य से मुस्कराता हुआ बोला 'मेरी नहीं तो क्या तुम्हारी है? मँहगी और विदेशी सिगरेट है।'
अंग्रेज के इस वाक्य पर राजेंद्र बाबू बोले, 'बड़े गर्व से कह रहे हो कि विदेशी और मँहगी सिगरेट तुम्हारी है तो फिर इसका धुआँ भी तुम्हारा ही हुआ न? हम पर क्यों फेंक रहे हो? तुम्हारी सिगरेट तुम्हारी चीज है। इसलिए अपनी हर चीज संभाल कर रखो। इसका धुआँ हमारी ओर नहीं आना चाहिए। अगर इस बार धुआँ हमारी ओर मुड़ा तो सोच लेना कि तुम अपनी जबान से ही मुकर जाओगे। तुम्हारी चीज तुम्हारे पास ही रहनी चाहिए, चाहे वह सिगरेट हो या धुआँ।'
राजेंद्र प्रसाद का यह दो टूक जवाब सुनकर अंग्रेज दंग रह गया। उसे सबके सामने लज्जित होना पड़ा और उसने उसी क्षण वह सिगरेट बुझाकर फेंक दी। पूरे रास्ते वह मुँह झुकाकर बैठा रहा और समझ गया कि किसी पर व्यर्थ व्यंग्य करना भारी भी पड़ सकता है।
३-२-२०१४
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
३-२-२०१३
***
दोहा सलिला
दोहा-दर्पण में दिखे, देश-काल का सत्य.
देख सके तो देख ले, कितना कहाँ असत्य..
सुर नर मुनि सबने कहे दोहे, होकर मस्त.
असुर न दोहा कह सके, नष्ट हुए हो त्रस्त..
काव्य-गगन का सूर्य है, दोहा कीर्ति अनंत.
जो दोहे में लीन हो, उसका मन हो संत..

श्री वास्तव में समाहित, है दोहे में मीत.
स्नेह-सलिल की लहर बन, दोहा बाँटे प्रीत..
१८.१२.२००९ 
***

शनिवार, 30 दिसंबर 2023

चित्रगुप्त, दोहा, पौधारोपण, अल्ज़ाइमर्स, संस्मरण, नवगीत, आल्हा, नव वर्ष, छंद, लघुकथा, सॉनेट, गजल

ग़ज़ल • गमे-दौरां जो सताए तो ग़ज़ल होती है। इश्क आँसू में नहाए तो ग़ज़ल होती है।। गुले-गुलशन को जुदा शाख से करके माली बेच बाजार में आए तो ग़ज़ल होती है।। दिखा के भोग बुतों को ये पुजारी खाएँ। भक्त भूखों को भगाएँ तो ग़ज़ल होती है।। करें वादे, मिले सत्ता तो कहें है जुमला। ठेंगा जनता को दिखाएँ तो ग़ज़ल होती है।। बिठा काँधे पे पिता सुत को दिखाए दुनिया। जलाने पूत दे कंधा तो ग़ज़ल होती है ३०.१२.२०२३ •••
सॉनेट
अलविदा
*
अलविदा उसको जो जाना चाहता है, तुरत जाए।
काम दुनिया का किसी के बिन कभी रुकता नहीं है?
साथ देना चाहता जो वो कभी थकता नहीं है।।
रुके बेमन से नहीं, अहसान मत नाहक जताए।।
कौन किसका साथ देगा?, कौन कब मुँह मोड़ लेगा?
बिना जाने भी निरंतर कर्म करते जो न हारें।
काम कर निष्काम,खुद को लक्ष्य पर वे सदा वारें।।
काम अपना कर चुका, आगे नहीं वह काम देगा।।
व्यर्थ माया, मोह मत कर, राह अपनी तू चला चल।
कोशिशों के नयन में सपने सदृश गुप-चुप पला चल।
ऊगना यदि भोर में तो साँझ में हँसकर ढला चल।
आज से कर बात, था क्या कल?, रहेगा क्या कहो कल?
कर्म जैसा जो करेगा, मिले वैसा ही उसे फल।।
मुश्किलों की छातियों पर मूँग तू बिन रुक सतत दल।।
३०-१२-२०२१
*** 
सॉनेट
ठंड
*
ठंड ठिठुरती गर्म सियासत।
स्वार्थ-सिद्धि ही बनी रवायत।
ईश्वर की है बहुत इनायत।।
दंड न देता सुने शिकायत।।
पाँच साल को सत्ता पाकर।
ऐंठ रहे नफरत फैलाकर।
आपन मूँ अपना गुण गाकर।।
साधु असाधु कर्म अपनाकर।।
जला झोपड़ी आग तापते।
मुश्किल से डर दूर भागते।
सच सूली पर नित्य टाँगते।।
झूठ बोलकर वोट माँगते।।
मत मतदान कभी करना बिक।
सदा योग्य पर ही रहना टिक।।
३०-१२-२०२१
***
लघुकथा:
ठण्ड
*
बाप रे! ठण्ड तो हाड़ गलाए दे रही है। सूर्य देवता दिए की तरह दिख रहे हैं। कोहरा, बूँदाबाँदी, और बरछी की तरह चुभती ठंडी हवा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि कार्यालय जाना भी जरूरी और काम निबटाकर लौटते-लौटते अब साँझ ढल कर रात हो चली है। सोचते हुए उसने मेट्रो से निकलकर घर की ओर कदम बढ़ाए। हवा का एक झोंका गरम कपड़ों को चीरकर झुरझुरी की अनुभूति करा गया।
तभी चलभाष की घंटी बजी, भुनभुनाते हुए उसने देखा, किसी अजनबी का क्रमांक दिखा। 'कम्बख्त न दिन देखते हैं न रात, फोन लगा लेते हैं' मन ही मन में सोचते हुए उसने अनिच्छा से सुनना आरंभ किया- "आप फलाने बोल रहे हैं?" उधर से पूछा गया।
'मेरा नंबर लगाया है तो मैं ही बोलूँगा न, आप कौन हैं?, क्या काम है?' बिना कुछ सोचे बोल गया। फिर आवाज पर ध्यान गया यह तो किसी महिला का स्वर है। अब कडुवा बोल जाना ख़राब लग रहा था पर तोप का गोला और मुँह का बोला वापिस तो लिया नहीं जा सकता।
"अभी मुखपोथी में आपकी लघुकथा पढ़ी, बहुत अच्छी लगी, उसमें आपका संपर्क मिला तो मन नहीं माना, आपको बधाई देना थी। आम तौर पर लघुकथाओं में नकली व्यथा-कथाएँ होती हैं पर आपकी लघुकथा विसंगति इंगित करने के साथ समन्वय और समाधान का संकेत भी करती है। यही उसे सार्थक बनाता है। शायद आपको असुविधा में डाल दिया... मुझे खेद है।"
'अरे नहीं नहीं, आपका स्वागत है.... ' दाएँ-बाएँ देखते हुए उसने सड़क पार कर गली की ओर कदम बढ़ाए। अब उसे नहीं चुभ रही थी ठण्ड।
***
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
***
बैठे-ठाले
रक्तसमूह और आप
ए + = अच्छे नायक, नेता
ए - = परिश्रमी
बी + = त्याग
बी - = स्वार्थी, स्वकेन्द्रित, अड़ियल
ओ + = परोपकारी, मददगार
ओ - = संकीर्ण दृष्टि
एबी + = जटिल, कठिन
एबी - = मेधावी
३०-१२-२०२१
***
छंद क्या है?
*
छंद क्या है?
छंद रस है,
रस बिना नीरस न होना
निराशा में पथ न खोना
चीरकर तम, कर उजाला
जागरण का गान होना
*
छंद क्या है?
छंद लय है
प्राणप्रद गंधित मलय है
सत्य में शिव का विलय है
सत्य सुंदर तभी शिव है
असुंदर के हित प्रलय है
*
छंद क्या है?
छंद ध्वनि है
नाद अनहद सृष्टि रचता
वीतरागी सतत भजता
डूब रागी गा-बजाता
शब्द सार्थक हो हुलसता
*
छंद क्या है?
छंद जग है
कथ्य कहता हुआ पग है
खुशी वरता हुआ डग है
कभी कलकल; कभी कलरव
दर्द पर विजयी सुमग है
*
छंद क्या है?
छंद जय है
सर्वहित की बात बोले
स्वार्थ विष किंचित् न घोले
अमिय औरों को पिलाए
नीलकंठी अभय डोले
*
छंद रस है
छंद लय है
छंद ध्वनि है
छंद जग है
छंद जय है
२९-१२-२०१९
***
गीत :
*
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सत्रह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अँधियारे की दीवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सत्रह साला
सदी हुई यह
***
***
नवगीत
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
३०-१२-२०१७
***
सामयिक आल्हा
*
मचा महाभारत भारत में, जन-गण देखें ताली पीट
दहशत में हैं सारे नेता, कैसे बचे पुरानी सीट?
हुई नोटबंदी, पैरों के नीचे, रही न हाय जमीन
कौन बचाए इस मोदी से?, नींद निठुर ने ली है छीन
पल भर चैन न लेता है खुद, दुनिया भर में करता धूम
कहे 'भाइयों-बहनों' जब भी, तभी सफलता लेता चूम
कहाँ गए वे मौनी बाबा?, घपलों-घोटालों का राज
मनमानी कर जोड़ी दौलत, घूस बटोरी तजकर लाज
हाय-हाय हैं कैसे दुर्दिन?, छापा पड़ता सुबहो-शाम
चाल न कोई काम आ रही, जब्त हुआ सब धन बेदाम
जन-धन खातों में डाला था, रूपया- पीट रहे अब माथ
स्वर्ण ख़रीदा जाँच हो रही, बैठ रहा दिल खाली हाथ
पत्थर फेंक करेगा दंगा, कौन बिना धन? पिट रइ गोट
नकली नोट न रहे काम के, रोज पड़े चोटों पर चोट
ताले तोड़ आयकरवाले, खाते-बही कर रहे जब्त
कर चोरी की पोल खोलते, रिश्वत लेंय न कैसी खब्त?
बेनामी संपत्ति बची थी, उस पर ली है नजर जमाय
हाय! राम जी-भोले बाबा, हनुमत कहूँ न राह दिखाय
छोटे नोट दबाये हमीं ने, जनता को है बेहद कष्ट
चूं न कर रहा फिर भी कोई, समय हो रहा चाहे नष्ट
लगे कतारों में हैं फिर भी, कहते नीति यही है ठीक
शायर सिंह सपूत वही जो, तजे पुरानी गढ़ नव लीक
पटा लिया कुछ अख़बारों को, चैनल भरमाते हैं खूब
दोष न माने फिर भी जनता, लुटिया रही पाप की डूब
चचा-भतीजे आपस में भिड़, मोदी को करते मजबूत
बंद बोलती माया की भी, ममता को है कष्ट अकूत
पाला बदल नितिश ने मारा, दाँव न लालू जाने काट
बोल थके है राहुल भैया, खड़ी हुई मैया की खाट
जो मैनेजर ललचाये थे, उन पर भी गिरती है गाज
फारुख अब्दुल्ला बौराया, कमुनिस्टों का बिगड़ा काज
भूमि-भवन के भाव गिर रहे, धरे हाथ पर हाथ सुनार
सेठ अफसरों नेताओं के ठाठ, न बाकी- फँसे दलाल
रो-रो सूख रहे हैं आँसू, पिचक गए हैं फूले गाल
जनता जय-जयकार कर रही, मोदी लिखे नाता इतिहास
मन मसोस दिन-रात रो रहे, घूसखोर सब पाकर त्रास
३०-१२-२०१६
***
नव वर्ष गीत :
*
सोलह साला
सदी हुई यह
*
सपनीली आँखों में आँसू
छेड़ें-रेपें हरदिन धाँसू
बहू कोशिशी झुलस-जल रही
बाधा दियासलाई सासू
कैरोसीन ननदिया की जय
माँग-दाँव पर
लगी हुई सह
सोलह साला
सदी हुई यह
*
मालिक फटेहाल बेचारा
नौकर का है वारा-न्यारा
जीना ही दुश्वार हुआ है
विधि ने अपनों को ही मारा
नैतिकता का पल-पल है क्षय
भाँग चाशनी
पगी हुई कह
सोलह साला
सदी हुई यह
*
रीत पुरातन ज्यों की त्यों है
मत पूछो कैसी है?, क्यों है?
कहीं बोलता है सन्नाटा
कहीं चुप्प बैठी चिल्ल-पों है
अंधियारे की दिवाली में
ज्योति-कालिमा
सगी हुई ढह
सोलह साला
सदी हुई यह
***
नवगीत
*
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
वही रफ़्तार बेढंगी
जो पहले थी, सो अब भी है
दिशा बदले न गति बदले
निकट हो लक्ष्य फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हरेक चेहरा है दोरंगी
न मेहनत है, न निष्ठा है
कहें कुछ और कर कुछ और
अमिय हो फिर गरल कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
*
हुई सद्भाव की तंगी
छुरी बाजू में मुख में राम
धुआँ-हल्ला दसों दिश है
कहीं हो अमन फिर कैसे?
न मैं सुधरूँ
न तुम सुधरो
कहो हो साल शुभ कैसे?
३०-१२-२०१५
***
संस्मरण
।। पुरस्कार यदि काट न खाय तो ।।
‘'सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारेलाल भार्गव को लखनऊ भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था - आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तक तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही हैं। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।
अतः मैंने कार्ड का तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाय तो मुझे किसी हालत में उसका भेजा जाना नागवार न गुजरेगा।’ कुछ दिन बाद ही ५ रूपये का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपत्नीक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रूपयों का हम लोगों को नशा-सा रहा।’'
- आचार्य चतुरसेन शास्त्री
***
अल्ज़ाइमर्स की दवा का अमरीकी पेटेंट बीएचयू को
मनीष कुमार मिश्रा
बीएचयू अल्ज़ाइमर्स पेटेंट
काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) को अल्ज़ाइमर की दवा बनाने का अमरीकी पेटेंट हासिल हुआ है.
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के आयुर्वेद विभाग को यह अमरीकी पेटेंट हासिल हुआ है.
संबंधित समाचारकैसा होता है अल्ज़ाइमर के साथ जीना?कैसे देखरेख होती है अलज़ाइमर के मरीजों की...जल्दी चलेगा अल्ज़ाइमर्स का पताइससे जुड़ी ख़बरें
टॉपिकभारत
अल्ज़ाइमर्स बुढ़ापे में होने वाली बीमारी. इसमें यादाश्त चली जाती है. उम्र बढ़ने के साथ ही इसका दुष्प्रभाव भी बढ़ता जाता है.
आयुर्वेद विभाग के प्रमुख डॉ गोविंद प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि भारत में परंपरागत रूप से औषधीय गुणों वाले पौधौं से दवा बनाने का काम किया जाता रहा है.
इन्हीं परंपरागत औषधियों को आधार बनाकर विभाग ने ब्राह्मी कल्प, वराही कल्प और अम्ल वेतक नाम से अल्ज़ाइमर, पार्किंसन और बुढ़ापे को कम करने वाली दवाएं विकसित की गई हैं.
डॉ गोविंद के अनुसार इन तीनों दवाओं का अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की स्टैंडर्ड लैबोरेट्री में परीक्षण कर इन्हें प्रमाणित किया गया है.
ब्राम्ही कल्प, वराही कल्प और अम्ल वेतक आयुर्वेदिक दवाओं का अमरीका की फ़ेडरल ड्रग एजेंसी (एफ़डीए) द्वारा मान्य प्रयोगशाला में परीक्षण भी किया गया.
बिज़नेस प्लानबीएचयू अल्ज़ाइमर्स पेटेंट
बीएचयू की दवाइयों का जापान और ऑस्ट्रेलिया की लैब में भी परीक्षण किया गया.
डॉ गोविंद ने बताया कि इन दवाओं के चिकित्सकीय परीक्षण के लिए चार संस्थानों को अधिकृत किया गया है. ये हैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), एसआरएम यूनिवर्सिटी, आदेश यूनिवर्सिटी- भटिंडा और जिनोम फ़ाउंडेशन- हैदराबाद.
इन चार संस्थानों ने चेन्नई के अरविंद रेमेडीज़ लिमिटेड के साथ इन तीनों दवाओं की ग्लोबल मार्केटिंग के लिए समझौता किया है.
अरविंद रेमेडीज़ लिमिटेड अमरीका की फ़ेडरल ड्रग एजेंसी से अनुमति, प्रमाणन और प्रायोजन के साथ सभी ख़र्च वहन करने के लिए सहमत हो गई है.
अरविंद रेमेडीज़ लिमिटेड बीएचयू और अन्य सहयोगी संगठनों में दवा के निर्माण के लिए धन उपलब्ध करवाएगी.
इसके संबंध में फ़ैसला बीएचयू के वाइस चांसलर पद्मश्री लालजी सिंह की अध्यक्षता में हुई बिज़नेस सेल की मीटिंग में लिया गया.
डॉ गोविंद कहते हैं कि ये दवाएं अल्ज़ाइमर, पार्किंसन और बुढ़ापे के असर को कम करने के अलावा अवसाद, अनिद्रा और स्मरण शक्ति के कमज़ोर होने पर प्रयोग में लाई जा सकती है.
वो दावा करते हैं कि इन दवाओं के प्रयोग का शरीर पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.
डॉ गोविंद कहते हैं कि इन दवाओं के बाज़ार में आ जाने से इन बीमारियों के मरीज़ों और उनके परिजनों को काफ़ी राहत मिलेगी.
आभार शीला मदान (गुड्डो दादी)
२९-१२-२०१३
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दोहा सलिला:
पौधारोपण कीजिए
संजीव
*
पौधारोपण कीजिए, शुद्ध हो सके वायु
जीवन जियें निरोग सब, मानव हो दीर्घायु
*
एक-एक ग्यारह हुए, विहँसे बारह मास
तेरह पग चलकर हरें, 'सलिल' सभी संत्रास
*
मैं-तुम मिल जब हम हुए, मंज़िल मिली समीप
हों अनेक जब एक तो, तम हरते बन दीप
*
चेतन जब चैतन्य हो, तब होता संजीव
अंतर्मन शतदल सदृश, खिल होता राजीव
*
विजय-पराजय से रहे, जब अंतर्मन दूर
प्रभु-कीर्तन पल-पल करे, श्वासों का संतूर
*
जब तक रीतेगा नहीं, आकांक्षा का कोष
जब तक पायेगा नहीं, अंतर्मन संतोष
*
नित लाती है रवि-किरण, दिनकर का पैगाम
लाली आती उषा के, गालों पर सुन नाम
*
आशीषों की रोटरी, कोशिश की हो राह
वाह परिश्रम की करें, मन में पले न डाह
*
अंकुर पल्लव पौध ही, बढ़ बनते उद्यान
संरक्षण पा ओषजन, से दें जीवन दान
३०-१२-२०१३
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लेख - चित्रगुप्त रहस्य
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्ण देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
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पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
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परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में
अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
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बिदाई गीत:
अलविदा दो हजार दस...
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अलविदा दो हजार दस
स्थितियों पर
कभी चला बस
कभी हुए बेबस.
अलविदा दो हजार दस...
तंत्र ने लोक को कुचल
लोभ को आराधा.
गण पर गन का
आतंक रहा अबाधा.
सियासत ने सिर्फ
स्वार्थ को साधा.
होकर भी आउट न हुआ
भ्रष्टाचार पगबाधा.
बहुत कस लिया
अब और न कस.
अलविदा दो हजार दस...
लगता ही नहीं, यही है
वीर शहीदों और
सत्याग्रहियों की नसल.
आम्र के बीज से
बबूल की फसल.
मंहगाई-चीटी ने दिया
आवश्यकता-हाथी को मसल.
आतंकी-तिनका रहा है
सुरक्षा-पर्वत को कुचल.
कितना धँसेगा?
अब और न धँस.
अलविदा दो हजार दस...
३०-१२-२०१०
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