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शनिवार, 8 नवंबर 2014

geetika chhand:

छंद सलिला:
गीतिका छंद
संजीव 
*
छंद लक्षण: प्रति पद २६ मात्रा, यति १४-१२, पदांत लघु गुरु
लक्षण छंद:
लोक-राशि गति-यति भू-नभ , साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ- अंत , गीतिका छंद कहते
उदाहरण:
१. चौपालों में सूनापन , खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो , धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें , बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता , अगड़े हों या पिछड़े
२. आइए, फरमाइए भी , ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी , और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह , मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब? , रात लाती प्रात है
३. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
*

शनिवार, 2 जनवरी 2010

गीतिका: तुमने कब चाहा दिल दरके? --संजीव वर्मा 'सलिल'

गीतिका

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तुमने कब चाहा दिल दरके?

हुए दिवाने जब दिल-दर के।

जिन पर हमने किया भरोसा

वे निकले सौदाई जर के..

राज अक्ल का नहीं यहाँ पर

ताज हुए हैं आशिक सर के।

नाम न चाहें काम करें चुप

वे ही जिंदा रहते मर के।

परवाजों को कौन नापता?

मुन्सिफ हैं सौदाई पर के।

चाँद सी सूरत घूँघट बादल

तृप्ति मिले जब आँचल सरके.

'सलिल' दर्द सह लेता हँसकर

सहन न होते अँसुआ ढरके।

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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

गीतिका: वक्त और हालात की बातें --संजीव 'सलिल'

गीतिका

संजीव 'सलिल'

वक्त और हालात की बातें
खालिस शह औ' मात की बातें..

दिलवर सुन ले दिल कहता है .
अनकहनी ज़ज्बात की बातें ..

मिलीं भरोसे को बदले में,
महज दगा-छल-घात की बातें..

दिन वह सुनने से भी डरता
होती हैं जो रात की बातें ..

क़द से बहार जब भी निकलो
मत भूलो औकात की बातें ..

खिदमत ख़ुद की कर लो पहले
तब सोचो खिदमात की बातें ..

'सलिल' मिले दीदार उसी को
जो करता है जात की बातें..
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बुधवार, 23 दिसंबर 2009

गीतिका: बिना नाव पतवार हुए हैं --संजीव 'सलिल'

गीतिका:





संजीव 'सलिल'


बिना नाव पतवार हुए हैं.

क्यों गुलाब के खार हुए हैं.


दर्शन बिन बेज़ार बहुत थे.

कर दर्शन बेज़ार हुए हैं.


तेवर बिन लिख रहे तेवरी.

जल बिन भाटा-ज्वार हुए हैं.


माली लूट रहे बगिया को-

जनप्रतिनिधि बटमार हुए हैं.


कल तक थे मनुहार मृदुल जो,

बिना बात तकरार हुए हैं.


सहकर चोट, मौन मुस्काते,

हम सितार के तार हुए हैं.


महानगर की हवा विषैली.

विघटित घर-परिवार हुए हैं.


सुधर न पाई है पगडण्डी,

अनगिन मगर सुधार हुए हैं.


समय-शिला पर कोशिश बादल,

'सलिल' अमिय की धार हुए हैं.

* * * * *

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

गीतिका: अपने मन से हार रहे हैं -संजीव 'सलिल'

गीतिका

आचार्य संजीव 'सलिल'

अपने मन से हार रहे हैं.
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥

गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥

जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥

दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥

शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥

राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥

हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥

नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥

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गुरुवार, 19 नवंबर 2009

तेवरी -संजीव 'सलिल'

: तेवरी :

संजीव 'सलिल'


दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..

मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..

बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..

पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..

बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..

मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..

धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..

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