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रविवार, 12 जुलाई 2009

परिचर्चा: चिट्ठाकारी और टिप्पणी-लेखन

परिचर्चा:

यह परिचर्चा सभी के लिए खुली है. आप अपनी राय दें... टिप्पणी देने का औचित्य, तरीका, आकर, प्रकार, शब्दों का प्रयोग, शैली, शिल्प आदे विविध पक्षों पर लिखें - सं.


क्या हिन्दी जगत में ब्लॉग पर टिप्पणी पाने के लिए खुद भी उनके ब्लॉग पर टिपियाना ज़रूरी है ???


हिंदी जगत में चिट्ठाकारी (ब्लोगिंग) का उपयोग अन्यत्र से बिलकुल अलग है. मूलतः चिटठा का उपयोग व्यक्तिगत दैनन्दिनी (डायरी) की तरह किया जाता है किन्तु हिंदी या भारत में यह सामूहिक मंच बन गया है. साहित्य में तो इसने अंतर्जाल पत्रिका का रूप भी ले लिया है. विविध रुचियों और विषयों की रचनाएँ परोसी जा रही हैं. सामान्यतः जो विधाओं के निष्णात हैं वे तकनीक से पूरी तरह अनजान या अल्प जानकर हैं. तकनीक के निष्णात जन बहुधा विधाओं में निपुण नहीं हैं. हिंदी का दुर्भाग्य यह कि ये दोनों पूरक कम स्पर्धी अधिक हैं.

कविता 'गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई' की तरह हर किसी के मन बहलाव का साधन बन गयी है. हर साक्षर महाकवि और युगकवि बनने के मोह में अपने लिखे को भेजने और उन पर प्रशंसात्मक टिप्पणियों के लिए आग्रह करने लगा है. इसी क्रम में टिप्पणियों का आदान-प्रदान और चंद शब्दों का प्रयोग हो रहा है.

रूपाकारविहीन कविता को 'सुन्दर' कहा जा रहा है तोजबकि क्या रूपवती को 'स्वादिष्ट' कहेंगे? दर्द से भरी मर्मस्पर्शी कविता पर 'आह'' नहीं 'वाह' की जा रही है. किसी साहित्यिक विधा के मापदंडों को समझने के स्थान पर खारिज करने का दौर है. 'चोरी और सीनाजोरी' का आलम यह की कोइ जानकार कमी बता दे तो नौसिखिया ताल ठोंककर कहता है 'यह मेरी स्टाइल है'.

टिप्पणी से कोई अमर नहीं होता, अपना प्रचार आप कर प्रशंसा जुटानेवाला भी जनता है की बहुधा किसी रचना को पढ़े बिना ही टिप्पणी ठोंक दी जाती है. बहुत खूब, सराहनीय, लिखते रहिये, क्या बात है? अथवा रचना की कुछ पंक्तियों को कॉपी-पेस्ट करना आम हो गया है. समय बिताना या खुद को महत्वपूर्ण मानने का भ्रम पलना ही इस स्थिति का कारण है.
अच्छी रचनाओं को समझनेवाले कम हैं तो बहुत टिप्पणियाँ कहाँ से आएँगी? इस स्थिति में सुधर केवल तभी संभव है जब जानकार रचनाकार एक-दुसरे को लगातार पढें, तिपानी करें और नासमझों के टिप्पणी भेजने के आग्रह पर मौन रहें.

सामान्यतः रचना किसी योग्य न होने पर भी शिष्टता-शालीनता के नाते उत्साहवर्धन के लिए लिखी गयी टिप्पणियों का उपयोग आत्म-प्रचार में यह कहकर होता है कि इतने योग्य व्यक्ति ने भी इसे सराहा है. अर्चनाओं पर टिप्पणी में गुण-दोषों का विवेचन हो तो हर दिन शतक नहीं लगाया जा सकता. टिप्पणियों के गुण-स्तर या सामग्री को परखे बिना सिर्फ संख्या के आधार पर पुरस्कार देनेवाले भी इस अराजकता के जिम्मेदार हैं.

सारतः यह सत्य है कि 'सब चलता है' और 'लघु-मार्ग (शोर्ट कट) के आदी हम टिप्पणियों में भी बेईमानी पर उतारू हैं. बहुधा प्रशंसात्मक टिपण्णी-लेखन आदान-प्रदान (व्यापार) ही है. अल्प अंश में अच्छे रचनाकार, विद्वान् विवेचक तथा सुधी पाठक भी टिपण्णी करते हैं और ऐसी एक भी टिप्पणी मिल जाये तो रचनाकर्म सार्थक लगता है. मैं अपने रचनाओं को मिलनेवाली ऐसी टिप्पणियों को ही महत्त्व देता हूँ संख्या को नहीं.