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शनिवार, 29 मार्च 2025

मार्च २९, पियानो, रामकिंकर, रंगमंच, होली, संस्कार छंद, रस, रात्रि सूक्त, चिंतन, फागुन

सलिल सृजन मार्च २९
पियानो दिवस
*
चिंतन 
- मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
- 'धुएँ' की जगह 'हवा' कर लें तो यह सूत्र बहुत काम का है।
- मन 'सामान सौ बरस का है, कल की खबर नहीं' का सच स्वीकार ले तो गरीबी में भी अभाव नहीं होगा। 
- मनुष्य की सब समस्याओं का कारण संचय-वृत्ति है।
- पूत सपूत तो क्यों धन संचय?                       पूत कपूत तो क्यों धन संचय?
-  सपूत खुद कमा लेगा, कपूत सब मिटा देगा।
- यह सच सब जानते हैं पर मानते नहीं, मान लें तो सब समस्याएँ खत्म हो जाएँ।
- 'न कोई रहा है, न कोई रहेगा' यह सनातन सच भी सबको मालूम है पर हर बशर खुद को अजर-अमर कर देना चाहता है। 
- स्मारक, मूर्तियाँ, नामकरण, नाम परिवर्तन आदि की निरर्थक जद्दोजहद सरकारों की नीति बन जाए तो देश दिशाहीनता की ओर तेजी से बढ़ने लगता है।
- नागरिक जागें, जानें और मानें तो सबका कल्याण संभव है।
स्मरण युग तुलसी
कहमुकरी
स्वार्थ बिना नित सेवा करता,
प्रभु का ध्यान हमेशा धरता।
हँसे इष्ट का कष्ट सभी हर,
क्या हरि-चाकर? नहिं सखि किंकर।
रामचन्द्र का बहुत दुलारा,
राम नाम प्राणाधिक प्यारा।
मानस मीमांसक अजरामर,
क्या सखि शंकर?, नहिं री! किंकर।
शब्द शब्द को अर्थ नए दे,
भक्ति नर्मदा, भजन नाव खे।
भवसागर से पार कराता,
सखी! विधाता?, किंकर त्राता।
•••
सॉनेट
रंगमंच
रंगमंच धरती जीवन एकांकी,
निर्देशक यवनिका उठा छिप जाता,
श्वास-आस संवाद न हो एकाकी,
मनचाहा घट हास अधर पर लाता।
मन उन्मन हो तो न ठीक हो अभिनय,
पोशाकें ऋतु चक्र बदलता रहता,
पीड़ा पल में पात्र करें प्रभु अनुनय,
आनंदित हो कर घमंड दुख गहता।
मिलन-विरह, सुख-दुख पल आते-जाते,
सुमन झरें बिखराकर सुरभि जगत में,
कामदेव-रति मन में मोह जगाते,
सपने आगत, यादें फिरें विगत में।
रंचमात्र भी झोल न आने देना,
रंगमंच पर नाव सँभलकर खेना।
२९•३•२०२४
•••
मुक्तक
पग के छाले बोल रहे हैं, शूल भरे पथ का स्वागत है।
तबियत हरी हुई मरुथल में, देख थपेड़े -लू आगत है।।
किरचों चुभो हृदय में मेरे, तुम्हें कसम है रहम न करना।
करी दर्द से कुड़माई खुद, पीर न पीर हमें हँस वरना।।
(छंद - लाक्षणिक जातीय संस्कार छंद, बत्तीस मात्रिक सवैया, यति १६-१६, पदांत सगण )
•••
कार्यशाला : कुण्डलिया
*
अन्तर्मन से आ रही आज एक आवाज़।
सक्षम मानव आज का बने ग़रीबनिवाज़।। -रामदेव लाल 'विभोर'
बने गरीबनिवाज़, गैर के पोंछे आँसू।
खाए रोटी बाँट, बने हर निर्बल धाँसू।।
कोरोना से भीत, अकेला डरे न पुरजन।
धन बिन भूखा रहे, न कोई जग अंतर्मन।। - संजीव वर्मा 'सलिल'
***
मुक्तिका
होली मने
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
२९.३.२०२१
***
।। अथ वेदोक्त रात्रि सूक्तं ।।
।। वेदोक्त रात्रि सूक्त।।
*
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभि:। विश्र्वा अधिश्रियोधित ।१।
। ॐ रात्रि! विश्रांतिदायिनी जगत आश्रित। सब कर्मों को देखें, फल दें।१।
*
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वत:। ज्योतिषा बाधते तम:।२।
।। देवी अमरा व्याप विश्व में, नष्ट करें अज्ञान तिमिर को ज्ञान ज्योति से ।२।
*
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्येति। अपेदु हासते तम: ।३।
। पराशक्ति रूपा रजनी प्रगटा दें ऊषा, नष्ट अविद्या तिमिर स्वत्: हो। ३।
*
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नाविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वय:।४।
।रात्रि देवी पधारें हों मुदित , सो सकें हम खग सदृश निज घोंसले में।४।
*
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिण:। नि श्येना सश्चिदर्थिन:।५।
। सोते सुख से ग्राम्य जन, पशु, जीव-जंतु,खग, रात्रि अंक में।५।
*
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा न: सुतरा भव। ६।
।रात्रि देवी! पाप वृक वासना वृकी को, दूर कर सुखदायिनी हो।६।
*
उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव् यातय। ७।
।घेरे अज्ञान तिमिर ज्ञान दे कर दूर, उषा! उऋण करतीं मुझे दे धन। ७।
*
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिव:। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे। ८।
। पयप्रदा गौ सदृश रजनी!, व्योमकन्या!! हविष्य ले लो।३।
२९.३.२०२०
***
चिंतन
विश्वास या विष-वास?
*
= 'विश्वासं फलदायकम्' भारतीय चिंतन धारा का मूलमंत्र है।
= 'श्रद्धावान लभते ग्यानम्' व्यवहार जगत में विश्वास की महत्ता प्रतिपादित करता है।
बिना विश्वास के श्रद्धा हो ही नहीं सकती। शंकाओं का कसौटियों पर अनगिनत बार लगातार विश्वास खरा उतरे, तब श्रद्धा उपजती है।
= श्रद्धा अंध-श्रद्धा बनकर त्याज्य हो जाती है।
= स्वार्थ पर आधारित श्रद्धा, श्रद्धा नहीं दिखावा मात्र होती है।
= तुलसी 'भवानी शंकर वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' कहकर श्रद्धा और विश्वास के अंतर्संबंध को स्पष्ट कर देते हैं।
शिशु के लिए जन्मदात्री माँ से अधिक विश्वसनीय और कौन है सकता है? भवानी को श्रद्धा कहकर तुलसी ा कहे ही कह देते हैं कि वे सकल सृष्टिकर्त्री आदि प्रकृति महामाया हैं।
तुलसी शंकर को विश्वास बताते हैं। शंकर हैं शंकारि, शंकाओं के शत्रु। शंका का उन्मूलन करनेवाला ही तो विश्वास का भाजन होगा।
= यहाँ एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जिसे जानना जरूरी है। अरि अर्थात शत्रु, शत्रुता नकारात्मक ऊर्जा है। संदेह हो सकता है कि क्या नकारात्मकता भी साध्य, वरेण्य हो सकती है? उत्तर हाँ है। यदि नकारात्मकता न हो तो सकारात्मकता को पहचानोगे कैसे? खट्टा, नमकीन, चरपरा, तीखा न हो मीठा भी आनंदहीन हो जाएगा।
सृष्टि की सृष्टि ही अँधेरे के गर्भ से होती है। निशा का निबिड़ अंधकार ही उषा के उजास को जन्म देता है। अमावस का घनेरा अँधेरा न हो तो दिये जलाकर उजाला का पर्व मनाने का आनंद ही न रहेगा।
= शत्रुता या नकारात्मकता आवश्यक तो है पर वह विनाशकारी है, विध्वंसक है, उसे सुप्त रहना चाहिए। वह तभी जागृत हो, तभी सक्रिय हो जब विश्वास और श्रद्धा की स्थापना अपरिहार्य हो। जीर्णोध्दार करने के लिए जीर्ण को मिटाना जरूरी है।
= भव अर्थात संसार, भव को अस्तित्व में लाने वाली भवानी, शून्य से- सर्वस्व का सृजन करनेवाली भवानी सकारात्मक ऊर्जा हैं। वे श्रद्धा हैं।
= विश्वास के बिना श्रद्धा अजन्मा और श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय है। इसीलिए शिव तपस्यारत हैं। शत्रुता विस्मृति के गर्त में रहे तभी कल्याण है किंतु भवानी सक्रिय हैं, सचेष्ट हैं। यही नहीं वे शिव को निष्क्रिय कुलीन भी नहीं रहने देती, तपस्या को भंग करा देती हैं भले ही शिव की रौद्रता काम का विनाश कर दे।
= काम क्या है? काम रति का स्वामी है। रति कौन है? रति है ऊर्जा। काम और रति का दिशा-हीन मिलन वासना, मोह और भोग को प्रधानता देता है। यही काम निष्काम हो तो कल्याणकारी हो जाता है। रति यदि विरति हो तो सृजन ही न होगा, कुरति हो विनाश कर देगी, सुरति है तो सुगतिदात्री होगी।
= काम को मार कर फिर जिलाना शंका उपजाता है। मारा तो जिलाया क्यों? जिलाना था तो मारा क्यों? शंका का समाधान न हो तो विश्वास बिना मारे मर जाएगा।
किसी वास्तुकार से पूछो- जीर्णोध्दार के लिए बनाने से पहले गिराना होता है या नहीं? ऊगनेवाला सूर्य न डूबे तो देगा कैसे? तुम कहो कि ऊगना ही है तो डूबना क्यों या डूबना ही है तो ऊगना क्यों? तो इसका उत्तर यही है कि ऊगना इसलिए कि डूबना है, डूबना इसलिए कि भगवा है। जन्मना इसलिए कि मरना है, मरना इसलिए कि जन्मना है।
= शिव की सुप्त शक्ति पर विश्वास कर उसको जागृत करने-रखने वाली ही शिवा है। शिवारहित शिव शव सदृश्य हैं, मृत नहीं निरानंदी हैं। शिवा रे काम को शांत कर ममता में बदलनेवाले ही शिव हैं। शिवारहित शिवा तामसी नहीं तामसी हैं, उपवासी हैं, अपर्णा हैं। पतझर के बाद अपर्णा प्रकृति सपर्णा न हो तो सृष्टि न होगी इसलिए अपर्णा का लक्ष्य सपर्णा और सपर्णा का लक्ष्य अपर्णा है ।
= विश्वास और श्रद्धा भी शिव और शिवा का तरह अन्योन्याश्रित हैं। शंकाओं के गिरि से- उत्पन्न गिरिजा विश्वास के शंकर का वरण कर गर्भ से जन्मती हैं वरद, दयालु, नन्हें को गणनायक गणेश को जिनसे आ मिलते हैं षडानन और तुलसी करते हैं जय जय-
जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
जय गजल-नजम षडानन माता, जगत जननि दामिनी द्युति दाता।।
नहिं तव आदि मध्य अलसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।।
= विश्वास और श्रद्धा के बिना गण और गणतंत्र के गणपति बनने के अभिलाषी तब जान लें कि काम-सिद्धि को साध्य मानने की परिणाम क्षार होने में होता है। पक्ष-विपक्ष शत्रु नहीं पूरक हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और गण के प्रति श्रद्धा ही उन्हें गणनायक बना सकती है अन्यथा जनशक्ति का शिव उन्हें सत्ता सौंप सकता है तो जनाक्रोश का रुद्र उन्हें मिट्टी में भी मिला सकता है।
= विश्वास और श्रद्धा का वरण कर जनता जनार्दन नोटा के तीसरे नेत्र का उपयोग कर सत्ता प्राप्ति के काम के प्रति रति रखनेवाले आपराधिक प्रवृत्तिवाले प्रत्याशियों और उन्हें मैदान में उतारनेवाले दलों को क्षार कर, जनसेवा के प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों को नवजीवन देने से पीछे नहीं हटेगी।
२९.३.२०१९
***
श्री दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि
भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है | 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल २१ देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।
'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है।
प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु।
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के।
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥
एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥
तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥
अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल ७०० श्लोक ७०० प्रयोगों के समान माने गये हैं।
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि-
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।
दुर्गा सप्तशती वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।
दुर्गा सप्तशती संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-१, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।
दुर्गा सप्तशती सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।
दुर्गा सप्तशती शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (१०८) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी ५० क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
दुर्गा सप्तशती/ श्री दुर्गासप्तशती महायज्ञ / अनुष्ठान विधि
भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में ३६० शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।
[ १.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का १०८ बार जप।
[ २.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में पाठ।
[ ३.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है।
दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें।
१. कलश स्थापना, २ . गौरी गणेश पूजन, ३. नवग्रह पूजन, ४. षोडश मातृकाओं का पूजन, ५. कुल देवी का पूजन, ६. माँ दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें-
आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि।
आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।
पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि।
अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः ।
आचमन : आचमन समर्पयामि।
स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि।
स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि।
दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि।
घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि।
शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि।
शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि
शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि
वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि
***
चित्र अलंकार पताका काव्य
*
हूँ
भीरु,
डरता
हूँ पाप से. .
न हो सकता
भारत का नेता
डरता हूँ आप से.
*
है
कौन
जो रोके,
मेरा मन
मुझको टोंके,
गलती सुधार.
भयभीत मत हो.
*
जो
करे
फायर
दनादन
बेबस पर.
बहादुर नहीं
आतंकी है कायर.
*
हूँ
नहीं
सुरेश,
न नरेश,
आम आदमी.
थोडा डरपोंक
कुछ बहादुर भी.
*
मैं
देखूँ
सपने.
असाहसी
कतई नहीं.
बनाता उनको
हकीकत हमेशा.
***
दोहा सलिला:
*
मले उषा के गाल पर, सूरज छेड़ गुलाल
बादल पिचकारी लिए, फगुआ हुआ कमाल.
*
नीता कहती नैन से, कहे सुनीता-सैन.
विनत विनीता चुप नहीं, बोले मीठे बैन.
*
दोहा ने मोहा दिखा, भाव-भंगिमा खूब.
गति-यति-लय को रिझा कर, गया रास में डूब.
*
रोगी सिय द्वारे खड़ा, है लंकेश बुखार.
भिक्षा सुई-दवाई पा, झट से हुआ फरार.
*
शैया पर ही हो रहे, सारे तीरथ-धाम.
नर्स उमा शिव डॉक्टर, दर्द हरें निष्काम
*
बीमा? री! क्यों कराऊँ?, बीमारी है दूर.
झट बीमारी आ कहे:, 'नैनोंवाले सूर.'
*
लाली पकड़े पेट तो, लालू पूछें हाल.
'हैडेक' होता पेट में, सुन हँस सब बेहाल.
*
'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, काए न देते लोग?
देख विश्व हैरान है, यह अंगरेजी रोग.
२९.३.२०१८
***
हास्य रचना:
उल्लू उवाच
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
२९.३.२०१८
***
नवगीत-
दरक न पाऐँ दीवारें
हम में हर एक तीसमारखाॅं
कोई नहीं किसी से कम ।
हम आपस में उलझ-उलझकर
दिखा रहे हैं अपनी दम ।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम ।
आॅंख के अंधे देख-न देखें
दरक रही हैं दीवारें ।
*
फूटी आॅंखों नहीं सुहाती
हमें, हमारी ही सूरत ।
मन ही मन में मनमाफि़क
गढ़ लेते हैं सच की मूूरत ।
कुदरत देती दंड, न लेकिन
बदल रही अपनी फितरत ।
पर्वत डोले, सागर गरजे
टूट न जाएॅं दीवारें ।
*
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका ।
देश हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का ।
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जनहित का ।
भार करों का इतना ही हो
दरक न पाएँ दीवारें ।
ग्रेनेडियर्स प्रिंटिंग प्रैस, १५़३०
२१.३.२०१६
***
विशेष आलेख
दोहा दोहा काव्य रस
संजीव
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का यथोचित समावेश कर किया जा सके। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- संजीव
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। आशा है दोहाकार अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी में दोहे रचने की चुनौती को स्वीकारेंगे। हिंदी के अन्य भाषिक रूपों यथा उर्दू, बृज, अवधी, बुन्देली, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बघेली, कठियावाड़ी, शेखावाटी, मारवाड़ी, हरयाणवी आदि तथा अन्य भाषाओँ गुजराती, मराठी, गुरुमुखी, उड़िया, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, डोगरी, असमीआदि तथा अभारतीय भाषाओँ अंग्रेजी इत्यादि में दोहा भेजते समय उसका उल्लेख किया जाना उपयुक्त होगा ताकि उस रूप / भाषा विशेष में प्रयुक्त शब्दरूप व क्रियापद को अशुद्धि न समझा जाए।
***
छंद सलिला:
मनमोहन छंद
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
२९.३.२०१४
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होली की कुण्डलियाँ:
मनायें जमकर होली
*
होली अनहोली न हो, रखिए इसका ध्यान.
मही पाल बन जायेंगे, खायें भंग का पान..
खायें भंग का पान, मान का पान न छोड़ें.
छान पियें ठंडाई, गत रिकोर्ड को तोड़ें..
कहे 'सलिल' कविराय, टेंट में खोंसे गोली.
भोली से लग गले, मनायें जमकर होली..
*
होली ने खोली सभी, नेताओं की पोल.
जिसका जैसा ढोल है, वैसी उसकी पोल..
वैसी उसकी पोल, तोलकर करता बातें.
लेकिन भीतर ही भीतर करता हैं घातें..
नकली कुश्ती देख भ्रनित है जनता भोली.
एक साथ मिल भत्ते बढ़वा करते होली..
*
होली में फीका पड़ा, सेवा का हर रंग.
माया को भायी सदा, सत्ता खातिर जंग..
सत्ता खातिर जंग, सोनिया को भी भाया.
जया, उमा, ममता, सुषमा का भारी पाया..
मर्दों पर भारी है, महिलाओं की टोली.
पुरुष सम्हालें चूल्हा-चक्की अबकी होली..
***
फागुन के मुक्तक
*
बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
२९.३.२०१३

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शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

मुक्तिका, नवगीत, दोहे, तलाक, कायस्थ, पटवारी

मुक्तिका 
जय प्रकाश की कहें, तमन्ना अपनी पूरी हो।
आ भा आभा सूरज-शशि की, तनिक न दूरी हो।।

संत बसंत दिगंत छू रहा, बौर मंजरी संग।
जाड़ा-कोहरा चीन-पाक सम, लिए न छूरी हो।।

कर संतोष कहे कोरोना, उच्छृंखल मत हो। 
छाया अरुण रहे वसुधा पर, साँझ सिंदूरी हो।।

उमा शक्ति को जलज विनीता दे दीपक बाले। 
कर रंजन आलोक हँसे, शुभ स्नेह जरूरी हो।। 
 
है सुभाष सुन कर अशोक मन, जड़ भी हो संजीव। 
श्रमिक किसान न भूखा हो, पर्याप्त मजूरी हो।। 
११-२-२०२२
****
मुक्तिका
*
आज खत का जवाब आया है
धूल में फूल मुस्कुराया है
*
याद की है किताब हाथों में
छंद था मौन; खिलखिलाया है
*
नैन नत बोलते बिना बोले
रोज डे रोज ही मनाया है
*
कौन किसको प्रपोज कब करता
चाह ने चाहकर बुलाया है
*
हाथ बढ़ हाथ थामकर सिहरा
पैर ने पैर झट मिलाया है
*
देख मुखड़ा बना लिया मुखड़ा
अंतर में अंतरा बसाया है
*
दे दिया दिल न दिलरुबा छोड़ा
दिलवरी की न दिल दुखाया है
१२-२-२०२१
***
तीन तलाक - दोहे
*
तीन तलाक दीजिए
हर दिन जगकर आप
नफरत, गुस्सा, लोभ को
सुख न सकेंगे नाप
जुमलों धौंस प्रचार को,
देकर तीन तलाक
दिल्ली ने कर दिया है,
थोथा गर्व हलाक
भाव छंद रस बिंब लय
रहे हमेशा साथ
तीन तलाक न दें कभी
उन्नत हो कवि-माथ
आँसू का दरिया कहें,
या पर्वत सा दर्द
तीन तलाक न दे कभी,
कोई सच्चा मर्द
आँखों को सपने दिए,
लब को दी मुस्कान
छीन न तीन तलाक ले,
रखिए पल-पल ध्यान
दिल से दिल का जोड़कर,
नाता हुए अभिन्न
तीन तलाक न पाक है,
बोल न होइए भिन्न
अल्ला की मर्जी नहीं,
बोलें तीन तलाक
दिल दिलवर दिलरुबा का,
हो न कभी भी चाक
जो जोड़ा मत तोड़ना,
नाता बेहद पाक
मान इबादत निभाएँ
बिसरा तीन तलाक
जो दे तीन तलाक वह,
आदम है शैतान
आखिर दम तक निभाए,
नाता गर इंसान
१२-२-२०२०
***
नवगीत:
संजीव
.
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ
कही अंतरों में गा-गाकर
छंदों ने अमृत बरसाया
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
***
स्मृतिशेष भवानी प्रसाद तिवारी की एक सामयिक रचना ......
उनकी ११० वीं जयंती पर सादर ......
घने आम पर मंजरी आ गई .....
शिशिर का ठिठुरता हुआ कारवां
गया लाद कर शीत पाला कहाँ
गगन पर उगा एक सूरज नया
धरा पर उठा फूल सारा जहां
अभागिन वसनहीनता खुश कि लो
नई धूप आ गात सहला गई ........
नए पात आए पुरातन झड़े
लता बेल द्रुम में नए रस भरे
चहक का महक का समाँ बन्ध गया
नए रंग ....धानी गुलाबी हरे
प्रकृति के खिलौने कि जो रंग गई
मनुज के कि दुख दर्द बहला गई ........
पवन चूम कलियाँ चटकने लगीं
किशोरी अलिनियां हटकने लगीं
रसानंद ,मकरंद ,मधुगन्ध में
रंगीली तितलियाँ भटकने लगीं
मलय -वात का एक झोंका चला
सुनहली फसल और लहरा गई ...
***
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
***
लघु एकांकी
सबै जात गोपाल की
भारतेंदु हरिश्चंद्र
*
(एक पंडित जी और एक क्षत्री आते हैं)
क्षत्री : महाराज देखिये बड़ा अंधेर हो गया कि ब्राह्मणों ने व्यवस्था दे दी कि कायस्थ भी क्षत्री हैं। कहिए अब कैसे कैसे काम चलेगा।
पंडित : क्यों, इसमें दोष क्या हुआ? ”सबै जात गोपाल की“ और फिर यह तो हिन्दुओं का शास्त्रा पनसारी की दुकान है और अक्षर कल्प वृक्ष है इस में तो सब जात की उत्तमता निकल सकती है पर दक्षिणा आप को बाएं हाथ से रख देनी पडे़गी फिर क्या है फिर तो ”सबै जात गोपाल की“।
क्ष. : भला महाराज जो चमार कुछ बनना चाहे तो उसको भी आप बना दीजिएगा।
पं. : क्या बनना चाहै?
क्ष. : कहिये ब्राह्मण।
पं. : हां, चमार तो ब्राह्मण हुई है इस में क्या संदेह है, ईश्वर के चम्र्म से इनकी उत्पत्ति है, इन को यह दंड नहीं होता। चर्म का अर्थ ढाल है इससे ये दंड रोक लेते हैं। चमार में तीन अक्षर हैं ‘च’ चारों वेद ‘म’ महाभारत ‘र’ रामायण जो इन तीनों को पढ़ावे वह चमार। पद्मपुराण में लिखा है। इन चर्मकारों ने एक बेर बड़ा यज्ञ किया था, उसी यज्ञ में से चर्मण्ववती निकली है। अब कर्म भ्रष्ट होने से अन्त्यज हो गए हैं नहीं तो है असिल में ब्राह्मण, देखो रैदास इन में कैसे भक्त हुए हैं लाओ दक्षिणा लाओ। ‘सवै’
क्ष. : और डोम?
पं. : डोम तो ब्राह्मण क्षत्रिय दोनों कुल के हैं, विश्वामित्र-वशिष्ट वंश के ब्राह्मण डोम हैं और हरिश्चंद्र और वेणु वंश के क्षत्रिय हैं। इस में क्या पूछना है लाओ दक्षिणा ‘सबै जा.’।
क्ष. : और कृपा निधान! मुसलमान।
पं. : मीयाँ तो चारों वर्णों में हैं। बाल्मीकि रामायण में लिखा है जो वर्ण रामायण पढ़े मीयाँ हो जाय।
पठन् द्विजो वाग् ऋषभत्वमीयात्।
ख्यात् क्षत्रियों भूमिपतित्वमीयात् ।।
अल्लहोपनिषत् में इनकी बड़ी महिमा लिखी है। द्वारका में दो भाँति के ब्राह्मण थे जिनको बलदेव जी (मुशली) मानते थे। उनका नाम मुशलिमान्य हुआ और जिन्हें श्रीकृष्ण मानते उनका नाम कृष्णमान्य हुआ। अब इन दोनों शब्दों का अपभ्रंश मुसलमान और कृस्तान हो गया।
क्ष. : तो क्या आप के मत से कृस्तान भी ब्राह्मण हैं?
पं. : हई हैं इसमें क्या पूछना है-ईशावास उपनिषत् में लिखा है कि सब जगत ईसाई है।
क्ष. : और जैनी?
पं. : बड़े भारी ब्राह्मण हैं। ”अहैन्नित्यपि जैनशासनरता“ जैन इनका नाम तब से पड़ा जब से राजा अलर्क की सभा में इन्हें कोई जै न कर सका!
क्ष. : और बौद्ध?
पं. : बुद्धि वाले अर्थात् ब्राह्मण।
क्ष. : और धोबी?
पं. : अच्छे खासे ब्राह्मण जयदेव के जमाने तक धोबी ब्राह्मण होते थे। ‘धोई कविः क्षमापतिः’। ये शीतला के रज से हुए हैं इससे इनका नाम रजक पड़ा।
क्ष. : और कलवार?
पं. : क्षत्री हैं, शुद्ध शब्द कुलवर है, भट्टी कवि इसी जाति में था।
क्ष. : और महाराज जी कुंहार?
पं. : ब्राह्मण, घटखप्र्पर कवि था।
क्ष. : और हां, हां, वैश्या?
पं. : क्षत्रियानी-रामजनी, और कुछ बनियानी अर्थात् वेश्या।
क्ष. : अहीर?
पं. : वैश्य-नंदादिकों के बालकों का द्विजाति संस्कार होता था। ”कुरु द्विजाति संस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकं“ भागवत में लिखा है।
क्ष. : भुंइहार?
पं. : ब्राह्मण।
क्ष. : ढूसर?
पं. : ब्राह्मण, भृगुवंश के, ज्वालाप्रसाद पंडित का शास्त्रार्थ पढ़ लीजिए।
क्ष. : जाठ?
पं. : जाठर क्षत्रिय।
क्ष. : और कोल?
पं. : कोल ब्राह्मण।
क्ष. : धरिकार?
पं. : क्षत्रिय शुद्ध शब्द धर्यकार है।
क्ष. : और कुनबी और भर और पासी?
पं. : तीनों ब्राह्मण वंश में हैं, भरद्वाज से भर, कन्व से कुनबी, पराशर के पासी।
क्ष. : भला महाराज नीचों को तो आपने उत्तम बना दिया अब कहिए उत्तमों को भी नीच बना सकते हैं?
पं. : ऊँच नीच क्या, सब ब्रह्म है, आप दक्षिणा दिए चलिए सब कुछ होता चलेगा।
क्ष. : दक्षिणा मैं दूंगा, आप इस विषय में भी कुछ परीक्षा दीजिए।
पं. : पूछिए मैं अवश्य कहूंगा।
क्ष. : कहिए अगरवाले और खत्री?
पं. : दोनों बढ़ई हैं, जो बढ़िया अगर चंदन का काम बनाते थे उनकी संज्ञा अगरवाले हुई और जो खाट बीनते थे वे खत्री हुए या खेत अगोरने वाले खत्री कहलाए।
क्ष. : और महाराज नागर गुजराती?
पं. : सपेरे और तैली, नाग पकड़ने से नागर और गुल जलाने से गुजराती।
क्ष. : और महाराज भुंइहार और भाटिये और रोडे?
पं. : तीनों शूद्र, भुजा से भुंइहार, भट्टी रखने वाले भाटिये, रोड़ा ढोने वाले रोडे़।
क्ष. : (हाथ जोड़कर) महाराज आप धन्य हौ। लक्ष्मी वा सरस्वती जो चाहैं सो करैं। चलिए दक्षिणा लीजिये।
पं. : चलौ इस सब का फल तो यही था।
(दोनों गए)
***
कायस्थ विमर्श :
इतिहास के पन्नो से , कायस्थ सेन वंश जिन्हें गौर(पश्चिमी क्षेत्रो में ) या गौंड(पूर्वी क्षेत्रो )में कहा जाता है ।
रामपाल के शासनकाल में १०९७ ई. से १०९८ ई. तक में ही तिरहुत में कर्नाट राज्य का उदय हो गया । कर्नाट राज्य का संस्थापक नान्यदेव था । नन्यदेव एक महान शासक था । उनका पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना ।
नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरॉवगढ़ बनाई । कर्नाट शासकों का इस वंश का मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है ।
वैन वार वंश के शासन तक मिथिला में स्थिरता और प्रगति हुई । नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था ।
सामन्त सेन सेन वंश का संस्थापक था । विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि शासक बने । सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार पर शासन किया । विजय सेन शैव धर्मानुयायी था । उसने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का निर्माण करवाया । वह एक लेखक भी थे जिसने ‘दान सागर’ और ‘अद्‍भुत सागर’ दो ग्रन्थों की रचना की ।
लक्ष्मण सेन सेन वंश का अन्तिम शासक था । हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मन्त्री एवं न्यायाधीश था । गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे । लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी था ।
सेन राजाओं ने अपना साम्राज्य विस्तार क्रम में ११६० ई. में गया के शासक गोविन्दपाल से युद्ध हुआ । ११२४ ई. में गहड़वाल शासक गोविन्द पाल ने मनेर तक अभियान चलाया ।
जयचन्द्र ने ११७५-७६ ई. में पटना और ११८३ ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया ।
कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर उसने तुर्की का सहयोग लिया ।
उसी समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आया और नरदेव सिंह को धन देकर उसे सन्तुष्ट कर लिया और नरदेव सिंह का साम्राज्य तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैल गया ।
कर्नाट वंश के शासक ने सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रान्तपति नियुक्‍त किये गये
बिहार और बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४-२५ ई. में आधिपत्य कर लिया । उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह था । वह तुर्क सेना से हार मानकर नेपाल की तराई में जा छिपा । इस प्रकार उत्तरी और पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश १३७८ ई. में समाप्त हो गया ।
आदित्य सेन- माधवगुप्त की मृत्यु ६५० ई. के बाद उसका पुत्र आदित्य सेन मगध की गद्दी पर बैठा । वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक था ।
अफसढ़ और शाहपुर के लेखों से मगध पर उसका आधिपत्य प्रंआनित होता है ।
मंदार पर्वत में लेख के अंग राज्य पर आदित्य सेन के अधिकार का उल्लेख है । उसने तीन अश्‍वमेध यज्ञ किये थे ।
मंदार पर्वत पर स्थित शिलालेख से पता चलता है कि चोल राज्य की विजय की थी ।
आदित्य सेन के राज्य में उत्तर प्रदेश के आगरा और अवध के अन्तर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला प्रथम शासक था ।
उसने अपने पूर्वगामी गुप्त सम्राटों की परम्परा का पुनरूज्जीवन किया । उसके शासनकाल में चीनी राजदूत वांग यूएन त्से ने दो बार भारत की यात्रा की ।
कोरियन बौद्ध यात्री के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध मन्दिर बनवाया था ।
आदित्य सेन ने ६७५ ई. तक शासन किया था ।
आदित्य सेन के उत्तराधिकारी तथा उत्तर गुप्तों का विनाश-
आदित्य सेन की ६७५ ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवगुप्त द्वितीय हुआ । उसने भी परम भट्टारक महाधिराज की उपाधि धारण की । चालुक्य लेखों के अनुसार उसे सकलोत्तर पथनाथ कहा गया है ।
इसके बाद विष्णुगुप्त तथा फिर जीवितगुप्त द्वितीय राजा बने ।
जीवितगुप्त द्वितीय का काल लगभग ७२५ ई. माना जाता है । जीवितगुप्त द्वितीय का वध कन्‍नौज नरेश यशोवर्मन ने किया ।

जीवितगुप्त की मृत्यु के बाद उत्तर गुप्तों के मगध साम्राज्य का अन्त हो गया ।

***
मुक्तिका
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..

गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..

मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..

कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..

नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..

मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..

कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..

***
मुक्तिका
*

आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाए खेतों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..
१२-२-२०११
***





शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

सॉनेट, नवगीत, समीक्षा, अमरनाथ, रस, सर्वोदय, विराट

सॉनेट
रस
*
रस गागर रीते फिर फिर भर।
तरस न बरस सरस होकर मन।
नीरस मत हो, हरष हुलस कर।।
कलकल कर निर्झर सम हर जन।।


दरस परस कर, उमग-उमगकर।
रूपराशि लख, मादक चितवन।
रसनिधि अक्षर नटवर-पथ पर।।
हो रस लीन श्वास कर मधुबन।।


जग रसखान मान, अँजुरी भर।
नेह नर्मदा जल पी आत्मन!
कर रस पान, पुलक जय-जयकर।।
सुबह शाम हर फागुन-सावन।।


लगे हाथ रस गर न बना रस।
लूट लुटा रे धँस-हँस बतरस ।।
११-२-२०२२
•••
रस विमर्श :
रस का शाब्दिक अर्थ है आनंद। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से मिलने वाला आनंद ही 'रस' है। भारतीय साहित्य में ही नहीं, जीवन में भी 'रस' का बहुत महत्व है। पश्मी काव्य शास्त्र में रस के स्थान पर सौंदर्य शास्त्र की चर्चा है। सौंदर्य की अनुभूति रूपाकार से होती है, रस की प्रतीति मनोभाव से होती है। रस न हो तो काव्य नीरस या रसहीन हो जाएगा जिसे कोई भी पढ़ना-सुनना नहीं चाहेगा क्योंकि उसे आनंदानुभूति ही न होगी। रस को प्रथमत: परिभाषित करने के श्रेय भरत मुनि (ईसापूर्व ४००-ईसापूर्व १०० के मध्य) को है। भारत मुनि ने अपने ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में रस सिद्धांत की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध सूत्र 'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" अर्थात विभाव; अनुभाव तथा संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है, प्रस्तुत किया। रस का संबंध 'सृ' धातु से है जिसका अर्थ प्रवाहित होना, बहना है तदनुसार जो रचना से प्रवाहित होकर पाठक या श्रोता के मन में पहुँच जाए, वह रस है। अन्य मान्यता के अनुसार रह की निष्पत्ति 'रस्' धातु और 'अच्' प्रत्यय के संयोग से हुई है जिसका आशय है जो बहे या जो आस्वादित किया जा सके।


अनेकार्थी 'रस'
रस के विविध प्रसंगों में विविध अर्थ हैं। एक प्रसिद्ध सूक्ति है 'रसो वै सः' अर्थात वह (परमात्मा) रस ही है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल, और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग किया गया है। 'मनुस्मृति' में रस शब्द का प्रयोग 'मदिरा' या 'सुरा' के अर्थ में हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चैबीस गुणों में एक गुण का नाम 'रस' है। तदनुसार षड् रस कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त व कषाय हैं। महाकवि कालिदास स्वाद, इच्छा तथा रुचि के अर्थ में 'रस' शब्द का प्रयोग करते हैं। भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में 'रस' का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश' में आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में 'रस' शब्द का प्रयोग है। काव्य शास्त्र में किसी काव्य रचना की भावभूमि को 'रस' कहते हैं। काव्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है 'रसात्मकं वाक्यं' अर्थात रसपूर्ण वाक्य ही काव्य है। आयुर्वेद में शरीर के श्घटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्राचीन साहित्य में 'सप्त धातुओं' को भी 'रस' कहा गया है। पारा (मरकरी) रसराज या रसेश्वर कहा गया है। लौह को स्वर्ण बनानेवाली 'पारस मणि' को 'रसरत्न' भी कहा गया है। रस के ज्ञाता को 'रसग्रह' तथा रसानंदित होनेवाले को 'रसिक' कहा जाता है। 'उत्तररामचरित' में रसज्ञाता को 'रसज्ञ' कहा गया है। भर्तृहरि काव्य मर्मज्ञ को 'रससिद्ध' कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के लिए 'रस-परीक्षा' शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रस-प्रबंध' शब्द का प्रयोग किया गया है। आध्यात्म तथा धर्म में 'रस' का प्रयोग 'ब्रह्मानंद' के अर्थ में किया गया है। 'काव्यानन्द' को 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहा गया है। श्रव्य काव्य पढ़ने-सुनने-सुनाने तथा दृश्य काव्य देखने पर पाठक-श्रोता या दर्शक ऐसी भावभूमि में पहुँच जाते हैं जहाँ केवल 'आनंद' की प्रतीति होती है, इस भावभूमि को ही 'रसलीन' होना कहा जाता है। सरस काव्य ही 'रसनिधि' है। काव्य को 'रसखान' कहना पूरी तरह सही है।


रस : मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना


रस वह अलौकिक मानसिक अवस्था है जब पाठक, श्रोता या दर्शक काव्य में पूरी तरह डूबकर अपनी सुध-बुध विस्मृत कर देता है। भरत मुनि ने 'रस' को 'आस्वात्यत्वात्' (आस्वाद प्रदान करनेवाला) कहा है। तदनुसार जैसे भोज्य व्यंजनों, औषधियों और पेयों से जैसे 'भोज्य रस' की निष्पत्ति होती है, वैसे ही विविध भावों के संयोग से स्थायी भाव की निष्पत्ति होती है।
भरत मुनि के अनुसार
अ. रस 'आस्वाद' नहीं, 'आस्वाद्य है'।
आ. रस 'अनुभूति' नहीं, 'अनुभूति का विषय' है।
इ. रस 'विषयीगत' नहीं, 'विषयगत' होता है।
ई. स्थाई भाव (अनुभाव, विभाव तथा संचारी भाव का संयोग) रस रूप में परिणित होता है।
उ. नायक (अभिनेता) का स्थायी भाव ही रस का रूप ग्रहण करता है।
दण्डी के अनुसार - 'वाक्यस्य, ग्राम्यता योनिमाधुर्ये दर्शतो रस:'।
धनञ्जय के मत में - 'विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्ध्य भिचारिभिः। आनीयमान: स्वाद्यत्व स्थायी भावो रस: स्मृत:'।
अभिनवगुप्त के शब्दों में -'सर्वथा रसनात्मक वीतविघ्न प्रतीतग्राह्यो भाव एवं रस:'।
मम्मट कहते हैं - 'व्यक्त: स: तैर्विभावाद्यौ: स्थायी भावो रस: स्मृत:'।
जगन्नाथ के शब्दों में - 'अस्त्यत्रापि रस वै स: रस होवायं लब्ध्वानंदी भवति'।
विश्वनाथ की परिभाषानुसार - 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' तथा 'विभावेनानुभावेन व्यक्त: संचारिणी तथा। रसतामेति रत्यादि: स्थायी भाव: सचेतसाम्'।
वामन - 'दीप्त रस्त्वं कांति:'।
भोजराज - 'रसा हि सुखदु:ख रूपा'।
क्षेमेंद्र - 'औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं'।
रामचंद्र-गुणचंद्र -'सुखदु:खात्मको रस:'।
***
कृति चर्चा :
दोहा गाथा : छंदराज पर शोधपरक कृति
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दोहा गाथा, शोध कृति, अमरनाथ, प्रथम संस्करण २०२०, २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१]
विश्ववाणी हिंदी के छंद कोष का कालजयी रत्न छंदराज दोहा, कवियों हो सर्वाधिक प्रिय रहा है और रहेगा भी। छन्दाचार्य अभियंता अमरनाथ जी द्वारा रचित 'दोहागाथा' गागर में सागर की तरह लघ्वाकारी किन्तु गहन शोध परक कृति है। खंड काव्य जटायु व कालजयी, कहानी संग्रह जीवन के रंग तथा आस पास बिखरी हुई जिंदगी, नव विधा क्षणिका संग्रह चुटकी, भजन संग्रह चरणों में, व्यंग्य संग्रह खरी-खोटी तथा सूक्ष्म समीक्षा कृति काव्य रत्न के सृजन के पश्चात् दोहागाथा अमरनाथ साहित्य का नौवा रत्न है। कहावत है 'लीक तोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत' अमर नाथ जी इन तीनों गुणों से संपन्न हैं। शायर अर्थात कवि तो वे हैं ही, अभियंता संघों में आंदोलन-काल में सिंह की तरह दहाड़ते अमरनाथ को जिन्होंने सुना है, वे भूल नहीं सकते। अमरनाथ जी जैसा सपूत हर माता-पिता चाहता है। अमरनाथ जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक पक्ष पर्यावरण कार्यकर्ता, समाज सुधारक, बाल शिक्षाविद, समीक्षक तथा संपादक भी हैं।
दोहा गाथा में दोहे का इतिहास, उत्पत्ति, परिभाषा एवं विकास क्रम, दोने का विधान एवं संरचना तथा दोहे के भेद, दोहे के उर्दू औजान शीर्षकों के अन्तर्गत नव दोहाकारों ही नहीं वरिष्ठ दोहाकारों के लिए भी बहुमूल्य सामग्री संकलित की गई है। विषय सामग्री का तर्कसम्मत प्रस्तुतीकरण करते समय सम्यक उदाहरण 'सोने में सुहागा' की तरह हैं। दोय, होय जैसे क्रिया रूप शोध कृति में उचित नहीं प्रतीत होते। लेखन का नाम मुखपृष्ठ पर 'अमरनाथ', पृष्ठ ८-९ पर 'अमर नाथ' होना खीर में कंकर की तरह खटकता है। दोहा-विधान पर प्रकाश डालते समय कुछ नए-पुराने दोहाकारों के दोहे प्रस्तुत किये जाने से कृति की उपयोगिता में वृद्धि हुई है। हिंदी छंद संबंधी शोध में फ़ारसी बह्रों और छंद दोषों का उल्लेख क्यों आवश्यक क्यों समझा गया? क्या उर्दू छंद शास्त्र की शोध कृति में हिंदी या अन्य भाषा के छंदों का विवेचन किया जाता है? विविध भाषाओँ के छंदों का तुलनात्मक अध्ययन उद्देश्य हो तो भारत की अन्य भाषाओँ-बोलिओं से भी सामग्री ली जानी चाहिए। हिंदी छंद की चर्चा में उर्दू की घुसपैठ खीर और रायते के मिश्रण की तरह असंगत प्रतीत होता है।
दोहा रचना संबंधी विधान विविध पिङगल ग्रंथों से संकलित किये जाना स्वाभाविक है, वैशिष्ट्य यह है कि विषम-चरणों की कल-बाँट सोदाहरण समझाई गई है। विविध भाषाओँ/बोलिओं तथा रसों के दोहे कृति को समृद्ध करते हैं किंतु इसे और अधिक समृद्ध किया जा सकता है। दोहे के विविध रूप संबंधी सामग्री रोचक तथा ज्ञानवर्धक है।
दोहा के चरणों की अन्य छंदों के चरणों से तुलना श्रमसाध्य है। यह कार्य अपूर्ण रहना ही है, यह छंद प्रभाकर में जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' द्वारा दी गई छंद संख्या (मात्रिक छंद ९२,२७,७६३, वर्णिक छंद १३, ४२,१७, ६२६, उदाहरण ७०० से कुछ अधिक) से ही समझा जा सकता है। दोहा रचना में इस तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है तथापि शोध की दृष्टी से इसकी उपादेयता असंदिग्ध है।
दोहे के विषम या सैम चरणों में संशोधन से निर्मित छंद संबंधी सामग्री के संबंध में यह कैसे निर्धारित किया जाए की उन छड़ों में परिवर्तन से दोहा बना या दोहे में परिवर्तन से वे छंद बने। विविध छंदों के निर्माण की तिथि ज्ञात न होने से यह निर्धारित नहीं किया जा सकता की किस छंद में परिवर्तन से कौन सा छंद बना या वे स्वतंत्र रूप से बने। दोहे के उलटे रूप शीर्षक से प्रस्तुत सामग्री रोचक है। चौबीस मात्रिक अन्य ७५,०२५ छंदों में से केवल २० छंदों का उल्लेख ऊँट के मुंह में जीरे की तरह है।
दोहे का अन्य छंदों के साथ प्रयोग शीर्षक अध्याय प्रबंध काव्य रचना की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
दोहे में परिवर्तन कर बनाये गए नए छंदों का औचित्य भविषा निर्धारित करेगा की इन्हें अपनाया जाता है या नहीं?
संख्यावाचक शब्दावली का उल्लेख अपर्याप्त है।
कृति के अंत में आभार प्रदर्शन लेखक की ईमानदारी की मिसाल है।
मुखपृष्ठ पर कबीर, रहीम, तुलसी तथा बिहारी के चित्रों से कृति की शोभा वृद्धि हुई है किंतु प्रकाशन की चूक से बिहारी के नाम के साथ विद्यापति का चित्र लग गया है। इस गंभीर त्रुटि का निवारण बिहारी के वास्तविक चित्र के स्टिकर यथस्थान चिपकाकर किया जा सकता है।
यह निर्विवाद है कि इस कृति की अधिकांश सामग्री पूर्व प्राप्य नहीं है। अमरनाथ जी ने वर्षों तक सैंकड़ों पुस्तकों और पत्रिकाओं का अध्ययन कर उदाहरण संकलित किये हैं। किसी भी नई सामग्री के विवेचन और विश्लेषण में मतभेद स्वाभाविक है किंतु विषय के विकास की दृष्टि से ऐसे गूढ़ अध्ययन की प्रासंगिकता, उपादेयता और मौलिकता प्रशंसनीय ही नहीं पठनीय एवं मननीय भी है। इस सारस्वत शोधपरक प्रस्तुति हेतु अमरनाथ जी साधुवाद के पात्र हैं। दोहाकारों ही नहीं अन्य छंदों के अध्येताओं और रचनाकारों को भी इस कृति का अध्ययन करना चाहिए।
***
सर्वोदय गीत
सर्वोदय भारत का सपना।
हो साकार स्वप्न हर अपना।।
*
हम सब करें प्रयास निरंतर।
रखें न मनुज मनुज में अंतर।।
एक साथ हम कदम बढ़ाएँ।
हाथ मिला श्रम की जय गाएँ।।
युग अनुकूल गढ़ों नव नपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
हर जन हरिजन हुआ जन्म से।
ले-देकर है वणिक कर्म से।।
रक्षा कर क्षत्रिय हैं हम सब।
हो मतिमान ब्राह्मण हैं सब।।
कर्म साध्य नहिं माला जपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
श्रम सीकर में विहँस नहाएँ।
भूमिहीन को भू दे गाएँ।।
ऊँच-नीच दुर्भाव मिटाएँ।
स्नेह सलिल में सतत नहाएँ।।
अंधभक्ति तज, सच है वरना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
११-२-२०२१
***
दिल्ली बोली
*
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
पैदल ने वजीर को मारा
औंधे मुँह वह जो हुंकारा
जो गरजे वे मेघ न बरसे
जनहितकारी की पौबारा
अब जुबान पर लगा चटकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
कथनी करनी का जो अंतर
लोग समझते; चला न मंतर
भानुमती का कुनबा आया
रोगी भोगी सब छूमंतर
शुरू हो गई पैर तले से दरी सरकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
बंदर बाँट कर रहे लड़वा
सेठों के हित विधि से सधवा
पूज गोडसे; गाँधी ठुकरा
बेकारी मँहगाई बढ़वा
कड़वी गोली पड़ी गटकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
११-२-२०२०
***

***
नवगीत:
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
***
नवगीत :
संजीव
.
दुनिया
बहुत सयानी लिख दे
.
कोई किसी की पीर न जाने
केवल अपना सच, सच माने
घिरा तिमिर में
जैसे ही तू
छाया भी
बेगानी लिख दे
.
अरसा तरसा जमकर बरसा
जनमत इन्द्रप्रस्थ में सरसा
शाही सूट
गया ठुकराया
आयी नयी
रवानी लिख दे
.
अनुरूपा फागुन ऋतु हर्षित
कुसुम कली नित प्रति संघर्षित
प्रणव-नाद कर
जनगण जागा
याद आ गयी
नानी लिख दे
.
भूख गरीबी चूल्हा चक्की
इनकी यारी सचमुच पक्की
सूखा बाढ़
ठंड या गर्मी
ड्योढ़ी बाखर
छानी लिख दे
.
सिहरन खलिश ख़ुशी गम जीवन
उजली चादर, उधड़ी सीवन
गौरा वर
धर कंठ हलाहल
नेह नरमदा
पानी लिख दे
११-२-२०१५
***
कृति चर्चा:
बोल मेरी ज़िंदगी: हिंदी ग़ज़ल का उजला रूप
चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(कृति विवरण: बोल मेरी ज़िंदगी, हिंदी गज़ल संग्रह, चंद्रसेन 'विराट', आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १८४, मूल्य ३००ऋ, समान्तर पब्लिकेशन तराना, उज्जैन)
*
हिंदी गीतिकाव्य की मुक्तिका परंपरा के शिखर हस्ताक्षरों में प्रमुख, हिंदी की भाषिक शुद्धता के सजग पहरुए, छांदस काव्य के ध्वजवाहक चंद्रसेन विराट का नया हिंदी गज़ल संग्रह 'बोल मेरो ज़िंदगी' हिंदी ग़ज़ल के उज्जवल रूप को प्रस्तुत करता है. संग्रह का शीर्षक ही ग़ज़लकार के सृजन-प्रवाह की लहरियों के नर्तन में परिवन का संकेत करता है. पूर्व के ११ हिंदी गज़ल संग्रहों से भिन्न इस संग्रह में भाषिक शुद्धता के प्रति आग्रह में किंचित कमी और भाषिक औदार्य के साथ उर्दू के शब्दों के प्रति पूर्वपेक्षा अधिक सहृदयता परिलक्षित होती है. सम्भवतः सतत परिवर्तित होते परिवेश, नयी पीढ़ी की भाषिक संवेदनाएं और आवश्यकताएं तथा समीक्षकीय मतों ने विराट जी को अधिक औदार्यता की और उन्मुख किया है.
गीतिका, उदयिका, प्रारम्भिक, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नए पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार कि टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धर के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतनता, लड़ाई लम्बी में मानसिक परिष्कार का आव्हान, मयय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद बोल मेरी ज़िंदगी में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है.
विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;
'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'
अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना और मात्राएँ गिराए बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण है. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-
तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो
जी सकूं मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
*
ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की कहाँ अपनी मिसाल आप है :
देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी
*
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है
*
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
*
लूं न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह
*
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले
*
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है
*
विराट मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकर का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं:
गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना
*
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
*
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है
*
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
*
उनका दवा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली
*
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे
*
मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
*
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे
*
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिससे
*
मेरे गीत! कुशलता से / मर्मव्यथा मार्दव से कह
*
गीत! इस मरुस्थल में तू कहाँ चला आया
*
बेच हमने भी दिए गीत नहीं रोयेंगे / पेट भर खायेंगे हम आज बहुत सोयेंगे
*
विराट जी हिंदी के वार्णिक-मात्रिक छंदों की नींव पर हिंदी ग़ज़ल के कथ्य की इमारत खड़ी कर उर्दू के बहरो-अमल से उसकी साज-सज्जा करते हैं. हिंदी ग़ज़लों की इस केसरिया स्वादिष्ट खीर में बराए नाम कुछ कंकर भी हैं जो चाँद में दाग की तरह हैं:
ये मीठी हँसी की अधर की मिठाई / हमें कुछ चखाओ गज़ल कह रहा हूँ
यहाँ प्रेमी अपनी प्रेमिका से अधरों की मधुरता चखने का निवेदन कर रहा है. कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से अनेकों को अधर-रस-पान करने का अनुरोध नहीं कर सकता। अतः, कर्ता एकवचन 'हैम' के स्थान पर 'मैं' होगा। यहाँ वचन दोष है.
दिल को चट्टान मान बैठे थे / किस कदर अश्रु से सजल निकली
यहाँ 'चट्टान' पुल्लिंग तथा 'निकली' स्त्रीलिंग होने से लिंग दोष है.
पत्नी को क्यों लगाया युधिष्ठिर बताइये / क्यों दांव पर स्वयं को लगाया नहीं गया?
महाभारत में वर्णित अनुसार युधिष्ठिर पहले राज्य फिर भाइयों को, फिर स्वयं को तथा अंत में द्रौपदी को हारे थे. अतः, यहाँ तथ्य दोष है.
'मौन क्यों रहती है तू' शीर्षक ग़ज़ल में 'रहती है तू, कहती है तू, महती है तू, दहति है तू, ढहती है तू, बहती है तू तथा सहती है तू' के साथ 'वरती है तू' का प्रयोग खटकता है.
'वचनों से फिर गया कोइ' शीर्षक गज़ल की अंतिम द्विपदी 'यह तो मौसन था उसके खिलने का / हाय, इसमें ही खिर गया कोई' में प्रयुक्त 'खिर' शब्द हिंदी-उर्दू शब्द कोष में नहीं मिला। यहाँ 'ही' को 'हि' की तरह पढ़ना पड़ रहा है जो हिंदी ग़ज़ल में दोष कहा जायेगा। यदि 'हाय, इसमें बिखर गया कोई' कर दिया जाए तो लय और अर्थ दोनों सध जाते हैं.
विराट जी की रचनाओं में पौराणिक मिथकों और दृष्टान्तों का पिरोया जाना स्वाभाविक और सहज है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य गीता-महाभारत-कृष्ण सम्बन्धी प्रसंगों का अनेक स्थलों पर विविध सन्दर्भों में मुखर होना है. यथा: हो चूका अन्याय तब भी जातियों के नाम पर / मान्य अर्जुन को किया पर कर्ण ठुकराया गया, बढ़ोगे तुम भी लक्ष्य वो चिड़िया की आँख का / अर्जुन की भाँति खुद को निष्णात तो करो, उठा दे दखल ज़िंदगी / यक्ष के ताल से चुन कमल ज़िंदगी, प्राप्त माखन नहीं / छाछ को क्यों मथा, सब कोष तो खुले हैं कुबेरों के वास्ते / लेकिन किसी सुदामा को अवसर तो नहीं है, फेन काढ़ता है दंश को उसका अहम् सदा / तक्षक का खानदान है / है तो हुआ करे, समर में कृष्ण ने जो भी युधिष्ठिर से कहलवाया / 'नरो वा कुंजरो वा' में सचाई है- नहीं भी है, हम अपनी डाल पर हैं सुरक्षित तो न चिंता / उन पर बहेलिये का है संधान हमें क्या? मोर का पंख / यश है मुकुट का बना, तुम बिना कृष्ण के अर्जुन हो उठो भीलों से / गोपियाँ उनकी बचा लो कि यही अवसर है, भीष्म से पार्थ बचे और न टूटे प्रण भी / कृष्ण! रथ-चाक उठा लो कि यही अवसर है, भोले से एकलव्य से अंगुष्ठ माँगकर / अर्जुन था द्रोण-शिष्य विरल कर दिया गया, एक सपना तो अर्जुन बने / द्रोण सी शिक्षा-दीक्षा करें आदि. उल्लेखनीय है कि एक ही प्रसंग को दो स्थानों पर दो भिन्नार्थों में प्रयोग किया गया है. यह गज़लकार की असाधारण क्षमता का परिचायक है.
सारतः, अनुप्रास, उपमा और दृष्टान्त विराट जी को सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं जिनका प्रयोग प्रचुरता से हुआ है. विराट जी की शब्द सामर्थ्य स्पृहणीय है. हिंदी शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू तथा देशज शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जबकि अंगरेजी शब्द (सेंसेक्स, डॉक्टर आदि) अपरिहार्य होने पर अपवाद रूप ही हैं. संग्रह में प्रयुक्त भाषा प्रसाद गुण संपन्न है. व्यंग्यात्मक, अलंकारिक तथा उद्बोधनात्मक शैली में विराट जी पाठक के मन को बाँध पाये हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर चतुर्दिक घट रही राजनैतिक घटनाओं और सामाजिक परिवर्त्तनों पर सजग कवि की सतर्क प्रतिक्रिया गज़लों को पठनीय ही नहीं ग्रहणीय भी बनाती हैं. सामयिक संकलनों की भीड़ में विराट जी का यह संग्रह अपनी परिपक्व चिनतंपूर्ण ग़ज़लों के कारण पाठकों को न केवल भायेगा अपितु बार-बार उद्धृत भी किया जायेगा।
११-२-२०१४
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