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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

मार्च १४, सॉनेट, सपना, दोहा मुक्तिका, श्रृंगार, गीत, तुम, मुक्तिका

सलिल सृजन मार्च १४
***
१८८६- डॉ. आनंदी बाई जोशी, एम.डी. उपाधि प्राप्त प्रथम भारतीय महिला
सॉनेट
सपना
*
अपना सपना अपनी सपना,
जो मिलकर भी मिली नहीं है,
वह खिलकर भी खिली नहीं है,
नहीं कली का कोई नपना।
सोते-जगते स्वप्न देखिए,
आब ख्वाब की सत्य नहीं है,
ताब घटे-बढ़ नित्य नहीं है,
कब देखा क्या नहीं लेखिए।
ड्रीम साथ कब किस का देता,
आता-जाता खाली हाथों,
राग-द्वेष नहिं मन धरता है।
नहीं आपसे कुछ भी लेता,
नहीं आपको कुछ भी देता,
राम राम झटपट करता है।
***
सॉनेट
दीपांजलि
*
दीपांजलि सत्कार है,
वसुधा प्रमुदित हो कहे,
रश्मि-दीप अनगिन दहे,
दिनकर का आभार है।
किरण किए शृंगार है,
पवन मिलन यादें तहे,
नहीं किसी से कुछ कहे,
ऊषा पर बलिहार है।
प्रकृति प्रणय पटकथा रच,
मौन; मंद मुस्का रही,
मानव कर नित नव सृजन।
है आत्मा की प्रीत सच,
परमात्मा यश गा रही,
चाहे हो पल-पल मिलन।
१४.३.२०२४
***
*
सॉनेट
जगत्पिता-जगजननी जय जय।
एक दूसरे के पूरक हो।
हम भी हो पाएँ यह वर दो।।
सचराचर को कर दो निर्भय।।
अजर अमर अविनाशी अक्षय।
मन मंदिर में सदा पधारो।
तन नंदी सेवा स्वीकारो।।
रखो शीश पर हाथ है विनय।।
हे अंबे! गौरी कल्याणी।
तर जाते जो भजते प्राणी।
मंगलमय कर दे माँ वाणी।।
नर्मदेश्वर शशिधर शंकर।
हे नटराज! न हो प्रलयंकर।
वैद्यनाथ कामारि कृपाकर।।
१४-३-२०२३
•••
मुक्तिका
*
निखरा निखरा निखरा मौसम
आभामय हो तो फिर क्यों गम
मिल पाएँ मुस्कान सजाएँ
बिछुड़ें तो अँखियाँ मत कर नम
विषम सियासत की राहें है
जन जीवन तो रहने दें सम
जल पलाश कोशिश करता है
कर पाए दुनिया से तम कम
संसद अब बन गई अखाड़ा
जिसे देखिए ठोंक रहा ख़म
दिल काला हो कोई न देखे
देखें देह कर रही चमचम
इंक्वायरी बम शासन फोड़े
है विपक्ष में घर घर मातम
१४-३-२०२३
***
दोहा-सलिला रंग भरी
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर
१४-३-२०१७
***
गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
***
दोहा मुक्तिका
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
११-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
तुम
*
तुम जबसे
सपनों में आयीं
बनकर नीलपरी,
तबसे
सपने रहे न अपने
कैसी विपद परी।
*
नैनों ने
नैनों में
नैनों को
लुकते देखा।
बैनों नें
बैनों में
बैनों को
घुलते लेखा।
तू जबसे
कथनों में आयी
कह कोई मुकरी
तबसे
कहनी रही न अपनी
मावट भोर गिरी।
*
बाँहों ने
बाँहों में
बाँहों को
थामे पाया।
चाहों नें
चाहों में
चाहों को
हँस अपनाया।
तू जबसे
अधरों पर छायी
तन्नक उठ-झुकरी
तबसे
अंतर रहा न अपना
एक भई नगरी।
*
रातों ने
रातों में
रातों को
छिपते देखा।
बातों नें
बातों से
बातों को
मिलते लेखा।
तू जबसे
जीवन में आयी
ले खुशियाँ सगरी
तबसे
गागर में सागर सी
जन्नत दिखे भरी।
१४-३-२०१६
***
मुक्तिका
*
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
*
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
*
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
*
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
*
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***
दोहा
ईश्वर का वरदान है, एक मधुर मुस्कान.
वचन दृष्टि स्पर्श भी, फूँक सके नव प्राण..
१४-३-२०१०

शनिवार, 8 मार्च 2025

मार्च ८, रामकिंकर, शिव, महिला दिवस, दोहा, सॉनेट, तुम, सुधारानी, श्रृंगार गीत, धरती

 सलिल सृजन मार्च

*
युगतुलसी स्मरण
***
शीलसिंधु राघव छवि अनुपम,
जगजननी जानकी वत्सला,
हनुमत राम भक्ति शुभ प्रबला,
रक्षक राम-नाम जप निरुपम।
मधुर मूर्ति माधव हरती तम,
राधा आद्याशक्ति मंजुला,
भक्ति भावधारा नव मृदुला,
काम करें निष्काम सदा हम।
वाल्मीकि श्रीराम उपासक,
तुलसी राम चरित के रसिया,
युगतुलसी भव तरे राम जप।
राम-कृष्ण भव सागर तारक,
सकल सृष्टि स्वामी उन्नायक,
नाम सुमिरना सहज सरल तप।
८ मार्च २०२४
***
सॉनेट
महाशिवरात्रि / महिला दिवस
*
महाकाल धूनी रमा लेते जब वैराग,
उमा अपर्णा तप करें शिव देते वरदान,
हिमगिरि-मैना मिल करें पुलकित कन्यादान,
द्वैत मिटा अद्वैत वर देते निजता त्याग।
अध नारी-नर में पले कालजयी अनुराग,
कार्तिकेय-गणपति तनय प्रगटे पुत्र महान,
तनया मनसा-नर्मदा देतीं जीवन-दान,
असमय व्यापे काम, दें फूँक लगाकर आग।
महिला दिवस न नर बिना मन सकता लें मान,
पूरक बनकर साथ हों, मिलें हाथ, हो खैर,
नहीं विरोधी हो कभी, रहिए कभी न दूर।
पुरुष दिवस महिला बिना कैसे हो रस-खान?
दें-पाएँ सम्मान नित, कभी न पालें बैर,
शब्द-अर्थ बनकर रहें सँग न जो वे सूर।
***
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे -अहमद फ़राज़
गिरहबंदी
हार जाने का हौसला है मुझे
वज़्न - २१२२ १२१२ २२ (११२)
अर्कान -- फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--फ़ेलुन
बह्र -- बह्रे-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ मक़्तूअ
क़ाफ़िया -- हौसला ('आ' की बंदिश)
रदीफ़ -- है मुझे
*
हारना-जीतना नहीं होगा
साथ होने का हौसला है मुझे।
*
चार सौ बीस मैं रहा प्यारे
नेता होने का हौसला है मुझे।
*
लाख फाके करूँ, न हारूँगा
फ़स्ल बोने का हौसला है मुझे।
*
नैन बेचैन नैन से उलझे
खोने-पाने का हौसला है मुझे।
*
बोल वादे किए न, जुमले थे
धोखे खाने का हौसला है मुझे।
***
गीत
मृत्युंजय
*
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
गौरी को पाकर निहाल हे!
रक्षक सकल सृष्टि के तुम ही-
ऊँचा रखना भक्त-भाल हे!!
हे नटराज! न अधिक नचाओ
भव सागर यह पार कराओ।
चरण-शरण ले लो शिव शंकर
श्वासें-आसें धन्य कराओ।
मुझे न होने दो निढाल हे!
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
नीलकंठ हे! अमृत-दाता
जो तुमको ध्याता तर जाता।
मन-मंदिर में करे विराजित-
जो वह मनवांछित पा जाता।
कृपा करो सुत पर भुआल हे!
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
निंगादेव! न मति हो दूषित
बड़ादेव! हों कहीं न शोषित।
उमानाथ त्रिपुरारि सदय हों-
महादेव! प्रभु!! करिए पोषित।
रहे न बाकी कुछ सवाल हे!
हे मृत्युंजय! महाकाल हे!!
***
विरासत
भारत के स्वाधीन होने के कुछ समय बाद इंग्लैण्ड की राष्ट्राध्यक्ष महारानी एलिजाबेथ पहली बार स्वतंत्र भारत में आ रही थीं। राजनैतिक शिष्टाचार के अनुसार भारत के राष्ट्राध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अपनी पत्नी सहित हाथ मिलाकर उनका स्वागत करना था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें इससे अवगत कराया। राजेंद्र बाबू यह सुन कर बोले," प्रोटोकाल के तहत मेरी पत्नी भी साथ होंगी उस समय, फिर तो यह मुझ से न हो पाएगा।"
नेहरु जी ने पूछा,"कठिनाई क्या है?"
राजेंद्र बाबू ने कहा- "किसी और स्त्री से हाथ मिलाने पर पत्नी कहीं भड़क गईं और महारानी के बाल नोचने पर आमादा हो गईं तो अनर्थ हो जाएगा।"
नेहरु बोले- "हाँ,यह दिक्कत तो बड़ी है। फिर नेहरू जी ने ही सलाह दी कि आप सिर्फ़ हाथ जोड़ लें। मैं आगे बढ़ कर जल्दी से हाथ मिला लूँगा, किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा।"
पद पर रहते हुए अपना कर्तव्य पूर्ण न करना राजेन्द्र प्रसाद जी का स्वभाव नहीं था। जब महारानी आईं तो राजेंद्र प्रसाद ने महारानी से ख़ुद ही हाथ मिला लिया। अब नेहरू जी घबराए कि कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए पर कहीं कुछ भी नहीं हुआ।
राजेंद्र प्रसाद की पत्नी राजवंशी देवी शांत खड़ी रहीं। बाद में जब महारानी की भारत यात्रा सकुशल संपन्न हो गई और वह इंग्लैण्ड लौट गईं तब एक दिन राजेंद्र प्रसाद से नेहरू ने पूछा कि आपने तो हाथ मिला लिया और कुछ नहीं हुआ। तो राजेंद्र बाबू ने नेहरू को बताया कि असल में उस दिन आप के जाने बाद रात में पत्नी से बात की-
"एक संकट आ गया है। एक अंगरेज औरत से हाथ मिलाना पड़ेगा।'' पहले तो वह बहुत नाराज हुईं कि मेरे रहते तो यह संभव नहीं। फिर मैं ने पत्नी को बताया कि मामला नौकरी का है अगर उस अंगरेज औरत से हाथ नहीं मिलाया तो नौकरी चली जाएगी। यह सुनकर पत्नी ने कहा- "अगर बात नौकरी की है तो हाथ मिला लीजिए, नौकरी नहीं जानी चाहिए।"
***
चिंतन: दोहा मंथन १.
*
लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
क्षणिका
महिला
*
खुश हो तो
खुशी से दुनिया दे हिला
नाखुश हो तो
नाखुशी से लोहा दे पिघला
खुश है या नाखुश
विधाता को भी न पता चला
अनबूझ पहेली
अनन्य सखी-सहेली है महिला
***
सॉनेट
तुम
*
ट्रेन सरीखी लहरातीं तुम।
पुल जैसे मैं थरथर होता।
अपनों जैसे भरमातीं तुम।।
मैं सपनों सा बेघर होता।।
तुम जुमलों जैसे मन भातीं।
मैं सचाई सम कडुवा लगता।
न्यूज़ सरीखी तुम बहकातीं।।
ठगा गया मैं; खुद को ठगता।।
कहतीं मन की बात, न सुनतीं।
जन की बात अनकही रहती।
ईश न जाने क्या तुम गुनतीं।।
सुधियों की चादर नित तहती।।
तुम केवल तुम, कोई न तुम सा।
तुम में हूँ मैं खुद भी गुम सा।।
८-३-२०२२
***
मुक्तिका
*
झुका आँखें कहर ढाए
मिला नज़रें फतह पाए
चलाए तीर जब दिल पर
न कोई दिल ठहर पाए
गहन गंभीर सागर सी
पवन चंचल भी शर्माए
धरा सम धैर्य धारणकर
बदरियों सी बरस जाए
करे शुभ भगवती हो यह
अशुभ हो तो कहर ढाए
कभी अबला, कभी सबला
बला हर पल में हर गाए
न दोधारी, नहीं आरी
सुनारी सभी को भाए
८-३-२०२०
***
महिला दिवस पर विशेष
बहुमुखी प्रतिभा की धनी विधि पंडिता सुधारानी श्रीवास्तव
श्रीमती सुधारानी श्रीवास्तव का महाप्रस्थान रंग पर्व के रंगों की चमक कम कर गया है। इल बहुमुखी बहुआयामी प्रतिभा का सम्यक् मूल्यांकन समय और समाज नहीं कर सका। वे बुंदेली और भारतीय पारंपरिक परंपराओं की जानकार, पाककला में निष्णात, प्रबंधन कला में पटु, वाग्वैदग्धय की धनी, शिष्ट हास-परिहासपूर्ण व्यक्तित्व की धनी, प्रखर व्यंग्यकार, प्रकांड विधिवेत्ता, कुशल कवयित्री, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू साहित्य की गंभीर अध्येता, संगीत की बारीकियों को समझनेवाली सुरुचिपूर्ण गरिमामयी नारी हैं। अनेकरूपा सुधा दीदी संबंधों को जीने में विश्वास करती रहीं। उन जैसे व्यक्तित्व काल कवलित नहीं होते, कालातीत होकर अगणित मनों में बस जाते हैं।
सुधा दीदी १९ जनवरी १९३२ को मैहर राज्य के दीवान बहादुर रामचंद्र सहाय व कुंतीदेवी की आत्मजा होकर जन्मीं। माँ शारदा की कृपा उन पर हमेशा रही। संस्कृत में विशारद, हिंदी में साहित्य रत्न, अंग्रेजी में एम.ए.तथा विधि स्नातक सुधा जी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहीं। विधि साक्षरता के प्रति सजग-समर्पित सुधा जी १९९५ से लगातार दो दशकों तक मन-प्राण से समर्पित रहीं। सारल्य, सौजन्य, ममत्व और जनहित को जीवन का ध्येय मानकर सुधा जी ने शिक्षा, साहित्य और संगीत की त्रिवेणी को बुंदेली जीवनशैली की नर्मदा में मिलाकर जीवनानंद पाया-बाँटा।
वे नारी के अधिकारों तथा कर्तव्यों को एक दूसरे का पूरक मानती रहीं। तथाकथित स्त्रीविमर्शवादियों की उन्मुक्तता को उच्छृंखलता को नापसंद करती सुधा जी, भारतीय नारी की गरिमा की जीवंत प्रतीक रहीं। सुधा दीदी और उन्हें भौजी माननेवाले विद्वान अधिवक्ता राजेंद्र तिवारी की सरस नोंक-झोंक जिन्होंने सुनी है, वे आजीवन भूल नहीं सकते। गंभीरता, विद्वता, स्नेह, सम्मान और हास्य-व्यंग्य की ऐसी सरस वार्ता अब दुर्लभ है। कैशोर्य में
संस्कारधानी के दो मूर्धन्य गाँधीवादी हिंदी प्रेमी व्यक्तित्वों ब्यौहार राजेंद्र सिंह व सेठ गोविंददास द्वारा संविधान में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए किए गए प्रयासों में सुधा जी ने निरंतर अधिकाधिक सहयोग देकर उनका स्नेहाशीष पाया।
अधिवक्ता और विधिवेत्ता -
१३ अप्रैल १९७५ को महान हिंदी साहित्यकार, स्त्री अधिकारों की पहरुआ,महीयसी महादेवी जी लोकमाता महारानी दुर्गावती की संगमर्मरी प्रतिमा का अनावरण करने पधारीं। तब किसी मुस्लिम महिला पर अत्याचार का समाचार सामने आया था। महादेवी जी ने मिलने पहुँची सुधा जी से पूछा- "सुधा! वकील होकर तू महिलाओं के लिए क्या कर रही है?" महीयसी की बात मन में चुभ गयी। सुधा दीदी ने इलाहाबाद जाकर सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रिका मनोरमा के संपादक को प्रेरित कर महिला अधिकार स्तंभ आरंभ किया। शुरू में ४ अंकों में पत्र और उत्तर दोनों वे खुद ही लिखती रहीं। बाद में यह स्तंभ इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि रोज ही पत्रों का अंबार लगने लगा। यह स्तंभ १९८१ तक चला। विधिक प्रकरणों, पुस्तक लेखन तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण इसे बंद किया गया। १९८६ से १९८८ तक दैनिक नवीन दुनिया के साप्ताहिक परिशिष्ट नारी निकुंज में "समाधान" शीर्षक से सुधा जी ने विधिक परामर्श दिया।
स्त्री अधिकार संरक्षक -
सामान्य महिलाओं को विधिक प्रावधानों के प्रति सजग करने के लिए सुधा जी ने मनोरमा, धर्मयुग, नूतन कहानियाँ, वामा, अवकाश, विधि साहित्य समाचार, दैनिक भास्कर आदि में बाल अपराध, किशोर न्यायालय, विवाह विच्छेद, स्त्री पुरुष संबंध, न्याय व्यवस्था, वैवाहिक विवाद, महिला भरण-पोषण अधिकार, धर्म परिवर्तन, नागरिक अधिरार और कर्तव्य, तलाक, मुस्लिम महिला अधिकार, समानता, भरण-पोषण अधिकार, पैतृक संपत्ति अधिकार, स्वार्जित संपत्ति अधिकार, विधिक सहायता, जीवनाधिकार, जनहित विवाद, न्याय प्रक्रिया, नागरिक अधिकार, मताधिकार, दुहरी अस्वीकृति, सहकारिता, महिला उत्पीड़न, मानवाधिकार, महिलाओं की वैधानिक स्थिति, उपभोक्ता संरक्षण, उपभोक्ता अधिकार आदि ज्वलंत विषयों पर शताधिक लेख लिखे। कई विषयों पर उन्होंने सबसे पहले लिखा।
विधिक लघुकथा लेखन-
१९८७ में सुधा जी ने म.प्र.राज्य संसाधन केंद्र (प्रौढ़ शिक्षा) इंदौर के लिए कार्यशालाओं का आयोजन कर नव साक्षर प्रौढ़ों के लिए न्याय का घर, भरण-पोषण कानून, अमन की राह पर, वैवाहिक सुखों के अधिकार, सौ हाथ सुहानी बात, माँ मरियम ने राह सुझाई, भूमि के अधिकार आदि पुस्तकों में विधिक लघुकथाओं के माध्यम से हिंदू, मुस्लिम, ईसाई कानूनों का प्राथमिक ग्यान दिया।
उपभोक्ता हित संरक्षण
१९८६ में उपभोक्ता हित संरक्षण कानून बनते ही सुधा जी ने इसका झंडा थाम लिया और १९९२ में "उपभोक्ता संरक्षण : एक अध्ययन" पुस्तक लिखी। भारत सरकार के नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने इसे पुरस्कृत किया।
मानवाधिकार संरक्षण
वर्ष १९९३ में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम बना। सुधा जी इसके अध्ययन में जुट गईं। भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद दिल्ली के सहयोग से शोध परियोजना "मानवाधिकार और महिला उत्पीड़न" पर कार्य कर २००१ में पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया। इसके पूर्व म.प्र.हिंदी ग्रंथ अकादमी ने सुधा जी लिखित "मानवाधिकार'' ग्रंथ प्रकाशित किया।
विधिक लेखन
सुधा दीदी ने अपने जीवन का बहुमूल्य समय विधिक लेखन को देकर ११ पुस्तकों (भारत में महिलाओं की वैधानिक स्थिति, सोशियो लीगल अास्पेक्ट ऑन कन्ज्यूमरिज्म, उपभोक्ता संरक्षण एक अध्ययन, महिलाओं के प्रति अपराध, वीमेन इन इंडिया, मीनवाधिकार, महिला उत्पीड़न और मानवाधिकार, उपभोक्ता संरक्षण, भारत में मानवाधिकार की अवधारणा, मानवाधिरार और महिला शोषण, ह्यूमैनिटी एंड ह्यूमन राइट्स) का प्रणयन किया।
सशक्त व्यंग्यकार -
सुधा दीदी रचित वकील का खोपड़ा, दिमाग के पाँव तथा दिमाग में बकरा युद्ध तीन व्यंग्य संग्रह तथा ग़ज़ल-ए-सुधा (दीवान) ने सहृदयों से प्रशंसा पाई।
नर्मदा तट सनातन साधनास्थली है। सुधा दीदी ने आजीवन सृजन साधना कर हिंदी माँ के साहित्य कोष को समृद्ध किया है। दलीय राजनीति प्रधान व्यवस्था में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होंने जो मापदंड स्थापित किए हैं, वे अपनी मिसाल आप हैं। सुधा जी जैसे व्यक्तित्व मरते नहीं, अमर हो जाते हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष और सराहना निरंतर मिलती रही।
८-३-२०२०
***
गीत
महिला दिवस
*
एक दिवस क्या
माँ ने हर पल, हर दिन
महिला दिवस मनाया।
*
अलस सवेरे उठी पिता सँग
स्नान-ध्यान कर भोग लगाया।
खुश लड्डू गोपाल हुए तो
चाय बनाकर, हमें उठाया।
चूड़ी खनकी, पायल बाजी
गरमागरम रोटियाँ फूली
खिला, आप खा, कंडे थापे
पड़ोसिनों में रंग जमाया।
विद्यालय से हम,
कार्यालय से
जब वापिस हुए पिताजी
माँ ने भोजन गरम कराया।
*
ज्वार-बाजरा-बिर्रा, मक्का
चाहे जो रोटी बनवा लो।
पापड़, बड़ी, अचार, मुरब्बा
माँ से जो चाहे डलवा लो।
कपड़े सिल दे, करे कढ़ाई,
बाटी-भर्ता, गुझिया, लड्डू
माँ के हाथों में अमृत था
पचता सब, जितना जी खा लो।
माथे पर
नित सूर्य सजाकर
अधरों पर
मृदु हास रचाया।
*
क्रोध पिता का, जिद बच्चों की
गटक हलाहल, देती अमृत।
विपदाओं में राहत होती
बीमारी में माँ थी राहत।
अन्नपूर्णा कम साधन में
ज्यादा काम साध लेती थी
चाहे जितने अतिथि पधारें
सबका स्वागत करती झटपट।
नर क्या,
ईश्वर को भी
माँ ने
सोंठ-हरीरा भोग लगाया।
*
आँचल-पल्लू कभी न ढलका
मेंहदी और महावर के सँग।
माँ के अधरों पर फबता था
बंगला पानों का कत्था रँग।
गली-मोहल्ले के हर घर में
बहुओं को मिलती थी शिक्षा
मैंनपुरी वाली से सीखो
तनक गिरस्थी के कुछ रँग-ढंग।
कर्तव्यों की
चिता जलाकर
अधिकारों को
नहीं भुनाया।
८-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
रहवासी
*
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
खनक-झनक सुनने के आदी
कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं।
''ए जी! ओ जी!!'' मंत्र-ऋचा बिन
कहा नहीं पर प्राण विकल हैं।
नाकाफी लगती है कॉफ़ी
फीके क्यों लगते गुड-शक्कर?
बिना काम क्यों शयन कक्ष के
लगा रहा चक्कर घनचक्कर?
खबर न रुचती, चर्चा नीरस
गीत अगीत हुए जाते हैं
बिन मुखड़ा हर एक अंतरा
लय-गति-रस
आधार खो रहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
डाले लेकिन गौरैया आ
बैठ मुँडेरे चुगे न दाना।
दरवाजे पर डाली रोटी
नहीं गाय का मगर ठिकाना।
बिना गुहारे चला गया है
भिक्षुक भी मुझको निराश कर
मन न हो रहा दफ्तर छोडूँ
जल्दी से जल्दी जाऊँ घर।
अधिकारी हो चकित पूछता
कहो, आज क्या घडी बंद है?
क्या बतलाऊँ उसे लघुकथा
का भूली है
कलम ककरहा
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
*
सब्जी नमक हलाल नहीं है
खाने लायक दाल नहीं है।
चाँवल की संसद में कंकर
दाँत कौन बेहाल नहीं है?
राम राज्य आना है शायद
बही दूध की नदी आज भी।
असल डूबना हुआ सुनिश्चित
हाथ न लगता कुफ़्र ब्याज भी।
अर्थशास्त्र फिकरे कसता है
हार गया रे गीतकार तू!
तेरे बस में नहीं रहा कुछ
क्यों पत्थर पर
फसल बो रहा?
ओ मन-मन्दिर की रहवासी!
तुम बिन घर
क्यों भवन हो रहा?
८-३-२०१६
***
कविता महिला दिवस पर :
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता-संस्कृति को,
धरती जन्म देती है
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
८-३-२०११
***
मुक्तिका
*
भुज पाशों में कसता क्या है?
अंतर्मन में बसता क्या है?
*
जितना चाहा फेंक निकालूँ
उतना भीतर धँसता क्या है?
*
ऊपर से तो ठीक-ठाक है
भीतर-भीतर रिसता क्या है?
*
दिल ही दिल में रो लेता है.
फिर होठों से हँसता क्या है?
*
दाने हुए नसीब न जिनको
उनके घर में पिसता क्या है?
*
'सलिल' न पाई खलिश अगर तो
क्यों है मौन?, सिसकता क्या है?
८-३-२०१०
***

रविवार, 2 मार्च 2025

मार्च २, सॉनेट, रामकिंकर, नवगीत, दोहा, माँ, श्रृंगार, तुम, गए, पूर्णिका, इरफान झाँसवी, होली,

 सलिल सृजन मार्च २

*
पूर्णिका ० जबलपूर की शान सच मानो इरफान कहे बाद में शे'र पहले फूँके जान है ऐसा किरदार कहें जिसे इंसान आम आदमी की बोले खरी जुबान दोस्त जमाने को मान रहा नादान 'सलिल'-मुहब्बत ही है इसका उनवान हुईं सरस्वती जी इस पर मेहरबान ०००
कुंडलिया
होली खेली एक से, दूजे की सुधि संग।
रंग बदलते देखकर, रंग हो रहे दंग।।
रंग हो रहे दंग, भंग पी हुए नशीले।
मुँदे आप ही आप, अजाने नैन कँटीले।।
अधर अधर बिन विकल, 
कहे नहिं सजनी भोली।
थाम अधर से अधर, मना ले साजन होली।।
२.३.२०२५
०००
इंग्लिश सॉनेट
रामकिंकर
हैं रामकिंकर नहीं देह केवल,
भजन-भक्ति में लीन प्रज्ञा सनातन,
नहीं देह उनको रही गेह केवल,
बनी उपकरण राम जप हित पुरातन।
पहना वसन आत्मा ने तभी तक,
जब तक सभी कर्म बंधन न टूटे,
किया स्वच्छ दर्पण मन का गमन तक,
सजग थे कहीं कोई कालिख न छूटे।
न दो हैं किशन-राम जग को बताया,
चरित कैकई का बताया महत्तम,
शिव-राम-हनुमत को मस्तक नवाया,
कहा प्रभु कृपा पाए वह जो लघुत्तम।
थे रामकिंकर कहे जो ग़लत वो,
हैं रामकिंकर जिएँ राम को जो।
२.३.२०२४
•••
इटेलियन सॉनेट
तेरा मेरा साथ
*
तेरा मेरा साथ,
नामी अरु गुमनाम,
ज्यों हों छंद-विराम,
ले हाथों में हाथ।
राजमार्ग-फुटपाथ,
जुमला अरु पैगाम,
खास आदमी आम,
पैर उठाए माथ।
साथ मगर है दूर,
नदिया के दो तीर,
हम हैं नाथ-अनाथ।
आँखें रहते सूर,
लोई और कबीर,
साथ न रहकर साथ।
***
सॉनेट
मीन प्यासी है अपने दरिया में
*
मीन प्यासी है अपने दरिया में
डाल दो जाल फँस ही जाएगी,
इश्क है कीच धँस भी जाएगी,
ज्यों हलाला है बीच शरीआ में।
कौन किसका हुआ है दुनिया में,
साँस अरु आस सँग ही जाएगी,
ज़िंदगी खूब आजमाएगी,
गुन ही होता नहीं है गुनिया में।
आपने खुद को नहीं जाना
आईना व्यर्थ ही सदा देखा,
टकतीं और को रही आँखें।
जान लूँ गैरों को सदा ठाना,
खुद का खुद ही किया कभी लेखा?
काट लीं खुद की खुद सभी शाखें।
२.३.२०२४
***
सॉनेट
जो चले गए; वे नहीं गए।
जो रुके रहे; वे नहीं रहे।
कहें कौन बह के नहीं बहे?
कहें कौन हैं जो सदा नए?
.
जो परे रहे; न परे हुए।
जो जुड़े; नहीं वे कभी जुड़े।
जहाँ राह पग भी वहीं मुड़े।
जो सगे बने; न सगे हुए।
.
न ही आह हो; न ही वाह हो।
नहीं गैर की परवाह हो।
प्रभु! धैर्य दे जो अथाह हो।।
.
पाथेय कुछ न गुनाह हो।
गहराई हो तो अथाह हो।
गर सलिल हो तो प्रवाह हो।।
२-३-२०२३
•••
सॉनेट
प्रार्थना
सरस्वती जी सुमति दीजिए।
अंगुलियों पर रमें रमा माँ।
शिवा शक्ति दे कृपा कीजिए।।
रहें उर में विधि-हरि-हर सदा।।
चित्र गुप्त मस्तक में बसिए।
गोद खिलाए धरती माता।
पिता गगन हो कभी न तजिए।।
पवन सखा सम शांति प्रदाता।।
आत्म दीप कर अग्नि प्रकाशित।
रहे जीव संजीव सलिल से।
मानवता हित रहें समर्पित।।
खिलें रहें हम शत शतदल से।।
कर जोड़ें, दस दिश प्रणाम कर।
सभी सुखी हों, सबका शुभ कर।।
२-३-२०२२
•••
नवगीत
सुनो शहरियों!
*
सुनो शहरियों!
पिघल ग्लेशियर
सागर का जल उठा रहे हैं
जल्दी भागो।
माया नगरी नहीं टिकेगी
विनाश लीला नहीं रुकेगी
कोशिश पार्थ पराजित होगा
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी
बुनो शहरियों !
अब मत सपने
खुद से खुद ही ठगा रहे हो
मत अनुरागो
संबंधों के लाक्षागृह में
कब तक खैर मनाओगे रे!
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे!
उठो शहरियों !
बेढब नपने
बना-बना निज श्वास घोंटते
यह लत त्यागो
साँपिन छिप निज बच्चे सेती
झाड़ी हो या पत्थर-रेती
खेत हो रहे खेत सिसकते
इमारतों की होती खेती
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर
निज ख्वाबों का खून करो
सोओ, मत जागो
१५-११-२०१९
***
दोहा सलिला
माँ
*
माता के दरबार में, आत्म ज्योति तन दीप।
मुक्ता मणि माँ की कृपा, सफल साधना सीप।।
*
मैया कर इतनी कृपा, रहे सत्य का बोध।
लोभ-मोह से दूर रख, बालक भाँति अबोध।।
*
जो पाया पूरा नहीं, कम कुबेर का कोष।
मातु-कृपा बिन किस तरह, हो मन को संतोष।।
*
रचना कर संसार की, माँ लेती है पाल।
माई कब कुछ दे सका, हर शिशु है कंगाल।।
*
जननी ने जाया जिन्हें, जातक सभी समान।
जाति देश या धर्म की, जय बोलें नादान।।
*
अंब! तुम्हीं जगदंब हो, तुमसे सकल जहान।
तुम ही लय गति यति तुम्हीं, तुम ही हो रस-खान।।
*
बेबे आई ई अनो, तल्ली जीजी प्लार।
अमो अमा प्यो मोज मुम, म्ये बा इमा दुलार।।
*
बीजी ब्वे माई इया, मागो पुई युम मम।
अनो मम्ज बीबी इजू, मैडी मुम पुरनम।।
*
आमा मागो मुमा माँ, मामा उम्मा स्नेह।
थाई, माई, नु, अम्मे, अम्मी, भाभी गेह।।
*
मम्मी मदर इमा ममी, अम्मा आय सुशांत।
एमा वाहू चईजी, बाऊ मामा कांत ।।
(माँ के ६० पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त)
***
श्रृंगार गीत
*
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
*
रूप देख गमक उठे
चेहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
गीतों की मंजरी में
खिलखलाये पारिजात
गिन -गिन दिन आज का।
*
चुप पलाश दहक उठे
महुआ सम बहक उठे
गौरैया मन संझा
कलरव कर चहक उठे
मादक मुस्कानों में
प्रमुदित हो अमलतास
खिल-खिल दिन आज का।
***
कुंडलिया
*
थोड़ी सी मस्ती हमें, दे दे जग के नाथ।
थोड़ी सी सस्ती मिले, ठंडाई भंग साथ।।
ठंडाई भंग साथ, रंग बरसाने जाएँ।
बरसाने की लली दरस दिखलाने आएँ।।
रंग लगाने मची रहे, होड़ाहोड़ी सी।
दे दे मस्ती नाथ, हमें जग के थोड़ी सी।।
***
मुक्तक
*
आप-हम हैं साथ सुख-संतोष है
सृजन सार्थक शांति का जयघोष है
सत्य-शिव-सुंदर रचें साहित्य सब
सत्-चित्-आनंद जीवन कोष है
***
मुक्तिका
*
बेच घोड़े सोइए, अब शांति है
सत्य से मुँह मोड़िए, अब शांति है
मिल गई सत्ता, करें मनमानियाँ
द्वेष नफरत बोइए, अब शांति है
बाँसुरी ले हाथ में, घर बारिए
मार पत्थर रोइए, अब शांति है
फसल जुमलों की उगाई आपने
बोझ शक का ढोइए, अब शांति है
अंधभक्तों! आँख अपनी खोलिए
सत्य को मत खोइए, अब शांति है
हैं सभी नंगे हमामों में यहाँ
शकल अपनी धोइए, अब शांति है
शांत शोलों में छिपीं चिनगारियाँ
जिद्द नाहक छोड़िए, अब शांति है
२-३-२०२०
***
दोहा की होली
*
दीवाली में दीप हो, होली रंग-गुलाल
दोहा है बहुरूपिया, शब्दों की जयमाल
*
जड़ को हँस चेतन करे, चेतन को संजीव
जिसको दोहा रंग दे, वह न रहे निर्जीव
*
दोहा की महिमा बड़ी, कीर्ति निरुपमा जान
दोहा कांतावत लगे, होली पर रसखान
*
प्रथम चरण होली जले, दूजे पूजें लोग
रँग-गुलाल है तीसरा, चौथा गुझिया-भोग
*
दोहा होली खेलता, ले पिचकारी शिल्प
बरसाता रस-रंग हँस, साक्षी है युग-कल्प
*
दोहा गुझिया, पपडिया, रास कबीरा फाग
दोहा ढोलक-मँजीरा, यारों का अनुराग
*
दोहा रच-गा, झूम सुन, होला-होली धन्य
दोहा सम दूजा नहीं. यह है छंद अनन्य
***
होलिकोत्सव २-३-२०१८
***
विमर्श - 'गाय' और सनातन धर्म ?
कहते हैं गाय माता है, ऐसा वेद में लिखा है। गौरव की बात है! माता है तो रक्षा करें; किन्तु वेद में यह कहाँ लिखा है कि गाय सनातन धर्म है, उसकी पूजा करो ?
वेद में लिखा है कि गाय माता है तो वेद में यह भी लिखा है कि उसका पति कौन है? अथर्ववेद के नवम् काण्ड का चतुर्थ ऋषभ सुक्त है, जिसके दूसरे और चौथे मन्त्र में बैल को ''पिता वत्सानां पतिरध्यानाम्'' अर्थात गाय का पति और बछड़ों का पिता कहा गया है।
तो क्या बैल को पिता मानकर पूजना होगा? गाय को ही क्यों,
ऋग्वेद (१०/६२/३१) में पृथ्वी को माता कहा गया है।,
(१०६४/९) में जल को माता कहा गया,
(यजुर्वेद १२/७८) में ''औषधीरिती मातर:'' औषधियों को माता कहा गया, तो क्या इनको पूजने लगें ?
इसी प्रकार मानस में-
''जनु मरेसि गुर बाँभन गाई।''
(मानस २/१४६/३) इनका विशेष महत्त्त्व है, गाय का भी महत्त्त्व है। जो वस्तु विकास में सहयोगी , उसी का महत्त्व होगा।
जैसे आजकल बिजली का बड़ा महत्त्व है, राष्ट्रीय सम्पत्ति है। आविष्कारों का महत्त्व तो घटता-बढ़ता ही रहता है; किन्तु इससे कोई वस्तु धर्म नहीं हो जाती।
वेद में तो यह भी लिखा है कि अत्यन्त झूठ बोलनेवालों को, मारपीट और तोड़फोड़ करनेवाले को, घमण्डी लोगों को हे राजन! उसी प्रकार छेद डालो जैसे;
कूदने वाली गाय को लात से और हाड़ी को एड़ी से मारते हैं। (अथर्ववेद, ८/६/१७)
इसी प्रकार ऋग्वेद में है-
''रजिषठया रज्या पश्व: आ गोस्तू तूर्षति पर्यग्रं दुवस्यु''
(१०/१०१/१२)
अर्थात् जिस प्रकार सेवक गाय आदि, पशु की नाक में रस्सी लगाकर, उसे पीड़ीत करते हुए आगे ले जाता है....।
इस ऋचा में गाय को पशु कहा गया और उसके रखरखाव की एक व्यवस्था दी गई, न कि ऐसा करना कोई धर्म है।
जब श्रीलंका में भारती शान्ति सेना गयी थी तो वहाँ के लिट्टे वाले कहते- जय लंकामाता! यहाँ हम कहते हैं-भारतमाता। कहीं कहते हैं गंगामाता। अमेरिका में अमेजन नदी को पिता कहते हैं।
यह तो मनुष्यों द्वारा दी हुयी मान्यताएँ हैं। उपाधि किसी को भी मिल सकती है, जैसे मदर टेरेसा। हर पादरी को क्रिश्चियन फादर कहते हैं।
हिरोशिमा पर बम गिरा तो उसे बसाने के प्रयास में उनतीस बच्चों को जन्म देनेवाली माता को वहाँ 'मदरलैण्ड' की उपाधि से विभूषित किया गया।
अस्तु परिवर्तनशील सामाजिक व्यवस्था के बारे में कोई भी लिखा-पढ़ी हर समय के लिये उपयोगी नहीं हो सकती।
उसका पीछा करेंगे तो विकसित देशों से सैकड़ों वर्ष पीछे उसी युग में पहूँच जायेंगे।
जब मोरपंख से भोजपत्र पर लिखते थे, अरणीयों को घिस कर- दो लकड़ीयों को घिस कर आग जलाते थे, उसके संग्रह की व्यवस्था भी न थी जैसा कि महाभारत काल तक था- एक ब्राह्मण की अरणी लेकर मृग भागा तो युधिष्ठिर ने पीछा किया।
.... वैदिक काल से परावर्ती पूर्वजों की शोध को नकारना तो अन्याय है ही, धृष्टता की पराकाष्ठा भी है कि उपयोग तो हम भैंस का करें किन्तु गुण गाय के गायें;
उपयोग ट्रैक्टर का करें गीत बैलों का गायें, उर्वरकों के बिना जीवन यापन न हो किन्तु महिमा गोबर की बताएँ।
गाय के पीछे नारेबाजी करनेवाले कितने ऐसे हैं जो उन बैलो को बिठाकर खिलाते हों, जिन्हों ने आजीवन उनका खेत जोता है? शायद ही कोई बैल किसान के खूँटे पर मरता हो? वृद्ध से वृद्ध बैल को सौ-पचास रुपये में बेचनेवाले क्या अपनी बला नहीं टालते? क्या वे नहीं जानते कि लेजाने वाला इनका क्या करेगा ?
(शंका-समाधान से साभार)
# विचार अवश्य करें ।।
|| श्री परमात्मने नम: ||
>~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~<
त्रुटियों हेतु क्षमायाचना पश्चात- धर्मशास्त्र 'धर्म' का मार्ग निर्देशक प्रकाश-स्तम्भ होता है। कहीं भ्रम या भटकाव पर दिशा-निर्देश का कार्य करते हैं, के अभाव में आज हम सनातन-धर्मी इस दशा-दिशा को प्राप्त हो अपेक्षाकृत अति छोटे भूखण्ड वर्तमान 'भारत' में भी अल्पसंख्यक-बहुसंख्क के विवाद में उलझे पड़े हैं। हमारा/समाज/राष्ट्र का व्यापक हित इस में सन्निहित है कि एक सर्वमान्य धर्मशास्त्र का अनुसरण करें जबकि 'गीता' हमारा ही नहीं अपितु मानवमात्र का आदिशास्त्र है।
'गीता' आज की प्रचलित भाषा में नहीं है की हमारे समकालीन महापुरुष (तपस्वी सन्त) की अनुभवगम्य व्याख्या 'यथार्थ गीता' की २-३ आवृत्ति करें और भगवान श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक संदेश से अवगत हों। धर्मशास्त्र के रुप में उचित सम्मान प्रदान करें 'हिन्दू' के वास्तविक सम्वर्धन की ओर कदम बढायें।
***
मुक्तिका: तुम
*
तुम कैसे जादू कर देती हो
भवन-मकां में आ, घर देती हो
*
रिश्तों के वीराने मरुथल को
मंदिर होने का वर देती हो
*
चीख-पुकार-शोर से आहत मन
मरहम, संतूरी सुर देती हो
*
खुद भूखी रह, अपनी भी रोटी
मेरी थाली में धर देती हो
*
जब खंडित होते देखा विश्वास
नव आशा निशि-वासर देती हो
*
नहीं जानतीं गीत, ग़ज़ल, नवगीत
किन्तु भाव को आखर देती हो
*
'सलिल'-साधना सफल तुम्हीं से है
पत्थर पल को निर्झर देती हो
***
श्रृंगार गीत
तुम सोईं
*
तुम सोईं तो
मुँदे नयन-कोटर में सपने
लगे खेलने।
*
अधरों पर छा
मंद-मंद मुस्कान कह रही
भोर हो गयी,
सूरज ऊगा।
पुरवैया के झोंके के संग
श्याम लटा झुक
लगी झूलने।
*
थिर पलकों के
पीछे, चंचल चितवन सोई
गिरी यवनिका,
छिपी नायिका।
भाव, छंद, रस, कथ्य समेटे
मुग्ध शायिका
लगी झूमने।
*
करवट बदली,
काल-पृष्ठ ही बदल गया ज्यों।
मिटा इबारत,
सबक आज का
नव लिखने, ले कोरा पन्ना
तजकर आलस
लगीं पलटने।
*
ले अँगड़ाई
उठ-बैठी हो, जमुहाई को
परे ठेलकर,
दृष्टि मिली, हो
सदा सुहागन, कली मोगरा
मगरमस्त लख
लगी महकने।
*
बिखरे गेसू
कर एकत्र, गोल जूड़ा धर
सर पर, आँचल
लिया ढाँक तो
गृहस्वामिन वन में महुआ सी
खिल-फूली फिर
लगी गमकने।
*
मृगनयनी को
गजगामिनी होते देखा तो
मकां बन गया
पल भर में घर।
सारे सपने, बनकर अपने
किलकारी कर
लगे खेलने।
२-३-२०१६
***
श्रृंगार गीत:
.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
.
आते-जाते रंग देखता
चेहरे के
चुप-दंग हो.
कब कबीर ने यह चाहा
तुम उसे देख
यूं तंग हो?
गंद समेटी सिर्फ इसलिए
प्रिय! तुम
निर्मल गंग हो
सोचा न पाया पल आयेगा
तुम्हीं नहीं
जब सँग हो.
होली हो ली
अब क्या होगी?
भग्न आस-सन्तूर है.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
.
फाग-राग का रिश्ता-नाता
कब-किसने
पहचाना है?
द्वेष-घृणा की त्याज्य सियासत
की होली
धधकाना है.
जड़ जमीन में जमा जुड़ सकें
खेत-गाँव
सरसाना है.
लोकनीति की रंग-पिचकारी
संसद में
भिजवाना है.
होली होती
दिखे न जिसको
आँखें रहते सूर है.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
२.३.२०१५
***
मुक्तिका:
रूह से...
*
रूह से रू-ब-रू अगर होते.
इस तरह टूटते न घर होते..
आइना देखकर खुशी होती.
हौसले गर जवां निडर होते..
आसमां झुक सलाम भी करता.
हौसलों को मिले जो पर होते..
बात बोले बिना सुनी जाती.
दिल से निकले हुए जो स्वर होते..
होते इंसान जो 'सलिल' सच्चे.
आह में भी लिए असर होते..
२.३.२०१३
***