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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

मार्च १४, सॉनेट, सपना, दोहा मुक्तिका, श्रृंगार, गीत, तुम, मुक्तिका

सलिल सृजन मार्च १४
***
१८८६- डॉ. आनंदी बाई जोशी, एम.डी. उपाधि प्राप्त प्रथम भारतीय महिला
सॉनेट
सपना
*
अपना सपना अपनी सपना,
जो मिलकर भी मिली नहीं है,
वह खिलकर भी खिली नहीं है,
नहीं कली का कोई नपना।
सोते-जगते स्वप्न देखिए,
आब ख्वाब की सत्य नहीं है,
ताब घटे-बढ़ नित्य नहीं है,
कब देखा क्या नहीं लेखिए।
ड्रीम साथ कब किस का देता,
आता-जाता खाली हाथों,
राग-द्वेष नहिं मन धरता है।
नहीं आपसे कुछ भी लेता,
नहीं आपको कुछ भी देता,
राम राम झटपट करता है।
***
सॉनेट
दीपांजलि
*
दीपांजलि सत्कार है,
वसुधा प्रमुदित हो कहे,
रश्मि-दीप अनगिन दहे,
दिनकर का आभार है।
किरण किए शृंगार है,
पवन मिलन यादें तहे,
नहीं किसी से कुछ कहे,
ऊषा पर बलिहार है।
प्रकृति प्रणय पटकथा रच,
मौन; मंद मुस्का रही,
मानव कर नित नव सृजन।
है आत्मा की प्रीत सच,
परमात्मा यश गा रही,
चाहे हो पल-पल मिलन।
१४.३.२०२४
***
*
सॉनेट
जगत्पिता-जगजननी जय जय।
एक दूसरे के पूरक हो।
हम भी हो पाएँ यह वर दो।।
सचराचर को कर दो निर्भय।।
अजर अमर अविनाशी अक्षय।
मन मंदिर में सदा पधारो।
तन नंदी सेवा स्वीकारो।।
रखो शीश पर हाथ है विनय।।
हे अंबे! गौरी कल्याणी।
तर जाते जो भजते प्राणी।
मंगलमय कर दे माँ वाणी।।
नर्मदेश्वर शशिधर शंकर।
हे नटराज! न हो प्रलयंकर।
वैद्यनाथ कामारि कृपाकर।।
१४-३-२०२३
•••
मुक्तिका
*
निखरा निखरा निखरा मौसम
आभामय हो तो फिर क्यों गम
मिल पाएँ मुस्कान सजाएँ
बिछुड़ें तो अँखियाँ मत कर नम
विषम सियासत की राहें है
जन जीवन तो रहने दें सम
जल पलाश कोशिश करता है
कर पाए दुनिया से तम कम
संसद अब बन गई अखाड़ा
जिसे देखिए ठोंक रहा ख़म
दिल काला हो कोई न देखे
देखें देह कर रही चमचम
इंक्वायरी बम शासन फोड़े
है विपक्ष में घर घर मातम
१४-३-२०२३
***
दोहा-सलिला रंग भरी
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर
१४-३-२०१७
***
गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
***
दोहा मुक्तिका
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
११-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
तुम
*
तुम जबसे
सपनों में आयीं
बनकर नीलपरी,
तबसे
सपने रहे न अपने
कैसी विपद परी।
*
नैनों ने
नैनों में
नैनों को
लुकते देखा।
बैनों नें
बैनों में
बैनों को
घुलते लेखा।
तू जबसे
कथनों में आयी
कह कोई मुकरी
तबसे
कहनी रही न अपनी
मावट भोर गिरी।
*
बाँहों ने
बाँहों में
बाँहों को
थामे पाया।
चाहों नें
चाहों में
चाहों को
हँस अपनाया।
तू जबसे
अधरों पर छायी
तन्नक उठ-झुकरी
तबसे
अंतर रहा न अपना
एक भई नगरी।
*
रातों ने
रातों में
रातों को
छिपते देखा।
बातों नें
बातों से
बातों को
मिलते लेखा।
तू जबसे
जीवन में आयी
ले खुशियाँ सगरी
तबसे
गागर में सागर सी
जन्नत दिखे भरी।
१४-३-२०१६
***
मुक्तिका
*
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
*
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
*
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
*
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
*
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***
दोहा
ईश्वर का वरदान है, एक मधुर मुस्कान.
वचन दृष्टि स्पर्श भी, फूँक सके नव प्राण..
१४-३-२०१०

गुरुवार, 14 मार्च 2024

मार्च १४, दोहा मुक्तिका, तुम, श्रंगार, सोनेट, दीपांजलि, गीत, सपना

सलिल सृजन १४ मार्च
***
सॉनेट
सपना
*
अपना सपना अपनी सपना,
जो मिलकर भी मिली नहीं है,
वह खिलकर भी खिली नहीं है,
नहीं कली का कोई नपना।
सोते-जगते स्वप्न देखिए,
आब ख्वाब की सत्य नहीं है,
ताब घटे-बढ़ नित्य नहीं है,
कब देखा क्या नहीं लेखिए।
ड्रीम साथ कब किस का देता,
आता-जाता खाली हाथों,
राग-द्वेष नहिं मन धरता है।
नहीं आपसे कुछ भी लेता,
नहीं आपको कुछ भी देता,
राम राम झटपट करता है।
***सॉनेट
दीपांजलि
*
दीपांजलि सत्कार है,
वसुधा प्रमुदित हो कहे,
रश्मि-दीप अनगिन दहे,
दिनकर का आभार है।


किरण किए शृंगार है,
पवन मिलन यादें तहे,
नहीं किसी से कुछ कहे,
ऊषा पर बलिहार है।


प्रकृति प्रणय पटकथा रच,
मौन; मंद मुस्का रही,
मानव कर नित नव सृजन।


है आत्मा की प्रीत सच,
परमात्मा यश गा रही,
चाहे हो पल-पल मिलन।
१४.३.२०२४
***

*
सॉनेट
जगत्पिता-जगजननी जय जय।
एक दूसरे के पूरक हो।
हम भी हो पाएँ यह वर दो।।
सचराचर को कर दो निर्भय।।

अजर अमर अविनाशी अक्षय।
मन मंदिर में सदा पधारो।
तन नंदी सेवा स्वीकारो।।
रखो शीश पर हाथ है विनय।।

हे अंबे! गौरी कल्याणी।
तर जाते जो भजते प्राणी।
मंगलमय कर दे माँ वाणी।।

नर्मदेश्वर शशिधर शंकर।
हे नटराज! न हो प्रलयंकर।
वैद्यनाथ कामारि कृपाकर।।
१४-३-२०२३
•••
मुक्तिका
*
निखरा निखरा निखरा मौसम
आभामय हो तो फिर क्यों गम
मिल पाएँ मुस्कान सजाएँ
बिछुड़ें तो अँखियाँ मत कर नम
विषम सियासत की राहें है
जन जीवन तो रहने दें सम
जल पलाश कोशिश करता है
कर पाए दुनिया से तम कम
संसद अब बन गई अखाड़ा
जिसे देखिए ठोंक रहा ख़म
दिल काला हो कोई न देखे
देखें देह कर रही चमचम
इंक्वायरी बम शासन फोड़े
है विपक्ष में घर घर मातम
१४-३-२०२३
***
दोहा-सलिला रंग भरी
*
लहर-लहर पर कमल दल, सुरभित-प्रवहित देख
मन-मधुकर प्रमुदित अमित, कर अविकल सुख-लेख
*
कर वट प्रति झुक नमन झट, कर-सर मिल नत-धन्य
बरगद तरु-तल मिल विहँस, करवट-करवट अन्य
*
कण-कण क्षण-क्षण प्रभु बसे, मनहर मन हर शांत
हरि-जन हरि-मन बस मगन, लग्न मिलन कर कांत
*
मल-मल कर मलमल पहन, नित प्रति तन कर स्वच्छ
पहन-पहन खुश हो 'सलिल', मन रह गया अस्वच्छ
*
रख थकित अनगिनत जन, नत शिर तज विश्वास
जनप्रतिनिधि जन-हित बिसर, स्वहित वरें हर श्वास
*
उछल-उछल कपि हँस रहा, उपवन सकल उजाड़
किटकिट-किटकिट दंत कर, तरुवर विपुल उखाड़
*
सर! गम बिन सरगम सरस, सुन धुन सतत सराह
बेगम बे-गम चुप विहँस, हर पल कहतीं वाह
*
सरहद पर सर! हद भुला, लुक-छिप गुपचुप वार
कर-कर छिप-छिप प्रगट हों, हम सैनिक हर बार
*
कलकल छलछल बह सलिल, करे मलिनता दूर
अमल-विमल जल तुहिन सम, निर्मलता भरपूर
१४-३-२०१७
***
गीत:
ऊषा को लिए बाँह में
*
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल
कहीं पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
शिशु शशि शशीश शीश पर
शशिमुखी विलोकती.
रति-मति रतीश-नाश को
किस तरह रोकती?
महाकाल ही रक्षा करें
लेकर पनाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
***
दोहा मुक्तिका
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
११-३-२०१७
***
श्रृंगार गीत
तुम
*
तुम जबसे
सपनों में आयीं
बनकर नीलपरी,
तबसे
सपने रहे न अपने
कैसी विपद परी।
*
नैनों ने
नैनों में
नैनों को
लुकते देखा।
बैनों नें
बैनों में
बैनों को
घुलते लेखा।
तू जबसे
कथनों में आयी
कह कोई मुकरी
तबसे
कहनी रही न अपनी
मावट भोर गिरी।
*
बाँहों ने
बाँहों में
बाँहों को
थामे पाया।
चाहों नें
चाहों में
चाहों को
हँस अपनाया।
तू जबसे
अधरों पर छायी
तन्नक उठ-झुकरी
तबसे
अंतर रहा न अपना
एक भई नगरी।
*
रातों ने
रातों में
रातों को
छिपते देखा।
बातों नें
बातों से
बातों को
मिलते लेखा।
तू जबसे
जीवन में आयी
ले खुशियाँ सगरी
तबसे
गागर में सागर सी
जन्नत दिखे भरी।
१४-३-२०१६
***
मुक्तिका
*
हम मन ही मन प्रश्न वनों में दहते हैं.
व्यथा-कथाएँ नहीं किसी से कहते हैं.
*
दिखें जर्जरित पर झंझा-तूफानों में.
बल दें जीवन-मूल्य न हिलते-ढहते हैं.
*
जो मिलता वह पहने यहाँ मुखौटा है.
सच जानें, अनजान बने हम सहते हैं.
*
मन पर पत्थर रख चुप हमने ज़हर पिए.
ममता पाकर 'सलिल'-धार बन बहते हैं.
*
दिल को जिसने बना लिया घर बिन पूछे
'सलिल' उसी के दिल में घर कर रहते हैं.
***
दोहा
ईश्वर का वरदान है, एक मधुर मुस्कान.
वचन दृष्टि स्पर्श भी, फूँक सके नव प्राण..
१४-३-२०१०

शनिवार, 19 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक:
*
जागे बहुत चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
पाए जोड़े की क्या चिंता?
खुद को पाएँ, पाया खोएँ
*
अभी न जाता,अभी न रोएँ
नाहक नैना नहीं भिगोएँ
अधरों पर मुस्कान सजाकर
स्वप्न देखी जब भी सोएँ
*
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो, याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन भाया
*
पल-पल नया जन्म होता है, क्षण-क्षण करे मृत्यु आलिंगन
सीधी रेखा में पग रखकर, बढ़े सदा यह सलिल अकिंचन
दें आशीष 'फेस' जब भी यम, 'बुक' में दर्ज करें हो उज्जवल
'सलिल' सींच कुछ पौधे कर दे, तनिक सुवासित कविता उपवन
****
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

सोमवार, 3 जुलाई 2017

kavita

एक रचना
*
प्रयासों की अस्थियों पर
सुसाधन के मांस बिन.
सफलता चमड़ी
शिथिल हो झूलती.
*
साँस का व्यापार अब
थम सा रहा है.
आस को मँहगाई विषधर
डँस रहा है.
अंकुरों को पतझड़ों का
पान-गुटखा सुहाया पर-
कालिया बन कैंसर
निज पाश में
नित कस रहा है.
तरलता संकल्प की
पथ भूलती.
*
ब्रांडेड मँहगी दवाई
लिख रही सरकार निर्दय.
नाम जी.एस.टी. रहे या
अन्य कोई.
चिढ़ाती मुख
आम जन को
शान-शौकत
ख़ास जन की.
आस्था जो न्याय पर थी
जा कचहरी कोटे काले
देख फंदा झूलती.
*



सोमवार, 18 मई 2009

काव्य-किरण: -शोभना चौरे

कसौटी

मुसकराने की कोई ,
वजह नहीं होती
वह तो कलियों के ,
खिलने की तरह होती है
सपनों की कोई तरंग ,
नहीं होती
वह तो मात्र मन को,
छलावा देती है
सागर की गहराई में जाना ,
मात्र उक्ति नहीं होती
वह तो प्रेम की अथाह
शक्ति होती है
दुनिया माने न माने ,
प्रेम की कोई
कसौटी नहीं होती है

................

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

नव गीत

नव गीत-
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
दिन भर मेहनत
आँतें खाली,
कैसे देखें सपना?
*

दाने खोज,
खीझता चूहा।
बुझा हुआ है चूल्हा।
अरमां की
बारात सजी- पर
गुमा सफलता दूल्हा।
कौन बताये
इस दुनिया का
कैसा बेढब नपना ?
*

कौन जलाये
संझा-बाती
गयी माँजने बर्तन।
दे उधार,
देखे उभार
कलमुँहा सेठ
ढकती तन।
नयन गड़ा
धरती में
काटे मौन
रास्ता अपना
*

ग्वाल-बाल
पत्ते खेलें
छिप चिलम चढ़ाएँ ।
जेब काटता
कान्हा-राधा छिप
बीड़ी सुलगाये।
पानी मिला
दूध में
जसुमति बिसरी
माला जपना
*

बैठ मुँडेरे
बोले कागा
झूठी आस बँधाये।
निठुर न आया,
राह देखते
नैना हैं पथराये।
ईंटों के
भट्टे में मानुस
बेबस पड़ता खपना
*
श्यामल 'मावस
उजली पूनम,
दोनों बदलें करवट।
साँझ-उषा की
गैल ताकते
सूरज-चंदा नटखट।
किसे सुनाएँ
व्यथा-कथा
घर की घर में
चुप ढकना
****************