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रविवार, 3 फ़रवरी 2019

बसंत

बसंतागमन
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलः सपद्मम् स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः
सुखाः प्रदोषाः दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रियं चारुतरम् वसन्ते||

पुष्पित तरु कमलित सलिल कामा वामा पवन सुगंध। 
सुखी प्रदोष सुरम्य दिन, सबको भाता चारु बसंत।।
*** 

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

basanti kundali

रचना एक : रचनाकार दो
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१


ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी 

वसंत -२ 




बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये 
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये 

वसंत-३ 











दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की 

वसंत-४ 


.
वर गेहूँ बाली सजा, खड़ी फ़सल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ, सरसों पीली गात।।
सरसों पीली गात, हथेली मेंहदी सजती
पवन पीटता ढोल, बाँसुरी मन में बजती
छतरी मंडप तान, खड़ी है एक टाँग पर
खड़ी फसल बारात, सजा बाली गेहूँ वर

वसंत-५ 


















ऋतु के मोखे सब खड़े, पाने को सौगात।

मानक बाँटे छाँट कर, टेसू ढाक पलाश।।
टेसू ढाक पलाश, काष्ठदु कनक छेवला
किर्मी, याज्ञिक, यूप्य, सुपर्णी, लाक्षा सुफला
वक्रपुष्प,राजादन, हस्तिकर्ण दुःख सोखे
पाने को सौगात, खड़े सब ऋतु के मोखे
वसंत-६ 

















कहें तितलियाँ फूल से, चलो हमारे संग
रंग सजा कर पंख में, खेलें आज वसंत
खेलें आज बसंत, संत भी जप-तप छोड़ें
बैरागी चुन राग-राह, बरबस पग मोड़ें
शिव भी हो संजीव, सुनाएँ सुनें बम्बुलियाँ
चलो हमारे संग, फूल से कहें तितलियाँ


वसंत-७ 
















फूल बसंती हँस दिया, बिखराया मकरंद
यहाँ-वहाँ सब रच गए, ढाई आखर छं
ढाई आखर छंद, भूल गति-यति-लय हँसते
सुनें कबीरा झूम, सुनाते जो वे फँसते
चटक चन्दनी धूप-रूप सँग सूर्य फँस गया
बिखराया मकरंद, बसंती फूल हँस दिया
वसंत-८ 



आसमान टेसू हुआ, धरती सब पुखराज
मन सारा केसर हुआ, तन सारा ऋतुराज
तन सारा ऋतुराज, हरितिमा हुई बसंती
पवन झूमता-छेड़, सुनाता जैजैवंती
कनकाभित जल-लहर, पुकारता पिक को सुआ
धरती सब पुखराज, आसमान टेसू हुआ

वसंत-९ 
















भँवरे तंबूरा हुए, मौसम हुआ बहार
कनक गुनगुनी दोपहर, मन कच्चा कचनार।।    
मन कच्चा कचनार, जागते देखे सपने
नयन मूँद श्लथ गात, कहे आ जा रे अपने!
स्वप्न न टूटे आज, प्रकृति चुप निखरे-सँवरे
पवन गूंजता छंद, तंबूरा थामे भँवरे।। 
***                

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

muktak

मुक्तक
*
मन में लड्डू फूटते आया आज बसंत
गजल कह रही ले मजा लाया आज बसंत
मिली प्रेरणा शाल को बोली तजूं न साथ
सलिल साधना कर सतत छाया आज बसंत
*
वंदना है, प्रार्थना है, अर्चना बसंत है
साधना-आराधना है, सर्जना बसंत है
कामना है, भावना है, वायदा है, कायदा है
मत इसे जुमला कहो उपासना बसंत है
*

muktak

बासंती मुक्तक 
श्वास-श्वास आस-आस झूमता बसन्त हो 
मन्ज़िलों को पग तले चूमता बसन्त हो 
भू-गगन हुए मगन दिग-दिगन्त देखकर 
लिए प्रसन्नता अनंत घूमता बसन्त हो 
*
साथ-साथ थाम हाथ ख्वाब में बसन्त हो
अँगना में, सड़कों पर, बाग़ में बसन्त हो
तन-मन को रँग दे बासंती रंग में विहँस
राग में, विराग में, सुहाग में बसन्त हो
*
अपना हो, सपना हो, नपना बसन्त हो
पूजा हो, माला को जपना बसन्त हो
मन-मन्दिर, गिरिजा, गुरुद्वारा बसन्त हो
जुम्बिश खा अधरों का हँसना बसन्त हो
*
अक्षर में, शब्दों में, बसता बसन्त हो
छंदों में, बन्दों में हँसता बसन्त हो
विरहा में नागिन सा डँसता बसन्त हो
साजन बन बाँहों में कसता बसन्त हो
*
मुश्किल से जीतेंगे कहता बसन्त हो
किंचित ना रीतेंगे कहता बसन्त हो
पत्थर को पिघलाकर मोम सदृश कर देंगे
हम न अभी बीतेंगे कहता बसन्त हो
*
सत्यजित न हारेगा कहता बसन्त है
कांता सम पीर मौन सहता बसंत है
कैंसर के काँटों को पल में देगा उखाड़
नर्मदा निनादित हो बहता बसन्त है
*

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

doha salila: basantee doha gazal -sanjiv


बासंती दोहा ग़ज़ल:
संजीव
*
स्वागत  में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार
किंशुक कुसुम दहक रहे, या दहके अंगार?
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री-श्रृंगार
*
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार
 मधुशाला में बिन पिये, सिर पर नशा सवार
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्चशरों की मार
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार
*
मैं-तुम, यह-वह ही नहीं, बौराया संसार
सब पर बासंती नशा, मिल लें गले खुमार
*
ढोलक, टिमकी, मंजीरा, करें ठुमक इसरार
दुनियावी चिंता भुला, नाचो-झूमो यार
*
घर आँगन तन धो दिया, तन का रूप निखार
अंतर्मन का मेल भी, प्रियवर! कभी बुहार।
*
बासंती दोहा-गज़ल, मन्मथ की मनुहार
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार
*
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

रविवार, 26 मई 2013

paryavaran geet: kis tarah aye basant sanjiv

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.

जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.

शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 3 मार्च 2013

नवगीत: गाए राग वसंत ओमप्रकाश तिवारी


नवगीत:

गाए राग वसंत

ओमप्रकाश तिवारी  

चेहरा पीला आटा गीला
मुँह लटकाए कंत,
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाए राग वसंत ।

मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में
कब बेबात छिने ;

सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएं
शाम तलक श्रीमंत ।

चीनी साठ दाल है सत्तर
चावल चढ़ा बाँस के उप्पर
वोट माँगने सब आए थे
अब दिखता न कोई पुछत्तर;

चने हुए अब तो लोहे के
काम करें ना दंत ।

नेता अफसर और बिचौले
यही तीन हैं सबसे तगड़े
इनसे बचे-खुचे खा जाते
भारत में भाषा के झगड़े ;

साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

बासंती कविता: ऋतुराज नव रंग भर जाये नीरजा द्विवेदी

कविता बसंत की :
ऋतुराज नव रंग भर जाये
नीरजा द्विवेदी
*
 
ऋतुराज नव रंग भर जाये

प्रकृति दे रही मूक निमन्त्रण,
बसन्त ने रंगमन्च सजाया.
युवा प्रकृति का पा सन्देशा,
ऋतुराजा प्रियतम है आया.

तजी निशा की श्याम चूनरी,
हुई पूर्व की दिशा सिन्दूरी.
मन्द-सुगन्ध बयार बह रही,
मन आल्हादित, श्वांसें गहरी.

पुष्पित वल्लरि हैं झूम रहीं,
ज्यूं हौले-हौले शीश हिलायें,
मधुमक्खियां हैं घूम रहीं,
मदांध पुष्पों से पराग चुरायें.

कोयल हैं करें अन्ताक्षरी,
लगता जैसे हों होड़ लगायें.
श्यामा आ बैठे वृक्ष पर,
कोयल सा है मन भरमाये.

आम औ जामुन हैं बौराये,
भीनी-भीनी सुगन्ध बहाते.
आलिंगन को आतुर केले,
वायु वेग संग बांह फ़ैलाते.

हिल-हिल पीपल के पल्लव,
खड़-खड़ कर खड़ताल बजायें.
नवयौवना सी आम्रमन्जरी,
लजा-सकुचा कर नम जाये.

जीर्ण-शीर्ण सब पत्र हटाकर,
वृक्षों में नव कोंपल है आई.
प्रकृति सुन्दरी वस्त्र बदलकर,
दुल्हन सी बन ठन है आई.

गौरैया करती स्तुति-वन्दन,
पपीहा पिउ-पिउ टेर लगाते,
महोप करते हैं श्लोक पाठ,
कौए हैं कां-कां शोर मचाते.

बगिया में पुष्प खिले हैं 
श्वेत, लाल, नीले औ पीले.
पुष्प पराग से हैं आकर्षित,
तितली और भौंरे गर्वीले.

नेवले घूम रहे आल्हादित,
प्रेयसि की खोज कर रहे.
दो पैरों पर हो खड़े देखते,
मित्र-शत्रु का भेद ले रहे.

प्रकृति खड़ी है थाम तूलिका,
पल-पल अभिनव चित्र बनाये.
धूमिल चित्र मिटा-मिटा कर,
ऋतुराज नव रंग भर जाये.
____________________
neerja dewedy <neerjadewedy@gmail.com>

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

कविता: मन गीली मिट्टी सा कुसुम वीर

कविता:मन गीली मिट्टी सा
कुसुम वीर
*
मन गीली मिटटी सा
उपजते हैं इसमें अनेकों विचार
भावों के इसमें हैं अनगिन प्रवाह

सपनों की खाद से उगती तमन्नाएं
फूटें हैं हरपल नई अभिलाषाएं
उगती कभी इसमें शंकाओं की घास
ढापती जो ख्वाबों को,उभरने न दे आस

उगने दो मन की मिटटी में
भावनाओं के कोमल अंकुरों को
विस्तारित होने दो सौहार्द की ख़ुशबू को
नोच डालो वैमनस्य की जंगली हर घास 
पनपने दो सपनों की मृदुल कोंपल शाख

प्रेमजल से सिंचित बेल
जल्द ही उग आएगी
लहलहाएंगी हरी डालियाँ
 फूलेंगी नई बालियाँ

मौसम की बहारों में
बासंती मधुमास में
 खिल जाएँगे तब न जाने
कितने ही अनगिन कुसुम

मत रोकना तुम
पतझड़ की बयारों को
झड़ जायेंगे उसमें
 शंकाओं के पीले पात

ठूठी डालों पे फूटेंगी
फिर से नई कोंपलें
 फैलाते पंखों को
डोलेंगे पंछी

दूर कहीं मंदिरों में
घंटों की खनक में
शंखों के नाद संग
आरती आराधन स्वर

वंदना में झूमती
दीपक की लौ मगन
गूंजें फिर श्लोक कहीं
आध्यात्म ऋचाएं वहीँ

भावों के अनकहे
आत्मा के अंतर स्वर
तब तुम भी गा लेना
प्रेम का तराना

मन की गीली मिट्टी सा
कर देगा सरोबार
तुम्हें कहीं अंतर तक
सौंधी सी, पावन सी
ख़ुशबू के साथ
------------------------------

Kusum Vir <kusumvir@gmail.com>
 

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

बासंती दोहा ग़ज़ल: -- संजीव 'सलिल'


बासंती दोहा ग़ज़ल: संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा ग़ज़ल  (मुक्तिका)                                                                                                     

संजीव 'सलिल'
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..

पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..

महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..

नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..

नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..

मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..

ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..

घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..

बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..

***********************************

रविवार, 29 जनवरी 2012

बासंती दोहा गीत... फिर आया ऋतुराज बसंत --संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा गीत... 

फिर आया ऋतुराज बसंत 

--संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा गीत...
फिर आया ऋतुराज बसंत
संजीव 'सलिल' 
फिर आया ऋतुराज बसंत,
प्रकृति-पुरुष हिल-मिल खिले
विरह--शीत का अंत....
*' 
आम्र-मंजरी मोहती, 
गौरा-बौरा मुग्ध.
रति-रतिपति ने झूमकर-
किया शाप को दग्ध..
नव-कोशिश की कामिनी
वरे सफलता कंत...
*
कुहू-कुहू की टेर सुन,
शुक भरमाया खूब. 
मिली लजाई सारिका ,
प्रेम-सलिल में डूब..
कसे कसौटी पर गए
अब अविकारी संत...
भोर सुनहरी गुनगुनी,
निखरी-बिखरी धूप.                                शयन कक्ष में देख चुप- 
हुए भामिनी-भूप...
'सलिल' वरे अद्वैत जग,
नहीं द्वैत में तंत.....
*****

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत : किस तरह आये बसंत?... --संजीव 'सलिल'

गीत :                                                                                                                                                                              

किस तरह आये बसंत?...

मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गयी डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चरायें?
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाये.
तकें सियासत चुप मुँह बाये.
खुद से खुद ही हैं शरमाये.

जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.

खुशी बिदा हो गयी'सलिल'चुप
किस तरह लाये बसंत?...
*

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

दोहा सलिला मुग्ध है संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला मुग्ध

संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..

चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..

नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..

सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..

वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..

देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..

दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..

दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..

वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..

रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..

रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..

कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..

रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..

गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..

जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..

**************************

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

बासंती दोहा ग़ज़ल: संजीव 'सलिल'

बासंती दोहा ग़ज़ल  (मुक्तिका)                                                                                                     

संजीव 'सलिल'
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..

पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..

महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..

नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..

नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..

मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..

ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..

घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..

बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..

***********************************

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 31 जनवरी 2011

षडऋतु - दर्शन * संजीव 'सलिल'

षडऋतु - दर्शन
*
संजीव 'सलिल'
*
षडऋतु में नित नव सज-धजकर,
     कुदरत मुकुलित मनसिज-जित है.
मुदितकमल सी, विमल-अमल नव,
     सुरभित मलयज नित प्रवहित है.
गगन से भू को निहार-हार दिनकर,
  गुपचुप श्रांत-क्लांत थकित चकित है.                                                   
रूप ये अरूप है, अनूप है, अनूठ है,
  'सलिल' अबोल बोल सुषमा अमित है.
*
षडऋतु का मनहर व्यापार.
कमल सी शोभा अपरम्पार.
रूप अनूप देखकर मौन-                                                                                                                                हुआ है विधि-हरि-हर करतार.

शाकुंतल सुषमा सुकुमार.प्रकृति पुलकित ले बन्दनवार.
शशिवदनी-शशिधर हैं मौन-
नाग शांत, भूले फुंकार.

भूपर रीझा गगन निहार.
दिग-दिगंत हो रहे निसार.
 निशा, उषा, संध्या हैं मौन-
शत कवित्त रच रहा बयार.

वीणापाणी लिये सितार.
गुनें-सुनें अनहद गुंजार.
रमा-शक्ति ध्यानस्थित मौन-
चकित लखें लीला-सहकार.
*
                           
 शिशिर
 स्वागत शिशिर ओस-पाले के बाँधे बंदनवार                                               
   वसुधा स्वागत करे, खेत में उपजे अन्न अपार.
      धुंध हटाता है जैसे रवि, हो हर विपदा दूर-
        नये वर्ष-क्रिसमस पर सबको खुशियाँ मिलें हजार..

                          


बसंत
 आम्र-बौर, मादक महुआ सज्जित वसुधा-गुलनार,
    रूप निहारें गगन, चंद्र, रवि, उषा-निशा बलिहार.
       गौरा-बौरा रति-रतिपति सम, कसे हुए भुजपाश-                  

          नयन-नयन मिल, अधर-अधर मिल, बहा रहे रसधार.. 

ग्रीष्म                            
संध्या-उषा-निशा को शशि संग,-देख सूर्य अंगार.
  विरह-व्यथा से तप्त धरा ने छोड़ी रंग-फुहार.        
     झूम-झूम फागें-कबीर गा, मन ने तजा गुबार-
         चुटकी भर सेंदुर ने जोड़े जन्म-जन्म के तार..

वर्षा                           
दमक दामिनी, गरज मेघ ने, पाया- खोया प्यार,
   रिमझिम से आरम्भ किन्तु था अंत मूसलाधार.                                  
      बब्बा आसमान बैरागी, शांत देखते खेल-  
         कोख धरा की भरी, दैव की महिमा अपरम्पार..


शरद                           
चन्द्र-चन्द्रिका अमिय लुटाकर, करते हैं सत्कार,               
   आत्म-दीप निज करो प्रज्वलित, तब होगा उद्धार.        
      बाँटा-पाया, जोड़ गँवाया, कोरी रहे न चादर-   
         
काया-माया-छाया का तज मोह, वरो सहकार..
                         

 
हेमन्त                          
कंत बिना हेमंत न भाये, ठांड़ी बाँह पसार.
    खुशियों के पल नगद नहीं तो दे-दे दैव उधार.

        गदराई है फसल, हाय मुरझाई मेरी प्रीत-
            नियति-नटी दे भेज उन्हें, हो मौसम सदा बहार..

  

                                                                                                                  

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

ऋतु - दर्शन एस. एन. शर्मा 'कमल'



ऋतु - दर्शन
 

एस. एन. शर्मा 'कमल' , <ahutee@gmail.com>
 
                           शिशिर नित शीत सिहरता गात                                       
  शिशिर               बन्द वातायन बन्द कपाट
                           दे रही दस्तक झंझावात
                           लिये हिम-खण्डों की सौगात

                          

                            मलय-गंधी मृदु-मंद बयार
बसंत                    निहोरे करते अलि गुंजार                                        
                            न हो कैसे कलि को स्वीकार
                            मदिर ऋतु का फागुनी दुलार

                             


                             ज्येष्ठ का ताप-विदग्ध आकाश
ग्रीष्म                    धरा सहती दिनकर का श्राप                                          
                             ग्रीष्म का दारुणतम संताप
                             विखंडित अणु का सा अनुताप

                           

                             प्रकृति में नव-यौवन संचार
वर्षा                      क्वार की शिथिल सुरम्य फुहार                                  
                            गगन-पथ पर उन्मुक्त विहार
                            श्वेत श्यामल बादल सुकुमार


                           शरदनिशि का सौन्दर्य अपार          
शरद                    पूर्णिमा की अमृत-रस धार                                       
                           दिशाएँ करतीं मधु-संचार
                           धरा सजती सोलह श्रृंगार

                         

 
                           
                           अनोखी है हेमन्त बहार
हेमन्त                 सजें गेंदा गुलाब घर द्वार                                                                      खेत गदराये वक्ष उभार
                          प्रकृति का अदभुत रूप निखार  

         

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रविवार, 14 फ़रवरी 2010

दोहा गीत: धरती ने हरियाली ओढी -संजीव 'सलिल'

दोहा गीत: 
धरती ने हरियाली ओढी 
-संजीव 'सलिल'
*

धरती ने हरियाली ओढी,

मनहर किया सिंगार.,

दिल पर लोटा सांप

हो गया सूरज तप्त अंगार...

*

नेह नर्मदा तीर हुलसकर

बतला रहा पलाश.

आया है ऋतुराज काटने

शीत काल के पाश.



गौरा बौराकर बौरा की

करती है मनुहार.

धरती ने हरियाली ओढी,

मनहर किया सिंगार.

*

निज स्वार्थों के वशीभूत हो

छले न मानव काश.

रूठे नहीं बसंत, न फागुन

छिपता फिरे हताश.



ऊसर-बंजर धरा न हो,

न दूषित मलय-बयार.

धरती ने हरियाली ओढी,

मनहर किया सिंगार....

*

अपनों-सपनों का त्रिभुवन

हम खुद ना सके तराश.

प्रकृति का शोषण कर अपना

खुद ही करते नाश.



जन्म दिवस को बना रहे क्यों

'सलिल' मरण-त्यौहार?

धरती ने हरियाली ओढी,

मनहर किया सिंगार....

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