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सोमवार, 13 मई 2013

kavita patra: acharya sanjiv


एक फ़रियाद :
संजीव
मातृ-दिवस पर मइके आयीं, दिद्दा! शत-शत बार प्रणाम।
अनुज खोजता रहा न पाया, आशीषों का अक्षय-धाम।।

सुख-दुःख कह-सुन बाँटो फिर से, पीठ थपक दो, खीचो कान।
आफत में थे प्राण, न चिंता आयी जान में अपनी जान।।

कमल पंक में खिलता, पंकिल कभी पत्तियाँ हो जातीं।
तन-मन धो निर्मल होकर ही, प्रभु-पग पाकर तर पातीं।।

बर्तन चार खटकते ही है, जो चटके वह आये न काम।
बाहर कर उसको रसोई से, दीप्त रखे गृहणी गृह-धाम।।

नए-नए कुछ अनुष्ठान हैं: अंगरेजी कविता-दोहा।
यथासमय सुविधा से पढ़िये, बतलायें किसने मोहा।।

बुन्देली की रचनाओं में, त्रुटि बतलायें करें सुधार।
सागर गढ़ है बुन्देली का, मुझे नहीं इस पर अधिकार।।

दिद्दा! अमरस का मौसम है, पन्हा-पुदीने की चटनी।
बिना पाए कैसे हो पाए, पूरा मातृदिवस बहनी।।

एक तुम्हारा हुआ आसरा, व्यस्त प्रणव हैं और कहीं।
दीप्ति कुसुम मधु राह हेरतीं, कहाँ महेरी- कहाँ मही।।

गोल इलाहाबादी भैया, लाये न अब तक हैं खरबूज।
तब तक दिद्दा हमें चलेगा, बुलावा कटवा दो तरबूज।।

कुल्फी-आइसक्रीम तुम्हारे बिना न देती हमको स्वाद।
गले लगो, आशीष लुटाओ, सुन लो छोटों की फ़रियाद।।
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

गुरुवार, 14 मार्च 2013

गीत: समय की शिला पर: संजीव 'सलिल', अचल वर्मा, राकेश खंडेलवाल, श्रीप्रकाश शुक्ल, इंदिरा प्रताप,

गीत:
समय की शिला पर:
संजीव 'सलिल'
*
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
किसने पढ़ा सत्य,
किसको दिखा है??.....
*
अदेखी नियति के अबूझे सितारे,
हथेली में अंकित लकीरें बता रे!
किसने किसे कब कहाँ कुछ कहा है?
किसने सुना- अनसुना कर जता रे!
जाता है जो- उसके आने के पहले
आता है जो- कह! कभी क्या रुका है?
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
*
खुली आँख- अपने नहीं देख पाते.
मुंदे नैन- बैरी भी अपना बताते.
जीने न देते जो हँसकर घड़ी भर-
चिता पर चढ़ा वे ही आँसू बहाते..
लड़ती-लड़ाती रही व्यर्थ दुनिया-
आखिर में पाया कि मस्तक झुका है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?.
*
कितना बटोरा?, कहाँ-क्या लुटाया?
अपना न सपना कहीं कोई पाया.
जिसने बुलाया, गले से लगाया-
पल में भुलाया, किया क्यों पराया?
तम में न अपने, रहा साथ साया.
पाया कि आखिर में साथी चिता है.
समय की शिला पर
कहाँ क्या लिखा है?
salil.sanjiv@gmail.com
*
समय की शिला पर 
अचल वर्मा
समय की शिला पर लिखे गीत कितने 
और गा गा के सबको सुना भी दिए । 
मगर सुन के अबतक रहा चुप जमाना 
यूँ मिटते गए हैं तराने नए ॥

शिलालेख मिटने न पाए कभी
पढा उसने जिसने भी की कोशिशें ।
है भाषा अलग इस शिलालेख की 
रहीं तंग दिल में नहीं ख्वाहिशें ॥

समय की शिला ये शिला है अलग 
कोई रूप इसका समझ में न आया ।
सभी दिल ही दिल में रहे  चाहते पर 
सभी दिल हैं काले ये रंग चढ न पाया ॥

जो दिल साफ़ होते चमकते ये मोती 
ये यूँ कालिमा में ही घुल मिल न जाते ।
समय तो छिपाए रहेगा ये मोती 
मिटेगा न जब तक सभी पढ हैं पाते ॥ 
achal verma <achalkumar44@yahoo.com>
 *
समय की शिला पर
राकेश खंडेलवाल 
*
रहे अनुसरण के लिए चिह्न कितने जो छोडे पगों ने समय की शिला पर 
मगर ज़िंदगी ने किसी कशमकश में  रखा आज तक उन सभी को भुलाकर 
किसी एक भाषा में सीमित नहीं है, न ही देश कालों की सीमा में बंदी 
धरा के किसी छोर से न अछूते  न बंध  कर रहे एक नदिया के तट से 
समय सिन्धु के तीर की रेतियो   में रहे अंकिता हिम के ऊंचे शिखर पर 
बने  चिह्न पग के धरा से गगन पर  उठे बालि  के सामने एक वट से 
पिलाए गए थे हमें बालपन से सदा संस्कृति की घुटी में मिला कर
 उन्हें आज हम भूलने लग गए हैं, रहे चिह्न जितने समय की शिला पर 
बुने जा रहे कल्पना के घरोंदे दिवास्वप्न   की रूप रेखा बना कर 
 भले जानते पार्श्व में यह ह्रदय के कि  परछाइयों की न   पूजा हुई है
 न कोई कभी चिह्न बनता  कहीं पर धरा हो भले या शिला हो समय की 
हवा के पटल पर करें कोशिशें नित, ज़रा चित्र कोई ठहरता नहीं है 
मगर आस रहती है खाके बनाती खिंचे सत्य दर्पण के सारे भुला कर 
यही  सोचती शेष हो न सकेंगी, बनी अल्पना जो समय की शिला पर 
उगी भोर से ढल रहे हर दिवस की यही साध बस एक पलती रही है
मुडे पग कभी भी किसी मोड से तो शिला लेख में सब बने चिह्न ढल ले
रहें दूर कितने प्रयासों के पनघट, न तीली उठे न ही बाती  बटी  हो 
मगर नाम की एक महिमा बने औ' ढली सांझ के साथ में दीप जल लें 
सपन की गली में उतरती निशा भी लिए साथ जाती सदा ही बुलाकर 
चलो नींद में ही सही चिह्न छोड़ें, सभी आज अपने समय की शिला पर 
*
समय की शिला पर 

श्रीप्रकाश शुक्ल
*
 समय की शिला पर हैं कुछ चित्र अंकित ,   
   आज के युग में जो भ्रान्ति फैला रहे हैं 
        औचित्य जिनका न कुछ शेष दिखता 
            चलना गतानुगति ही सिखला रहे हैं  

साधन नहीं थे कोई आधुनिक जब, 
    रीते ज़हन को जो करते सुचालित  
      चित्र अंकित किये कल्पना में जो सूझे  
         कोई था  अंकुश जो करता नियंत्रित 

दायित्व है अब, नए चिंतकों का 
     आगे आयें, समीक्षा करें मूल्यवादी 
          तत्व जो बीज बोते, असमानता का 
                मिटायें उन्हें  हैं जो जातिवादी 

हैं कुछ मूल्य, जो मापते अस्मिता को 
     व्यक्ति के वर्ण और देह के रंग से   
          लिंग भेद को ,कुछ न भूले अभी भी 
             कलुष ही बिछाया विकृत सोच संग से   
  
समय आगया है हटायें ये पन्ने 
    लिखें वो भाषा जो सब को समेटे 
        विकासोन्मुखी हों, नीतियाँ हमारी 
           समय की शिला पर पड़े धब्बे मेंटे   
*
समय की शिला पर
 इंदिरा प्रताप
समय की शिला पर जो कुछ लिखा है,
न मैनें पढ़ा है, न तुमने पढ़ा है,
जीवन के इस लम्बे सफ़र में,
बहुत कुछ गुना है, बहुत कुछ बुना है,
मुझको-तुमको, सबको पता है,
चिता ही हमारी अंतिम दिशा है,
जीवन जो देगा सहना पड़ेगा,
फिर भी हँसना-हँसाना पड़ेगा,
संसार के हो या हो वीतरागी,
चलना पड़ेगा, चलना पड़ेगा,
रहता नही है कुछ भी यहाँ पर,
जानकर फिर भी जीवन को ढोना पड़ेगा।
*
समय की शिला पर
प्रणव भारती
*
समय की शिला पर सभी खुद रहा है,
समय है सनातन , समय चुप् रहा है। 
समय  तो सिखाता सदा सबकी कीमत,
न कोई है अच्छा ,न कोई बुरा है------। 
समय की-------------------------------खुद रहा है। 
समय सीख देता ,समय देता अवसर ,
हमीं डूब जाते भ्रमों में यूँ  अक्सर,
समय सर पे चढकर है डंके बजता,
समय मांग करता सदा कुछ सिखाता । 
समय से कभी भी कहाँ कुछ छिपा है?
समय की ------------------------------खुद रहा है। 
अनुत्तरित,अनबुझे प्रश्न हैं समय-शिला पर ,
सोये-जागों के चेहरे हैं समय-शिला पर ।
समय दिखाता कितनी ही तस्वीरें हमको
समय सिखाता कितनी ही तदबीरें हमको ।  
हम करते हैं जब मनमानी समय बताये,
समय ने कितनी बार तमों को सदा हरा  है। 
समय-----------------------------------खुद रहा है। 
समय बहुत कम जीवन में इसको न खोएं,
समय बीत जाने पर क्यों फिर व्यर्थ ही रोएँ !
समय माँग करता पल-पल हम रहें जागते,
समय माँग करता पल-पल हम रहें भागते । 
समय नचाता नाच उसे जो जहाँ मिला  है। 
समय की-------------------------------------खुद रहा है॥ 
Pranava Bharti <pranavabharti@gmail.com>
*
समय की शिला पर
महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’
*
समय की शिला पर लिखे लेख हमने
किए सच जिन्हें लोग कहते थे सपने

बनाए थे जो बामियानी तथागत
लगे तालिबानी नज़र में खटकने

जिए शान से साल  पच्चीस सौ वो
मगर बम चले तो लगे वो चटखने

हुए इस कदर लोग  मज़हब में अंधे
लगे वो फ़रिश्ते स्वयँ को समझने

ख़लिश त्रासदी है ये नामे-खुदा की
लगे हैं खुदा के लिए लोग लड़ने.
www.writing.com/authors/mcgupta44 
*

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

कविता: सुबह-सवेरे इंदिरा प्रताप
















कविता:
सुबह-सवेरे  
इंदिरा प्रताप
*
सुबह सवेरे
छल – छल जल
उमगी एक तरंग
लहर – लहर लहराया
चंचल जल |
भोर – किरण जल थल
खिले सुमन
मृग तृष्णा सा मन
करे नित्य नर्तन |
सन – सन - सन
चली पवन
उड़ा संग ले मन
तन हर्षाया |
कुहू – कुहू की तान
लाया मधुर विहान
दिल भर आया |
रस – रूप – गंध
सब एक संग
हैं तेरे ही अंश
हे ! परमब्रह्म |
सुन्दर, शुभ्र प्रभात
मन भाया
धरती पर
धीरे से
उतर आया |

शनिवार, 15 सितंबर 2012

कविता: जीवन - सफ़र इंदिरा प्रताप

कविता:

 

जीवन - सफ़र

इंदिरा प्रताप 
*
कब पैर उठे
कब जीवन के अनगढ़
रस्ते पर निकल पड़े ,
कुछ पता नहीं |
कभी सुबह का उगता सूरज ,
कभी निशा की काली रातें ,
कभी शाम की शीतल छाया,
कभी वादियों में भटके तो ,
कभी मरू की तपती रेती ,
कभी भागते मृग तृष्णा में ,
दूर – दूर तक |
जिया यूँहीं अल्हड सा जीवन ,
पर अब जीबन की संध्या में ,
सोच रही हूँ बैठ किनारे ,
पूनम की भीगी रातों में ,
कोई लहर समेत लेगी जब ,
मुझे भँवर में ,
तुम तक कैसे पहुँच सकूँगी  ?
नहीं तैरना सीखा मैनें
वैतरणी का पाट बृहत्तर ,
जीवन की इस कठिन डगर में |
_________________________
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'






रचना - प्रति रचना  :
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*



वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 


कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास की.




वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 

कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास



वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी ------
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
 

कविता,
अमलतास
संजीव 'सलिल'
*
 
*
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो 
पेड़ पुराना अमलतास का।
जाकर लकड़ी-घर में देखो 
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते 
चीत्कार पर कोई न सुनता। 
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में? 
घर-आंगन में??  


हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे। 
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके 
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता 
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन
तभी हुई थी घर में अनबन। 


मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते 
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर 
ऊषा संध्या निशा साथ हँस 
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो 
बैठ छाँव में अमलतास की.

     

अमलतास = आरग्वध, मुकुल, राजतरु, राजवृक्ष, रेवत, रोचन, व्याघिघ्न, शंपाक, सियारलाठी, सुपर्णक, सुपुष्पक, स्वर्णपुष्पी, स्वर्णभूषण, हेमपुष्प, केसिया फिस्टुला, लेबरनम.  



*****************************************

 
गुलमोहर = अशरफी, गुल अशरफी, डेलोनिक्स रेग़िया.

 
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in


बुधवार, 4 जुलाई 2012

संस्मरण: मेहनती का अंत ---इन्दिरा प्रताप

संस्मरण:               


मेहनती का अंत 
इन्दिरा प्रताप                                                                                     

बात आज से बीस–तीस साल पुरानी है | तब हम यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहा करते थे | बँगलेनुमा घर और आस–पास बहुत सारी खाली जमीन थी जो जितना चाहता उतनी जमीन घेर लेता और उसके चारों ओर बंधान बांध लेता और उसे अपने घर का हिस्सा बना लेता और मनपसंद फूल पौधे लगा लेता पर वहाँ की जमीन लाल मिट्टी से युक्त, पथरीली थी जो बहुत मेहनत माँगती थी | इसके लिए आसपास के गाँव से मजदूर भी मिल ही जाते थे और लोगों में एक दूसरे से बढ़ कर अपने गार्डन को सजाने की होड़ भी लग जाती थी | उन्हीं दिनों कैम्पस में एक हृष्ट-पुष्ट, बेहद काला पर चेहरे पर मृदुता लिये एक मजदूर अकसर नजर आता | मैंने उसे बड़े मनोयोग से लोगों के घर काम करते देखा | बस अपने काम में मस्त | ऐसा लगता था मानों काम ही उसकी पूजा हो | उसको इस तरह काम करते देख कुछ आश्चर्य तो होता पर इससे अधिक उसके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे कभी नहीं हुई |
एक दिन मेरे पति को अपने गार्डन में पानी लगाते देख मेरी एक पड़ोसन मेरे पास आई और कहने लगी – ‘आप उस बहरे से काम क्यों नहीं करा लेतीं |’ मैंने कहा –‘कौन बहरा ?’ वह बोलीं –‘वही जो हमारे गार्डन में काम करता है और भी घरों में हमने उसे लगवा दिया है, बोलता – सुनता कुछ नहीं , गूँगा-बहरा है न बेचारा, केवल आठ आने घंटा लेता है जबकि और लोग एक रुपया लेते हैं और फिर वह काम भी और लोगों से दुगना करता है |’
मैनें सुनकर यूँ ही टाल दिया, मन ने एक गूँगे-बहरे का इस तरह शोषण करना स्वीकार नहीं किया| मैंने उसे अपने घर काम करने के लिए कभी नहीं बुलाया | कुछ ही दिनों में वह आस–पास के घरों में काम करता दिखाई देने लगा | कभी–कभी मन में आता कि उसे घर बुलाकर समझाऊँ कि सब उसका फ़ायदा उठा रहे हैं पर समझ नहीं आया कि उसे किस तरह समझाऊँगी, फिर ये भी डर था कि आस–पास के लोग मेरे दुश्मन हो जाएँगे, यह सोचकर मैं चुप रही |
जो उससे काम कराते वे उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते और गर्व से बताते कि कैसे कम पैसों में वो इतना बढ़िया और अधिक काम करवा लेते हैं |
फिर सुना उसकी शादी हो गई पर देखते–देखते ही कुछ वर्षों में उसके काले रंग की चमक समाप्त हो गई | वह थका-हारा सा दिखाई देने लगा | फिर एक बार किसी के घर काम करता दिखाई दिया तो बड़ा क्षीणकाय सा लगा | उसके बाद मैंने फिर उसको बहुत दिनों तक नहीं देखा |
एक दिन ऐसे ही उसकी याद आई तो पड़ोसिन से पूछा– ‘बौहरा अब दिखाई नहीं देता |’ वह बोलीं –‘अरे ! उसे मरे तो बहुत दिन हो गए|’ उसका मेहनत का यह सफ़र लगभग दस सालों का रहा होगा | यह सुनकर मन में लोगों के प्रति वितृष्णा सी उत्पन्न हुई और अपने पर प्रसन्नता कि कम से कम मैंने उसका शोषण नहीं किया |
आज जब मैं अपने जीवन की इस सांध्यवेला में अपनी यादों की पिटारी खोलती हूँ तो उसमें एक चेहरा उसका भी नजर आता है और अपने को मैं उतना ही दोषी पाती हूँ जितना ओरों को जिन्होंने उसकी जिंदगी के न जाने कितने वर्ष उससे छीन लिये और उसे मृत्यु के मुख में असमय ही ढकेल दिया |
_________________________________________________________________________
Indira Pratap  pindira77@yahoo.co.in