नव गीत
संजीव 'सलिल'
जीवन की
जय बोल,
धरा का दर्द
तनिक सुन...
तपता सूरज
आँख दिखाता
जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी
अधिक हुई है
नेह गल रहा.
हिम्मत
तनिक न हार-
नए सपने
फिर से बुन...
निशा उषा
संध्या को छलता
सुख का चंदा.
हँसता है पर
काम किसी के
आये न बन्दा...
सब अपने
में लीन,
तुझे प्यारी
अपनी धुन...
महाकाल के
हाथ जिंदगी
यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही
साँसों का
मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर,
रहे न हावी
कर कुछ
सुन-गुन...
**************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
दर्द लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
दर्द लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मंगलवार, 19 मई 2009
काव्य-किरण: आचार्य संजीव 'सलिल'
करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
शुक्रवार, 15 मई 2009
कविता: धात्री -शोभना चौरे
वह कभी हिसाब नहीं माँगती
तुम एक बीज डालते हो
वह अनगिनत दाने देती है।
बीज भी उसी का होता है
और वह ही उसके लिए
उर्वरक बनती है।
अनेक कष्ट सहकर
अपनी कोख में
उस बीज को पुष्ट बनाती है।
जब- बीज अँकुरित हो
अपने हाथ-पाँव पसारता है
तब वह खुश होती है,
आनंदित होकर बीज को
अर्थात तुमको पनपने देती है
किंतु तुम
उसे कष्ट देकर
बाहर आ जाते हो,
इतराने लगते हो अपने अस्तित्व पर
पालते हो भरम अपने होने का,
लोगो की भूख मिटाने का।
तुम बडे होकर फ़िर फ़ैल जाते हो
उसकी छाती पर अपना हक़ जमाने
तुम हिसाब करने लगते हो
उसके आकार का,
उसके प्रकार का,
भूल जाते हो उसकी उर्वरा शक्ति को ,
जो उसने तुम्हें भी दी
तुम निस्तेज हो पुनः
उसी में विलीन हो जाते
न ही वह बीज को दर्द सुनाती है,
न ही बीज डालनेवाले को।
वह निरंतर देती जाती है।
**********************
तुम एक बीज डालते हो
वह अनगिनत दाने देती है।
बीज भी उसी का होता है
और वह ही उसके लिए
उर्वरक बनती है।
अनेक कष्ट सहकर
अपनी कोख में
उस बीज को पुष्ट बनाती है।
जब- बीज अँकुरित हो
अपने हाथ-पाँव पसारता है
तब वह खुश होती है,
आनंदित होकर बीज को
अर्थात तुमको पनपने देती है
किंतु तुम
उसे कष्ट देकर
बाहर आ जाते हो,
इतराने लगते हो अपने अस्तित्व पर
पालते हो भरम अपने होने का,
लोगो की भूख मिटाने का।
तुम बडे होकर फ़िर फ़ैल जाते हो
उसकी छाती पर अपना हक़ जमाने
तुम हिसाब करने लगते हो
उसके आकार का,
उसके प्रकार का,
भूल जाते हो उसकी उर्वरा शक्ति को ,
जो उसने तुम्हें भी दी
तुम निस्तेज हो पुनः
उसी में विलीन हो जाते
न ही वह बीज को दर्द सुनाती है,
न ही बीज डालनेवाले को।
वह निरंतर देती जाती है।
**********************
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)