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शनिवार, 3 सितंबर 2022

सितम्बर,कुंडलिया,सामाजिक समरसता,नवगीत,दोहा मुक्तिका,दोहा यमक,प्रतिभा सक्सेना,

सितम्बर :
सितम्बर में जन्में जातक परिश्रमी, शांत, बुद्धिजीवी, पर्यटक, कलाप्रिय होते हैं। शुभ: रवि, बुध, गुरुवार, ३, ७, ९ संख्याएँ, मोती, पन्ना।
कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा।
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती।
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा।
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस।
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र।
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'।
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा।
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस।
१५. भारतरत्न सर मोक्षगुन्दम विस्वेसराया जयंती, अभियंता दिवस।
चंपक रमन पिल्लई १८९१ तिरुअनंतपुरम केरल, निधन २६.५.१९३४ जर्मनी, स्वाधीनता सेनानी।
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी।
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली।
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर।
२४. भीखाजी कामा १८६१, निधन १३.८.१९३६, स्वतंत्रता सेनानी, विदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय ध्वज फहराया।
२७. भगत सिंह जन्म १९०७, शहादत २३.३.१९३१ फांसी, भारत की स्वतंत्रता हेतु सशस्त्र क्रान्ति के अगुआ।
विट्ठल भाई पटेल २७.९.१८७३नाडियाद गुजरात, निधन २२.१०.१९३३, प्रखर स्वतंत्रता सत्याग्रही, सरदार पटेल के बड़े भाई, विधान वेत्ता,
निधन: राजा राम मोहन राय।
विश्व पर्यटन दिवस:
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस।
***
कुंडलिया कार्यशाला
बिगडे़ जग के हाल पर, मत चुप रहिए आप।
इंतज़ार में देखिए, शब्द खड़े चुपचाप।।
तारकेश्वरी 'सुधि'
शब्द खड़े चुपचाप, मुखर करिए रचनाकर।
सच कह बनें कबीर, निबल सुधि ले कर आखर।।
स्नेह सलिल दे तृप्ति, मिटाकर सारे झगड़े।
मरुथल मधुवन बने, परिस्थिति अधिक न बिगड़े।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
३-९-२०१९
लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता
*
साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।
देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था।
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।
ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
***
रचना-प्रति रचना मेरी पसंद
कवि से -
- प्रतिभा सक्सेना
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता ,
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*
नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
१-९-२०१६, १३.००
गोरखपुर दन्त चिकित्सालय जबलपुर
***
नवगीत:
*
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
मौत उजाले की होती
कब-किसने देखी?
सौत अँधेरी रात
हमेशा रही अदेखी।
किस्मत जुगनू सी
टिमटिम कर राह दिखाती।
शरत चाँदनी सी मंज़िल
पथ हेर लुभाती।
दौड़ा लपका हाथ बढ़ा
कर लूँ कुड़माई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
अपने सपने
पल भर में नीलाम हो गये।
नपने बने विधाता
काहे वाम हो गये?
को पूछे किससे, काहे
कब, कौन बताये?
किस्से दादी संग गये
अब कौन सुनाये?
पथवारी मैया
लगती हैं गैर-पराई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
***
दोहा मुक्तिका:
आशा जिसके साथ हो, तोड़ निराशा-पाश
पा सकता है एक को, फेंट मुश्किलें-ताश
*
धरती पर पग भले हों, निकट लगे आकाश
जब-जब होता सन्निकट, 'सलिल' संग कैलाश
*
जब कथनी को भूल मन, वर लेता मन 'काश'
तज यथार्थ को कल्पना, करे समय का नाश
*
ढोता है आतंक की, जब-जब मजहब लाश
पाखंडों का हो तभी, जग में पर्दाफाश
*
नफरत के सौदागरों, तज तम गहो प्रकाश
अगर न सुधरे सुनिश्चित, होगा सत्यनाश
३-९-२०१५
***
नवगीत:
*
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
३-९-२०१४
*
दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
*
चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
*
नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
३-९-२०१३
*

बुधवार, 10 मार्च 2021

गीत प्रतिभा सक्सेना

 पठनीय गीत

हिन्दी पढ़ना भूल गए ,
डॉ. प्रतिभा सक्सेना
*
ये मेरे भारत के सपूत अब हिन्दी पढ़ना भूल गए ,
हिन्दी की गिनती क्या जाने, वो पढ़े पहाड़े भूल गए !
सारे विशेष दिन भूल गए त्यौहार कौन सा कब होता,
क्रिसमस की छुट्टी याद कि जैसे पट्टी पढ़ लेता तोता ,
लल्ला-लल्ली से ज्यादा अपने लगते हैं पिल्ला-पिल्ली ,
अंग्रेजी,असली मैडम है ,हिन्दी देसी औरत झल्ली.
रह गये नकलची बंदर बन वह मौज मस्तियाँ भूल गए !
दादी-नानी ये क्या जाने सब इनकी लगती हैं ग्रम्मा
मौसा फूफा क्या होते हैं,,चाची मामी में अंतर ना
फागुन और चैत बला क्या है कितनी ऋतुएं कैसी फसलें,
कुछ अक्षर जैसे ठ ढ़,ण अब श्रीमुख से कैसे निकलें
ञ,फ ,ङ,क्षत्रज्ञ बिसरे अंग्रेज़ी पढ़ कर फूल गए !
करवा पर टीवी का बतलाया ठाठ सिंगार सुहाता है
पर गौरा की पूजा कैसे हो कहाँ समझ में आता है ,
मामा-काका की संताने बस हैं उनके कज़िना-कज़नी,
जीजा-भाभी के नाते इन-लॉ लग कर बन जाते वज़नी,
उनसठ-उन्तालिस-उन्तिस का अन्तर क्या जाने, कूल भए !
इन-लॉ बन कर सब हुआ ठीक ,बिन लॉ के कोई बात नहीं .
है सभी ज़बानी जमा-खर्च रिश्तों में खास मिजाज़ नहीं.
ये अँग्रेज़ी में हँसते हैं ,इँगलिश में ही मुस्काते हैं,
इंडिया निकलता है मुख से भरत तो समझ न पाते हैं
वे सारे अक्षर ,-गुरु स्वर ,मात्राएँ आदि समूल गए !
हा,अमरीका में क्यों न हुए या लंदन में पैदा होते
क्यों नाम हमारा चंदन है ,लिंकन होते ,विलियम होते
आँखें नीली-पीली होतीं ये केश जरा भूरे होते ,
ये वेश हमारा क्यों होता क्यों ब्राउन हैं गोरे होते
हम काहे भारत में जन्मे, क्यों हाय जनम के फ़ूल भये !
*

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

गीत प्रतिभा सक्सेना

मेरी पसंद
कवि से -
- प्रतिभा सक्सेना
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता ,
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*

सोमवार, 3 सितंबर 2018

pratibha saxena

मेरी पसंद
कवि से -
- प्रतिभा सक्सेना
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुआहट खट्टापन का पाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता ,
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

कृति चर्चा: 'उत्तरकथा' -संजीव 'सलिल'

नव दुर्गा पर्व समापन पर विशेष कृति चर्चा : 
राम कथा के अछूते आयामों को स्पर्श करती 'उत्तरकथा'
संजीव 'सलिल'
*
(कृति परिचय: उत्तर कथा, महाकाव्य, महाकवि डॉ. प्रतिभा सक्सेना, आकार डिमाई, पृष्ठ 208, सजिल्द-बहुरंगी लेमिनेटेड आवरण, मूल्य 260 रु. / 15$, अयन प्रकाशन नै दिल्ली रचनाकार संपर्क: "Pratibha Saksena" <pratibha_saksena@yahoo.com> )

*
विश्व वाणी हिंदी को संस्कृत, प्राकृत से प्राप्त उदात्त विरासतों में ध्वनि विज्ञान आधृत शब्दोच्चारण, स्पष्ट व्याकरणिक नियम, प्रचुर पिंगलीय (छान्दस) सम्पदा तथा समृद्ध महाकाव्यात्मक आख्यान हैं। विश्व की किसी भी नया भाषा में महाकाव्य लेखन की इतनी उदात्त, व्यापक, मौलिक, आध्यात्मिकता संपन्न और गहन शोधपरक दृष्टियुक्त परंपरा नहीं है। अंगरेजी साहित्य के वार-काव्य महाकाव्य के समकक्ष नहीं ठहर पाते। राम-कथा तथा कृष्ण-कथा क्रमशः राम्मायण तथा महाभारत काल से आज तक असंख्य साहित्यिक कृतियों के विषय बने हैं। हर रचनाकार अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप विषय-वास्तु के अन्य-नए आयाम खोजता है। महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पूकाव्य, उपन्यास, कहानी, दृष्टान्त कथा, बोध कथा, प्रवचन, लोकगीत, कवितायेँ, मंचन (नाटक, नृत्य, चलचित्र), अर्थात संप्रेषण के हर माध्यम के माध्यम से असंख्य बार संप्रेषित किये जाने और पढ़ी-सुने-देखी जाने के बाद भी इन कथाओं में नवीनता के तत्व मिलना इनके चरित नायकों के जीवन और घटनाओं की विलक्षणता के प्रतीक तो हैं ही, इन कथाओं के अध्येताओं के विलक्षण मानस के भी प्रमाण हैं जो असंख्य बार वर्णित की जा चुकी कथा में कुछ नहीं बहुत कुछ अनसुना-अनदेखा-अचिंतित अन्वेषित कर चमत्कृत करने की सामर्थ्य रखती है।

इन कथाओं के कालजयी तथा सर्वप्रिय होने का कारण इनमें मानव  अब तक विकसित सभ्यताओं तथा जातियों (सुर, असुर, मनुज, दनुज, गन्धर्व, किन्नर, वानर, रिक्ष, नाग, गृद्ध, उलूक) के उच्चतम तथा निकृष्टतममूल्यों को जीते हुए शक्तिवान तथा शक्तिहीन पात्र तो हैं ही सामान्य प्रतीत होते नायकों के महामानवटीवी ही नहीं दैवत्व प्राप्त करते दीप्तिमान चरित्र भी हैं। सर्वाधिक विस्मयजनक तथ्य यह कि रचनाकार विविध घटनाओं तथा चरित्रों को इस तरह तराश और निखार पाते हैं कि आम पाठक, श्रोता और दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाते हैं की यह तो ज्ञात ही नहीं था। यहाँ तक की संभवतः वे चरित्र स्वयं भी अपने बारे में इतने विविधतापूर्ण आयामों की कल्पना न कर पाते। वैविध्य इतना की जो मात्र एक कृति में महामानव ही नहीं भगवन वर्णित है, वही अन्य कृति में अनाचारी वर्णित है, जो एक कृति में अधमाधम है वही अन्य कृति में महामानव है। राम कथा को केंद्र में रखकर रची गयी जिन कृतियों में मौलिक उद्भावना, नीर-क्षीर विवेचन तथा सामयिक व भावी आवश्यकतानुरूप चरित्र-चित्रण कर भावातिरेक से बचने में रचनाकार समर्थ हुआ है, उनमें से एक इस चर्चा के केंद्र में है।

हिंदी की समर्पित अध्येता, निष्णात प्राध्यापिका, प्रवीण कवयित्री तथा सुधी समीक्षक डॉ.प्रतिभा सक्सेना रचित महाकाव्य 'उत्तर कथा' में राम-कथा के सर्वमान्य तथ्यों का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है कि सकल कथा से पूर्व परिचित होने पर भी न केवल पिष्ट-पेशण या दुहराव की अनुभूति नहीं होती अपितु निरंतर औत्सुक्य तथा नूतनता की प्रतीति होती है। भूमिजा भगवती सीता को केंद्र में रखकर रचा गया यह महाकाव्य वाल्मीकि, पृष्ठभूमि, प्रस्तावना, आगमन, मन्दोदरी, घटनाक्रम, अशोक वन में, प्रश्न, रावण, युद्ध के बाद, वैदेही, सहस्त्रमुख पर विजय, अवधपुरी में, निर्वासिता, मातृत्व, स्मृतियाँ: रावण का पौरोहित्य, कौशल्या, स्मृतियाँ : सीता, रात्रियाँ, आक्रोश, क्या धरती में ही समा गयी, अयोध्या में, वाल्मीकि, जल समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि, जल-समाधि, अंतिम प्रणाम, वाल्मीकि  तथा उपसंहार शीर्षक 27 सर्गों में विभाजित है।

प्राच्य काव्याचार्यों ने बाह्य प्रकृति (दृश्य, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि), अन्य व्यक्ति (गुरु, आश्रयदाता, मित्र, शत्रु आदि), विचार (उपदेश, दर्शन, देश-प्रेम, आदर्श-रक्षा, क्रांति, त्याग आदि), तथा जिज्ञासा को काव्य-प्रेरणा कहा है। पाश्चात्य साहित्यविदों की दृष्टि में दैवी-प्रेरणा, अनुकरण वृत्ति, सौंदर्य-प्रेम, आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विस्तार तथा मनोविश्लेषकों के अनुसार अतृप्त कामना, हीनता आदि काव्य-प्रेरणा हैं। विवेच्य कृति में प्राच्य-पाश्चात्य कव्याचार्यों द्वारा मान्य काव्य-तत्वों में से अधिकांश की सम्यक उपस्थिति उल्लेख्य है।

काव्यालंकार में आचार्य भामह महाकाव्य के लक्षण निर्धारित करते हुए कहते हैं:

'' सर्गबद्धो महाकाव्यं महतां च महच्चयत।
अग्राम्यशब्दमर्थ च अलंकारं सदाश्रयं।।
मन्त्रदूत प्रयाणाजिन नायकाभ्युदयन्चवत।
पञ्चभिःसंधिभिर्युक्तं नाति व्याख्येयमृद्धियं।।''

भामह सर्गबद्धता, वृहदाकार, उत्कृष्ट अप्रस्तुतविधान, शिष्ट-नागर शब्द-विधान, आलंकारिक भाषा, महान चरित्रवान दिग्विजयी नायक (केन्द्रीय चरित्र), जीवन के विविध रूपो; दशाओं व् घटनाओं का चित्रण, संघटित कथानक, न्यून व्याख्या तथा प्रभाव की अन्विति को महाकाव्य का लक्षण मानते हैं। धनञ्जय के अनुसार ''अतरैकार्थ संबंध संधिरेकान्वयेसति'' अर्थात संधि का लक्षण एक प्रयोजन से संबद्ध अनेक कथांशों का प्रयोजन विशेष से संबद्ध किया जाना है। 'उत्तरकथा' में महाकाव्य के उक्त तत्वों की सम्यक तथा व्यापक उपस्थति सहज दृष्टव्य है।

पाश्चात्य साहित्य में मूल घटना की व्याख्या (एक्स्पोजीशन ऑफ़ इनीशिअल इंसिडेंट), विकास (ग्रोथ), चरम सीमा (क्लाइमैक्स), निर्गति (डेनौमेंट) तथा परिणति (कैटोस्ट्रोफ्री) को महाकाव्य का लक्षण बताया गया है। इस निकष पर भी 'उत्तरकथा' महाकव्य की श्रेणी में परिगणित की जाएगी। विदुषी कवयित्री ने स्वयं कृति को महाकाव्य नहीं कहा यह उनकी विनम्रता है। भूमुका में उनहोंने पूरी ईमानदारी से रामकथा के बहुभाषी वांग्मय के कृतिकारों, प्रस्तोताओं, आलोचकों, लोक-कथाओं, लोक-गीतों आदि का संकेत कर उनका ऋण स्वीकारा है।

रुद्रट ने महाकाव्य के लक्षण लंबी पद्यबद्ध कथा, प्रसंगानुकूल अवांतर कथाएं, सर्गबद्धता, नाटकीयता, समग्र जीवन चित्रण, अलंकार वर्णन, प्रकृति चित्रण, धीरोद्दात्त नायक, प्रतिनायक, नायक की जय, रसात्मकता, सोद्देश्यता तथा अलौकिकता मने हैं। उत्तर कथा में सामान्य के विपरीत नायक सीता हैं। ऐसे कथानक में सामायतः प्रतिनायक रावण होता है किन्तु यहाँ राम की दुर्बलता उन्हें प्रतिनायकत्व के निकट ले जाती है। यह एक दुस्साहसिक और मौलिक अवधारणा है। राम और रावण में से कौन एक या दोनों प्रतिनायक हैं? यह विचारणीय है। इसी तरह सीता को छोड़कर शेष सभी उनके साथ हो रहे अन्याय में मुखर या मौन सहभागिता का निर्वहन करते दिखते हैं। रचनाकार ने समग्र जीवन चित्रण के स्थान पर प्रमुख घटनाओं को वरीयता देने का औचित्य प्रतिपादित करते हुए भूमिका में कहा है- 'लोक-मानस में राम कथा इतनी सुपरिचित है की बीच की घटनाएँ या कड़ियाँ न भी हों तो कथा-क्रम में बाधा नहीं आती। वैसे भी कथा कहना या चरित गान करना मेरा उद्देश्य नहीं है।' अतः, घटनाओं के मध्य कथा-विकास का अनुमान लगाने का दायित्व पाठक को कथा-विकास के विविध आयामों के प्रति सजग रखता है। प्रकृति चित्रण अपेक्षाकृत न्यून है। यत्र-तत्र अलंकारों की शोभा काठ-प्रवाह या चरित्रों के निखर में सहायक है किन्तु कहीं भी रीतिकालीन रचनाकारों की तरह आवश्यक होने पर भी अलंकार ठूंसने से बचा गया है। नायक की विजय का तत्व अनुपस्थित है। प्रमुख चरित्रों सीता, राम तथा रावण तीनों में से किसी को भी विजयी नहीं कहा जा सकता। सीता का ओजस्वी, धीर-वीर-उदात्त केन्द्रीय चरित्र अपने साथ हुए अन्याय के कारन पाठकीय सहानुभूति अर्जित करने के बाद भी दिग्विजयी तो नहीं ही कहा जा सकता। घटनाओं तथा चरितों के विश्लेषण को विश्वसनीयता के निकष पर प्रमाणिक तथा खरा सिद्ध करने के उद्देश्य से असाधारणता, चमत्कारिकता या अलौकिकता को दूर रखा जाना उचित ही है। आचार्य हेमचन्द्र ने शब्द-वैचित्र्य, अर्थ-वैचित्र्य तथा उभय-वैचित्र्य (रसानुरूप सन्दर्भ-अर्थानुरूप छंद) को आवश्यक माना है किन्तु प्रतिभा जी ने सरलता, सहजता, सरसता की त्रिवेणी को अधिक महत्वपूर्ण माना है। वे परम्परागत मानकों का न तो अन्धानुकरण करती हैं, न ही उनकी उपेक्षा करती हैं अपितु कथानक की आवश्यकतानुसार यथा समय यथायोग्य मानकों का अनुपालन अथवा अनदेखी कर अपना पथ स्वयं प्रशस्त कर पाठक को बांधे रखती हैं। डॉ। नागेन्द्र द्वारा स्थापित उदात्तता मत (उदात्त चरित्र, उदात्त कार्य, उदात्त भाव, उदात्त कथानक व उदात्त शैली) इस कृति से पुष्ट होता है।

महाकाव्यत्व के भारतीय मानकों में प्रसंगानुकूल तथा रसानुकूल छंद वैविध्य की अनिवार्यता प्रतिपादित है जबकि अरस्तू आद्योपरांत एक ही छन्द आवश्यक मानते हैं। प्रतिभा जी की यह महती कृति मुक्त छंद में है किन्तु सर्वत्र निर्झर की तरह प्रवाहमयी भाषा, सम्यक शब्द-चयन, लय की प्रतीति, आलंकारिक सौष्ठव, रम्य लालित्य तथा अन्तर्निहित अर्थवत्ता कहीं भी बोझिल न होकर रसमयी नर्मदा तथा शांत क्षिप्रा की जल-तरंगों से मानव-मूल्यों के महाकाल का भावाभिषेक करती प्रती होता है।

यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने त्रासदी (ट्रेजेडी) को महाकाव्य (एपिक) का अनिवार्य व केन्द्रीय लक्षण कहा है। सीता के जीवन में हुई त्रासदियों से अधिक त्रासदी और क्या हो सकती है- जन्म के पूर्व ही पिता से वंचित, जन्म के साथ ही  माता द्वारा परित्यक्त, पिता द्वारा शिव-धनुष भंग के प्रण के कारण विवाह में बाधा, विवाह के मध्य परशुराम प्रसंग से अवरोध, विवाह-पश्चात् राम वनवास, रावण द्वारा हरण, मुक्ति पश्चात् राम का संदेह, आग्नि परीक्षा, अयोध्या में लांछन, निष्कासन, वन में युगल पुत्रों का पालन और अंत में निज-त्रासदियों के महानायक राम के आश्रय में पुत्रों को ह्बेजने की विवशता और अनंत अज्ञातवास...। अरस्तु के इस निकष पर महाकाव्य रचना के लिए सीता से बेहतर और कोई चरित्र नहीं हो सकता।

महाकाव्य के मानकों में सर्ग, प्रसंग तथा रसानुकूल छंद-चयन की परंपरा है। छंद-वैविध्य को महाकाव्य का वैशिष्ट्य माना गया है। प्रतिभा जी ने इस रूढ़ि के विपरीत असीमित आयाम युक्त मुक्त-छंद का चयन किया है जिसे बहुधा छंद-मुक्त ता छंद हीन मानने की भूल की जाती है। मानक छंदों के न होने तथा गति-यति के निश्चित विधान का अनुपालन न किये जाने के बावजूद समूची कृति में भाषिक लय-प्रवाह, आलंकारिक वैभव, अर्थ गाम्भीर्य, कथा विकास, रसात्मकता, सरलता, सहजता, घटनाक्रम की निरंतरता, नव मूल्य स्थापना, जन सामान्य हेतु सन्देश, रूढ़ि-खंडन तथा मौलिक उद्भावनाओं का होना कवयित्री के असाधारण सामर्थ्य का परिचायक है।

सामान्यतः छंद पिंगल का ज्ञान न होने या छंद सिद्ध न हो पाने के कारण कवि छंद रहित रचना करते हैं किन्तु प्रतिभा जी अपवाद हैं। उनहोंने छन्द शास्त्र से सुपरिचित तथा छन्द लेखन में समर्थ होते हुए भी छंद का वरण संभवतः सामान्य पाठकों की छंद को समझने में असुविधा के कारण नहीं किया। अधिकतर प्रयुक्त चतुष्पदियों में कहीं-कहीं  प्रथम-द्वितीय तथा तृतीय-चतुर्थ पंक्तियों में तुकांत साम्य है, कहीं प्रथम-तृतीय, द्वितीय-चतुर्थ पंक्ति में पदभार समान है, कहीं असमान... सारतः किसी पहाडी निर्झरिणी की सलिल-तरंगों की तरह काव्यधारा उछलती-कूदती, शांत होती-मुड़ती, टकराती-चक्रित होती,  गिरती-चढ़ती डराती-छकाती, मोहती-बुलाती प्रतीत होती है।

कृतिकार ने शैल्पिक स्तर पर ही नहीं अपितु कथा तत्वों व तथ्यों के स्तर पर भी स्वतंत्र दृष्टिकोण, मौलिक चिंतन और अन्वेषणपूर्ण तार्किक परिणति का पथ चुना है। आमुख में कंब रामायण, विलंका रामायण, आनंद रामायण, वाल्मीकि रामायण आदि कृतियों से कथा-सूत्र जुटाने का संकेत कर पाठकीय जिज्ञासा का समाधान कर दिया है। स्वतंत्र चिन्तन तथा चरित्र-चित्रण हेतु संभवत: राजतरंगिणीकार कल्हण का मत कवयित्री को मन्य है, तदनुसार 'वही श्रेष्ठ कवि प्रशंसा का अधिकारी है जिसके शब्द एक न्यायाधीश के पादक्य की भांति अतीत का चेत्र्ण करने में घृणा अथवा प्रेम की भवना से मुक्त होते हैं।' कवयित्री ने रचना के केन्द्रीय पात्र सीता के प्रति पूर्ण सहानुभूति होते हुए भी पक्षधरता का पूत कहीं भी नहीं आने दिया- यह असाधारण संतुलित अभिव्यक्ति सामर्थ्य उनमें है।

कृतिकार ने सफलता तथा साहसपूर्वक श्री राम पर अन्य कवियों द्वारा आरोपित मर्यादा पुरुषोत्तम, अवतार, भगवान् तथा लंकेश रावण पर आरोपित राक्षसत्व, तानाशाही, अनाचारी आदि दुर्गुणों से अप्रभावित रहकर राम की तुलना में रावण को श्रेष्ठ तथा सीता को श्रेष्ठतम निरूपित किया है। वे श्री इलयावुलूरि राव के इस मत से सहमत प्रतीत होती हैं- 'यह विडंबना की बात है की सारा संसार सीता और राम को आदर्श दम्पति मानकर उनकी पूजा करता है किन्तु उनका जैसा दाम्पत्य किसी को स्वीकार नहीं होगा।'

उत्तरकथा का रावन अपनी लंबी अनुपस्थिति में मन्दोदरी द्वारा कन्या को जन्म देने, उससे यह सत्य छिपाए जाने तथा उसे बताये बिना पुत्री को त्यागे जाने के बाद भी पत्नी पर पूर्ण विशवास करता है जबकि राम रावण द्वारा बलपूर्वक ले जाकर राखी गयी सीता के निष्कलंकित होने पर भी उन पर बार-बार संदेह कर मर्यादा के विपरीत न केवल कटु वचन कहते हैं अपितु अग्निपरीक्षा लेने के बाद भी एक अविवेकी के निराधार लांछन की आड़ में सीता को निष्कासित कर देते हैं। इतना ही नहीं सीता-पुत्रों द्वारा पराजित किये जाने पर राम अपने पितृत्व (जिसे वे खुद संदेह के घेरे में खड़ा कर चुके थे) का वास्ता देकर उन्हें पुत्र देने को विवश करते हैं। फलतः, सीता अपनी गरिमा और आत्म सम्मान की रक्षा के लिए रामाश्रय निकृष्टतम मानकर किसी से कुछ कहे बिना अग्यात्वास अज्ञातवास अंगीकार कर लेती हैं, आत्मग्लानिवश सीता-वनवास में सहयोगी रहे रामानुज लक्ष्मण तथा राम दोनों आत्महत्या करने के लिए विवश होते हैं।

विविध रामकथाओं में से कथा सूत्रों का चयन करते समय प्रतिभा जी को राम की बड़ी बहिन शांता के अस्तिस्व, पुत्रेष्टि यज्ञ के पौरोहित्य की दक्षिणा में ऋषि श्रृंगी से विवाह, लंका विजय पश्चात् बार-बार उकसाकर सीता से रावण का चित्र बनवाने-राम को दिखाकर संदेह जगाने, की कथा भी ज्ञात हुई होगी किन्तु यह प्रसंग संभवतः अप्रासंगिक मानकर छोड़ दिया गया। यक्ष-रक्ष, सुर-असुर सभ्यताओं के संकेत कृति में हैं किन्तु उन्नत नाग सभ्यता (एक केंद्र उज्जयिनी, वंशज कायस्थ) का उल्लेख न होना विस्मित करता है, संभवतः उन्होंने नागों को रामोत्तर माना हो। राम-कथा पर लिखनेवालों ने प्रायः घटना-स्थल की भौगोलिक-पर्यावरणीय परिस्थितियों की अनदेखी की है। प्रतिभा जी ने लीक से हटकर मय सभ्यता तथा मायन कल्चर का साम्य इंगित किया है, यहप्रशंसनीय है।

इस कृति का मूलोद्देश्य तथा सशक्त पक्ष सीता, मन्दोदरी तथा रावण के व्यक्तित्वों को लोक-धारणा से हटकर तथ्यों के आधार पर मूल्यांकित करना तथा जनमानस में सप्रयास भगवतस्वरुप विराजित किये गए राम-लक्ष्मण के चरित्रों के अपेक्षाकृत अल्पज्ञात पक्षों को सामने लाकर समाज पर पड़े दुष्प्रभावों को इंगित करना है। कृतिकार इस उद्देश्य में सफल तथा साधुवाद का पात्र है।
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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