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रविवार, 20 अप्रैल 2025

अप्रैल २०, अरुण छंद, शास्त्र छंद, सॉनेट, तुलसी, दोहा, नव गीत, मुक्तिका, पूर्णिका

सलिल सृजन २० अप्रैल
*
पूर्णिका
चंद्र विजय अभियान निरंतर जारी है।
केश टूटते देख करी तैयारी है
.
गृह लछमी सुन 'चंद्रमुखी' हो गई कुपित
क्यों बोला?, अपनी ही मति गई मारी है
.
उठा चमीटा झाड़ू बेलन बन काली
गरज रही कह आ अब तेरी बारी है
.
चाँद-चाँदनी देख हुआ मन तभी तरल
शरत्पूर्णिमा 'सलिल' हुई उजियारी है
.
चाँद सरीखे चेहरे को हमने थामा
चाँद सरीखी चांद उन्हें हुई प्यारी है
२०.४.२०२५
०००
सॉनेट
जनगण-मत
चित्र गुप्त है जनगण-मत का,
देख सके तो देख बावरे!
मिले श्वेत में छिपे साँवरे,
गत में चित्र मिला आगत का।
चित्र सुप्त है जनगण-मत का,
लेख सके तो लेख छाँव रे!
मिलें न खोजे गुमे गॉंव रे!
है आसार नहीं राहत का।
जनगण-मत का है अपहर्ता,
दल का दलदल देश गौड़ क्यों?
गारंटी की मची होड़ क्यों?
अहम् कह रहा खुद को भर्ता,
सत्ता खातिर अंध दौड़ क्यों?
२०.४.२०२४
•••
मुक्तक
सौ वर्षों सानंद रहो तुम
गीत मुक्तिका छंद रहो तुम
भाव बिंब अनुभूति कथ्य गह
रसमय मुट्ठी बंद रहो तुम।।
२०.४.२०२४
***
मुक्तिका
*
मेहनत अधरों की मुस्कान
मेहनत ही मेरा सम्मान
बहा पसीना, महल बना
पाया आप न एक मकान
वो जुमलेबाजी करते
जिनको कुर्सी बनी मचान
कंगन-करधन मिले नहीं
कमा बनाए सच लो जान
भारत माता की बेटी
यही सही मेरी पहचान
दल झंडे पंडे डंडे
मुझ बिन हैं बेदम-बेजान
उबटन से गणपति गढ़ दूँ
अगर पार्वती मैं लूँ ठान
सृजन 'सलिल' का है सार्थक
मेहनतकश का कर गुणगान
२०-४-२१
***
दोहा सलिला
नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध
जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध
*
माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार
मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार
*
सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त
आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त
*
एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट
तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट
*
रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य
आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य
*
विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद
जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद
*
भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान
मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान
*
हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन
अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन
*
तुलसी, मानस और कोविद
भविष्य दर्शन की बात हो तो लोग नॉस्ट्राडेमस या कीरो की दुहाई देते हैं। गो. तुलसीदास की रामभक्ति असंदिग्ध है, वर्तमान कोविद प्रसंग तुलसी के भविष्य वक्ता होने की भी पुष्टि करता है। कैसे? कहते हैं 'प्रत्यक्षं किं प्रमाणं', हाथ कंगन को आरसी क्या? चलिए मानस में ही उत्तर तलाशें। कहाँ? उत्तर उत्तरकांड में न मिलेगा तो कहाँ मिलेगा? तुलसी के अनुसार :
सब कई निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोग।। १२० / १४
वाइरोलोजी की पुस्तकों व् अनुसंधानों के अनुसार कोविद १९ महामारी चमगादडो से मनुष्यों में फैली है।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। १२० / १५
सब रोगों की जड़ 'मोह' है। कोरोना की जड़ अभक्ष्य जीवों (चमगादड़ आदि) का को खाने का 'मोह' और भारत में फैलाव का कारण विदेश यात्राओं का 'मोह' ही है। इन मोहों के कारण बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं। आयर्वेद के त्रिदोषों वात, कफ और पित्त को तुलसी क्रमश: काम, लोभ और क्रोध जनित बताते हैं। आश्चर्य यह की विदेश जानेवाले अधिकांश जन या तो व्यापार (लोभ) या मौज-मस्ती (काम) के लिए गए थे। यह कफ ही कोरोना का प्रमुख लक्षण देखा गया। जन्नत जाने का लोभ पाले लोग तब्लीगी जमात में कोरोना के वाहक बन गए। कफ तथा फेंफड़ों के संक्रमण का संकेत समझा जा सकता है।
प्रीती करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब स्कूल नाम को जाना।। १२०/ १६
कफ, पित्त और वात तीनों मिलकर असंतुलित हो जाएँ तो दुखदायी सन्निपात (त्रिदोष = कफ, वात और पित्त तीनों का एक साथ बिगड़ना। यह अलग रोग नहीं ज्वर / व्याधि बिगड़ने पर हुई गंभीर दशा है। साधारण रूप में रोगी का चित भ्रांत हो जाता है, वह अंड- बंड बकने लगता है तथा उछलता-कूदता है। आयुर्वेद के अनुसार १३ प्रकार के सन्निपात - संधिग, अंतक, रुग्दाह, चित्त- भ्रम, शीतांग, तंद्रिक, कंठकुब्ज, कर्णक, भग्ननेत्र, रक्तष्ठीव, प्रलाप, जिह्वक, और अभिन्यास हैं।) मोहादि विषयों से उत्पन्न शूल (रोग) असंख्य हैं। कोरोना वायरस के असंख्य प्रकार वैज्ञानिक भी स्वीकार रहे हैं। कुछ ज्ञात हैं अनेक अज्ञात।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।१२० १९
इस युग (समय) में मत्सर (अन्य की उन्नति से जलना) तथा अविवेक के कारण अनेक विकार उत्पन्न होंगे। देश में राजनैतिक नेताओं और सांप्रदायिक शक्तियों के अविवेक से अनेक सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विकार हुए और अब जीवननाशी विकार उत्पन्न हो गया।
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥१२१ क
एक ही व्याधि (रोग कोविद १९) से असंख्य लोग मरेंगे, फिर अनेक व्याधियाँ (कोरोना के साथ मधुमेह, रक्तचाप, कैंसर, हृद्रोग आदि) हों तो मनुष्य चैन से समाधि (मुक्ति / शांति) भी नहीं पा सकता।
नेम धर्म आचार तप, ज्ञान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं, रोग जाहिं हरिजान।। १२१ ख
नियम (एकांतवास, क्वारेंटाइन), धर्म (समय पर औषधि लेना), सदाचरण (स्वच्छता, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजेशन,गर्म पानी पीना आदि ), तप (व्यायाम आदि से प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना), ज्ञान (क्या करें या न करें जानना), यज्ञ (मनोबल हेतु ईश्वर का स्मरण), दान (गरीबों को या प्रधान मंत्री कोष में) आदि अनेक उपाय हैं तथापि व्याधि सहजता से नहीं जाती।
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेहिं पाए।।१२१ / १
इस प्रकार सब जग रोग्रस्त होगा (कोरोना से पूरा विश्व ग्रस्त है) जो शोक, हर्ष, भय, प्यार और विरह से ग्रस्त होगा। हर देश दूसरे देश के प्रति शंका, भय, द्वेष, स्वार्थवश संधि, और संधि भंग आदि से ग्रस्त है। तुलसी ने कुछ मानसिक रोगों का संकेत मात्र किया है, शेष को बहुत थोड़े लोग (नेता, अफसर, विशेषज्ञ) जान सकेंगे।
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।। १२१ / २
जिनके बारे में पता च जाएगा ऐसे पापी (कोरोनाग्रस्त रोगी, मृत्यु या चिकित्सा के कारण) कम हो जायेंगे , परन्तु विषाणु का पूरी तरह नाश नहीं होगा। विषय या कुपथ्य (अनुकूल परिस्थिति या बदपरहेजी) की स्थिति में मुनि (सज्जन, स्वस्थ्य जन) भी इनके शिकार हो सकते हैं जैसे कुछ चिकित्सक आदि शिकार हुए तथा ठीक हो चुके लोगों में दुबारा भी हो सकता है।
तुलसी यहीं नहीं रुकते, संकेतों में निदान भी बताते हैं।
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥ १२१ / ३
ईश्वर की कृपा से संयोग (जिसमें रोगियों की चिकित्सा, पारस्परिक दूरी, स्वच्छता, शासन और जनता का सहयोग) बने, सद्गुरु (सरकार प्रमुख) तथा बैद (डॉक्टर) की सलाह मानें, संयम से रहे, पारस्परिक संपर्क न करें तो रोग का नाश हो सकता है।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥
ईश्वर की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।
२०-४-२०२०
***
मुक्तिका
*
वतन परस्तों से शिकवा किसी को थोड़ी है
गैर मुल्कों की हिमायत ही लत निगोड़ी है
*
भाईचारे के बीच मजहबी दखल क्यों हो?
मनमुटावों का हल, नाहक तलाक थोड़ी है
*
साथ दहशत का न दोगे, अमन बचाओगे
आज तक पाली है, उम्मीद नहीं छोड़ी है
*
गैर मुल्कों की वफादारी निभानेवालों
तुम्हारे बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
*
है दुश्मनों से तुम्हें आज भी जो हमदर्दी
तो ये भी जान लो, तुमने ही आस तोड़ी है
*
खुदा न माफ़ करेगा, मिलेगी दोजख ही
वतनपरस्ती अगर शेष नहीं थोड़ी है
*
जो है गैरों का सगा उसकी वफा बेमानी
हाथ के पत्थरों में आसमान थोड़ी है
*
छंद बहर का मूल है: ७
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SIS IS / SISS ISIS
सूत्र: ररलग।
आठ वार्णिक जातीय छंद।
तेरह मात्रिक जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं फ़ाइलुं फ़अल / फ़ाइलातुं मुफ़ाइलुं ।
*
देवता है वही सही
जो चढ़ा वो मँगे नहीं
*
बाल सारे सफेद हैं
धूप में ये रँगे नहीं
*
लोग ईसा बनें यहाँ
सूलियों पे टँगे नहीं
*
दर्द नेता न भोगता
सत्य है ये सभी कहीं
*
आम लोगों न हारना
हिम्मतें ही जयी रहीं
*
SISS ISIS
जी न चाहे वहीं चलो
धार ही में बहे चलो
*
दूसरों की न बात हो
हाथ खाली मले चलो
*
छोड़ भी दो तनातनी
ख्वाब हो तो पले चलो
*
दुश्मनों की निगाह में
शूल जैसे चुभे चलो
*
व्यर्थ सीना न तान लो
फूल पाओ झुके चलो
***
२०.४.२०१७
***
छंद सलिला:
अरुण छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण), यति ५-५-१०
लक्षण छंद:
शिशु अरुण को नमन कर ;सलिल; सर्वदा
मत रगड़ एड़ियाँ मंज़िलें पा सदा
कर्म कर, ज्ञान वर, मन व्रती पारखी
एक दो एक पग अंत में हो सखी
उदाहरण:
१. प्रेयसी! लाल हैं उषा से गाल क्यों
मुझ अरुण को कहो क्यों रही टाल हो?
नत नयन, मृदु बयन हर रहे चित्त को-
बँधो भुज पाश में कहो क्या हाल हो?
२. आप को आप ने आप ही दी सदा
आप ने आप के भाग्य में क्या लिखा"
व्योम में मोम हो सोम ढल क्यों गया?
पाप या शाप चुक, कल उगे हो नया
३. लाल को गोपियाँ टोंकती ही रहीं
'बस करो' माँ उन्हें रोकती ही रहीं
ग्वाल थे छिप खड़े, ताक में थे अड़े
प्रीत नवनीत से भाग भी थे बड़े
घर गयीं गोपियाँ आ गयीं टोलियाँ
जुट गयीं हट गयीं लूटकर मटकियाँ
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)
***
छंद सलिला:
शास्त्र छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण)
लक्षण छंद:
पढ़ो उठकर शास्त्र समझ-गुन कर याद
रचो सुमधुर छंद याद रख मर्याद
कला बीसी रखें हर चरण पर्यन्त
हर चरण में कन्त रहे गुरु लघु अंत
उदाहरण:
१. शेष जब तक श्वास नहीं तजना आस
लक्ष्य लाये पास लगातार प्रयास
शूल हो या फूल पड़े सब पर धूल
सम न हो समय प्रतिकूल या अनुकूल
२. किया है सच सचाई को ही प्रणाम
हुआ है सच भलाई का ही सुनाम
रहा है समय का ईश्वर भी गुलाम
हुआ बदनाम फिर भी मिला है नाम
३. निर्भय होकर वन्देमातरम बोल
जियो ना पीटो लोकतंत्र का ढोल
कर मतदान, ना करना रे मत-दान
करो पराजित दल- नेता बेइमान
*************************
विशेष टिप्पणी :
हिंदी के 'शास्त्र' छंद से उर्दू के छंद 'बहरे-हज़ज़' (मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन) की मुफ़र्रद बह्र 'मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईल' की समानता देखिये.
उदाहरण:
१. हुए जिसके लिए बर्बाद अफ़सोस
वो करता भी नहीं अब याद अफ़सोस
२. फलक हर रोज लाता है नया रूप
बदलता है ये क्या-क्या बहुरूपिया रूप
३. उन्हें खुद अपनी यकताई पे है नाज़
ये हुस्ने-ज़न है सूरत-आफ़रीं से
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)
२०-४-२०१४
***
दोहा मुक्तक
पीर पराई हो सगी, निज सुख भी हो गैर.
जिसको उसकी हमेशा, 'सलिल' रहेगी खैर..
सबसे करले मित्रता, बाँट सभी को स्नेह-
'सलिल' कभी मत किसी के, प्रति हो मन में बैर..
***
नव गीत
*
जीवन की जय बोल, धरा का दर्द तनिक सुन...
तपता सूरज आँख दिखाता, जगत जल रहा.
पीर सौ गुनी अधिक हुई है, नेह गल रहा.
हिम्मत तनिक न हार- नए सपने फिर से बुन...
निशा उषा संध्या को छलता सुख का चंदा.
हँसता है पर काम किसी के आये न बन्दा...
सब अपने में लीन, तुझे प्यारी अपनी धुन...
महाकाल के हाथ जिंदगी यंत्र हुई है.
स्वार्थ-कामना ही साँसों का मन्त्र मुई है.
तंत्र लोक पर, रहे न हावी कर कुछ सुन-गुन...
२०-४-२०१०
***

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

अप्रैल १७, रेवा, चामर छंद, नव गीत, सामी, गोपाल प्रसाद व्यास, भजन, सॉनेट

सलिल सृजन अप्रैल १७
पूर्णिका
प्रभु को भज पा परमानंद
गुरु पद रज पा परमानंद
.
पंचतत्व-पंचेंद्रिय देह
पंचामृत पा परमानंद
.
बहा स्वेद, कर श्रम-पूजन
कलरव सुन पा परमानंद
.
नदी जननि रखना निर्मल
पौध लगा पा परमानंद
.
जा दरिद्र नारायण तक
सेवा कर पा परमानंद
.
कविता शारद की बिटिया
चरण-शरण पा परमानंद
.
शब्द ब्रह्म आराधन कर
स्वार्थ त्याग पा परमानंद
०००
मुक्तिका
बेला कहि रह्यौ बेला भई रे जे साजन कें आवन की।
फगुनाई में महक रह्यो मन जैसें ऋतु हो सावन की।।
नैन बोल रए निशा निमंत्रन पाल्यो साँसें धन्न भईं -
मिल आँखन से आँख बसा लईँ मन में छब मनभावन की।।
कई, नें सुनीं कछू काऊ की, मनमानी मन करत रओ 
महाकुंभ श्वासों का न्हा कें, कान्हा  आसें पावन की।।
नेह नरमदा भईं कालिंदी, अमरित जमुना जल लल्ला! 
कालिय नाग मार संका को, बात नें करियों जावन की।।
सौतन बंसी लगी अधर सें, देख जले जी गुइँया री!
बिन बंसी धुन सुने बिकल जी, चहे चाप प्रिय आवन की।।  
प्रात राधिका, दिवस द्रौपदी, साँझ रुक्मनी, कुब्जा रात
खड़ी घड़ा ले घड़ी-घड़ी पथ, हेरत हृदय लुभावन की।।   
१५.४.२०२५
०००    
सॉनेट
कौन?
कौन है तू?, कौन जाने?
किसी ने तुझको न देखा।
कहीं तेरा नहीं लेखा।।
जो सुने जग सत्य माने।।
देह में है कौन रहता?
ज्ञात है क्या कुछ किसी को?
ईश कहते क्या इसी को?
श्वास में क्या वही बहता?
कौन है जो कुछ न बोले
उड़ सके पर बिना खोले
जगद्गुरु है आप भोले।।
कौन जो हर चित्र में है?
गुप्त वह हर मित्र में है।
बन सुरभि हर इत्र में है।।
१७-४-२०२२
•••
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी दया दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
***
नवगीत:
बहुत समझ लो
सच, बतलाया
थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है
दर्द दिखाया
थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है
वैर्य दिखाया
थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको
अभी लगाया
थोड़ा है
***
चलते-फिरते विश्वविद्यालय महादेव प्रसाद 'सामी'
*
प्रोफेसर महादेव प्रसाद 'सामी' एक ऐसी शख्सियत का नाम जो आदमी के चोले में चलता-फिरता विश्वविद्यालय था। बीसवीं सदी के चंद चुनिंदा शायरों की फहरिस्त में सामी जी का नाम अव्वल हो सकता है। सामी साहब का जन्म बाबू देवीप्रसाद (सुपरिन्टेन्डेन्ट कमिश्नर ऑफिस लखनऊ) के घर में २० जुलाई १८९५ को कस्बा जैदपुर, हरदोई उत्तर प्रदेश में तथा निधन २ अक्टूबर १९७१ को जबलपुर मध्य प्रदेश में हुआ। वे गोमती और नर्मदा के बीच की ऐसी अदबी कड़ी थे जो शायरी को पूजा की तरह मुकद्द्स मानते थे। उनका एक मात्र दीवान 'कलामे सामी' उनके इंतकाल के २ साल बाद साल १९७३ में अंजुमन तरक्किये उर्दू ने साया किया। इसका संपादन मशहूर शायर, वकील जनाब पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर' (मेयर जबलपुर) और भगवान दयाल डग ने किया। दीवान की शुरुआत में 'दो शब्द' लिखते हुए हिंदी-संस्कृत-अंग्रेजी के विद्वान् कृष्णायनकार द्वारका प्रसाद मिश्र (मुख्य मंत्री मध्य प्रदेश, कुलपति सागर विश्वविद्यालय) ने लिखा - 'प्रोफेसर सामी में काव्य प्रतिभा एवं आचार्यत्व का सुंदर समागम था। आजीवन आत्म प्रकाशन से दूर रहकर उनहोंने काव्य रचना की थी..... उनकी रचनाओं में उनके भाषा पर असाधारण अधिकार के साथ ही उनकी मौलिक सूझ-बूझ एवं हृदयानुभूति के भी दर्शन होते हैं। यत्र-तत्र उनके कलाम में दार्शनिकता की भी झलक है जो किसी भी भारतीय कवि के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा का कवि हो सर्वथा स्वाभाविक है। ग़ज़लों के विषय प्राय: परंपरागतबपरंपरागत तो होते ही हैं फिर भी 'सामी' के काव्य में अनेक नवीन उद्भावनाएँ हैं। भाषा में अभिव्यंजन कौशल के साथ प्रवाह है और अर्थ गांभीर्य के साथ सरलता। कल्पना की उड़ान के साथ पार्थिव जीवन की सच्चाई उनके काव्य को उनकी निजी विशेषता प्रदान करती है।'
सामीजी ने शाने अवध कहे जानेवाले शहर लखनऊ में मैट्रिक तक उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया। आपने स्वध्याय से दोनों भाषाओँ का इतना गहन एवं व्यापक ज्ञान अर्जित किया कि आपकी गिनती 'उस्तादों' में होने लगी। विद्यार्थी काल में पढ़ने के साथ साथ अपने ट्यूशन भी लीं। आपके विद्यार्थियों में मशहूर शायर जोश मलीहाबादी भी थे। जोश ने आपने शायरी कफ़न नहीं विज्ञान सीखा। वे ऐसी शख्सियत थे की सिर्फ मैट्रिक होते हुए भी सागर विश्वविद्यालय द्वारा विशेष अनुमति से हितकारिणी सिटी कॉलेज जबलपुर में उर्दू-फ़ारसी' के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बनाए गए। उर्दू अदब में 'उस्ताद परंपरा' है मगर सामी जी अपने उस्ताद आप ही थे। रायबरेली उत्तर प्रदेश निवासी मुंशी नर्मदा प्रसाद वर्मा (इंस्पेक्टररजिस्ट्रेशन विभाग जबलपुर) की पुत्री लक्ष्मी देवी के साथ ८ मई १९१८ को आपका विवाह संपन्न हुआ। १९२१ में आप नार्मल स्कूल बिलासपुर में गणित तथा विज्ञान के शिक्षक होकर आए। पहले साल में ही इनकी विद्वता, योगयता और कुशलता की धाक ऐसी जमी की आपको टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज जबलपुर में चुन लिया गया और आप ट्रेनिंग का २ वर्ष का कोर्स एक वर्ष में पूर्ण कर परीक्षा में अव्वल आए। आपको मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में नियुक्त कर दिया गया। आप १९४० तक लगभग २० वर्ष मॉडल हाई स्कूल में ही रहे। विज्ञान और गणित पढ़ाने में आपका सानी नहीं था। आपने शृंगारिक ग़ज़लों के साथ देश हुए समाज की गिरी हुई हालत को सुधारने के नज़रिए से नैतिकता और दार्शनिकता से भरपूर ग़ज़लें लिखकर नाम कमाया। इसके अलावा आपने अरबी-फ़ारसी व संस्कृत सीखकर उसके साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। आप अपनी विद्वता गणित, विज्ञान के अतिरिक्त अरबी-फ़ारसी-उर्दू विषयों के लिए भी बोर्ड तथा विश्वविद्यालय की कमेटियों में परीक्षक बनाए जाते थे। वे अलस्सुबह उठाकर पढ़ना शुरू कर देते हुए देर रात तक पढ़ते-पढ़ाते रहते थे। उनके घर पर दिन भर किसी स्कूल की तरह पढ़नेवाले आते रहते। वे किसी को खाली हाथ लौटाते नहीं थे।
खुद केवल मैट्रिक तक पढ़ाई करने के बाद भी वे बी.ए,. एम. ए. के विद्यार्थियों को गणित, विज्ञान, भौतिकी, उर्दू तथा फारसी आदि पढ़ाते थे। और तो और की बार खुद प्रफेसर आदि भी अपनी मुश्किलात आपसे हल कराते थे। हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्यकारों को भी आपसे लगातार मदद मिलती रहती थी। आपने अपना एक भी दीवान साया नहीं कराया। पूछने पर कहते 'पढ़ने-पढ़ाने-सोचने से ही फुरसत नहीं मिलती'। आपके मार्गदर्शन में केशव प्रसाद पाठक ने उमर खय्याम के साहित्य का हिंदी अनुवाद किया। आपने पत्रिका प्रेमा के संपादक रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' का महाकवि अनीस और महाकवि ग़ालिब की टीका करने में मार्गदर्शन किया। आप हिंदी छंद शास्त्र के विद्वान् थे। सेठ गोविंददास और सुभद्रा कुमारी चौहान आदि आपके प्रशंसक थे।
भारत की लालफीताशाही की ताकत का पार नहीं है। सामी जी भी इसके शिकार हुए। एक तरफ जहाँ आपकी विद्वता की धाक पूरे प्रान्त में थी, दूसरी और १८ साल नौकरी करते हुए अपने पद और वेतन से ऊपर का काम करने पर भी आप को कोई पदोन्नति नहीं गई। गज़ब तो यह की १९४० में जबलपुर में पहला कॉलेज हितकारिणी सिटी कॉलेज स्थापित होने पर विश्वविद्यालय से विशेष अनुमति लेकर आपको उर्दू-फारसी का प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष बनाया गया, दूसरी और समय से पूर्व शालेय शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्ति के कारन आपको पेंशन नहीं दी गई। उन्हें अपने घर का खर्च चलने के लिए ट्यूशन करनी पड़ी। तब बिजली नहीं थी। जमीन पर बैठकर लगातार झुककर पढ़ने के कारण आपकी कमर झुक गई और आप को लकड़ी का सहर लेना पड़ा। कॉलेज से आप १०७० में सेवा मुक्त हुए। अपनी खुद के संतान न होने पर भी आपने दिवंगत बड़े भाई के ३ पुत्रों तथा १ पुत्र की पूरी जिम्मेदारी उठाई। उन्हें पढ़ा-लिखकर, विवाहादि कराए।
निरंतर कमजोर होती विवाह और परिवार संस्थाओं के इस संक्रमण काल में सामी जी का जीवन एक उदाहरण है की किस तरह अपना जीवन खुद की सुख-सुविधा तक सीमित ना रखकर सूर्य की तरह सबको प्रकाशित कार जिया जाता है। वैदुष्य, समर्पण, निष्ठा, मेधा, और वीतरागता के पर्याय महादेव प्रसाद सामी जी दर्शन शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, धर्म शास्त्र, तर्क शास्त्र, इतिहास आदि में अपनी विद्वत के लिए सर्वत्र समादृत थे।
***
विरासत :
कोरोना काल में आराम करने के फायदे जानिए हास्यावतार गोपाल प्रसाद व्यास से
* जन्म १३ फ़रवरी १९१५
* निधन २८ मई २००५
*जन्म स्थान महमदपुर, जिला मथुरा, उ. प्र ।
विविध शलाका सम्मान से सम्मानित।
कविता
* आराम करो , आराम करो *
एक मित्र बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीप जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
***
मुक्तिका
*
कबिरा जो देखे कहे
नदी नरमदा सम बहे
जो पाये वह बाँट दे
रमा राम में ही रहे
घरवाली का क्रोध भी
बोल न कुछ हँसकर सहे
देख पराई चूपड़ी
कभी नहीं किंचित् दहे
पल की खबर न है जरा
कल के लिये न कुछ गहे
राम नाम ओढ़े-बिछा
राम नाम चादर तहे
न तो उछलता हर्ष से
और न गम से घिर ढहे
*
मुक्तक
*
है प्राची स्वर्णाभित हे राधेमाधव
दस दिश कलरव गुंजित है राधेमाधव
कोविद का अभिशाप बना वरदान 'सलिल'
देश शांत अनुशासित है राधेमाधव
*
तबलीगी जमात मजलिस को बैन करो
आँखें रहते देखो बंद न नैन करो
जो कानून तोड़ते उनको मरने दो
मत इलाज दो, जीवन काली रैन करो
*
मतभेदों को सब हँसकर स्वीकार करें
मनभेदों की ध्वस्त हरेक दीवार करें
ये जय जय वे हाय हाय अब बंद करें
देश सभी का, सब इसके उद्धार करें
*
जीवन कैसे जिएँ मिला अधिकार हमें
हानि न औरों को हो पथ स्वीकार हमें
जो न चिकित्सा चाहें, वे सब साथ रहें
नहीं शेष से मिलें, न दें दीदार हमें
*
कोरोना कम; ज्यादा घातक मानव बम
सोच प्रदूषित ये सारे हैं दानव बम
बिन इलाज रह, आएँ-जाएँ कहीं नहीं
मर जाएँ तो जला, कहो बम बम बम बम
१७-४-२०२०
***
मुक्तक
चीर तिमिर को प्रकट हुई शुचि काव्य कामिनी।
दिप-दिप दमक रही मेघों में दिव्य दामिनी।
दिखती लुकती चपल चंचला मन भरमाती-
उषा-साँझ सखियों सह शोभित 'सलिल' यामिनी।।
***
नव गीत
आओ भौंकें
*
आओ भौंकें
लोकतंत्र का महापर्व है
हमको खुद पर बहुत गर्व है
चूक न जाए अवसर भौंकें
आओ भौंकें
*
क्यों सोचें क्या कहाँ ठीक है?
गलत बनाई यार लीक है
पान मान का नहीं सुहाता
दुर्वचनों का अधर-पीक है
मतलब तज, बेमतलब टोंकें
आओ भौंकें
*
दो दूनी हम चार न मानें
तीन-पाँच की छेड़ें तानें
गाली सुभाषितों सी भाए
बैर अकल से पल-पल ठानें
देख श्वान भी डरकर चौंकें
आओ भौंकें
*
बिल्ला काट रास्ता जाए
हमको नानी याद कराए
गुंडों के सम्मुख नतमस्तक
हमें न नियम-कायदे भाए
दुश्मन देखें झट से पौंकें
आओ भौंकें
*
हम क्या जानें इज्जत देना
हमें सभ्यता से क्या लेना?
ईश्वर को भी बीच घसीटे-
पालेे हैं चमचों की सेना।
शिष्टाचार भाड़ में झौंकें
आओ भौंकें
१७-४-२०१९
*
छंद बहर का मूल है: ५
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS ISI SIS ISI SIS
सूत्र: रजरजर।
पन्द्रह वार्णिक अतिशर्करी जातीय चामर छंद।
तेईस मात्रिक रौद्राक जातीय छंद।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं।
*
देश का सवाल है न राजनीति खेलिए
लोक को रहे न शोक लोकनीति कीजिए
*
भेद-भाव भूल स्नेह-प्रीत खूब बाँटिए
नेह नर्मदा नहा, न रीति-प्रीति भूलिए
*
नीर के बिना न जिंदगी बिता सको कभी
साफ़ हों नदी-कुएँ सभी प्रयास कीजिए
*
घूस का न कायदा, न फायदा उठाइये
काम-काज जो करें, न वक्त आप चूकिए
*
ज्यादती न कीजिए, न ज्यादती सहें कभी
कामयाब हों, प्रयास बार-बार कीजिए
*
पीढ़ियाँ न एक सी रहीं, न हो सकें कभी
हाथ थाम लें गले लगा, न आप जूझिए
*
घालमेल छोड़, ताल-मेल से रहें सुखी
सौख्य पालिए, न राग-द्वेष आप घोलिए
*
१७.४.२०१७
***
***
रेवा मैया
*
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
जग-जीवन की नाव खिवैया
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
भव सागर से पार लगैया
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
रोग-शोक भव-बाधा टारें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
सब जनगण मिल जय उच्चारें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
अमृत जल है जीवनदाता
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
पुण्य अनंत भक्त पा जाता
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
ब्रम्हा-शिव-हरि तव गुण गायें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
संत असुर सुर नर तर जाएँ
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
विन्ध्य, सतपुड़ा, मेकल हर्षित
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
निंगादेव हुए जन पूजित
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
नरसिंह कनककशिपु संहारे
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
परशुराम ने क्षत्रिय मारे
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
राम-सिया तव तीरे आये
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
हनुमत-जामवंत मिल पाए
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
बाणासुर ने रावण पकड़ा
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
काराग्रह में जमकर जकड़ा
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
पांडवगण वनवास बिताएँ
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गुप्तेश्वर के यश जन गायें
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गौरी घाट तीर्थ अतिसुन्दर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
घाट लम्हेटा परम मनोहर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
तिलवारा बैठे तिल ईश्वर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
गौरी-गौरा भेड़े तप कर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
धुआंधार में कूद लगाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
चौंसठ योगिनी नाचें माई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
संगमरमरी छटा सुहाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
नौकायन सुख-शांति प्रदाई
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
बंदर कूदनी कूदे हनुमत
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
महर्षि-ओशो पूजें विद्वत
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
कलकल लहर निनाद मनोहर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
*
हो संजीव हरो विपदा हर
रेवा मैया! रेवा मैया!!
१७-४-२०१७
***
कृति परिचय:
आधुनिक अर्थशास्त्र: एक बहुउपयोगी कृति
चर्चाकार- डॉ. साधना वर्मा
सहायक प्रध्यापक अर्थशास्त्र
शासकीय महाकौसल स्वशासी अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर
*
[कृति विवरण: आधुनिक अर्थशास्त्र, डॉ. मोहिनी अग्रवाल, अकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, लेमिनेटेड, जेकेट सहित, पृष्ठ २१५, मूल्य ५५०/-, कृतिकार संपर्क: एसो. प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, महिला महाविद्यालय, किदवई नगर कानपुर, रौशनी पब्लिकेशन ११०/१३८ मिश्र पैलेस, जवाहर नगर कानपूर २०८०१२ ISBN ९७८-९३-८३४००-९-६]
अर्थशास्त्र मानव मानव के सामान्य दैनंदिन जीवन के अभिन्न क्रिया-कलापों से जुड़ा विषय है. व्यक्ति, देश, समाज तथा विश्व हर स्तर पर आर्थिक क्रियाओं की निरन्तरता बनी रहती है. यह भी कह सकते हैं कि अर्थशास्त्र जिंदगी का शास्त्र है क्योंकि जन्म से मरण तक हर पल जीव किसी न किसी आर्थिक क्रिया से संलग्न अथवा उसमें निमग्न रहा आता है. संभवतः इसीलिए अर्थशास्त्र सर्वाधिक लोकप्रिय विषय है. कला-वाणिज्य संकायों में अर्थशास्त्र विषय का चयन करनेवाले विद्यार्थी सर्वाधिक तथा अनुत्तीर्ण होनेवाले न्यूनतम होते हैं. कला महाविद्यालयों की कल्पना अर्थशास्त्र विभाग के बिना करना कठिन है. यही नहीं अर्थशास्त्र विषय प्रतियोगिता परीक्षाओं की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है. उच्च अंक प्रतिशत के लिये तथा साक्षात्कार में सफलता के लिए इसकी उपादेयता असिंदिग्ध है. देश के प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों में अनेक अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं.
आधुनिक जीवन प्रणाली तथा शिक्षा प्रणाली के महत्वपूर्ण अंग उत्पादन, श्रम, पूँजी, कौशल, लगत, मूल्य विक्रय, पारिश्रमिक, माँग, पूर्ति, मुद्रा, बैंकिंग, वित्त, विनियोग, नियोजन, खपत आदि अर्थशास्त्र की पाठ्य सामग्री में समाहित होते हैं. इनका समुचित-सम्यक अध्ययन किये बिना परिवार, देश या विश्व की अर्थनीति नहीं बनाई जा सकती.
डॉ. मोहिनी अग्रवाल लिखित विवेच्य कृति 'आधुनिक अर्थशास्त्र' एस विषय के अध्यापकों, विद्यार्थियों तथा जनसामान्य हेतु सामान रूप से उपयोगी है. विषय बोध, सूक्ष्म अर्थशास्त्र, वृहद् अर्थशास्त्र, मूल्य निर्धारण के सिद्धांत, मजदूरी निर्धारण के सिद्धांत, मांग एवं पूर्ति तथा वित्त एवं विनियोग शीर्षक ७ अध्यायों में विभक्त यह करती विषय-वस्ती के साथ पूरी तरह न्याय करती है. लेखिका ने भारतीय तथा पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के मताभिमतों की सरल-सुबोध हिंदी में व्याख्या करते हुए विषय की स्पष्ट विवेचना इस तरह की है कि प्राध्यापकों, शिक्षकों तथा विद्यार्थियों को विषय-वस्तु समझने में कठिनाई न हो.आमजीवन में प्रचलित सामान्य शब्दावली, छोटे-छोटे वाक्य, यथोचित उदाहरण, यथावश्यक व्याख्याएँ, इस कृति की विशेषता है. विषयानुकूल रेखाचित्र तथा सारणियाँ विषय-वास्तु को ग्रहणीय बनाते हैं.
विषय से संबंधित अधिनियमों के प्रावधानों, प्रमुख वाद-निर्णयों, दंड के प्रावधानों आदि की उपयोगी जानकारी ने इसे अधिक उपयोगी बनाया है. कृति के अंत में परिशिष्टों में शब्द सूची, सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि तथा प्रमुख वाद प्रकरणों की सूची जोड़ी जा सकती तो पुस्तक को मानल स्वरुप मिल जाता. प्रख्यात अर्थशास्त्रियों के अभिमतों के साथ उनके चित्र तथा जन्म-निधन तिथियाँ देकर विद्यार्थियों की ज्ञानवृद्धि की जा सकती थी. संभवतः पृष्ठ संख्या तथा मूल्य वृद्धि की सम्भावना को देखते हुए यह सामग्री न जोड़ी जा सकी हो. पुस्तक का मूल्य विद्यार्थियों की दृष्टि से अधिक प्रतीत होता है. अत: अल्पमोली पेपरबैक संस्करण उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
सारत: डॉ. मोहिनी अग्रवाल की यह कृति उपयोगी है तथा इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए वे साधुवाद की पात्र हैं.
१७-४-२०१५
***
मुक्तक
सूर्य छेडता उषा को हुई लाल बेहाल
क्रोधित भैया मेघ ने दंड दिया तत्काल
वसुधा माँ ने बताया पलटा चिर अनुराग-
गगन पिता ने छुड़ाया आ न जाए भूचाल
*
वन काटे, पर्वत मिटा, भोग रहे अभिशाप
उफ़न-सूख नदिया कहे, बंद करो यह पाप
रूठे प्रभु केदार तो मनुज हुआ बेज़ार-
सुधर न पाया तो असह्य, होगा भू का ताप
*
मोहन हो गोपाल भी, हे जसुदा के लाल!
तुम्हीं वेणुधर श्याम हो, बाल तुम्हीं जगपाल
कमलनयन श्यामलवदन, माखनचोर मुरार-
गिरिधर हो रणछोड़ भी, कृष्ण कान्ह इन्द्रारि।
*
श्वास तुला है आस दण्डिका, दोनों पल्लों पर हैं श्याम
जड़ में वही समाये हैं जो खुद चैतन्य परम अभिराम
कंकर कंकर में शंकर वे, वे ही कण-कण में भगवान-
नयन मूँद, कर जोड़ कर 'सलिल', आत्मलीन हो नम्र प्रणाम
*
व्यथा--कथा यह है विचित्र हरि!, नहीं कथा सुन-समझ सके
इसीलिए तो नेता-अफसर सेठ-आमजन भटक रहे
स्वयं संतगण भी माया से मुक्त नहीं, कलिकाल-प्रभाव-
प्रभु से नहीं कहें तो कहिये व्यथा ह्रदय की कहाँ कहें?
१७-४-२०१४
***
विमर्श
भारत में प्रजातंत्र, गणतंत्र और जनतंत्र की अवधारणा और शासन व्यवस्था वैदिक काल में भी थी. पश्चिम में यह बहुत बाद में विकसित हुई, वह भी आधी-अधूरी. पश्चिम की डेमोक्रेसी ग्रीस में 'डेमोस' आधारित शासन व्यवस्था की भौंडी नकल है, जो बिना डेमोस के बिना ही खड़ी की गई है.
१७-४-२०१०

सोमवार, 9 दिसंबर 2024

दिसंबर ९, मुक्तक, बुंदेली, नव गीत, सॉनेट गीत, दोहा, सैनिक, कचनार, धन श्लोक

सलिल सृजन दिसंबर ९ 
*
कचनार 
बीज पर्ण जड़ छाल अरु, फूल फली निष्काम।
मानव को कचनार दे, सहता कष्ट तमाम।।
वास्तु सूत्र 
धन संचय 
        धन के दो अर्थ होते हैं, पहला योग या जोड़ना अर्थात संचय तथा दूसरा संपत्ति। अर्जित धन में से कम व्यय कार बचाए धन को संचित कर संपत्ति बनाई जाति है। इसीलिए धन-संपत्ति शब्द युग्म का प्रयोग संपन्नता हेतु किया जाता है। धन कई प्रकार का होता है। मुद्रा, जेवर, भूमि, विद्या, स्वास्थ्य, चरित्र आदि को प्रसंगानुसार धन कहा जा सकता है। अंग्रेजी उक्ति है- ''वेल्थ इस लॉस्ट नथिग इस लॉस्ट, हेल्थ इस लॉस्ट सम थिंग इस लॉस्ट, कैरेक्टर इस लॉस्ट एवरी थिंग इस लॉस्ट'' अर्थात धन खोया तो कुछ नहीं खोया, स्वास्थ्य खोया तो कुछ खोया, चरित्र खोया तो सब कुछ खोया।

        भारत में धन संबंधी धारणा निम्न श्लोकों में वर्णित हैं। इन्हें पढ़ें, समझें और परिस्थिति के अनुसार उपयोग में लाइए। व्यावहारिक धरातल पर धन-संचय, यथा समय समुचित उपयोग तथा भावी पीढ़ी के लिए छोड़ना सबका महत्व है। संचित धन की सुरक्षा और वृद्धि संबंधी वास्तु सूत्र अंत में दिए गए हैं।

अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्।
शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् ॥
        अत्यधिक तृष्णा (कामना) न करें, न पूरी तरह छोड़ दें। अपने श्रम से कमाए धन का उपभोग धीरे धीरे भोग करें।।

स हि भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला।
मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रा:॥
        वास्तव में दरिद्र वह है जिसकी कामनाएँ बड़ी हैं। जो मन से संतुष्ट है उसके लिए धनी या दरिद्र होना कोई अर्थ नहीं रखता। 

अर्थानाम् अर्जने दु:खम् अर्जितानां च रक्षणे।
आये दु:खं व्यये दु:खं धिग् अर्था: कष्टसंश्रया:॥
        पहले धन कमाने में कष्ट होता है, बाद में धन की रक्षा करने में भी कष्ट होता है। जिसधन की आय और व्यय दोनों  दुःख है,  ऐसे धन को धिक्कार है। 

वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:॥
        चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करें, धन आता-जाता रहता है। धन-नाश से मनुष्य का नाश नहीं होता, चरित्र-नाश से जीवित मनुष्य भी मृत समान हो जाता है। 

नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते।
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद:।।
        समुद्र कभी जल की इच्छा नहीं करता तब भी सदा जल से भर रहता है। खुद को पात्र बनाएँ सम्पति अपने आप मिलेगी।

गौरवं प्राप्यते दानात्,न तु वित्तस्य संचयात्। 
स्थिति: उच्चै: पयोदानां, पयोधीनां अध: स्थिति:॥

        दान से गौरव प्राप्त होता है, धन-संचय से नहीं।  जल देने वालेबादल ऊपर है जबकि जल-संचय करनेवाला समुद्र नीचे है। 

दातव्यं भोक्तव्यं धनं सञ्चयो न कर्तव्यः।
पश्येह मधुकरीणां सञ्चितार्थं हरन्त्यन्ये॥
        धन का दान अथवा उपभोग करें, धन-संचय न करें। मधु-मक्खी द्वारा मधु संचित मधु कोई और ही ले जाता है। 

सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥

        मन में एकाएक आए विचार को कार्यान्वित नहीं करना चाहिए। ऐसा बुद्धिहीन कार्य करनेवाला मुसीबत में पद जाता है।  धैर्य और विवेक से कार्य करें तो सद्गुण का संपत्ति स्वयं वरण करती है। 

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीयागतिर्भवति॥
        धन की तीन गतियाँ  दान, उपभोग तथा नाश हैं। धन का दान अथवा उपभोग न कर, संचय करने पर धन-नाश हो जाता है। 

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
कुतस्तद्धनलुब्धानां एतश्चेतश्च धावताम्॥
        संतोष रूपी अमृत से तृप्त व्यक्ति सुखी और शांत रहता है। धन के पीछे भागनेवालों को सुख-शांति नहीं मिल सकती। 

अधमा: धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमा: ।
उत्तमा: मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ।।
        अधम मनुष्य केवल धन की कामना करते हैं, मध्यम कोटी के मनुष्य धन-मान दोनों चाहते हैं परन्तु उत्तम मनुष्य केवल मान चाहता है, महान व्यक्तिओ के लिए मान ही धन है।

यस्यास्ति वित्तं स वरः कुलिनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनं आश्रयन्ते ॥
        जिसके पास धन है उसे ही कुलीन, विद्वान, गुणी, विद्वान तथा सुंदर माना जाता है क्योंकि ये सभी गुण धन (स्वर्ण) द्वारा मिलते हैं।

वैद्यराज नमस्तुभ्यम् यमराज सहोदर: ।
यमस्तु हरति प्राणान् वैद्य: प्राणान् धनानि च ।।
        वैद्यराज (चिकित्सक) को प्रणाम है जो यमराज के भाई हैं। यम केवल प्राण हरते हैं किंतु वैद्य प्राण और धन दोनों हर लेता है ।

कॄपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति ।
अस्पॄशन्नेव वित्तानि य: परेभ्य: प्रयच्छति ।।
        कंजूस के समान दानवीर न हुआ, न होगा क्योंकि वह जीवन भर कमाया धन अन्यों के लिए छोड़ जाता है।

अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन:।
पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्।।
        धन बार बार आता है, जाता है परंतु नवयौवन एक बार जाने के बाद दुबारा कभी नहीं आता।

परस्य पीडया लब्धं धर्मस्यौल्लंघेनेन च ।
आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै।।
        दूसरों को दुख देकर, धर्म का उल्लंघन कर तथा अपमानित होकर कमाया हुआ धन कभी सुख नहीं देता।

नालसा: प्राप्नुवन्त्यर्थान न शठा न च मायिनः।
न च लोकरवाद्भीता यं न च शश्वत्प्रतीक्षिणः।।
        आलसी, शठ, लुटेरे, लोगों सेसे भयभीत रहनेवाले तथा अपने कर्तव्य का पालन न करनेवाले धनार्जन नहीं कर सकते। 

        उक्त श्लोकों  में कही गई बातें ठीक होते हुए भी पूरी तरह व्यवहार में नहीं लाई जा सकतीं। धन कमाने, उपयोग करने, बचाने, सुरक्षित रखने, दान देने तथा भावी पीढ़ी के लिए छोड़ने सबका महत्व है। वास्तु शास्त्र के अनुसार धन को सुरक्षित रखने तथा बढ़ाने के लिए सुझाए गए उपायों को पढ़-समझकर अपनि आवश्यकता व बुद्धि अनुसार प्रयोग करें। 

१. धन-संपत्ति लक्ष्मी माँ का प्रसाद है। इसका दुरुपयोग न करें। संचित धन व मूल्यवान रतन, गहने आदि ईशान अथवा पूर्व दिशा में रखें। हर सुबह लक्ष्मी जी का स्मरणकर संचित धन  
दोहा सलिला
करे रतजगा चंद्रमा, हो जाता तब पीत।
उषा रश्मियों से कहे, कभी न होना भीत।।
दिन करने दिनकर चला, साथ लिए आलोक।
नीलगगन रतनार लख, मुग्ध हो रहा लोक।।
९-१२-२०२२
जय जय जय कामाख्या माता।
सकर सृष्टि तेरी संतति है, सारा जग तेरे गुण गाता।
सत्य कहाँ-क्या समझ न आए, है असत्य माया फैलाए।
माटी से उपजी यह काया, माटी में वापिस मिल जाए।
भवसागर में फँसा हुआ मन, खुद ही खुद को है भरमाता।
जय जय जय कामाख्या माता।
जगत्पिता-जगजननी तारो, हर संकट हर हे हर! तारो।
सदा सुलभ हों दर्शन मैया!, हृदय विराजो मातु! उबारो।
सुख में तुम्हें भूलते, दुख में नाम तुम्हारा ही है भाता।
जय जय जय कामाख्या माता।
इस माटी में सलिल मिला दो, कूट-पीट कर दीप बना दो।
सफल साधना नव आशा हो, तुहिना- वृत्ति सदा अमला हो।
श्वास गीतिका मन्वन्तर तक, सदय शारदा हरि कमला हो।
चित्र गुप्त तव देख सकें मन, रहे हमेशा तुमको ध्याता।
जय जय जय कामाख्या माता।
संजीव
श्री कामाख्या धाम, गुवाहाटी
१५•०३, ६-१२-२०२२
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गीत
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।।
रश्मि रश्मि शाकुंतल सुषमा लिए सूर्य दुष्यंत सम।
नयन नयन से कहें-सुनें क्या; पूछो मौन दिगंत सम।।
पंछी गुंजाते शहनाई; लहरें गातीं मंगल गान-
वट पल्लव कर मंत्र-पाठ; आहुतियाँ देते संत सम।।
फुलबगिया में सँकुचाई सिय; अकथ कह गई राम से।
शाम मिली फिर मुग्धा राधा, हुलस पुलक घनश्याम से।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।।
ब्रह्मपुत्र नद किसको ध्याए, कल कल कल कर टेरता।
लहर लहर उत्कंठित पल पल, किसका पथ छिप हेरता।।
मेघदूत से यक्ष पठाता; व्यथा-कथा निज पाती में।
बैरागी मन को रागी चित; दसों दिशा से घेरता।।
उस अनाम को ही संबोधित; करते शत-शत नाम से।
वह आकुल मिलता है; खुद ही आकर निष्काम से।।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।।
किसे सुमिरता है युग युग से, लिए सुमिरनी गति-यति की।
व्यथा उमा-नंदा की कह-सुन; समय साक्ष्य दे जन-मति की।।
कहे गुवाहाटी शिव तनया गंगा से जा मिलो गले।
ब्रह्मपुत्र मंदाकिनी भेटें, लीला सरस समयपति की।।
नखत नवाशा जगा दमकते, खास बन गए आम से।
करतल ध्वनि कर मुदित शांत जन; लगते पूर्ण विराम से।।
सूर्य प्रणम्य प्रतीत हो रहे सुधिमय नम्र प्रणाम से।
नीलाभित नभ सिंदूरी हो गया किसी के नाम से।।
संजीव
६-१२-२०२२,७-५४
रॉयल डे कासा, गुवाहाटी
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सॉनेट - गीत
सैनिक
*
सैनिक कभी नहीं मरते हैं
*
जान हथेली पर ले जीते
चुनौतियों से टकराते हैं।
जैसे हों अपराजित चीते।।
देवोपम गरिमा पाते हैं।।
नित्य मौत से टकराते हैं।
जीते जी बनते उदाहरण।
मृत्युंजय बन जी जाते हैं।।
जूझ मौत का विहँस कर वरण।।
कीर्ति कथाएँ लोक सुनाता।
अपने दिल में करे प्रतिष्ठित।
उन्हें याद कर पुष्प चढ़ाता।।
श्रद्धा सुमन करे रो अर्पित।।
शत्रु नाम सुनकर डरते हैं।
सैनिक नहीं मरा करते हैं।।
*
सैनिक जिएँ तानकर सीना।
कठिन चुनौती हर स्वीकारें।
मार मौत को जानें जीना।।
नित आपद को अंगीकारें।।
अस्त्र-शस्त्र ले पग-पग बढ़ते।
ढाल थाम झट करते रक्षा।
लपक वक्ष पर अरि के चढ़ते।।
अरि माँगे प्राणों की भिक्षा।
हर बाधा से डटकर जूझें।
नहीं आपदाओं से डरते।
हर मुश्किल सवाल को बूझें।।
सदा देश का संकट हरते।।
होते अमर श्वास तजते हैं।
सैनिक नहीं मरा करते हैं।।
*
मत रोएँ संकल्प करें सब।
बच्चा-बच्चा बिपिन बनेगा।
मधूलिका हो हर बच्ची अब।।
हर मोर्चे पर समर ठनेगा।।
बने विरासत शौर्य-पराक्रम।
काम करें निष्काम भाव से।
याद करे दुश्मन बल-विक्रम।।
बच्चे सैनिक बनें चाव से।।
आँख आँख में डाल शत्रु की।
आँख निकाल लिया करते हैं।
जान बचाने देश-मित्र की।।
बाँह पसार दिया करते हैं।।
वीर-कथा गा कवि तरते हैं।
सैनिक नहीं मरा करते हैं।।
९-१२-२०२१
***
सूर्य चंद्र धरती गगन, रखें समन्वय खूब।
लोक तंत्र रख संतुलन, सके हर्ष में डूब।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
सूर्य-लोक हैं केंद्र में, इन्हें साध्य लें मान।
शेष सहायक हो करें, दोनों का गुणगान।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
चंद्र सदा रवि से ग्रहण, करता सतत उजास।
तंत्र लोक से शक्ति ले, करे लोक-हित खास।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
धरती धरती धैर्य चुप, घूमे-चल दिन रैन।
कभी देशहित मत तजें, नहीं भिगोएँ नैन।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
गगन बिन थके छाँह दे, कहीं न आदि न अंत।
काम करें निष्काम हम, जनहित में बन संत।।
बोलिए भारत माँ की जय
*
लोकतंत्र की शक्ति है, जनता शासक दास।
नेता-अफसर-सेठ झुक, जन को मानें खास।।
बोलिए भारत माँ की जय
***
९-१२-२०२१
नव गीत
*
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा।
*
छायद तरु
नर बना कुल्हाड़ी
खोद रहा अरमान-पहाड़ी
हुआ बस्तियों में जल-प्लावन
मनु! तूने ही बात बिगाड़ी।
अनगिन काटे जंगल तूने
अब तो पौधा नया लगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
टेर; नहीं
गौरैया आती
पवन न गाती पुलक प्रभाती
धुआँ; धूल; कोलाहल बेहद
सौंप रहे जहरीली थाती
अय्याशी कचरे की जननी
नाता एक न नेह पगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
रिश्तों की
रजाई थी दादी
बब्बा मोटी धूसर खादी
नाना-नानी खेत-तलैया
लगन-परिश्रम से की शादी
सुविधा; भोग-विलास मिले जब
संयम से तब किया दगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
रखा काम से
काम काम ने
छोड़ दिया तब सिया-राम ने
रिश्ते रिसती झोपड़िया से
बेच-खरीदी करी दाम ने
नाम हुआ पद; नाम न कोई
संग रहा न हुआ सगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
*
दोष तर्जनी
सबको देती
करती मोह-द्रोह की खेती
संयम; त्याग; योग अंगुलियाँ
कहें; न भूलो चिंतन खेती
भौंरा बना नचाती दुनिया
मन ने तन को 'सलिल' ठगा
भोर हुई
छाई अरुणाई
जगना तनिक न भला लगा
६-१०-२०१९
***
एक रचना
घुटना वंदन
*
घुटना वंदन कर सलिल, तभी रहे संजीव।
घुटने ने हड़ताल की, जीवित हो निर्जीव।।
जीवित हो निर्जीव, न बिस्तर से उठने दे।
गुड न रेस्ट; हो बैड, न चलने या झुकने दे।।
छौंक-बघारें छंद, न कवि जाए दम घुट ना।
घुटना वंदन करो, किसी पर रखो न घुटना।।
*
मेदांता अस्पताल दिल्ली में डॉ. यायावर के घुटना ऑपरेशन पर भेंट
९.१२.२०१८
***
मुक्तक
शिखर पर रहो सूर्य जैसे सदा तुम
हटा दो तिमिर, रौशनी दो जरा तुम
खुशी हो या गम देन है उस पिता की
जिसे चाहते हम, जिसे पूजते तुम
दोहा
पौधों, पत्तों, फूल को, निगल गया इंसान
मैं तितली निज पीर का, कैसे करूँ बखान?
*
करें वंदना शब्द की ले अक्षर के हार
सलिल-नाद सम छंद हो, जैसे मंत्रोच्चार
*
लोकतंत्र का हो रहा, भरी दुपहरी खून.
सद्भावों का निगलते, नेता भर्ता भून.
***
बुंदेली दोहा
सबखों कुरसी चाइए, बिन कुरसी जग सून.
राजनीति खा रई रे, आदर्सन खें भून.
*
मन में का? के से कहें? सुन हँस लैहें लोग.
मन की मन में ही धरी, नदी-नाव संजोग.
९-१२-२०१७
***
क्षणिका
*
बहुत सुनी औरों की
अब तो
मनमानी कुछ की जाए.
दुनिया ने परखा अब तक
अब दुनिया भी परखी जाए
*
मुक्तक
चोट खाते हैं जवांदिल, बचाते हैं और को
खुद न बदलें, बदलते हैं वे तरीके-तौर को
मर्द को कब दर्द होता, सर्द मौसम दिल गरम
आजमाते हैं हमेशा हालतों को, दौर को
***
कार्यशाला
छंद बहर दोउ एक है - ९
रगण यगण गुरु = २१२ १२२ २
सात वार्णिक उष्णिक जातीय, बारह मात्रिक आदित्य जातीय छंद
बहर- फाइलुं मुफाईलुं
*
मुक्तक
मेघ ने लुभाया है
मोर नाच-गाया है
जो सगा नहीं भाया
वह गया भुलाया है
*
मौन मौन होता है
शोर शोर बोटा है
साफ़-साफ़ बोले जो
जार-जार रोता है
*
राजनीति धंधा है
शीशहीन कंधा है
न्याय कौन कैसे दे?
क्यों प्रतीक अँधा है
*
सूर्य के उजाले हैं
सेठ के शिवाले हैं
काव्य के सभी प्रेमी
आदमी निराले हैं
*
आपने बिसरा है
या किया इशारा है?
होंठ तो नहीं बोला
नैन ने पुकारा है
*
कौन-कौन आएगा?
देश-राग गायेगा
शीश जो कटाएगा
कीर्ति खूब पायेगा
*
नवगीत
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
वायवी हुए रिश्ते
कागज़ी हुए नाते
गैर बैर पाले जो
वो रहे सदा भाते
संसदीय तूफां की
है नहीं रही रेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
लोकतंत्र पूछेगा
तंत्र क्यों दरिंदा है?
जिंदगी रही जीती
क्यों मरी न जिंदा है?
आनुशासिकी कीला
क्यों यहाँ नहीं मेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
क्यारियाँ कभी सींचें
बागबान ही भूले
फूल को किया रुस्वा
शूल को मिले झूले
मौसमी किए वादे
फायदा नहीं सदा पेखा
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
***
मेखा = ठोंका, पेखा = देखा
८-१२-२०१६
***
मुक्तक सलिला
*
नाग नाथ को बिदा किया तो साँप नाथ से भी बचना
दंश दिया उसने तो इसने भी सीखा केवल डँसना
दलदल दल का दल देता है जनमत को सत्ता पाकर-
लोक शक्ति नित रहे जागृत नहीं सजगता को तजना।
*
परिवर्तन की हवा बह रही इसे दिशा-गति उचित मिले
बने न अंधड़, कुसुम न जिसमें जन-आशा का 'सलिल' खिले।
मतदाता कर्तव्यों को अधिकारों पर दे वरीयता-
खुद भ्रष्टाचारी होकर नेता से कैसे करें गिले?
*
ममो सोनिया राहुल डूबे, हुई नमो की जय-जयकार
कमल संग अरविन्द न लेकिन हाल एक सा देखो यार
जनता ने दे दिया समर्थन पर न बना सकते सरकार-
कैसी जीत मिली दोनों को जिसमें प्रतिबिंबित है हार
*
वसुंधरा शिव रमन न भूलें आगे कठिन परीक्षा है
मँहगाई, कर-भार, रिश्वती चलन दे रहा शिक्षा है
दूर करो जन गण की पीड़ा, जन-प्रतिनिधि सुविधा छोडो-
मतदाता जैसा जीवन जी, सत्ता को जन से जोड़ो
८-१२-२०१३
*