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बुधवार, 20 जुलाई 2011

मुक्तिका: ढाई आखर संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
ढाई आखर
संजीव 'सलिल'
*
ढाई आखर जिंदगी में पायेगा.
दर्द दिल में छिपा गर मुस्कायेगा..

मन न हो बेचैन, जग मत नैन रे.
टेरता कागा कि पाहुन आयेगा.

गाँव तो जड़ छोड़ जा शहरों बसा.
किन्तु सावन झूम कजरी गायेगा..

सारिका-शुक खोजते अमराइयाँ.
भीड़ को क्या नीड़ कोई भायेगा?

लिये खंजर हाथ में दिल मिल रहा.
सियासतदां क्या कभी शरमायेगा?

कौन किसका कब हुआ कोई कहे?
असच को सच देव समझा जाएगा.

'सलिल' पल में सिया को वन दे अवध.
सिर धुने, सदियों सिसक पछतायेगा.

*****

बुधवार, 29 जून 2011

सामयिक मुक्तिका: क्यों???... संजीव 'सलिल'

सामयिक मुक्तिका:
क्यों???...
संजीव 'सलिल'
*
छुरा पीठ में भोंक रहा जो उसको गले लगाते क्यों?
कर खातिर अफज़ल-कसाब की, संतों को लठियाते क्यों??

पगडंडी-झोपड़ियाँ तोड़ीं, राजमार्ग बनवाते हो.
जंगल, पर्वत, नदी, सरोवर, निष्ठुर रोज मिटाते क्यों??

राम-नाम की राजनीति कर, रामालय को भूल गये.
नीति त्याग मजबूरी को गाँधी का नाम बताते क्यों??

लूट देश को, जमा कर रहे- हो विदेश में जाकर धन.
सच्चे हैं तो लोकपाल बिल, से नेता घबराते क्यों??

बाँध आँख पर पट्टी, तौला न्याय बहुत अन्याय किया.
असंतोष की भट्टी को, अनजाने ही सुलगाते क्यों??

घोटालों के कीर्तिमान अद्भुत, सारा जग है विस्मित.
शर्माना तो दूर रहा, तुम गर्वित हो इतराते क्यों??

लगा जान की बाजी, खून बहाया वीर शहीदों ने.
मण्डी बना देश को तुम, निष्ठा का दाम लगाते क्यों??

दीपों का त्यौहार मनाते रहे, जलाकर दीप अनेक.
हर दीपक के नीचे तम को, जान-बूझ बिसराते क्यों??

समय किसी का सगा न होता, नीर-क्षीर कर देता है.
'सलिल' समय को असमय ही तुम, नाहक आँख दिखाते क्यों??
*********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

रविवार, 26 जून 2011

मुक्तिका: बात बनायी जाए... --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
बात बनायी जाए...
संजीव 'सलिल'
*
कबसे रूठी हुई किस्मत है मनायी जाए.
आस-फूलों से 'सलिल' सांस सजायी जाए..

तल्ख़ तस्वीर हकीकत की दिखायी जाए.
आओ मिल-जुल के कोई बात बनायी जाए..

सिया को भेज सियासत ने दिया जब जंगल.
तभी उजड़ी थी अवध बस्ती बसायी जाए..

गिरें जनमत को जिबह करती हुई सरकारें.
बेहिचक जनता की आवाज़ उठायी जाए..

पाँव पनघट को न भूलें, न चरण चौपालें.
खुशनुमा रिश्तों की फिर फसल उगायी जाए..  

दान कन्या का किया, क्यों तुम्हें वरदान मिले?
रस्म वर-दान की क्यों, अब न चलायी जाए??

ज़िंदगी जीना है जिनको, वही साथी चुन लें.
माँग दे मांग न बेटी की भरायी जाए..

नहीं पकवान की ख्वाहिश, न दावतों की ही.
दाल-रोटी ही 'सलिल' चैन से खायी जाए..

ईश अम्बर का न बागी हो, प्रभाकर चेते.
झोपड़ी पर न 'सलिल' बिजली गिरायी जाए..

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बुधवार, 18 मई 2011

मुक्तिका: अपना सपना --संजीव 'सलिल

मुक्तिका
अपना सपना
संजीव 'सलिल'
*
अपना सपना सबको सदा सुहाना लगता है.
धूप-छाँव का अच्छा आना-जाना लगता है..

भरे पेट मिष्ठान्न न भाता, मान बिना पकवान.
स्नेह सहित रूखी रोटी भी खाना लगता है..

करने काम चलो तो पथ में सौ बाधाएँ हैं.
काम न करना हो तो महज बहाना लगता है..

जिसको देखो उसको अपना दर्द लगे सच्चा.
दर्द दूसरों का बस एक फसाना लगता है..

शूल एक को चुभे, न पीड़ा सबको क्यों होती?
पूछ रहा जो वह जग को दीवाना लगता है..

पद-मद, स्वार्थों में डूबे मक्कारों का जमघट.
जनगण को पूरा संसद मयखाना लगता है..

निज घर में हो सती, पड़ोसी के घर में कुलटा
यह जीवन दर्शन सचमुच बेगाना लगता है..

ढाई आकार लिख-पढ़, रखकर ज्यों की त्यों चादर.
'सलिल' सभी को प्यारा, ठौर-ठिकाना लगता है.
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