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गुरुवार, 29 मई 2014

haiku salila: sanjiv

हाइकु सलिला: 

संजीव 
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला   
*
हट गयी है 
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
नरेंद्र नाम 
गूँजा था, गूँज रहा 
अमरीका में 
*
मिटा कहानी 
माँ और बेटे लिखें 
नयी कहानी 
 * 
नहीं हैं साथ 
वर्षों से पति-पत्नी 
फिर भी साथ 
*

रविवार, 2 जून 2013

doha gatha 11 acharya sanjiv verma 'salil'


दोहा गाथा :  ११ 

बहुरूपी दोहा अमर 
संजीव 
                                                                                *
बहुरूपी दोहा अमर, सिन्धु बिंदु में लीन.
सागर गागर में भरे, बांचे कथा प्रवीण.

दोहा मात्रिक छंद है, तेईस विविध प्रकार.
तेरह-ग्यारह दोपदी, चरण समाहित चार.

विषम चरण के अंत में, 'सनर' सुशोभित खूब.
सम चरणान्त 'जतन' रहे, पाठक जाये डूब.

विषम चरण के आदि में, 'जगण' विवर्जित मीत.
दो शब्दों में मान्य है, यह दोहा की रीत.

छप्पय रोला सोरठा, कुंडलिनी चौपाइ.
उल्लाला हरिगीतिका, दोहा के कुनबाइ.

सुख-दुःख दो पद रात-दिन, चरण चतुर्युग चार.
तेरह-ग्यारह विषम-सम, दोहा विधि अनुसार.

द्रोह, मोह, आक्रोश या, योग, भोग, संयोग.
दोहा वह उपचार जो, हरता हर मन-रोग.

दोहा के २३ प्रकार लघु-गुरु मात्राओं के संयोजन पर निर्भर हैं। सम चरण में ११-११, विषम चरण में १३-१३ तथा दो पदों में २४-२४ मात्राओं के बंधन को मानते हुए २३ प्रकार के दोहे होना पिंगालाचार्यों की अद्‍भुत कल्पना शक्ति तथा गणितीय मेधा का जीवंत प्रमाण है। विश्व की किसी अन्य भाषा के पास ऐसी सम्पदा नहीं है। 

छंद गगन के सूर्य  दोहा की रचना के मानक समय-समय पर बदलते गए, भाषा का रूप, शब्द-भंडार, शब्द-ध्वनियाँ जुड़ते-घटते रहने के बाद भी दोहा प्रासंगिक रहा उसी तरह जैसे पाकशाला में पानी। दोहा की सरलता-तरलता ही उसकी प्राणशक्ति है। दोहा की संजीवनी पाकर अन्य छंद भी प्राणवंत हो जाते हैं। इसलिये दोहा का उपयोग अन्य छंदों के बीच में रस परिवर्तन, भाव परिवर्तन या प्रसंग परिवर्तन के लिए किया जाता रहा है। निम्न सारणी देखिये-
क्रमांक   नाम   गुरु   लघु   कुल कलाएं   कुल मात्राएँ 
- -                      २४     ०           २४              ४८
- -                      २३      २          २५              ४८
१.         भ्रामर   २२      ४           २६              ४८
२.      सुभ्रामर   २१      ६          २७               ४८
३.       शरभ      २०      ८          २८               ४८
४.       श्येन      १९     १०          २९               ४८
५.       मंडूक     १८    १२          ३०               ४८
६.       मर्कट     १७    १४          ३१                ४८
७.      करभ
     १६     १६          ३२               ४८
८.
        नर       १५     १८         ३३               ४८
९.
        हंस       १४     २०         ३४               ४८
१०.
     गयंद     १३      २२        ३५               ४८
११.
    पयोधर   १२     २४        ३६               ४८
१२.       बल       ११     २६         ३७               ४८
१३.      पान       १०     २८        ३८               ४८
१४.     त्रिकल      ९     ३०        ३९               ४८
१५.    कच्छप     ८     ३२        ४०               ४८
१६.      मच्छ       ७    ३४        ४१               ४८
१७.     शार्दूल      ६     ३६        ४२               ४८
१८.     अहिवर    ५    ३८        ४३               ४८
१९.     व्याल       ४     ४०       ४४               ४८
२०.    विडाल      ३     ४२       ४५              ४८
२१.     श्वान        २     ४४        ४६              ४८
२२.      उदर       १      ४६       ४७              ४८
२३.      सर्प        ०      ४८       ४८              ४८

इस लम्बी सूची को देखकर घबराइये मत। यह देखिये कि आचार्यों ने किसी गणितज्ञ की तरह समस्त संभावनायें तलाश कर दोहे के २३ प्रकार बताये। दोहे के दो पदों में २४ गुरु होने पर लघु के लिए स्थान ही नहीं बचता। सम चरणों के अंत में लघु हुए बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
२३ गुरु होने पर हर पद में केवल एक लघु होगा जो सम चरण में रहेगा। तब विषम चरण में लघु मात्र न होने से दोहा कहना संभव न होगा। आपने जो दोहे कहे हैं या जो दोहे आपको याद हैं वे इनमें से किस प्रकार के हैं, रूचि हो तो देख सकते हैं। क्या आप इन २३ प्रकारों के दोहे कह सकते हैं? कोशिश करें...कठिन लगे तो न करें...मन की मौज में दोहे कहते जाएँ...धीरे-धीरे अपने आप ही ये दोहे आपको माध्यम बनाकर बिना बताये, बिना पूछे आपकी कलम से उतर आयेंगे।

साखी से सिख्खी हुआ...

कबीर ने दोहा को शिक्षा देने का अचूक अस्त्र बना लिया। शिक्षा सम्बन्धी दोहे साखी कहलाये। गुरु नानकदेव ने दोहे को अपने रंग में रंग कर माया में भरमाई दुनिया को मायापति से मिलाने का साधन बना दिया। साखी से सिख्खी हुए दोहे की छटा देखिये-
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस.
हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास..
सोचै सोच न होवई, जे सोची लखवार.
चुप्पै चुप्प न होवई, जे लाई लिवतार..
इक दू जीभौ लख होहि, लाख होवहि लख वीस.
लखु लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस..
दोहा की छवियाँ अमित

दोहा की छवियाँ अमित, सभी एक से एक.
निरख-परख रचिए इन्हें, दोहद सहित विवेक..

दोहा के तेईस हैं, ललित-ललाम प्रकार.
व्यक्त कर सकें भाव हर, कवि विधि के अनुसार..

भ्रमर-सुभ्रामर में रहें, गुरु बाइस-इक्कीस.
शरभ-श्येन में गुरु रहें, बीस और उन्नीस..

रखें चार-छ: लघु सदा, भ्रमर सुभ्रामर छाँट.
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ..


भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८

बाइस गुरु, लघु चार ले, रचिए दोहा मीत.
भ्रमर सद्रश गुनगुन करे, बना प्रीत की रीत.

सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?


सुभ्रामर - २१ गुरु, ६ लघु=४८

इक्किस गुरु छ: लघु सहित, दोहा ले मन मोह.
कहें सुभ्रामर कवि इसे, सह ना सकें विछोह..

पाना-खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय.
हा-हा,ही-ही ही नहीं, है सांसों का ध्येय..


शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८

रहे बीस गुरु आठ लघु का उत्तम संयोग.
कहलाता दोहा शरभ, हरता है भव-रोग..

हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ.
मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ..


श्येन- १९ गुरु, १० लघु=४८

उन्निस गुरु दस लघु रहें, श्येन मिले शुभ नाम.
कभी भोर का गीत हो, कभी भजन की शाम..

ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य.
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य..


दोहा के २३ प्रकारों में से चार से परिचय प्राप्त करें और उन्हें मित्र बनाने का प्रयास करें.
 
दोहा के आकर्षण से भारतेंदु हरिश्चन्द्र के अंग्रेज मित्र स्व. श्री फ्रेडरिक पिंकोट नहीं बच सके। श्री पिंकोट का निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? प्रश्न इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है।
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.

शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.

भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.

श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.


भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.

सुविख्यात सूफी संत अमीर खुसरो (संवत १३१२-१३८२) ने दोहा का दामन थामा तो दोहा ने उनकी प्यास मिटाने के साथ-साथ उन्हें जन-मन में प्रतिष्ठित कर अमर कर दिया-

गोरी सोयी सेज पर, मुख पर डारे केस.
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस..

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग.
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये इक रंग..

सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय..


गोष्ठी के समापन से पूर्व एक रोचक प्रसंग

एक बार सद्‍गुरु रामानंद के शिष्य कबीरदास सत्संग की चाह में अपने ज्येष्ठ गुरुभाई रैदास के पास पहुँचे। रैदास अपनी कुटिया के बाहर पेड़ की छाँह में चमड़ा पका रहे थे। उन्होंने कबीर के लिए निकट ही पीढ़ा बिछा दिया और चमड़ा पकाने का कार्य करते-करते बातचीत प्रारंभ कर दी। कुछ देर बाद कबीर को प्यास लगी। उन्होंने रैदास से पानी माँगा। रैदास उठकर जाते तो चमड़ा खराब हो जाता, न जाते तो कबीर प्यासे रह जाते... उन्होंने आव देखा न ताव समीप रखा लोटा उठाया और चमड़ा पकाने की हंडी में भरे पानी में डुबाया, भरा और पीने के लिए कबीर को दे दिया। कबीर यह देखकर भौंचक्के रह गये किन्तु रैदास के प्रति आदर और संकोच के कारण कुछ कह नहीं सके। उन्हें चमड़े का पानी पीने में हिचक हुई, न पीते तो रैदास के नाराज होने का भय... कबीर ने हाथों की अंजुरी बनाकर होठों के नीचे न लगाकर ठुड्डी के नीचे लगाली तथा पानी को मुँह में न जाने दिया। पानी अंगरखे की बाँह में समा गया, बाँह लाल हो गयी। कुछ देर बाद रैदास से बिदा लकर  कबीर घर वापिस लौट गये और अंगरखा उतारकर अपनी पत्नी लोई को दे दिया। लोई भोजन पकाने में व्यस्त थी, उसने अपनी पुत्री कमाली को वह अंगरखा धोने के लिए कहा। अंगरखा धोते समय कमाली ने देखा उसकी बाँह  लाल थी... उसने देख कि लाल रंग छूट नहीं रहा है तो उसने मुँह से चूस-चूस कर सारा लाल रंग निकाल दिया... इससे उसका गला लाल हो गया। तत्पश्चात कमाली मायके से बिदा होकर अपनी ससुराल चली गयी।

कुछ दिनों के बाद गुरु रामानंद तथा कबीर का काबुल-पेशावर जाने का कार्यक्रम बना। दोनों परा विद्या (उड़ने की कला) में निष्णात थे। मार्ग में कबीर-पुत्री कमाली की ससुराल थी। कबीर के अनुरोध पर गुरु ने कमाली के घर रुकने की सहमति दे दी। वे अचानक कमाली के घर पहुँचे तो उन्हें घर के आँगन में दो खाटों पर स्वच्छ गद्दे-तकिये तथा दो बाजोट-गद्दी लगे मिले। समीप ही हाथ-मुँह धोने के लिए बाल्टी में ताज़ा-ठंडा पानी रखा था। यही नहीं उन्होंने कमाली को हाथ में लोटा लिये हाथ-मुँह धुलाने के लिए तत्पर पाया। कबीर यह देखकर अचंभित रह गये ककि  हाथ-मुँह धुलाने के तुंरत बाद कमाली गरमागरम खाना परोसकर ले आयी।

भोजन कर गुरु आराम फरमाने लगे तो मौका देखकर कबीर ने कमाली से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि वे दोनों आने वाले हैं? वह बिना किसी सूचना के उनके स्वागत के लिए तैयार कैसे थी? कमाली ने बताया कि रंगा लगा कुरता चूस-चूसकर साफ़ करने के बाद अब उसे भावी घटनाओं का आभास हो जाता है। तब कबीर समझ सके कि उस दिन गुरुभाई रैदास उन्हें कितनी बड़ी सिद्धि बिना बताये दे रहे थे तथा वे नादानी में वंचित रह गये।

कमाली के घर से वापिस लौटने के कुछ दिन बाद कबीर पुनः रैदास के पास गये... प्यास लगी तो पानी माँगा... इस बार रैदास ने कुटिया में जाकर स्वच्छ लोटे में पानी लाकर दिया तो कबीर बोल पड़े कि पानी तो यहाँ कुण्डी में ही भरा था, वही दे देते। तब रैदास ने एक दोहा कहा-

जब पाया पीया नहीं, था मन में अभिमान.
अब पछताए होत क्या नीर गया मुल्तान.


कबीर ने इस घटना अब सबक सीखकर अपने अहम् को तिलांजलि दे दी तथा मन में अन्तर्निहित प्रेम-कस्तूरी की गंध पाकर ढाई आखर की दुनिया में मस्त हो गये और दोहा को साखी का रूप देकर भव-मुक्ति की राह बताई -

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि .
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि.
==========
हिन्द युग्म, १८.४.२००९, २५.४.२००९



शनिवार, 11 मई 2013

hindi poem rakesh khadelwal-sanjiv

कविता-प्रति कविता
राकेश खंडेलवाल-संजीव
*


श्री आचार्य सलिल चरण प्रथम नवाऊँ माथ
वन्दन करूँ महेश का जोड़ूँ दोनों हाथ
सुमिर करूँ घनश्याम से, क्षमा प्रार्थना तात
पाऊँ सीताराम का अपने सर पर हाथ
 
जय महिपाल ग्वालियर वाले
जय हो अद्भुत प्रतिभा वाले
शुक्ल श्री हो लें अभिनन्दित
पाठक जी करते आनन्दित
सुमन सखा हैं अपने श्याल
कुसुम वीर का लेखन उज्ज्वल
ममताजी की बात करें क्या
रहीं मंच पर ममता फ़ैला
सन्मुख रहें द्विवेदी जब द्वय
गौतम तब गाते हो निर्भय
सब के सब हो जाते कायल
जब भी आते छाते घायल
प्रणव भारतीजी का वन्दन
काव्य महकता बन कर चन्दन
किसकी गलती मानी भारी
बैठीं होकर रुष्ट तिवारी
पल में दीप्ति पुन: खामोशी
ऐसे ही दिखती मानोशी
हुईं दूज का चाँद शार्दुला
अनुरूपा कहतीं, आ सिखला
किरण कुसुम की बातें न्यारी
कविताकी महके फ़ुलवारी
अद्भुत रहा विजय का चिन्तन
नयी सोच ले आते सज्जन
गज़ल वालियाजी की प्यारी
मान गये अनुराग तिवारी
मथुरा में सन्तोष मिल रहा
दिल्ली का दिल लगा हिल रहा
नज़्म सुनाते जब भूटानी
दांतों उंगली पड़े दबानी
श्री महेन्द्रजी और आरसी
दिखा रहे हैं काव्य आरसी
अमित त्रिपाठी जब उच्चारें
कविता, नमन मेरा स्वीकारें
अनिल अनूप ओम जी तन्मय
कभी कभी बोलेंगे है तय
अबिनव और अर्चना गायब
ये सचमुच है बड़ा अजायब
पूर्ण हुआ चालीसा रचना
मान्य अचलजी किरपा करना
 
इस कविता के मंच पर मिला समय जो आज
नमन आप सबको करूँ स्वीकारें कविराज.
========================

अग्रज दें आशीष, नहीं अनुजों का आदर श्लाघ्य, 
स्नेह-पूर्ण कर रहे शीश पर, यही अनुज का प्राप्य।

सलिल निराभित, बिम्बित हो राकेश-रश्मि दे मान 
ओम व्योम से सुनता, अनुरूपा लहरों से यश-गान।

शीश महेश सुशोभित निशिकर, मुदित नीरजा भौन  
जय-जय सीताराम कहें घनश्याम, अनिल सुन मौन।

प्रणव जाप महिपाल करें, शार्दुला-नाद हो नित्य
किरण-कुसुम की गमक-चमक, नित अभिनव रहे अनित्य।

श्यामल प्रतिभा पा गौतम तन्मय, इंदिरा-सुजाता 
चाह खीर की किन्तु आरसी राहुल रहा दिखाता।

श्री प्रकाश अनुराग वरे, संतोष नही नि:शेष 
हो अनूप आनंद, अमित हो दीप्ति, मुदित हों शेष।

मानोशी-ममता पा घायल, हो मजबूत महेन्द्र   
करे अर्चना विजय वरे, नर खुद पर बने नरेन्द्र।
 
कमल वालिया-भूटानी से, गले मिले भुज भेंट 
महिमा कविता की न सलिल, किंचित भी सका समेट।

जगवाणी हिंदी की जय-जयकार करें सब साथ 
नमन शारदा श्री चरणों में, विनत सलिल नत माथ। 
Sanjiv verma 'Salil'

रविवार, 27 जनवरी 2013

मुक्तिका: मचलते-मचलते संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मचलते-मचलते
संजीव 'सलिल'
*
ग़ज़ल गाएगा मन मचलते-मचलते..
बहल जाएगा दिल बहलते-बहलते..

न चूकेगा अवसर, न पायेगा मौक़ा.
ठिठक जाएगा हाथ मलते न मलते..

तनिक मुस्कुरा दो इधर देखकर तुम
सम्हल जायेगा फिर फिसलते-फिसलते..

लाली रुखों की लगा लौ लगन की.
अरमां जगाती है जलते न जलते..

न भूलेगा तुमको चाहो जो हमको.
बदल जायेगा सब बदलते-बदलते..

दलो दाल छाती पे निश-दिन हमारी.
रहो बाँह में साँझ ढलते न ढलते..

पकड़ में न आये, अकड़ भी छुड़ाए.
जकड़ ले पलों में मसलते-मसलते..

'सलिल' स्नेह सागर न माटी की गागर.
सदियों पलेगा ये पलते न पलते..

***

शनिवार, 17 नवंबर 2012

गीत: दीप, ऐसे जलें... संजीव 'सलिल'

गीत:
दीप, ऐसे जलें...
संजीव 'सलिल'
 
दीप के पर्व पर जब जलें-
दीप, ऐसे जलें...
स्वेद माटी से हँसकर मिले,
पंक में बन कमल शत खिले।
अंत अंतर का अंतर करे-
शेष होंगे न शिकवे-गिले।।

नयन में स्वप्न नित नव खिलें-
 

दीप, ऐसे जलें... 
  
श्रम का अभिषेक करिए सदा,
नींव मजबूत होगी तभी।
सिर्फ सिक्के नहीं लक्ष्य हों-
साध्य पावन वरेंगे सभी।।

इंद्र के भोग, निज कर मलें-

दीप, ऐसे जलें...


जानकी जान की 
 खैर हो,
वनगमन-वनगमन ही न हो।
चीर को चीर पायें ना कर-
पीर बेपीर गायन न हो।।

दिल 'सलिल' से न बेदिल मिलें-

दीप, ऐसे जलें...

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

यमद्वितीया-चित्रगुप्त पूजन पर: चित्रगुप्त भजन संजीव 'सलिल'

यमद्वितीया-चित्रगुप्त पूजन पर:
चित्रगुप्त भजन
संजीव 'सलिल'
*
तुम हो तारनहार
*
तुम हो तारनहार,
परम प्रभु तुम हो तारनहार...
*
निराकार तुम, चित्र गुप्त है,
निर्विकार गुण-दोष लुप्त है।
काया-माया-छाया स्वामी-
तुम बिन सारी सृष्टि सुप्त है।।
हे अनाथ के नाथ!सदय हो
तम से जग उजियार...
*
अनहद नाद तुम्हीं हो गुंजित,
रचते सकल सृष्टि जग-वन्दित।
काया स्थित आत्म तुम्हीं हो-
ध्वनि-तरंग, वर्तुल सुतरंगित।।
प्रगट शून्य को कर प्रगटित हो
तुम ही कण साकार...
*
बिंदु-बिंदु से सिन्धु बनाते,
कंकर से शंकर उपजाते।
वायु-नीर बनकर प्रवहित हो-
जल-थल-नभ जीवन उपजाते।।
विधि-हरि-हर जग कर्म नियंता-
करो विनय स्वीकार...
*
पाप-पुण्य के परिभाषक तुम,
कर्मदंड के संचालक तुम।
सत-शिव-सुन्दर के हितचिंतक-
सत-चित-आनंद अभिभाषक तुम।।
निबल 'सलिल' को भव से तारो
कर लो अंगीकार...
*


गुरुवार, 20 सितंबर 2012

दोहा-मुक्तिका: तरु को तनहा... संजीव 'सलिल'

दोहा-मुक्तिका:

तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात



संजीव 'सलिल'
*
तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात.
यह जीवन की जीत है, क्यों कहते- हैं मात??
*
सूखी शाखों पर नयी, कोपल फूटे प्रात.
झूम बताती: मृत्यु वर, जीवन देती रात..
*
कोमल कलिका कुलिश सी, होती सह आघात.
गौरी ही काली हुई, सच मत भूलो तात..
*
माँ बहिना भाभी सखी, पत्नि सदृश सौगात.
बिन बेटी कैसे मिले?, मत मारो नवजात..
*
शूल-फूल, सुख-दुःख 'सलिल', धूप-छाँव बारात.
श्वास-आस दूल्हा-दुल्हन, श्रम-कोशिश नग्मात..
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

एक षटपदी: प्रेम संजीव 'सलिल'

एक षटपदी:
प्रेम




संजीव 'सलिल'
*
तन न मिले ,मन से मिले, थे शीरीं-फरहाद.
लैला-मजनूं को रखा, सदा समय ने याद..
दूर सोहनी से रहा, मन में बस महिवाल.
ढोल-मारू प्रेम की, अब भी बने मिसाल..
मिल न मिलन के फर्क से, प्रेम रहे अनजान.
आत्म-प्रेम खुशबू सदृश, 'सलिल' रहे रस-खान..
*

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



बुधवार, 15 अगस्त 2012

कुण्डलियाँ: भारत के गुण... -- संजीव 'सलिल'



VZAI

कुण्डलियाँ:                                       
भारत के गुण...
संजीव 'सलिल'
*
भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल.
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल..
तज भेदों के, शूल अनवरत, रहें सृजनरत.
मिलें अंगुलिका, बनें मुष्टिका, दुश्मन गारत..
तरसें लेनें. जन्म देवता, विमल विनयरत.
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत..
*
भारत के गुण गाइए, ध्वजा तिरंगी थाम.
सब जग पर छा जाइये, बढ़ा देश का नाम..
बढ़ा देश का नाम, प्रगति का चक्र चलायें.
दण्ड थाम उद्दंड शत्रु को सबक सिखायें..
बलिदानी केसरिया की जयकार करें शत.
हरियाली सुख, शांति श्वेत मुस्काए भारत..

***

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

गीत: कब होंगे आजाद -- संजीव 'सलिल'

गीत:
कब होंगे आजाद
संजीव 'सलिल'
*
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*
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
गए विदेशी पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन.
भाषण देतीं सरकारें पर दे न सकीं हैं राशन..
मंत्री से संतरी तक कुटिल कुतंत्री बनकर गिद्ध-
नोच-खा रहे
भारत माँ को
ले चटखारे स्वाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र.
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र..
आँख दिखाते सभी पड़ोसी, देख हमारी फूट-
अपने ही हाथों
अपना घर
करते हम बर्बाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
खाप और फतवे हैं अपने मेल-जोल में रोड़ा.
भष्टाचारी चौराहे पर खाए न जब तक कोड़ा.
तब तक वीर शहीदों के हम बन न सकेंगे वारिस-
श्रम की पूजा हो
समाज में
ध्वस्त न हो मर्याद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
पनघट फिर आबाद हो सकें, चौपालें जीवंत.
अमराई में कोयल कूके, काग न हो श्रीमंत.
बौरा-गौरा साथ कर सकें नवभारत निर्माण-
जन न्यायालय पहुँच
गाँव में
विनत सुनें फ़रियाद-
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*
रीति-नीति, आचार-विचारों भाषा का हो ज्ञान.
समझ बढ़े तो सीखें रुचिकर धर्म प्रीति विज्ञान.
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो
हो पायेगा
धरती पर आबाद.
कब होंगे आजाद?
कहो हम
कब होंगे आजाद?....
*

शुक्रवार, 15 जून 2012

दोहा सलिला: बेहतर रच नग्मात..... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
बेहतर रच नग्मात.....
संजीव 'सलिल'
*
जिसकी जैसी सोच है, वैसा देखे चित्र.
कोई लिए दुर्गन्ध है, कोई चाहता इत्र..

कौन किसी से कब कहाँ, क्या क्यों कहता बात.
जो सोचे हो परेशां, बेहतर रच नग्मात..

*
नीलम आभित गगन पर, बदरी छाई आज.
शुभ प्रभात है वाकई, मिटे ग्रीष्म का राज..

मिश्रा-मिश्राइन मिले, मिश्री बाँटी खूब.
पहुँचायें कुछ 'सलिल' तक, सके हर्ष में डूब..

लखनौआ  तहजीब को, बारम्बार सलाम.
यह तो खासुलखास है, भले खिलाये आम..
*
प्रीति मिले तो हो सलिल, खुशियों की बरसात.
पूनम जैसी चमकती, है अंधियारी रात..

रहे प्रीति के साथ नित, हो धरती पर स्वर्ग.
बिना स्वर्गवासी हुए, सुख पाए संवर्ग..

दूर प्रीति से ज़िन्दगी, हो जाती बेनूर.
रीति-नीति है भीति से, रहिए दूर हुजूर..

हूर दूर रहती 'सलिल', तनिक न आती काम.
प्रीति समीप सदा रहे, मिल जाती बिन दाम..

सूरत क्यों देखे 'सलिल', सीरत से रख चाह.
कविता कर जी भर विहँस, तज जग की परवाह..

बाँट सके जो प्रीति वह, पाता आत्म-प्रकाश.
बाँहों में लेता समा, वह सारा आकाश..

सूरत-सीरत प्रीति पा, हो जाती जब एक.
दीखता तभी अनेक में, उसको केवल एक ..

प्रीति न चाहे निकटता, राधा-हरि थे दूर.
अमर प्रीति गाते रहे, 'सलिल' निरंतर सूर..

प्रीति करें जिससे रखें, उससे कोई न चाह.        
सबसे ज्यादा कीजिए, उसकी ही परवाह..

आप चाहते हैं जिसे, चाहें दिल से खूब.
यह न जरूरी बाँह में, आ पाये महबूब..

प्रीति खो गयी है कहाँ, कहो बताये कौन.
'सलिल' प्रीति बिन मत करो, कविता हो अब मौन..

जो सूरत रब ने गढ़ी, हर सूरत है खूब.
दिया तले तम दे भुला, जा प्रकाश में डूब..

कब आयें आकाश में, झूम-झूम घन श्याम.
गरज-गरज बरसें 'सलिल', ग्रीष्म हरें घनश्याम..

अच्छे को अच्छा लगे, सारा जग है सत्य.
जिसे न कुछ अच्छा लगे, वह है निरा असत्य..

************

रविवार, 10 जून 2012

बाल गीत: लंगडी खेलें..... --आचार्य संजीव 'सलिल'

*
बाल गीत:

लंगडी खेलें.....

आचार्य संजीव 'सलिल'
*



*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*



आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*



हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************

Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

श्रृद्धांजलि:  
  स्मृति शेष श्रीलाल शुक्ल                                                               shrilal-shukla.jpg
                                                  महेश चन्द्र द्विवेदी
              कल श्रीलाल शुक्ल जी के पार्थिव शरीर को अग्नि में समाते देखा- ३५ वर्ष पूर्व उनसे  प्रथम बार एक विभागीय  डिनर में मिला था, हम दोनों के उत्तर प्रदेश प्रशासन में होने के कारण ऐसा अवसर आया था - सौम्य स्वाभाव , सुन्दर मुख एवं सुलझा व्यक्तित्व-. तब मै लिखता नहीं था और तब तक मैंने राग-दरबारी पढ़ी भी नहीं थी, परन्तु उसके पश्चात् शीघ्र ही पढ़ी- और पढ़ी क्या? हंसी कहना अधिक पयुक्त होगा, क्योंकि प्रत्येक वाक्य के उपरांत हंसी रोकना कठिन होता था- इतना तीखा और नियंतरणहीन हास्योत्पादक व्यंग्य पहले नहीं पढ़ा था- फिर यदा-कदा मिलना होता रहा - १९९५ में जब मेरा पहला उपन्यास 'उर्मि' छपा, तब मैंने श्रीलाल जी को एक प्रति पढने को भेजी- उनकी टिपपनी थी ' अत्यंत रुचिकर  कहानी एवं शैली है परन्तु  कथानक को अबोर्ट कर दिया गया है, इस उपन्यास को सौ पृष्ठ के बजाय ४०० पृष्ठ में लिखना चाहिए था'-  १० वर्ष पश्चात् जब मैंने अपने व्यंग्यात्मक संस्मरण 'प्रशासनिक प्रसंग' उनके पास भेजे , तो चार घंटे पश्चात् ही फ़ोन आया कि मैंने पूरी पुस्तक पढ़ ली है. मैंने आश्चर्य से कहा इतनी जल्दी, तो बोले कि इतनी रुचिकर है कि प्रारंभ करने के पश्चात् छोड़ ही ना सका.'. मै धन्य हो गया- हाल में, जब वह अस्वस्थ रहने लगे थे, तब मिलने जाने पर मैंने अपना व्यंग्य संग्रह 'भज्जी का जूता ' उन्हें दिया , वह पढने की दशा में तो नहीं थे, परन्तु उन्होंने अपनी दो पुस्तकें मुझे दी, जिन्हें मै धरोहर के रूप में रखकर अपने को सौभाग्यशाली समझूंगा. 
               चार दिन पूर्व उन्हें सहारा अस्पताल में आई. सी. यू. में देखकर बड़ा बुरा लगा था- अत्यंत कृशकाय एवं निष्प्राण दिखने वाला शारीर - इतना  जीवंत व्यक्ति इस दशा में - उन्होंने ऐसे  शरीर का त्याग कर दिया है, परन्तु  मेरा विश्वास है कि वह आने वाली  सदियों तक हमारे बीच रहेंगे .
mcdewedy@gmail.com
श्रीलाल शुक्‍ल जन्म ३१ दिसंबर १९२५ - निधन २८ अक्टूबर २०११
विख्यात हिंदी व्यंग्यकार होने के पूर्व वे उत्तर प्रदेश राज्य लोक सेवा योग तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. उन्होंने २५ पुस्तकें लिखीं जिनमें मकान, सूनी घाती का सूरज, पहला पड़ाव, बीसरामपुर का संत आदि प्रमुख हैं. उन्होंने स्वतंत्रता पश्चात् भारतीय जन मानस के गिरते जीवन मूल्यों को अपनी विशिष्ट व्यंग्यात्मक शैली के माध्यम से उद्घाटित किया. उनकी सर्वाधिक सम्मानित तथा चर्चित कृति राग दरबारी अंग्रेजी सहित २५ भाषाओँ में अनूदित हुई. १०८० के दशक में उनकी कृति पर दूरदर्शन में धारावाहिक भी र्पसरित हुआ था.उनके जासूसी उपन्यास आदमी का ज़हर साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था.

श्री लाल शुक्ल को राग दरबारी पर १९६९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९९९ में उपन्यास बीसरामपुर का संत पर व्यास सम्मान से तथा २००९ में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था. भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण अवदान हेतु राष्ट्रपति द्वारा उन्हें २००८ में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया. सन २००५ में उनकी ८० वीं जन्म ग्रंथि पर दिल्ली में शानदार और जानदार कार्यक्रम का आयोजन उनके मित्रों द्वारा किया गया था तथा 'जीवन ही जीवन' शीर्षक स्मारिका का प्रकाशन किया गया था.

संक्षिप्त जीवन वृत्त:

  • १९२५ - अतरौली लखनऊ उत्तर प्रदेश में जन्म.
  • १९४७ - इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक.
  • १९४९ - प्रादेशिक सिविल सेवा में प्रविष्ट.
  • १९५७ - प्रथम उपन्यास सूनी घाती का सूरज प्रकाशित.
  • १९५८ - प्रथम व्यंग्य लेख संकलन अंगद का पैर प्रकाशित.
  • १९७० - राग दरबारी १९६९ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार.
  • १९७८  - मकान के लिये मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार. 
  • १९७९-८० - निदेशक भारतेंदु नाट्य अकादमी उत्तर प्रदेश.
  • १९८१ - अंतर्राष्ट्रीय लेखक सम्मेलन बेलग्रेड में भारत का प्रतिनिधित्व.
  • १९८२-८६ - सदस्य साहित्य अकादमी परामर्श मंडल.
  • १९८३ - भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवा निवृत्त.
  • १९८७-९० - आई.सी.सी.आर. भारत शासन द्वारा एमिरितस फेलोशिप.
  • १९८८ - उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण पुरस्कार.
  • १९९१ - कुरुक्षेत्र विश्व-विद्यालय द्वारा गोयल साहित्य पुरस्कार.
  • १९९४ -उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान.
  • १९९६ - मध्य प्रदेश शासन द्वारा शरद जोशी सम्मान.
  • १९९७ - मध्य प्रदेश शासन द्वारा मैथिली शरण गुप्ता सम्मान.
  • १९९९ - बिरला फ़ौंडेशन द्वारा व्यास सम्मान.
  • २००५ - उत्तर प्रदेश स्शासन द्वारा यश भारती सम्मान.
  • २००८ - भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण.
  • २०११ - २००९ का ज्ञानपीठ सम्मान.
साहित्यिक अवदान:  उपन्यास 
  • सूनी घाती का सूरज - १९५७ 
  • अज्ञातवास - १९६२ 
  • राग दरबारी (उपन्यास) - १९६८ - मूलतः हिंदी में; पेंग्विन बुक्स द्वारा इसी नाम से अंग्रेजी अनुवाद १९९३; नॅशनल बुक्स ट्रस्ट द्वारा १५ भारतीय भाषाओँ में अनुवाद प्रकाशित.
  • आदमी का ज़हर - १९७२ 
  • सीमाएं टूटती हैं - १९७३ 
  • मकान - १९७६ - मूलतः हिंदी में; बांगला अनुवाद १९७० .
  • पहला पड़ाव - १९८७ - मूलतः हिंदी में; पेंग्विन इंटरनॅशनल द्वारा अंग्रेजी अनुवाद १९९३.
  • बिश्रामपुर का संत - १९९८ 
  • बब्बर सिंह और उसके साथी - १९९९ - मूलतः हिंदी में; स्कोलोस्टिक इं. न्यूयार्क द्वारा अंग्रेजी अनुवाद बब्बर सिंह एंड हिस फ्रिएंड्स  २००० में.
  • राग विराग - २००१ 
व्यंग्य:

  • अंगद का पाँव - १९५८ 
  • यहाँ से वहाँ - १९७० 
  • मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें - १९७९ 
  • उमरावनगर में कुछ दिन - १९८६
  • कुछ ज़मीन में कुछ हवा में - १९९० 
  • आओ बैठ लें कुछ देर - १९९५ 
  • अगली शताब्दी का शहर - १९९६
  • जहालत के पचास साल - २००३ 
  • ख़बरों की जुगाली - २००५ 
लघु कथा संग्रह:
  • यह घर मेरा नहीं - १९७९ 
  • सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ - १९९१ 
  • इस उम्र में - २००३ 
  • दस प्रतिनिधि कहानियाँ - २००३ 
संस्मरण:
  • मेरे साक्षात्कार - २००२ 
  • कुछ साहित्य चर्चा भी - २००८ 
साहित्यिक समालोचना:

  • भगवती चरण वर्मा - १९८९ 
  • अमृतलाल नागर - १९९४ 
  • अज्ञेय: कुछ रंग कुछ राग - १९९९ 
संपादित कार्य:
  • हिंदी हास्य-व्यंग्य  संकलन - २०००
  • साहित्यिक यात्रायें:

    युगोस्लाविया, गेरमन्य, इंग्लैंड, पोलैंड, सूरीनाम, चीन. 

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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सोमवार, 23 मई 2011

मुक्तिका: सागर ऊँचा... -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सागर ऊँचा...
संजीव 'सलिल'
*
सागर ऊँचा, पर्वत गहरा.
अंधा न्याय, प्रशासन बहरा..

खुली छूट आतंकवाद को.
संत-आश्रमों पर है पहरा..

पौरुष निस्संतान मर रहा.
वंश बढ़ाता फिरता महरा..

भ्रष्ट सियासत देश बेचती.
देश-प्रेम का झंडा लहरा..

शक्ति पूजते जला शक्ति को.
मौज-मजा श्यामल घन घहरा..

राजमार्ग ने वन-गिरि निगले..
सारा देश हुआ है सहरा..

कब होगा जनतंत्र देश में?
जनमत का ध्वज देखें फहरा..

हिंसा व्यापी दिग-दिगंत तक.
स्नेह-सलिल है ठहरा-ठहरा..

जनप्रतिनिधि ने जनसेवा का
'सलिल' न अब तक पढ़ा ककहरा..

************************

रविवार, 27 मार्च 2011

बाल गीत: लंगडी खेलें..... संजीव 'सलिल'

*
बाल गीत:                                                 

लंगडी खेलें.....

संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें झमेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....*
हा-हा-हैया,
ता-ता-थैया।
छू राधा को
किशन कन्हैया।
गिरें धूल में,
रो-उठ-हँसकर,
भूलें- झींकेगी
फिर मैया।
हर पल 'सलिल'
ख़ुशी के मेले।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*************

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: हाथ में हाथ रहे... संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                       
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..

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