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शुक्रवार, 24 मई 2019

काव्यानुवाद बीनू भटनागर

अंग्रेजी-हिंदी सेतु
इंगलिश की यादगार कविताओं का हिन्दी में अनुवादकी श्रंखला में पहला अुनुवाद
काव्यानुवाद बीनू भटनागर 
A Dream Within A Dream
by Edgar Allan Poe
Take this kiss upon the brow!
And, in parting from you now,
Thus much let me avow--
You are not wrong, who deem
That my days have been a dream;
Yet if hope has flown away
In a night, or in a day,
In a vision, or in none,
Is it therefore the less gone?
All that we see or seem
Is but a dream within a dream.
I stand amid the roar
Of a surf-tormented shore,
And I hold within my hand
Grains of the golden sand--
How few! yet how they creep
Through my fingers to the deep,
While I weep--while I weep!
O God! can I not grasp
Them with a tighter clasp?
O God! can I not save
One from the pitiless wave?
Is all that we see or seem
But a dream within a dream?
स्वप्न में स्वप्न
अनुवाद-बीनू भटनागर
तुम्हारा माथा चूमकर
मैं विदा ले रहा हूँ,
इसलिये खुलकर कहूँगा कि
तुम ग़लत नहीं थी,जो सोचती थीं,
मेरे दिन ,दिवास्प्न हैं, स्वपन!
दिन हो या रात
आशायें धूमिल हो चुकी हैं
जो सोचा नहीं था, जो था ही नहीं
इसलिये बहुत खोया भी नहीं?
जो हम देखते हैं
या महसूस करते हैं वहतो बस
स्वप्न में स्वप्न है।
मैं लहरों के शोर में खड़ा हूँ
संतप्त सागर के तट पर
रेत के कण हाथ में लेता हूँ
इतने कम हैं
फिरभी फिसल रहे हैं
मेरी उंगलियां गहराई में हैं
मैं रोता हूँ, बहुत रोता हूँ
हे प्रभु! क्या मैं इन्हे पकड़े रह सकता हूँ।
क्या मुट्ठी में बाँध सकता हूँ
हे प्रभु!क्या मैं इन्हे निर्दयी लहरों से बचा सकता हूँ।
यही मैं देखता रहता हूँ।
सपनो में सपने...,
स्वप्न मे स्वप्न

शुक्रवार, 4 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी २ : बीनू भटनागर

आलेख:


२. छंद, छंद से मुक्ति और संगीत
बीनू भटनागर

परिचय: जन्म: १४.९.१९४७, बुलंदशहर (उ.प्र), शिक्षा: ऐम.ए. मनोविज्ञान, प्रकाशन: मैं सागर में एक बूँद सही (कविता संग्रह), झूठ बोले कौवा काटे (व्यंग्य संग्रह), I do not live in dreams( A poem collection), गागर में सागर(दोहा संग्रह), Meaning of your happiness, मैं, मैं हूँ, मैं, ही रहूँगी (कविता संग्रह), संप्रति स्वतंत्र लेखन।

संपर्क: binu.bhatnagar@gmail.com
*
हिंदी में आदिकाल से ही काव्य छंद में लिखने की प्रथा रही है। छंद के बाहर जाकर लिखना पद्य की श्रेणी में ही नहीं माना गया। हिंदी में पिंगल छंद शास्त्र सबसे पुराना ग्रंथ है। छंदों के नियम-बंधन से काव्य में लय और रंजकता की वृद्धि होती है किंतु छंद शास्त्र का विधिवत अध्ययन करना काव्य रचना हेतु अनिवार्य नहीं है। कबीर सदृश्य अधिकांश भक्तिकालीन कवि पढ़े-लिखे नहीं थे पर उनकी पद्य रचनाएँ नियमों पर खरी हैं क्योंकि उनके मन में सुन-सुनकर लय बसी होती थी जिसमें वे शब्द पिरो देते थे। ऐसा भी नहीं है कि छंद-लेखन की जन्मना स्वाभाविक प्रतिभा न हो तो कोई छंद लिख ही न सके। गुरु के मार्गदर्शन में अभ्यास करने से छंद विधा में लिखना सीखा जा सकता है।
आदि काल (वीरगाथा काल) की अधिकतर रचनायें दोहों में हैं। ये दोहे कवियों ने अधिकतर अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा मे लिखे थे। भक्तिकाल में निर्गुण धारा के प्रमुख कवियों दादू, कबीर आदि ने सिखाने के लिए साखी (दोहों) का प्रयोग किया। गुरु नानक ने जिस 'सबद' के माध्यम से सिक्खी धर्म का प्रचार किया, वह दोहा ही है। सगुण भक्तिशाखा के कवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में दोहे-चौपाई के साथ कवित्त, छप्पय, सोरठा और कुण्डलिया छंद का भी प्रयोग किया। कृष्ण भक्त सूरदास, मीरा आदि ने पद-रचना की। रीति कालीन कवियों ने मुक्तक, कवित्त दोहे कुण्डलिया इत्यादि छंदों में श्रृंगार रस की रचनायें की।
पश्चिमी साहित्य के प्रभाव में धीरे-धीरे हिंदी जगत में भी छंद-बंधन खुलने लगे। महाप्राण निराला और महाकवि पंत ने पारंपरिक छंदों से हटकर प्रयोग किए। छंद की रूढ़ियों से मुक्त होकर भी इनके काव्य में प्रवाह बना रहा, इन कविताओं ने पाठकों को चमत्कृत भी किया। अनायास ही कहीं तुक मिलना, कहीं तुक न मिलना, छंद मुक्त काव्य की विशेषता मानी गई। यहाँ पूर्व प्रचलित नियम नहीं है; फिर भी कविता का प्रवाह नहीं रुकता। कहीं न कहीं यह छंदमुक्त काव्य छंद के आधार पर ही लिखे गए थे। छायावादी युग के छंदमुक्त काव्य का आधार रोला और घनाक्षरी माना जाता है। प्रयोगवादी युग मे सवैया तथा अन्य पुराने छंदों को रूढ़िमुक्त करके लिखा गया। कविता अनायास छंदमुक्त नहीं हुई, समाज ने रुढ़ियों को तोड़ा तो कवियों ने छंद-विधान को तोड़ा, यद्यपि विरोध हुआ पर कविता छंदों की जकड़न से मुक्त होने लगी। निराला जी की एक कविता 'मौन' प्रस्तुत है, इसमें लय भी है, प्रवाह भी है और कोई गुणी संगीतकार इसे संगीतबद्ध भी कर सकता है-
मौन बैठ लें कुछ देर, १३ आओ,एक पथ के पथिक-से १६
प्रिय, अंत और अनंत के, १४ तम-गहन-जीवन घेर। १२ मौन मधु हो जाए ११ भाषा मूकता की आड़ में, १६ मन सरलता की बाढ़ में, १४ जल-बिंदु सा बह जाए। १३ सरल अति स्वच्छंद १० जीवन, प्रात के लघुपात से, १६
उत्थान-पतनाघात से १४ रह जाए चुप, निर्द्वंद।. १२ निराला और सुमित्रानंदन पंत की काव्य शैलियाँ भिन्न थीं फिर भी दोनों ने पारंपरिक छंद से बाहर निकल कर लिखा, विरोध हुआ पर अंत मे छंद मुक्त काव्य को मान्यता मिली। पंत जी की एक प्रसिद्ध कविता का अंश प्रस्तुत है- चींटी वह चींटी को देखा आज? १५ वह सरल विरल काली रेखा १५ तम के तागे सी जो हिल-डुल १६ चलती लघु पद मिल-जुल, मिल-जुल १६ यह है पिपीलिका पाँति! देखो न किस भाँति। २३ काम करती वह सतत, कन-कन चुनके चुनती अविरत। २८ इस कड़ी में जयशंकर प्रसाद और रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम भी जुड़ता है। छंद-बंधन शिथिल हुए तो कुछ लोगों को लगा कि कविता लिखना बहुत आसान है। मन में जो भी भाव उठ रहे हैं या विचार आ रहे हैं; उन्हें लिखते चलो, बस बन गई कविता किंतु वे गलत सिद्ध हुए। छंदमुक्त कविता में भी लय, यति और गति होती है। प्रारंभ में छंदमुक्त कविताओं में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का ही प्रयोग होता रहा फिर धीरे-धीरे हिंदीतर शब्द कविता में जगह बनाने लगे और आज के कवि तो भाषा की सब सीमाएँ तोड़कर; अंग्रेजी शब्द ही नहीं, वाक्यांश तक प्रयोग करने लगे हैं। हिंदी-उर्दू सहचरी भाषाएँ हैं; इसलिये इनका सम्मिश्रण भाषा-सौंदर्य को कम नहीं करता। अंग्रेजी भी हिंदी में घुलने-मिलने लगी है; इसलियें यदा-कदा यदि हिंदी में समुचित शब्द ज्ञात या उपलब्ध न हो तो अंग्रेजी शब्द का भी प्रयोग आपद्धर्म की तरह किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि छंद के साथ भाषा की रूढ़ियाँ भी टूटने लगीं। रूढ़ियों का टूटना एक हद तक सही हो सकता है पर एक मशहूर कवि की एक कविता में 'बाइ द वे' (by the way) जैसा वाक्यांश मुझे निराश करता है। शायद; मैं विषय से भटक रही हूँ क्योंकि इस लेख का मकसद अन्य भाषाओं के शब्दों का कविता में समाहित होना नहीं बल्कि छंद युक्त और छंद मुक्त काव्य की तुलना कर संगीत में उन्हें ढालने के प्रयोगों को समझना है।
सामान्य धारणा है कि छंदबद्ध काव्य संगीतबद्ध किया जा सकता है, छंदमुक्त काव्य संगीत में नहीं ढाला जा सकता। गीत-नवगीत विधा पूरी तरह छंदबद्ध न होने पर भी गायन के लिये ही बने हैं। इनमें 'मुखड़ा' और 'अंतरे' होते हैं। 'मुखड़े' को शास्त्रीय संगीत में 'स्थाई' कहते हैं। मुखड़े की अंतिम पंक्ति और स्थाई की अंतिम पंक्ति तुकांत होती है, इससे अंतरे के बाद मुखड़े पर आना सहज होता है। यहाँ स्थाई और अंतरे का मात्रा-साम्य आवश्यक नहीं होता। छंद में भी लय होती है और संगीत में भी किंतु गौर से देखा जाय तो 'लय' शब्द के अर्थ दोनों में भिन्न है। छंद में 'लय' से तात्पर्य 'प्रवाह' से है कि बिना अटके उसको पढ़ा जा सके। संगीत में 'लय' का अर्थ 'गति' है, कितनी तीव्र या कितनी मंद गति से गायन या वादन हो रहा है। 'विलंबित लय' और 'द्रुत लय' गायन-वादन की गति को इंगित करते हैं। 'स्वर' शब्द का भी संगीत और भाषा में भिन्न अर्थ है। अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ हिंदी भाषा के स्वर (वौवल्स) है। संगीत के स्वर षडज, रिषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद हैं जिन्हें हम 'सा रे ग म प ध नी' या 'सरगम' के नाम से जानते हैं। इन्हें इंगलिश मे नोट्स (do re me fa so la ti) कहते हैं। संगीत में 'ताल' का भी बहुत महत्व है। 'ताल' में छंद की तरह मात्रायें गिनी जाती हैं पर 'मात्रा' गिनने का तरीका एकदम अलग होता है। यहाँ एक मात्रा में दो वर्ण भी बिठाये जा सकते हैं और एक वर्ण को दो या तीन मात्राओं में आकार के साथ बढ़ाया जा सकता है। ताल के एक चक्र में गति के अनुसार मात्राएँ निर्धारित होती हैं; न कि वर्ण और स्वर की गिनती के अनुसार। शास्त्रीय संगीत की बंदिशों को ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि वे कहीं भी छंद-बद्ध नहीं हैं। राग जोग की बंदिश देखें:
स्थाई- साजन मोरे घर आए (स्थाई) १४ मात्राएँ मंगल गावो चौक पुरावो,(अंतरा) १६ मात्राएँ अंतरा- दरस पिया हम पाए १२ मात्राएँ अब मालकौस की एक बंदिश पर ध्यान देते हैं- स्थाई- मुख मोर-मोर मुसकात जात, १६ मात्राएँ ऐसी छबीली नार चली कर सिंगार २१ मात्राएँ अंतरा- काहू की अँखियाँ रसीली मन भाईं, २१ मात्राएँ चली जात सब सखियाँ साथ १५ मात्राएँ (अंतरा)

इन दोनों बंदिशों में कोई छंद नहीं है। संगीत में इन दोनों बंदिशों को सैकड़ों सालों से तीन ताल में गाया जा रहा है। तीन ताल में सोलह मात्राएँ चार खंडों में विभाजित रहती हैं- 'धा धिं धिं धा धा धिं धिं धा ना तिं तिं ना धा धिं धिं धा'
इसी तरह लोकगीत भी छंदबद्ध नहीं होते पर कहरवा ताल में गाए जाते हैं। ये ताल ढोलक पर भी सजती है किंतु शास्त्रीय संगीत के लिये उपयुक्त नहीं मानी जाती। कहरवा के बोल इस प्रकार हैं- धा गे ना ति न क धि न स्पष्ट है कि संगीत-बद्ध होने के लिये रचना का छंद-बद्ध होना ज़रूरी नहीं है। गुणी संगीतकार के पास वाद्य यंत्र होते हैं, कोरस हो सकता है जिससे यदि ज़रूरी हो तो वो उन्हीं शब्दों के साथ मात्राओं को घटा-बढ़ा सकता है। ग़ज़ल संस्कृत के द्विपदिक श्लोकों से नि:सृत, फारसी से उर्दू में आई शायरी (कविता) की विधा है जिसे हिंदी तथा अन्य भाषाओं ने अपना लिया है। ग़ज़ल गायिकी एक भिन्न प्रकार की विधा बन चुकी है। ग़ज़ल लेखन में बहुत पाबंदियाँ है इन्हें अलग-अलग रागों में बाँधकर गाया जाता है। इसमें गायक को भावों की अभिव्यक्ति सही तरह निभाने के साथ स्वर और ताल में बँधकर गाना होता है पर शुद्ध शास्त्रीय संगीत की शैली से ग़ज़ल गायन की शैली अलग होती है यहाँ ताने लेने या मुरकियाँ लेने की जगह भावों और शब्दों का उच्चारण अधिक महत्वपूर्ण होता है इसलिये ग़ज़ल गायकी को उप शास्त्रीय संगीत की श्रेणी में रखा जाता है। ग़ज़ल की बहर (मीटर) छोटी-बड़ी हो सकती है पर ग़ज़ल के लिये संगीतकार अधिकतर ताल दादरा का प्रयोग करते हैं। तीन ताल, झपताल व कुछ अन्य तालों में भी ग़ज़ल बाँधी जाती है। दादरा, तीनताल और झपताल में क्रमश: ६, १६ और १० मात्राएँ होती हैं।
एक समय था जब ग़ज़ल को गायक के नाम से पहचाना जाता था, यह मंहदी हसन की ग़ज़ल है, यह ग़ुलाम अली की और यह जगजीत सिंह की। जगजीत सिंह, पंकज उधास और ग़ुलाम अली के बाद कोई महान ग़ज़ल गायक उभरकर नहीं आया। कुछ होनहार ग़ज़ल गायक रंजीत रजवाड़ा, जैस्मिन शर्मा आदि अधिकतर ग़ुलाम अली या किसी प्रतिष्ठित गायक की ग़ज़ल ही गाकर रह गए, कुछ नया नहीं किया या उन्हें मौक़ा नहीं मिला। ग़ज़ल गायकों का अभाव है पर ग़ज़ल लिखनेवालों की कोई कमी नहीं है। सर्वश्री प्राण शर्मा, अशोक रावत, नीरज गोस्वामी, दीक्षित दनकौरी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी आदि के अलावा और बहुत से लोग ग़ज़ल लिख रहे हैं पर गायिकी में ग़ज़ल के क्षेत्र में प्रतिभा का अभाव है, फिल्मों में भी आजकल ग़ज़ल गायिकी की गुंजाइश नहीं रह गई है। संगीतकार क्यों इस विधा से दूर हो रहे हैं? यह जानने की ज़रूरत है। हम सिर्फ श्रोता को दोष नहीं दे सकते, जब ग़ज़ल सुनने को नहीं मिलेगी; तो श्रोता क्या करेगा। ग़ज़ल पढ़नेवाले भी बहुत तो नहीं हैं पर फिर भी गज़लें लिखी जा रही हैं। अब छंदमुक्त काव्य और संगीत की बात करते हैं। फिल्म 'हक़ीकत' के एक गाने ने सबको बहुत भावुक कर दिया था।, “मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था” यह पूरी तरह मुक्त था इसमें मुखड़ा और अंतरा भी नहीं था, न तुकांत पंक्तियाँ। कैफ़ी आज़मी, मोहम्मद रफ़ी और मदनमोहन ने इसे जो रूप दिया अनोखा था, असरदार था! यहाँ मेरा नाम जोकर के गीत “ए भाई! ज़रा देख के चलो” का जिक्र करना भी अप्रासांगिक नहीं होगा। नीरज, शंकर-जयकिशन और मन्ना डे ने इसे कभी न भुला पाने वाले गीतों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। छंदमुक्त कविता की तरह ही जावेद अख्तर साहब का एक गीत '1942 ए लवस्टोरी' में था जिसको पहली बार सुनते ही मुझे लगा "वाह! क्या गीत है। क्या संगीत है। ' इसमें तो सारे बंधन ही टूट चुके थे न अंतरा था न मुखड़ा बस.....’ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ....... “ से हर पंक्ति शुरू हुई और फिर एक से एक सुंदर उपमाओं का सिलसिला शुरू हो गया, भले ही यहाँ मुखड़े और अंतरे न हों, सभी उपमाएँ दो-दो के जोड़े में तुकांत थीं, लघु पर समाप्त होती थीं, अंतिम उपमा दीर्घ पर समाप्त हुईं। जावेद अख्तर साहब के बोल आर.डी.बर्मन का संगीत और कुमार शानू की आवाज का ये जादू बहुत चला– एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा २२ जैसे खिलता गुलाsब, १३
जैसे शायर का ख़्वाब १३ जैसे उजली किरण, ११ जैसे बन में हिरन ११ जैसे चाँदनी राsत, १३ जैसे नगमों की बात १३ जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया २२
(प्रथम-अंतिम पंक्ति २२ मात्रिक महारौद्रजातीय, सुखदा छंद, प्रथम-अंतिम द्विपदी भागवतजातीय छंद, मध्य द्विपदी रौद्र जातीय शिव छंद - सं.) इस सिलसिले में जगजीत सिंह की गाई एक लोकप्रिय नज़्म भी याद आ रही है-“बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’’. नज़्म काफ़ी हद तक छंदमुक्त कविता जैसी ही होती है। जगजीत सिंह की लोकप्रियता इसी नज़्म से आरंभ हुई थी। गुलज़ार साहब तो शायरी में 'दिन ख़ाली-ख़ाली बर्तन हैं' जैसी पंक्तियाँ लिखकर चकित करते रहे हैं पर उनका इजाज़त फिल्म का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है.....' इसमें न कोई पंक्ति तुकांत थी न कोई दीर्घ-लघु पर अंत होने का बँधा हुआ सिलसिला। इस गाने में तो हर पंक्ति के मीटर में भी बहुत अंतर था। जब गुलज़ार साहब ने आर. डी. बर्मन को यह पूर्ण रूप से छंदमुक्त कविता दिखाई तो उन्होंने गुलज़ार साहब से कहा 'कल तुम 'टाइम्ज़ आफ इण्डिया' ले आओगे और कहोगे कि इसकी धुन बनाओ' किंतु आर. डी. बर्मन ने चुनौती स्वीकार की और ये गाना कितना मधुर बना और लोकप्रिय हुआ; हम सभी जानते हैं।
आजकल नए प्रयोग करने का ज़माना है कुछ अच्छे लगते हैं, कुछ अच्छे नहीं लगते। कवि-लेखक बंधन-मुक्त होकर लिख रहे हैं, इससे छंद का महत्व कम नहीं हो सकता। संगीतकार पूरे विश्व से संगीत लाकर, उससे कुछ नया कुछ अच्छा संगीत दे रहे हैं । एक ही गीत में कभी राग बदल जाता है, कभी ताल, कभी वैस्टर्न बीट पर ड्रम बजने लगते हैं।इस्माइल दरबार ने 'हम दिल दे चुके सनम' में पूरी तरह शास्त्रीय संगीत में बद्ध गीत जिसमें ताने भी थीं, मुरकियाँ भी थी ‘’अलबेला सजन आयो री’’ में ताल-वाद्य को बहुत गौण कर दिया। ताल-वाद्य की आवाज गायिकी के नीचे दब गई जबकि आम तौर पर शास्त्रीय संगीत में तबला या पखावज का रूप निखरकर आता है। यह बंदिश राग अहीर भैरव में उस्ताद सुल्तान खाँ ने गाई थी और आदि ताल में बद्ध थी जिसमें ८ मात्रायें होती है। इस्माइल दरबार ने इसे लगभग मूल रूप में रखा पर एक गायिका और एक गायक की आवाज़ फिल्म के किरदारों के हिसाब से जोड़ दी। कुछ समय पहले संजय लीला भंसाली ने इसी बंदिश को बाजीराव मस्तानी के लिये बिलकुल नए कलेवर में कई गायक और गायिकाऔं की आवाज़ मे पेश किया। यह राग भोपाली और राग देशकर का मिला-जुला रूप था इसमें ताल कहरवा का थोड़ा परिवर्तित रूप अपनाया गया। ताल कहरवा में भी ८ ही मात्रायें होती है। राग और ताल बदलने से बंदिश का स्वरूप बदल गया, गंभीरता की जगह ख़ुशी का माहौल बना दिया गया। ‘’हम दिल दे चुके सनम’’ में यह बंदिश शास्त्रीय संगीत लगी और बाजीराव मस्तानी मे लोकसंगीत की छटा दिखी परंतु इन प्रयोगों से शास्त्रीय संगीत की नियम प्रणालियों की गरिमा नष्ट होने का भी कोई सवाल नहीं हैं, क्योंकि जिस प्रकार काव्य का आधार छंद हैं, छंद हैं तो ही छंद मुक्त है। इसी तरह संगीत का आधार भी शास्त्रीय संगीत है और वही सात स्वर हैं पूरे विश्व के संगीत में।
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मंगलवार, 1 नवंबर 2016

samiksha

पुस्तक सलिला –
‘मैं सागर में एक बूँद सही’ प्रकृति से जुड़ी कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मैं सागर में एक बूँद सही, बीनू भटनागर, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-७४०८-९२५-०, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ २१५, मूल्य ४५०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नई दिल्ली , दूरभाष २६६४५८१२, ९८१८९८८६१३, कवयित्री सम्पर्क binubhatnagar@gmail.com ]
*
कविता की जाती है या हो जाती है? यह प्रश्न मुर्गी पहले हुई या अंडा की तरह सनातन है. मनुष्य का वैशिष्ट्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अधिक अभिव्यक्तिक्षम होना है. ‘स्व’ के साथ-साथ ‘सर्व’ को अनुभूत करने की कामना वश मनुष्य अज्ञात को ज्ञात करता है तथा ‘स्व’ को ‘पर’ के स्थान पर कल्पित कर तदनुकूल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर उसे ‘साहित्य’ अर्थात सबके हित हेतु किया कर्म मानता है. प्रश्न हो सकता है कि किसी एक की अनुभूति वह भी कल्पित सबके लिए हितकारी कैसे हो सकती है? उत्तर यह कि रचनाकार अपनी रचना का ब्रम्हा होता है. वह विषय के स्थान पर ‘स्व’ को रखकर ‘आत्म’ का परकाया प्रवेश कर ‘पर’ हो जाता है. इस स्थिति में की गयी अनुभूति ‘पर’ की होती है किन्तु तटस्थ विवेक-बुद्धि ‘पर’ के अर्थ/हित’ की दृष्टि से चिंतन न कर ‘सर्व-हित’ की दृष्टि से चिंतन करता है. ‘स्व’ और ‘पर’ का दृष्टिकोण मिलकर ‘सर्वानुकूल’ सत्य की प्रतीति कर पाता है. ‘सर्व’ का ‘सनातन’ अथवा सामयिक होना रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर होता है.
इस पृष्ठभूमि में बीनू भटनागर की काव्यकृति ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की रचनाओं से गुजरना प्रकृति से दूर हो चुकी महानगरीय चेतना को पृकृति का सानिंध्य पाने का एक अवसर उपलब्ध कराती है. प्रस्तावना में श्री गिरीश पंकज इन कविताओं में ‘परंपरा से लगाव, प्रकृति के प्रति झुकाव और जीवन के प्रति गहरा चाव’ देखते हैं. ‘अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थौट’ कहें या ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ यह निर्विवाद है कि कविता का जन्म ‘पीड़ा’से होता है. मिथुनरत क्रौन्च युग्म को देख, व्याध द्वारा नर का वध किये जाने पर क्रौंची के विलाप से द्रवित महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्रथम काव्य रचना हो, या हिरनी के शावक का वध होने पर मातृ-ह्रदय के चीत्कार से निसृत प्रथम गजल दोनों दृष्टांत पीड़ा और कविता का साथ चोली दामन का सा बताती हैं. बीनू जी की कवितओं में यही ‘पीड़ा’ पिंजरे के रूप में है.
कोई रचनाकार अपने समय को जीता हुआ अतीत की थाती ग्रहण कर भविष्य के लिए रचना करता है. बीनू जी की रचनाएँ समय के द्वन्द को शब्द देते हुए पाठक के साथ संवाद कर लेती हैं. सामयिक विसंगतियों का इंगित करते समय सकारात्मक सोच रख पाना इन कविताओं की उपादेयता बढ़ाता है. सामान्य मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग चिंतन, स्व, पर, सर्व, अनुराग, विराग, द्वेष, उल्लास, रुदन, हास्य आदि उपादानों के साथ गूँथी हुई अभिव्यक्तियों की सहज ग्राह्य प्रस्तुति पाठक को जोड़ने में सक्षम है. तर्क –सम्मतता संपन्न कवितायेँ ‘लय’ को गौड़ मानती है किन्तु रस की शून्यता न होने से रचनाएँ सरस रह सकी हैं. दर्शन और अध्यात्म, पीड़ा, प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन, ऋतु-चक्र, हास्य और व्यंग्य, समाचारों की प्रतिक्रिया में, प्रेम, त्यौहार, हौसला, राजनीति, विविधा १-२ तथा हाइकु शीर्षक चौदह अध्यायों में विभक्त रचनाएँ जीवन से जुड़े प्रश्नों पर चिंतन करने के साथ-साथ बहिर्जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाती हैं.
संस्कृत काव्य परंपरा का अनुसरण करती बीनू जी देव-वन्दना सूर्यदेव के स्वागत से कर लेती हैं. ‘अहसास तुम्हारे आने का / पाने से ज्यादा सुंदर है’ से याद आती हैं पंक्तियाँ ‘जो मज़ा इन्तिज़ार में है वो विसाले-यार में नहीं’. एक ही अनुभूति को दो रचनाकारों की कहन कैसे व्यक्त करती है? ‘सारी नकारात्मकता को / कविता की नदी में बहाकर / शांत औत शीतल हो जाती हूँ’ कहती बीनू जी ‘छत की मुंडेर पर चहकती / गौरैया कहीं गुम हो गयी है’ की चिंता करती हैं. ‘धूप बेचारी / तरस रही है / हम तक आने को’, ‘धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे / ये पेड़ देवदार के’, ‘प्रथम आरुषि सूर्य की / कंचनजंघा पर नजर पड़ी तो / चाँदी के पर्वत को / सोने का कर गयी’ जैसी सहज अभिव्यक्ति कर पाठक मन को बाँध लेती हैं.
छंद मुक्त कविता जैसी स्वतंत्रता छांदस कविता में नहीं होती. राजनैतिक दोहे शीर्षकांतर्गत पंक्तियों में दोहे के रचना विधान का पालन नहीं किया गया है. दोहा १३-११ मात्राओं की दो पंक्तियों से बनता है जिनमें पदांत गुरु-लघु होना अनिवार्य है. दी गयी पंक्तियों के सम चरणों में अंत में दो गुरु का पदांत साम्य है. दोहा शीर्षक देना पूरी तरह गलत है.
चार राग के अंतर्गत भैरवी, रिषभ, मालकौंस और यमन का परिचय मुक्तक छंद में दिया गया है. अंतिम अध्याय में जापानी त्रिपदिक छंद (५-७-५ ध्वनि) का समावेश कृति में एक और आयाम जोड़ता है. भीगी चुनरी / घनी रे बदरिया / ओ संवरिया!, सावन आये / रिमझिम फुहार / मेघ गरजे, तपती धरा / जेठ का है महीना / जलते पाँव, पूस की सर्दी / ठंडी बहे बयार / कंपकंपाये, मन-मयूर / मतवाला नाचता / सांझ-सकारे, कडवे बोल / करेला नीम चढ़ा / आदत छोड़ आदि में प्रकृति चित्रण बढ़िया है. तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी-उर्दू शब्दों का बेहिचक प्रयोग भाषा को रवानगी देता है.
बीनू जी की यह प्रथम काव्य कृति है. पाठ्य अशुद्धि से मुक्त न होने पर भी रचनाओं का कथ्य आम पाठक को रुचेगा. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती रचनाएँ बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकार अदि का यथास्थान प्रयोग किये जाने से सरस बन सकी हैं. आगामी संकलनों में बीनू जी का कवि मन अधिक ऊँची उड़ान भरेगा.
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कविता: आस्था बीनू भटनागर

कविता:
आस्था

बीनू भटनागर



*
मेरी आस्था मेरी पूजा का नाता मन मस्तिष्क से है,
और है आत्मा से।

मेरी पूजा मे ना पूजा की थाली है,
ना अगरबत्ती का सुगन्धित धुँआ है,
प्रज्वलित दीप भी नहीं है इसमे,
फल फूल प्रसाद से भी है ख़ाली,
क्योंकि,
मेरी आस्था मे  प्रार्थना व  ,शुकराना  है,
और है समर्पण भी।

मेरी आस्था मे न है सतसंग कीर्तन,
ना ही कोई समुदाय है ना संगठन,
मेरी आस्था तो केवल आस्था है,
ये तो है मुक्त है और है बंधन रहित
क्योंकि
मेरी आस्था मे ना कोई दिखावा है।
और है न प्रपंच कोई
मेरे ईश को अर्पण कर सकूं ऐसा,
मेरे पास नहीं है कुछ वैसा
वो दाता है जो भी देदे वो,
हर पल उसका शुकराना है,
क्योंकि,,
मेरी आस्था का नाता है विश्वास और विवेक से
जुड़े निर्णय मे ओर अनुभव मे




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बुधवार, 5 सितंबर 2012

चिंतन सलिला: मानसिक स्वास्थ्य सहेजें बीनू भटनागर

बीनू भटनागरचिंतन सलिला:

मानसिक स्वास्थ्य सहेजें                                     

बीनू भटनागर


     मनोविज्ञान में एम. ए.,  हिन्दी गद्यापद्य लेखन में रुचि रखनेवाली बीनू जी के कई लेख सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी, माधुरी तथा अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित-चर्चित हुए हैं। लेखों के विषय प्रायःसामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुड़े होते हैं।


      कहते हैं 'स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है' ,परन्तु यह भी सही है कि मन अस्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ नहीं ऱह पाता। शरीर अस्वस्थ होता है तो उसका तुरन्त इलाज करवाया जाता है, जाँच पड़ताल होती है, उस पर ध्यान दिया जाता है। दुर्भाग्यवश मानसिक स्वास्थ्य मे कुछ गड़बड़ी होती है तो आसानी से कोई उसे स्वीकार ही नहीं करता, ना ही उसका इलाज कराया जाता है। स्थिति जब बहुत बिगड़ जाती है तभी मनोचिकित्सक को दिखाया जाता है। आमतौर पर यह छुपाने की पूरी कोशिश होती है कि परिवार का कोई सदस्य मनोचिकित्सा ले रहा है।

     शरीर की तरह ही मन को स्वस्थ रखने के लियें संतुलित भोजन और थोड़ा व्यायाम अच्छा होता है। काम, और आराम के बीच ,परिवार और कार्यालय के बीच एक संतुलन बना रहे तो अच्छा होगा परन्तु परिस्थितियाँ सदा अपने वश में नहीं होतीं, तनाव जीवन में होते ही हैं। तनाव का असर मन पर होता ही है। इससे कैसे जूझना है यह समझना आवश्यक है।

     मानसिक समस्याओं की मोटे तौर पर दो श्रेणियाँ हैं। पहली: परिस्थितियों  के साथ सामंजस्य न स्थापित कर पाने से उत्पन्न तनाव, अत्यधिक क्रोध, तीव्र भय अथवा संबन्धों मे आई दरारों से पैदा समस्यायें आदि, दूसरी: मनोरोग, इनका कारण शारीरिक भी हो सकता है और परिस्थितियों का सही तरीके से सामना न कर पाना भी। इन दोनों श्रेणियों को एक अस्पष्ट सी रेखा अलग करती है। तनाव, भय, क्रोध आदि विकार मनोरोगों की तरफ़ ले जा सकते हैं जो व्यावाहरिक समस्यायें पैदा करते हैं। पीड़ित व्यक्ति की मानसिकता का प्रभाव उसके परिवार और सहकर्मियों पर भी पड़ता है।

     अस्वस्थ मानसिकता की पहचान साधारण व्यक्ति के लियें कुछ कठिन होती है। किसी का मानसिक असंतुलन इतनी आसानी से नहीं पहचाना जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपने में अलग-अलग विशेषतायें लिये होता है। कोई बहुत सलीके से रहता है तो कोई एकदम फक्कड़, कोई भावुक होता है तो कोई यथार्थवादी, कोई रोमांटिक होता है कोई शुष्क। व्यक्ति के गुण-दोष ही उसकी पहचान होते हैं। यदि व्यक्ति के ये गुण-दोष एक ही दिशा में झुकते जायें तो व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं। इन्हें मनोरोग नहीं कहा जा सकता परन्तु इनका उपचार कराना भी आवश्यक है,  इन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिये।

     अस्वस्थ मानसिकता के उपचार के लिये दो प्रकार के विशेषज्ञ होते हैं। क्लिनिकल सायकोलौजिस्ट और सायकैट्रिस्ट। क्लिनिकल सायकोलौजिस्ट मनोविज्ञान के क्षेत्र से आते हैं, ये काउंसलिंग और सायकोथिरैपी में माहिर होते हैं। ये चेतन, अवचेतन और अचेतन मन से व्याधि का कारण ढूँढकर व्यावाहरिक परिवर्तन करने की सलाह देते हैं। दूसरी ओर सायकैट्रिस्ट चिकित्सा के क्षेत्र से आते हैं, ये मनोरोगों का उपचार दवाइयाँ देकर करते हैं। मनोरोगियों को दवा के साथ काउंसलिंग और सायकोथिरैपी की भी आवश्यकता होती है, कभी ये ख़ुद करते हैं, कभी मनोवैज्ञानिक के पास भेजते हैं। क्लिनिकल सायकोलौजिस्ट को यदि लगता है कि पीड़ित व्यक्ति को दवा देने की आवश्यकता है तो वे उसे मनोचिकित्सक के पास भेजते हैं। मनोवैज्ञानिक दवाई नहीं दे सकते। अतः, ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिद्वन्दी नहीं। आमतौर से मनोवैज्ञानिक सामान्य कुंठाओं, भय, अनिद्रा, क्रोध और तनाव आदि का उपचार करते हैं और मनोचिकित्सक मनोरोगों का। अधिकतर दोनों प्रकार के विशेषज्ञों को मिलकर इलाज करना पड़ता है। यदि रोगी को कोई दवा दी जाय तो उसे सही मात्रा मे जब तक लेने को कहा जाए लेना ज़रूरी है। कभी दवा जल्दी बंद की जा सकती है, कभी लम्बे समय तक लेनी पड़ सकती है। कुछ मनोरोगों के लिये आजीवन दवा भी लेनी पड़ सकती है, जैसे कुछ शारीरिक रोगों के लियें दवा लेना ज़रूरी है, उसी तरह मानसिक रोगों के लियें भी ज़रूरी है। दवाई लेने या छोड़ने का निर्णय चिकित्सक का ही होना चाहिये।
 
     कभी-कभी रिश्तों में दरार आ जाती है जिसके कारण अनेक हो सकते हैं।आजकल विवाह से पहले भी मैरिज काउंसलिंग होने लगी है। शादी से पहले की रोमानी दुनिया और वास्तविकता में बहुत अन्तर होता है। एक दूसरे से अधिक अपेक्षा करने की वजह से शादी के बाद जो तनाव अक्सर होते हैं, उनसे बचने के लिये यह अच्छा क़दम है। पति-पत्नी के बीच थोड़ी बहुत अनबन स्वभाविक है, परन्तु रोज़-रोज़ कलह होने लगे, दोनों पक्ष एक दूसरे को दोषी ठहराते रहें तो घर का पूरा माहौल बिगड़ जाता है। ऐसे में मैरिज काउंसलर जो कि मनोवैज्ञानिक ही होते हैं, पति-पत्नी दोनों की एक साथ और अलग-अलग काउंसलिंग करके कुछ व्यावहारिक सुझाव देकर उनकी शादी को बचा सकते हैं। वैवाहिक जीवन की मधुरता लौट सकती है। अगर पति-पत्नी काउंसलिंग के बाद भी एक साथ जीवन बिताने को तैयार न हों तो उन्हें तलाक के बाद पुनर्वास में भी मनोवैज्ञानिक मदद कर सकते हैं तथा जीवन की कुण्ठाओं व क्रोध को सकारात्मक दिशा दे सकते हैं। कभी -कभी टूटे हुए रिश्ते व्यक्ति की सोच को कड़वा और नकारात्मक कर देते हैं, व्यक्ति स्वयं को शराब या अन्य व्यसन में डुबा देता है। अतः, समय पर विशेषज्ञ की सलाह लेने से जीवन में बिखराव नहीं आता।

    कुछ लोगों को शराब या ड्रग्स की लत लग जाती है, कारण चाहे जो भी हो उन्हें मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक की मदद व परिवार के सहयोग की आवश्यकता होती है। इलाज के बाद समाज में उनका पुनर्वास हो सकता है। दोबारा व्यक्ति उन आदतों की तरफ़ न मुड़े, इसके लिये भी विशेषज्ञ परिवार के सदस्यों को व्यावाहरिक सुझाव देते हैं।

     बच्चों और किशोरों की बहुत सी मनोवैज्ञानिक समस्यायें होती हैं जिन्हें लेकर उनके और माता-पिता के बीच टकराव हो जाता है। यदि समस्या गंभीर होने लगे तो मनोवैज्ञानिक से सलाह लेनी चाहिये। हर बच्चे का व्यक्तित्व एक-दूसरे से अलग होता है, उनकी बुद्धि, क्षमतायें और रुचियाँ भी अलग होती हैं। अतः, एक-दूसरे से उनकी तुलना करना या अपेक्षा रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई या व्यवहार मे कोई विशेष समस्या आये तो उस पर ध्यान देना चाहिये। यदि आरंभिक वर्षों में लगे कि बच्चा आवश्यकता से अधिक चंचल है, एक जगह एक मिनट भी नहीं बैठ सकता, किसी ओर  ध्यान नहीं लगा पाता और पढ़ाई में भी पिछड़ रहा है तो मनोवैज्ञनिक से परामर्श करें, हो सकता है कि बच्चे को अटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसआर्डर हो। इसके लिये मनोवैज्ञानिक जाँच होती है। उपचार भी संभव है। 

    यदि बच्चे को बात करने में दिक्कत होती है, वह आँख मिला कर बात नहीं कर सकता, आत्मविश्वास की कमी हो, पढ़ाई में बहुत पिछड़ रहा हो तो केवल यह न सोच लें कि वह शर्मीला है। एक बार मनोवैज्ञानिक से जाँच अवश्य करायें। ये लक्षण औटिज़्म के भी हो सकते है। इसका कोई निश्चित उपचार तो नहीं है परन्तु उचित प्रशिक्षण से नतीजा अच्छा होता है। डायसिलैक्सिया मे बच्चे को लिखने, पढ़ने में कठिनाई होती है, उसकी बुद्धि का स्तर अच्छा होता है। इन्हें अक्षर और अंक अक्सर उल्टे दिखाई देते हैं। ऐसे कुछ लक्षण बच्चे में दिखें तो जाँच करवाये। इन बच्चों को भी उचित प्रशिक्षण से लाभ होता है। बच्चों में कोई असामान्य लक्षण दिखें तो उन्हें अनदेखा न करें।

     क्रोध सभी को आता है, यह सामान्य सी चीज़ है। कभी-कभी किसी का क्रोध किसी और पर निकलता है, अगर क्रोध आदत बन जाए, व्यक्ति तोड़-फोड़ करने लगे या आक्रामक हो जाये तो यह सामान्य क्रोध नहीं है। किसी मानसिक व्यधि से पीड़ित व्यक्ति अक्सर अपनी परेशानी नहीं स्वीकारता। उसे एक डर लगा रहता है कि उसे कोई विक्षिप्त या पागल न समझ ले। उसे और परिवार को समझना चाहिये कि ये धारणा निर्मूल है, फिर भी यदि पीड़ित व्यक्ति ख़ुद मनोवैज्ञानिक के पास जाने को तैयार न हो तो परिवार के अन्य सदस्य उनसे मिलें, विशेषज्ञ कुछ व्यवाहरिक सुझाव दे सकते हैं। यदि मनोवैज्ञानिक को लगे कि दवा देने की आवश्यकता है, तो रोगी को मनोचिकित्सक के पास जाने के लिए तैयार करना ही पड़ेगा। मनोवैज्ञानिक असामान्य क्रोध का कारण जानने की कोशिश करते हैं। वे क्रोध को दबाने की सलाह नहीं देते, उस पर नियंत्रण रखना सिखाते हैं। व्यक्ति की इस शक्ति को रचनत्मक कार्यों मे लगाने का प्रयास करते है। क्रोधी व्यक्ति यदि बिलकुल बेकाबू हो जाय तो दवाई देने की आवश्यकता हो सकती है।

     जीवन में बहुत से क्षण निराशा या हताशा के आते हैं, कभी किसी बड़ी क्षति के कारण और कभी किसी मामूली सी बात पर अवसाद छा जाता है। कुछ दिनो में सब सामान्य हो जाता है। यदि निराशा और हताशा अधिक दिनों तक रहे, व्यक्ति की कार्य क्षमता घटे, वह बात-बात पर रोने लगे तो यह अवसाद या डिप्रैशन के लक्षण हो सकते हैं। डिप्रैशन में व्यक्ति अक्सर चुप्पी साध लता है, नींद भी कम हो जाती है, भोजन या तो बहुत कम करता है या बहुत ज़्यादा खाने लगता है। कभी-कभी इस स्थिति मे यथार्थ से कटने लगता है। छोटी-छोटी परेशानियाँ बहुत बड़ी दिखाई देने लगती हैं। आत्महत्या के विचार आते हैं, कोशिश भी कर सकता है। डिप्रैशन के लक्षण दिखने पर व्यक्ति का इलाज तुरन्त कराना चाहिये। मामूली डिप्रैशन मनोवैज्ञानिक उपचार से भी ठीक हो सकता है, दवाई की भी ज़रूरत पड़ सकती है। एक अन्य स्थिति में कभी अवसाद के लक्षण होते हैं, कभी उन्माद के। उन्माद की स्थिति अवसाद के विपरीत होती है। बहुत ज़्यादा और बेवजह बात करना इसका प्रमुख लक्षण होता है। व्यक्ति कभी अवसाद, कभी उन्माद से पीड़त रहता है। इस मनोरोग का इलाज पूर्णतः हो जाता है। इस रोग को मैनिक डिप्रैसिव डिसआर्डर या बायपोलर डिसआर्डर कहते हैं।

     भय या डर एक सामान्य अनुभव है, अगर यह डर बहुत बढ़ जाये तो इन असामान्य डरों को फोबिया कहा जाता है। फोबिया ऊँचाई, गहराई, अँधेरे, पानी या किसी और चीज़ से भी हो सकता है। इसकी जड़ें किसी पुराने हादसे से जुड़ी हो सकती हैं, जिन्हें व्यक्ति भूल भी चुका हो। उस हादसे का कोई अंश अवचेतन मन में बैठा रह जाता है। फोबिया का उपचार सायकोथैरेपी से किया जा सकता है। डर का सामना करने के लिये व्यक्ति तैयार हो जाता है।

     कभी-कभी जो होता नहीं है वह सुनाई देता है या दिखाई देता है। यह भ्रम नहीं होता मनोरोग होता है जिसका इलाज मनोचिकित्सक कर सकते हैं। इसके लिये झाड़-फूंक आदि में समय, शक्ति और धन ख़र्च करना बिलकुल बेकार है।

     एक अन्य रोग होता है 'ओबसैसिव कम्पलसिव डिसआर्डर', इसमें व्यक्ति एक ही काम को बार-बार करता है, फिर भी उसे तसल्ली नहीं होती। स्वच्छता के प्रति इतना सचेत रहेगा कि दस बार हाथ धोकर भी वहम रहेगा कि अभी उसके हाथ गंदे हैं। कोई भी काम जैसे ताला बन्द है कि नहीं, गैस बन्द है कि नहीं, दस बीस बार देखकर भी चैन ही नहीं पड़ता। कभी कोई विचार पीछा नहीं छोड़ता। विद्यार्थी एक ही पाठ दोहराते रह जातें हैं, आगे बढ़ ही नहीं पाते परीक्षा में भी लिखा हुआ बार-बार पढ़ते हैं, अक्सर पूरा प्रश्नपत्र हल नहीं कर पाते। इस रोग में डिप्रैशन के भी लक्षण होते हैं। रोगी की कार्य क्षमता घटती जाती है। इसका उपचार दवाइयों और व्यावाहरिक चिकित्सा से मनोचिकित्सक करते हैं। अधिकतर यह पूरी तरह ठीक हो जाता है।

     एक स्थिति ऐसी होती है जिसमें व्यक्ति तरह-तरह के शकों से घिरा रहता है। ये शक काल्पनिक होते हैं, इन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचने आदत पड़ जाती है। सारा ध्यान जासूसी में लगा रहेगा तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, ये लोग अपने साथी पर शक करते रहते हैं, कि उसका किसी और से संबध है। इस प्रकार के पैरानौइड व्यवहार से घर का माहौल बिगड़ता है। कभी व्यक्ति को लगेगा कि कोई उसकी हत्या करना चाहता है, या उसकी सम्पत्ति हड़पना चाहता है। यदि घर के लोग आश्वस्त हों कि शक बेबुनियाद हैं तो उसे विशेषज्ञ को ज़रूर दिखायें।

     कभी-कभी शारीरिक बीमारियों के कारण डिप्रैशन हो जाता है। कभी उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचने और उनकी चिन्ता करते रहने की आदत पड़ जाती है, सर में जरा सा दर्द हुआ तो कि लगेगा दिमाग़ में ट्यूमर है। इसको हायपोकौंड्रिया कहते हैं। इसका भी इलाज मनोवैज्ञानिक से कराना चाहिये।

     कुछ मनोरोग भोजन की आदतों से जुड़े होते हैं। कई लोग पतला होने के बावजूद भी अपना वज़न कम रखने की चिन्ता में घुलते रहते हैं। ऐनोरौक्सिया नरसोवा मे व्यक्ति खाना बेहद कम कर देता है, उसे भूख लगनी ही बन्द हो जाती है। बार-बार अपना वज़न लेता है। डिप्रैशन के लक्षण भी होते हैं। 

     बुलीमिया नरसोवा में भी पतला बने रहने की चिन्ता मनोविकार का रूप ले लती है। खाने के बाद अप्राकृतिक तरीकों से ये लोग उल्टी और दस्त करते हैं । ये मनोरोग कुपोषण की वजह से अन्य रोगों का कारण भी बनते हैं। अतः इनका इलाज कराना बहुत ज़रूरी है, अन्यथा ये घातक हो सकते हैं। बेहद कम खाना अनुचित है तो बेहद खाना भी ठीक नहीं है, कुछ लोग केवल खाने में सुख ढूँढते हैं। वज़न बढ़ जाता है, इसके लिये मनोवैज्ञानिक कुछ उपचारों का सुझाव देते हैं। अनिद्रा, टूटी-टूटी नींद आना या बहुत नींद आना भी अनदेखा नहीं करना चाहिये। ये लक्षण किसी मनोरोग का संकेत हो सकते हैं। बेचैनी, घबराहट यदि हद से ज़्यादा हो चाहें किसी कारण से हो या अकारण ही उसका इलाज करवाना आवश्यक है। इसके साथ डिप्रैशन भी अक्सर होता है।

     कभी-कभी व्यक्ति को हर चीज़ काली या सफ़ेद लगती है, या तो वह किसी को बेहद पसन्द करता है या घृणा करता है। कोई-कोई सिर्फ़ अपने से प्यार करता है, वह अक्सर स्वार्थी हो जाता है। ये दोष यदि बहुत बढ़ जायें तो इनका भी उपचार मनोवैज्ञानिक से कराना चाहिये, नहीं तो ये मनोरोगों का रूप ले सकते हैं।

     एक समग्र और संतुलित व्यक्तित्व के विकास में भी मनैज्ञानिक मदद कर सकते हैं। भावुकता व्यक्तित्व का गुण भी है और दोष भी, किसी कला में निखार लाने के लियें भावुक होना जरूरी है, परन्तु वही व्यक्ति अपने दफ्तर में बैठकर बात-बात पर भावुक होने लगे तो यह ठीक नहीं होगा। इसी तरह आत्मविश्वास होना अच्छा पर है परन्तु अति आत्मविश्वास होने से कठिनाइयाँ हो जाती हैं।

     मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है, यदि स्वयं आपको या आपके प्रियजनो को कभी व्यावाहरिक समस्या मालूम पढे तो अविलम्ब विशेषज्ञ से सलाह लें। जीवन में मधुरता लौट आयेगी।

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मंगलवार, 28 अगस्त 2012

कविता: आभास बीनू भटनागर

कविता: 


      आभास

     

      बीनू भटनागर
     
      सूखे सूखे होंट,
      बाट निहारती पलकें
      कुछ आभास,
      कोई आहट,
      गूँजा है कंही,
      कोई प्रेम गीत।
     
      मै खो गई,
      सपनों के झुरमट मे,
      वीणा की झंकार,
      दूर बजी बंसी,
      गरजे बादल,
      बिजुरी चमकी,
      तन दहका,
      मन महका,
      पायल खनकी,
      काजल  बिखरा,
      अहसास तुम्हारे आने का,
      पाने से ज़्यादा सुन्दर है।
     
      चितचोर छुपा है,
      दूर कंही,
      सपनों मे जिसको देखा था,
      अहसास नया,
      आभास नया,
      पर ना पाना चाहूँ उसको,
      बस,
      दूर खड़ी महसूस करूँ
      अपने मन के,
      मधुसूदन को।
     
binu.bhatnagar@gmail.com
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