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शनिवार, 1 जुलाई 2017

chinatan aur charha



चिंतन और चर्चा-
साईं, स्वरूपानंद और मैं
संजीव
*
स्वामी स्वरूपानंद द्वारा उठायी गयी साईं संबंधी आपत्ति मुझे बिलकुल ठीक प्रतीत होती है। एक सामान्य व्यक्ति के नाते मेरी जानकारी और चिंतन के आधार पर मेरा मत निम्न है:
१. सनातन: वह जिसका आदि अंत नहीं है अर्थात जो देश, काल, परिस्थिति का नियंत्रण-मार्गदर्शन करने के साथ-साथ खुद को भी चेतन होने के नाते परिवर्तित करता रहता है, जड़ नहीं होता इसीलिए सनातन धर्म में समय-समय पर देवी-देवता , पूजा-पद्धतियाँ, गुरु, स्वामी ही नहीं दार्शनिक विचार धाराएं और संप्रदाय भी पनपते और मान्य होते रहे हैं।
२. चित्रगुप्त अर्थात वह शक्ति जिसका चित्र गुप्त (अनुपलब्ध) है अर्थात नहीं है. चित्र बनाया जाता है आकार से, आकार काया (बॉडी) का होता है. स्पष्ट है कि चित्रगुप्त वह आदिशक्ति है जिसका आकार (शेप) नहीं है अर्थात जो निराकार है. आकार न होने से परिमाप (साइज़) भी नहीं हो सकती, जो किसी सीमा में नहीं बँधता वही असीम होता है और मापा नहीं जा सकता.आकार के बनने और मिटने के तिथि और स्थान, निर्माता तथा नाशक होते हैं. चित्रगुप्त निराकार अर्थात अनादि, अनंत, अक्षर, अजर, अमर, असीम, अजन्मा, अमरणा हैं. ये लक्षण परब्रम्ह के कहे गए हैं. चित्रगुप्त ही परब्रम्ह हैं. "चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां" उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं. इससे लिए चित्रगुप्त की कोई मूर्ति, कथा, कहानी, व्रत, उपवास, मंदिर आदि आदिकाल से ३०० वर्ष पूर्व तक नहीं बनाये गए जबकि उनके उपासक ही शासक-प्रशासक थे. जब-जिस रूप में किसी की पूजा हुई वह चित्रगुप्त जी की ही हुई. " कायास्थित: स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (परब्रम्ह) किसी काया में स्थित होता है तो उसे कायस्थ कहते हैं" तदनुसार सकल सृष्टि और उसका कण-कण कायस्थ है.
२. देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी अन्र्क पूज्य शक्तियाँ वर्णित हैं। आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को ओशो कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी ओशो हो अंतर यह है की मैं जानता हूँ कि मैं ओशो हूँ, तुम नहीं जानते। अतः साईं को कोई साईं भक्त भगवान माने और पूजे इसमें किसी सनातन धर्मी को आपत्ति नहीं हो सकती।
३. रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः, सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता- स्त्री देवता, सामान्य मनुष्य की तरह - मानवेतर, पशुरूपी-मनुष्यरूपी आदि।
४. बाली, शंबूक, बर्बरीक, अश्वत्थामा, दुर्योधन जैसे अन्य भी अनेक प्रसंग हैं किन्तु इनका साईं से कुछ लेना-देना नहीं है। इन पर अलग-अलग चर्चा हो सकती है। राम और कृष्ण का देवत्व इन पर निर्भर नहीं है।
५. बुद्ध और महावीर का सनातन धर्म से विरोध और नव पंथों की स्थापना लगभग समकालिक होते हुए भी बुद्ध को अवतार मानना और महावीर को अवतार न मानना अर्थात बौद्धों को सनातनधर्मी माना जाना और जैनियों को सनातन धर्मी न माना जाना भी साईं से जुड़ा विषय नहीं है और पृथक विवेचन चाहता है।
६. अवतारवाद के अनुसार देवी - देवता कारण विशेष से प्रगट होते हैं फिर अदृश्य हो जाते हैं, इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे नष्ट हो जाते हैं। वे किसी वाहन से नहीं आते - जाते, वे शक्तियाँ रूपांतरित या स्थानांतरित होकर भी पुनः प्रगट होती हैं, एक साथ अनेक स्थानों पर भी प्रगट हो सकती हैं। यह केवल सनातन धर्म नहीं इस्लाम, ईसाई आय अन्य धर्मों में भी वर्णित है। हरि अनंत हरि कथा अनंता, उनके रूप भी अनंत हैं, प्रभु एक हैं वे भक्त की भावनानुसार प्रगट होते हैं, इसीलिए एक ईश्वर के भी अनेक रूप हैं गोपाल, मधुसूदन, श्याम, कान्हा, मुरारी आदि। इनके मन्त्र, पूजन विधि, साहित्य, कथाएं, माहात्म्य भी अलग हैं पर इनमें अंतर्विरोध नहीं है। सत्यनारायण, शालिग्राम, नृसिंह और अन्य विष्णु के ही अवतार कहे गये हैं।
७. गौतमी, सरस्वती और ऐसे ही अनेक अन्य प्रकरण यही स्थापित करते हैं कि सर्व शक्तिमान होने के बाद भी देवता आम जनों से ऊपर विशेषधिकार प्राप्त नहीं हैं, जब वे देह धारण करते हैं तो उनसे भी सामान्य मनुष्यों की तरह गलतियाँ होती हैं और उन्हें भी इसका दंड भोगना होता है। 'to err is human' का सिद्धांत ही यहाँ बिम्बित है। कर्मफलवाद गीता में भी वर्णित है।
८. रामानंद, नानक, कबीर, चैतन्य, तुलसी, सूर, कबीर, नानक, मीरा या अन्य सूफी फकीर सभी अपने इष्ट के उपासक हैं। 'राम ते अधिक राम के दासा'… सनातन धर्मी किसी देव के भाकर से द्वेष नहीं करता। सिख का अस्तित्व ही सनातन की रक्षा के लिए है, उसे धर्म, पंथ, सम्प्रदाय कुछ भी कहें वह "ॐ" ओंकार का ही पूजक है। एक अकाल पुरुख परमब्रम्ह ही है। सनातन धर्मी गुरुद्वारों को पूजास्थली ही मानता है। गुरुओं ने भी राम,कृष्णादि को देवता माँन कर वंदना की है और उन पर साहित्य रचा है।
९. वाल्मीकि को रामभक्त और आदिकवि के नाते हर सनातनधर्मी पूज्य मानता है। कोई उनका मंदिर बनाकर पूजे तो किसी को क्या आपत्ति? कबीर, तुलसी, मीरा की मूर्तियाँ भी पूजा ग्रहों और मंदिरों में मिल जायेंगी।
१०. मेरी साईं के ईश्वरतत्व से नहीं साईं को अन्य धर्मावलम्बियों के मंदिरों, पूजाविधियों और मन्त्रों में घुसेड़े जाने से असहमति है। नमाज की आयत में, ग्रंथसाहब के सबद में, बाइबल के किसी अंश में साईं नाम रखकर देखें आपको उनकी प्रतिक्रिया मिल जाएगी। सनातन धर्मी ही सर्वाधिक सहिष्णु है इसलिए इतने दिनों तक झेलता रहा किन्तु कमशः साईं के नाम पर अन्य देवी-देवताओं के स्थानों पर बेजा कब्ज़ा तथा मूल स्थान पर अति व्यावसायिकता के कारण यह स्वर उठा है।
अंत में एक सत्य और स्वरूपानंद जी के प्रति उनके कांग्रेस मोह और दिग्विजय सिंग जैसे भ्रष्ट नेताओं के प्रति स्नेह भाव के कारण सनातनधर्मियों की बहुत श्रद्धा नहीं रही। मैं जबलपुर में रहते हुए भी आज तक उन तक नहीं गया किन्तु एक प्रसंग में असहमति से व्यक्ति हमेशा के लिए और पूरी तरह गलत नहीं होता। साई प्रसंग में स्वरूपानंद जी ने सनातनधर्मियों के मन में छिपे आक्रोश, क्षोभ और असंतोष को वाणी देकर उनका सम्मान पाया है। यह दायित्व साई भक्तों का है कि वे अपने स्थानों से अन्य देवी-देवताओं के नाम हटाकर उन्हें साई को इष्ट सादगी, सरलता और शुचितापरक कार्यपद्धति अपनाकर अन्यों का विश्वास जीतें। चढोत्री में आये धन का उपयोग स्थान को मूर्ति और मंदिर को स्वर्ण से मढ़ने के स्थान पर उन दरिद्रों के कल्याण के लिए हो जिनकी सेवा करने का साईं ने उपदेश दिया। कुछ मित्रों के बयान पढ़े हैं कि वे स्वरूपानंद जी के बीसियों वर्षों तक भक्त रहे पर साईं सम्बन्धी वक्तव्य से उनकी श्रद्धा नष्ट हो गयी। ये कैसा शिष्यत्व है जो दोहरी निष्ठा ही नहीं रखता गुरु की कोई बात समझ न आने पर गुरु से मार्गदर्शन नहीं लेता, सत्य नहीं समझता और उसकी बरसों की श्रद्धा पल में नष्ट हो जाती है?
सनातन धर्म में द्वैत को त्याज्य और अद्वैत को वरेण्य कहा गया है. जब आत्मा से गुरु को गुरु नहीं माँना जाता तो शिष्य की श्रद्धा भी कृत्रिम होती है जो पल में ही नष्ट हो जाती है.
अस्तु साईं प्रसंग में स्वरूपानंद जी द्वारा उठाई गयी आपत्ति से सहमत हूँ।
१-७-२०१४

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

प्रश्न-उत्तर


रोचक चर्चा:
गुड्डो दादी 
ताल मिले नदी के जल से 
नदी और सागर का मेल ताल क्यों ?
*
सलिल-वृष्टि हो ताल में, भरे बहे जब आप
नदी ग्रहण कर समुद तक, पहुँचे हो थिर-व्याप
लघु समुद्र तालाब है, महाताल है सिंधु
बिंदु कहें तालाब को, सागर को कह इंदु
***

शनिवार, 8 नवंबर 2014

charcha: shabd aur arth

चर्चा :

शब्द और अर्थ 

शब्द के साथ अर्थ जुड़ा होता है। यदि अन्य भाषा के शब्द का ऐसा अनुवाद हो जिससे अभीष्ट अर्थ ध्वनित न हो तो उसे छोड़ना चाहिए जबकि अभीष्ट अर्थ प्रगट होता है तो ग्रहण करना चाहिए ताकि उस शब्द का अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सके। 

'चलभाष' या 'चलित भाष' से गतिशीलता तथा भाषिक संपर्क अनुमानित होता है। इसका विकल्प 'चलवार्ता' भी हो सकता है। कोई व्यक्ति 'मोबाइल' शब्द न जानता हो तो भी उक्त शब्दों को सार्थक पायेगा। अतः, ये हिंदी के लिये उपयुक्त हैं। 

साइकिल का वास्तविक अर्थ चक्र होता है। चक्र का अर्थ भौतिकी, रसायन, युद्ध विज्ञान, यातायात यांत्रिकी में भिन्न होते हैं।  

अंग्रेजी में 'बाइसिकिल' शब्द है जिसे हम विरूपित कर हिंदी में 'साइकिल' वाहन के लिये प्रयोग करते हैं. यह प्रयोग वैसा ही है जैसे मास्टर साहब को' मास्साब' कहना। अंग्रेजी में भी बाइ = दो, साइकिल = चक्र भावार्थ दो चक्र का (वाहन), हिंदी में द्विचक्रवाहन। जो भाव व्यक्त करता शब्द अंग्रेजी में सही, वही भाव व्यक्त करता शब्द हिंदी में गलत कैसे हो सकता है? 

संकेतों के व्यापक ताने-बाने को नेट तथा इसके विविध देशों में व्याप्त होने के आधार पर 'इंटर' को जोड़कर 'इंटरनेट' शब्द बना। इंटरनेशनल = अंतर राष्ट्रीय सर्व स्वीकृत शब्द है। 'इंटर' के लिये 'अंतर' की स्वीकार्यता है (अंतर के अन्य अर्थ 'दूरी', फर्क, तथा 'मन' होने बाद भी)। ताने-बाने के लिये 'जाल' को जोड़कर अंतरजाल शब्द केवल अनुवाद नहीं है, वह वास्तविक अर्थ में भी उपयुक्त है।   

टेलीविज़न = दूरदर्शन, टेलीग्राम =दूरलेख, टेलीफोन = दूरभाष जैसे अनुवाद सही है पर इसी आधार पर टेलिपैथी में 'टेली' का भाषांतरण 'दूर'  नहीं किया जा सकता। 'पैथी' के लिये हिंदी में उपयुक्त शब्द न होने से एलोपैथी, होमियोपैथी जैसे शब्द यथावत प्रयोग होते हैं।  

दरअसल अंग्रेजी शब्द मस्तिष्क में बचपन से पैठ गया हो तो समानार्थी हिंदी शब्द उपयुक्त नहीं लगता। भाषा विज्ञान के जानकार शब्दों का निर्माण गहन चिंतन के बाद करते हैं।

सोमवार, 28 जुलाई 2014

चौपाल चर्चाः जाति और कायस्थ -्संजीव

चौपाल चर्चाः
अनुगूँजा सिन्हाः मैं आपके प्रति पूरे सम्मान के साथ आपको एक बात बताना चाहती हूँ कि मैं जाति में यकीन नही रखती हूँ और मैं कायस्थ नहीं हूँ।

अनुगून्जा जी! 
आपसे सविनय निवेदन है कि- 
'जात' क्रिया (जना/जाया=जन्म दिया, जाया=जगजननी का एक नाम) से आशय 'जन्मना' होता है, जन्म देने की क्रिया को 'जातक कर्म', जन्म लिये बच्चे को 'जातक', जन्म देनेवाली को 'जच्चा' कह्ते हैं. जन्मे बच्चे के गुण-अवगुण उसकी जाति निर्धारित करते हैं. बुद्ध की जातक कथाओं में विविध योनियों में जन्म लिये बुद्ध के ईश्वरत्व की चर्चा है. जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती है. जब कोई सज्जन दिखनेवाला व्यक्ति कुछ निम्न हर्कात कर दे तो बुंदेली में एक लोकोक्ति कही जाती है ' जात दिखा गया'. यहाँ भी जात का अर्थ उसकी असलियत या सच्चाई से है.सामान्यतः समान जाति का अर्थ समान गुणों, योग्यता या अभिरुचि से है.
आप ही नहीं हर जीव कायस्थ है. पुराणकार के अनुसार "कायास्थितः सः कायस्थः"
अर्थात वह (निराकार परम्ब्रम्ह) जब किसी काया का निर्माण कर अपने अन्शरूप (आत्मा) से उसमें स्थित होता है, तब कायस्थ कहा जाता है. व्यावहारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते-मानते हैं वे खुद को कायस्थ कहने लगे, शेष कायस्थ होते हुए भी खुद को अन्य जाति का कहते रहे. दुर्भाग्य से लंबे आपदा काल में कायस्थ भी इस सच को भूल गये या आचरण में नहीं ला सके. कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान, आत्मा सो परमात्मा आदि इसी सत्य की घोषणा करते हैं.
जातिवाद का वास्तविक अर्थ अपने गुणों-ग्यान आदि अन्यों को सिखाना है ताकि वह भी समान योग्यता या जाति का हो सके. समय और परिस्थितियों ने शब्दों के अर्थ भुला दिये, अर्थ का अनर्थ अज्ञानता के दौर में हुआ. अब ज्ञान सुलभ है, हम शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करें तो समरसता स्थापित करने में सहायक होंगे। दुर्भाग्य से जन प्रतिनिधि इसमें बाधक और दलीय स्वार्थों के साधक है. 

शुक्रवार, 30 मई 2014

chaupaal charcha: sanjiv


चौपाल-चर्चा: 

भारत में स्वान में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?

१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में। 

२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नीपीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद। 

३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।

४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है। 

५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल। 

६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य. 

७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने  संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी? 

कहिए, क्या राय है? 

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

charcha: prem geet -salil

चर्चा:
प्रेम गीत
सलिल 
*
स्थापना और प्रतिस्थापना के मध्य संघात, संघर्ष, स्वीकार्यता, सहकार और सृजन सृष्टि विकास का मूल है। विज्ञान बिग बैंग थ्योरी से उत्पन्न ध्वनि तरंग जनित ऊर्जा और पदार्थ की सापेक्षिक विविधता का अध्ययन करता है तो दर्शन और साहित्य अनाहद नाद की तरंगों से उपजे अग्नि और सोम के चांचल्य को जीवन-मृत्यु का कारक कहता है। प्राणमय सृष्टि की गतिशीलता ही जीवन का लक्षण है। यह गतिशीलता वेदना, करुणा, सौन्दर्यानुभूति, हर्ष और श्रृंगार के पञ्चतात्विक वृत्तीय सोपानों पर जीवनयात्रा को मूर्तित करती है। 
 
'जीवन अनुभूतियों की संसृति है। मानव का अपने परिवेश से संपर्क किसी न किसी सुखात्मक या दुखात्मक अनुभूति को जन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मूल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनती चलती है। विकास की दृष्टि से संवेदन चिंतन के अग्रज रहे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मक वृत्ति सक्रिय हो जाती है।'-महादेवी वर्मा, संधिनी, पृष्ठ ११

इस रागात्मक वृत्ति की प्रतीति, अनुभूति और अभिव्यक्ति की प्रेम गीतों का उत्स है। गीत में भावना, कल्पना और सांगीतिकता की त्रिवेणी का प्रवाह स्वयमेव होता है। गीतात्मकता जल प्रवाह, समीरण और चहचहाहट में भी विद्यमान है। मानव समाज की सार्वजनीन और सरकालिक अनुभूतियों को कारलायल ने 'म्यूजिकल थॉट' कहा है. अनुभूतियों के अभिव्यमति कि मौखिक परंपरा से नि:सृत लोक गीत और वैदिक छान्दस पाठ कहने-सुनने की प्रक्रिया से कंठ से कंठ तक गतिमान और प्राणवंत होता रहा। आदिम मनुष्य के कंठ से नि:सृत नाद ब्रम्ह व्यष्टि और समष्टि के मध्य प्रवाहमान होकर लोकगीत और गीत परंपरा का जनक बना। इस जीवन संगीत के बिना संसार असार, लयहीन और बेतुक प्रतीत होने लगता है। अतः जीवन में तुक, लय और सार का संधान ही गीत रचना है। काव्य और गद्य में क्रमशः क्यों, कब, कैसे की चिंतनप्रधानता है जबकि गीत में अनुभूति और भावना की रागात्मकता मुख्य है। गीत को अगीत, प्रगीत, नवगीत कुछ भी क्यों न कहें या गीत की मृत्यु की घोषणा ही क्यों न कर दें गीत राग के कारण मरता नहीं, विरह और शोक में भी जी जाता है। इस राग के बिना तो विराग भी सम्भव नहीं होता।

आम भाषा में राग को प्रेम कहा जाता है और राग-प्रधान गीतों को प्रेम गीत। 
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

रविवार, 16 मई 2010

एक गपशप / चैट चर्चा:



















एक गपशप / चैट चर्चा:

शायर अशोक : 
नमस्ते सर जी , फुर्सत के पल, ब्लॉग पे
मेरी नई रचना पढियेगा : http://shayarashok.blogspot.com/
"शैतानों की हुकूमत में  हर रोज़ इंसान मरता है
भ्रष्टाचार की दलदल में माँ  का  दम   घुटता है"



मैं: avashya...
ShaYar: ji shukriya
मैं: divyanarmada.blogspot.com par nayee rachna padhiye, buzz par bhee hai...

 6:19 PM बजे रविवार को प्रेषित
ShaYar: aapki rachna ke hum to diwaane  , sir ji.....buzz per khaasker aapko hi  padhne jaate hain.....
मैं: buzz par kyon? divyanarmada par padhariye...follow kariye...comment kariye...likhye bhee...

ShaYar: ji bilkul
abhi hi follow kerta hoon
 6:23 PM बजे रविवार को प्रेषित
मैं: aapmen likhne kee kshamata hai par rachna ko man men der tak pkne den kachcha he n chhap den.. kabhee-kabhee lagta hai ki aap dobara vahee baat kahenge to behtar tareeke se kahenge. aisa hm sabke sath hota hai.

ShaYar: ji
मैं: kabhee-kabhee main bhee aisee hiee bhool kar jata hoon fir pachhtata hoon.
main apne baad kee peedhee ke rachnakaron men aapmen sambhavna dekhta hoon.
ShaYar: ji
6:26 PM बजे रविवार को प्रेषित
मैं: sahityashilpee par 'kavya ka rachnashastra' lekhmala dekhiye. use poora padhiye aur fir 'urdoo sahitya men alnkar' sheershak se har alankar ke udaaharan khoj kar lekh mala divya narmada ke liye likhiye.mehnat ka kaam hai par aap men salaahiyat hai...kar sakte hain.
 6:28 PM बजे रविवार को प्रेषित
ShaYar: ji sir ji.........namaste.

namaskar
**********.  



बुधवार, 28 अप्रैल 2010

एक चैट चर्चा: चर्चाकार : संजय भास्कर-संजीव 'सलिल'

एक चैट चर्चा:
चर्चाकार : संजय भास्कर-संजीव 'सलिल'

Sanjay: ram ram ji
 5:52 PM बजे बुधवार को प्रेषित
Sanjay: NAMASKAR JI
मैं: nmn nayee rachnayen dekheen kya?
Sanjay: RAAT KO FURSAT SE DEKHUNGA..............
AAP YE DEKHEN CHOTI SI RACHNAAA
जारी है अभी
सिलसिला
सरहदों पर
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/04/blog-post_28.html
 6:22 PM बजे बुधवार को प्रेषित


मैं: हद सर करती है हमें
हद को कैसे सर करें
कोई यह बतलाये?
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


 6:26 PM बजे बुधवार को प्रेषित
मैं: रमे रमा में सब मिले, राम न चाहे कोई
'सलिल' राम की चाह में काम बिसर गयो मोई


Sanjay: ARE WAHHHHHHHH
 6:29 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..

Sanjay: AAP TO GURU HO
 6:33 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..

 6:36 PM बजे बुधवार को प्रेषित
Sanjay: nice


मैं: गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..

Sanjay: KYA BAAT HAI LAJWAAB
 6:39 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब..

Sanjay: BHASKAR TO DOBEGA ही

मैं: डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज करेंगे शोर..


Sanjay: EK SE BADH KAR EK
 6:41 PM बजे बुधवार को प्रेषित

मैं: एक-एक से बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत..


Sanjay: ......... बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

मैं: कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछा प्रश्न यह, उत्तर पाया मौन..
 6:46 PM बजे बुधवार को प्रेषित
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