कृति चर्चा:
गीत का विराटी चरण : ओ गीत के गरुड़
चर्चाकार : संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति विवरण : ओ गीत के गरुण, गीत संग्रह, चंद्रसेन विराट, आकार डिमाई,
आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १६०, मूल्य २५० रु., समान्तर प्रकाशन, तराना,
उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत )
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''मूलतः छंद में ही लिखनेवाली उन सभी सृजनधर्मा सामवेदी सामगान के संस्कार
ग्रहण कर चुकीं गीत लेखनियों को जो मात्रिक एवं वर्णिक छंदों में भाषा की
परिनिष्ठता, शुद्ध लय एवं संगीतिकता को साधते हुए, रसदशा में रमते हुए
अधुनातन मनुष्य के मन के लालित्य एवं राग का रक्षण करते हुए आज भी रचनारत
हैं.'' ये समर्पण पंक्तियाँ विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार
गीत, गजल, मुक्तक, दोहा आदि विधाओं के निपुण-ख्यात कवि अभियंता चंद्रसेन
विराट की ३२ वीं काव्यकृति / चौदहवें गीत संग्रह 'ओ गीत के गरुड़' से उद्धृत
हैं. उक्त पंक्तियाँ और कृति-शीर्षक कृतिकार पर भी शत-प्रतिशत खरी उतरती
हैं.
विराट
जी सनातन सामवेदी सामगानी सम्प्रदाय के सशक्ततम सामयिक हस्ताक्षरों में
सम्मिलित हैं. छंद की वर्निंक तथा मात्रिक दोनों पद्धतियों में समान सहजता,
सरलता, सरसता। मौलिकता तथा दक्षता के प्रणयन कर्म में समर्थ होने पर भी
उन्हें मात्रिक छंद अधिक भाते हैं. समर्पित उपासक की तरह एकाग्रचित्त होकर
विराट जी छंद एवं गीत के प्रति अपनी निष्ठा एवं पक्षधरता, विश्व वाणी हिंदी
के भाषिक-व्याकरणिक-पिन्गलीय संस्कारों व शुचिता के प्रति आग्रही ही नहीं
ध्वजवाहक भी रहे हैं. निस्संदेह गीतकार, गीतों के राजकुमार, गीत सम्राट
आदि सोपानों से होते हुए आज वे गीतर्षि कहलाने के हकदार हैं.
'ओ
गीत के गरुड़' की गीति रचनाएँ नव-गीतकारों के लिए गीत-शास्त्र की संहिता की
तरह पठनीय-माननीय-संग्रहनीय तथा स्मरणीय है. विषय-वैविध्य, छंद वैविध्य,
बिम्बों का अछूतापन, प्रतीकों का टटकापन, अलंकारों की लावण्यता, भावों की
सरसता, लय की सहजता, भाषा की प्रकृति, शब्द-चयन की सजगता, शब्द-शक्तियों
का समीचीन प्रयोग पंक्ति-पंक्ति को सारगर्भित और पठनीय बनाता है. रस, भाव
और अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर विराट की काव्य-पंक्तियाँ यत्र-तत्र
ऋचाओं की तरह आम काव्य-प्रेमी के कंठों में रमने योग्य हैं. छंद का जयघोष
विराट की हर कृति की तरह यहाँ भी है. गीत की मृत्यु की घ्शाना करने तथाकथित
प्रगतिवादियों द्वारा महाप्राण निराला के नाम की दुहाई देने पर वे करार
उत्तर देते हैं- 'मुक्त छंद दे गए निराला / छंद मुक्त तो नहीं किया था' :
विराट का पूरी तन्मयता से गीत की जय बोलते हैं :
हम इसी छंद की जय बोलेंगे / आज आनंद की जय बोलेंगे
गीत विराट की श्वासों का स्पंदन है:
गीत निषेधित जहाँ वहीं पर / स्थापित कर जाने का मन है
गीत-कंठ में नए आठवें / स्वर को भर जाने का मन है
विराट
के गीतों में अलंकार वैविध्य दीपावली क दीपों की तरह रमणीय है. वे
अलंकारों की प्रदर्शनी नहीं लगाते, उपवन में खिले जूही-मोगरा-चंपा-चमेली
की तरह अलंकारों से गीत को सुवासित करते हैं. अनुप्रास, उपमा, विरोधाभास,
श्लेष, यमक, रूपक, उल्लेख, स्मरण, दृष्टान्त, व्यंगोक्ति, लोकोक्ति आदि की
मोहिनी छटा यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं.
ओ कमरे के कैदी कवि मन', समय सधे तो सब सध जाता / यही समय की सार्थकता
है, कटे शीश के श्वेत कबूतर, मैं ही हूँ वह आम आदमी, जो उजियारे में था
थोपा, प्रजाजनों के दुःख-दर्दों से, प्रेरक अनल प्रताप नहीं है,
दैहिक-दैविक संतापों से,कैकेयी सी कोप भवन में, अनिर्वाच्य आनंद बरसता आदि
में छेकानुप्रास-वृत्यानुप्रास गलबहियां डाले मिलते हैं. अन्त्यानुप्रास तो
गीतों का अनिवार्य तत्व ही है. अनिप्रास विराट जी को सर्वाधिक प्रिय है.
अनुप्रास के विविध रूप नर्मदा-तरंगों की तरह अठखेलियाँ करते हैं- समय सधे
तो सब सध जाता (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), प्रेम नहीं वह प्रेम की जिसको
/ प्राप्त प्रेम-प्रतिसाद नहीं हो (वृत्यानुप्रास, लाटानुप्रास), कैकेयी
सी कोप में (छेकानुप्रास, उपमा), बारह मासों क्यों आँसू का सावन मास रहा
करती है (अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास), अब भी भूल सुधर सकती है / वापिस घर
जाने का मन है (छेकानुप्रास, अन्त्यानुप्रास), न हीन मोल कर पता इसका /
बिना मोल जिसको मिलता है (छेकानुप्रास, लाटानुप्रास, अन्त्यानुप्रास)
इत्यादि.
भाव-लय-रस
की त्रिवेणी बहते हुए विरोधाभास अलंकार का यह उदाहरण गीतकार की विराट
सामर्थ्य की बानगी मात्र है- है कौन रसायन घुला ज़िन्दगी में / मीठी होकर
अमचूरी लगती है. विरोधाभास की कुछ और भंगिमाएँ देखिये- अल्प आयु का सार्थक
जीवन / कम होकर भी वह ज्यादा है, अल्प अवधी का दिया मौत है / इतना भी
अवकाश न कम है, रोते में अच्छी लगती हो, भरी-पूरी युवती हो भोली / छुई-मुई
बच्ची लगती हो आदि.
विराट
का चिंतक मन सिर्फ सौन्दर्य नहीं विसंगतियां और विडंबनाओं के प्रति भी
संवेदनशील है. बकौल ग़ालिब आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना, विराट के
अनुसार 'आदमी ज्यादा जगत में / खेद है इंसान कम है. ग़ालिब से विराट के
मध्य में भी इस अप्रिय सत्यानुभूति का न बदलना विचारणीय ही नहीं चिंतनीय
भी है.
विराट
जी का गीतकार भद्रजन की शिष्ट-शालीन भाषा में आम आदमी के अंतर्मन की
व्यथा-कथा कहता नहीं थकता- भीड़ में दुर्जन अधिक हैं / भद्रजन श्रीमान कम
हैं, वज्र न निर्णय को मानेगा / जो करना है वही करेगा (श्लेष), पजतंत्र के
दुःख-दर्दों से / कोई तानाशाह व्यथित है, चार पेग भीतर पहुँचे तो / हम
शेरों के शेर हो गए, भर पाए आजाद हो गए / दूर सभी अवसाद हो गए (व्यंग्य),
पीड़ा घनी हुई है / मुट्ठी तनी हुई है (आक्रोश), तुम देखना गरीबी / बाज़ार
लूट लेगी (चेतावनी), आतंक में रहेंगे / कितने बरस सहेंगे (विवशता), चोर-चोर
क्या / साहू-साहू अब मौसेरे भाई है (कटूक्ति), इअ देश का गरुड़ अब / ऊंची
उड़ान पर है ( शेष,आशावादिता) आदि-आदि.
श्रृंगार
जीवन का उत्स है जिसकी आराधना हर गीतकार करता है. विराट जी मांसल सौन्दर्य
के उपासक नहीं हैं, वे आत्मिक सौदर्य के निर्मल सरोवर में शतदल की तरह
खिलते श्रृंगार की शोभा को निरखते-परखते-सराहते आत्मानंद से परमात्मानंद तक
की यात्रा कई-कई बार करते हुए सत-शिव-सुन्दर को सृजन-पथ का पाथेय बनाते
हैं.
तू ही रदीफ़ इसकी / तू ही तो काफिया है
तुझसे गजल गजल है / वरना तो मर्सिया है
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साहित्य का चरित है / सुन्दर स्वयं वरित है
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लास्य-लगाव नहीं बदलेगा / मूल स्वभाव नहीं बदलेगा
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मृदु वर्ण का समन्वय / आनंद आर्य अन्वय
है चित्त चारु चिन्मय / स्थिति है तुरीत तन्मय
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इस संग्रह में विराट जी ने मुहावरों के साथ क्रीडा का सुख पाया-बाँटा है- भर पाए आजाद हो गए, तुम मिट्टी में मिले, पीढ़ी के हित खाद हो गए, घर की देहरी छू लेने को, तबियत हरी-हरी है आदि प्रयोग पाठक को अर्थ में अर्थ की प्रतीति कराते हैं.
राष्ट्रीय
भावधारा के गीत मेरे देश सजा दे मुझको, हिमालय बुला रहा है, राष्ट्र की
भाषा जिंदाबाद, बने राष्ट्र लिपि देवनागरी, वन्दे मातरम, हिंदी एक राष्ट्र
भाषा, हिंदी की जय हो आदि पूर्व संग्रहों की अपेक्षा अधिक मुखरता-प्रखरता
से इस संग्रह को समृद्ध कर रहे हैं.
अनंत
विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, अंतर्विरोधों तथा पाखंडों को
देखने-सहने और मिटने की कामना करते विराट जी की जिजीविषा तनिक
श्रांत-क्लांत, कुंठित नहीं होती। वह आशा के नए सूरज की उपासना कर विअज्य
पथ को अभिषिक्त करती है- कल की चिंता का चलन बंद करो / आज आनंद है आनंद करो
कहते हुए भी चार्वाक दर्शन सा पक्ष धर नहीं होतेैं. चलना निरंतर
जिन्दगी/ रुकना यहाँ मौत है/ चलते रहो -चलते रहो.कहकर वे 'चरवैती ' के
वैदिक आदर्श की जय बोलते है. ' रे मनन कर परिवाद तू / जो कुछ मिला पर्याप्त
है ' कहने के बाद भी हाथ पर हाथ धरकर बैठा उचित नहीं मानते. विराट का जीवन
दर्शन निराशा पर आशा की ध्वजा फहराता है- 'मन ! यंत्रों का दास नहीं हो/
कुंठा का आवास नहीं हो/ रह स्वतंत्र संज्ञा तू सुख की/ दुःख का द्वन्द समास
नहीं हो.' '
दुविधा न रही हो, निर्णय / बस एक मात्र रण है/ मैं शक्ति भर लडूंगा/ मेरा
अखंड प्रण है / संघर्ष कर रहा हूँ/ संघर्ष ही करूँगा / विश्वाश सफलता को
मैं एक दिन वरूँगा "-विराट के इस संघर्ष में जीवन की धूप - छांव का हर रंग
संतुलित है किन्तु निराशा पर आशा का स्वर मुखेर हुआ है. वैदिक -पौराणिक
-सामायिक मिथकों/ प्रतीकों के माध्यम से विराट जीवट और जिजीविषा की जय बोल
सकते है.
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