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शनिवार, 9 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी १४ ब्रह्मजीत गौतम

साहित्य त्रिवेणी १४ 
छंद-बह्‌र क्या एक हैं?
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम 
*
परिचय: जन्म: २८.१०.१९४०, ग्राम गढ़ी नन्दू, जिला मथुरा (अब हाथरस), कबीर काव्य में प्रतीक विधान पर शोध, से. नि. प्राध्यापक हिंदी, प्रकाशन: कबीर काव्य में प्रतीक विधान शोधग्रंथ, कबीर प्रतीक कोष, अंजुरी काव्य संग्रह, जनक छंद: एक शोधपरक विवेचन, वक्त के मंज़र (गजल संग्रह), जनक छंद की साधना, दोहा-मुक्तक माल (मुक्तक संग्रह), दृष्टिकोण समीक्षा संग्रह। उपलब्धि: तलस्पर्शी लेखन हेतु प्रतिष्ठित, संपर्क: डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, युक्का २०६, पैरामाउण्ट सिंफनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद २०१०१६, चलभाष: ९७६०००७८३८, ९४२५१०२१५४, ईमेल: bjgautam2007@gmail.com 
संस्कृत की 'छद्' धातु में 'असुन्' प्रत्यय लगाने से ‘छंद’ शब्द की सिद्धि होती है, जिसका अर्थ है: प्रसन्न, आच्छादन या बंधन करने वाली वस्तु। वस्तुतः कविता में हमारे भाव और विचार वर्ण, मात्रा, यति, गति, चरण, गण आदि की एक निश्चित व्यवस्था में बँधे रहते हैं, अतः ऐसे संघटन को 'छंद' का नाम दिया गया है। हिंदी कविता प्रारंभ से ही छंदोबद्ध रही है, जबकि उर्दू शाइरी बह्र-बद्ध है। सहज ही प्रश्न उठता है कि 'छंद' और 'बह्र' दोनों शब्द समानार्थी हैं या इनमें कुछ अंतर है? निस्संदेह दोनों का कोशगत अर्थ एक ही है, दोनों का मूल आधार भी लय है, किंतु हिंदी तथा उर्दू-अरबी-फारसी आदि भाषाओं की प्रकृति, व्याकरणगत संरचना तथा वर्णों और मात्राओं की गणना-पद्धति में यत्किंचित् भेद होने से 'छंद' और 'बह्र' में भी भेद होना स्वाभाविक है| वस्तुत: इस गूढ़ता को समझना ही इस लेख का मुख्य उद्देश्य है। छंद दो प्रकार के हैं: मात्रिक तथा वर्णिक। मात्रिक छंदों की रचना मात्राओं की गणना पर तथा वर्णिक छंदों की रचना वर्णों की गणना पर आधारित होती है। मात्रिक छंदों में प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है, वर्ण कम या अधिक हो सकते हैं किंतु वर्णिक छंदों में न केवल वर्णों की संख्या निश्चित रहती है, अपितु उनका लघ-गुरु क्रम भी तय रहता है। इसके विपरीत, बह्रों की रचना केवल वर्णों के लघु-गुरु क्रम से बने हुए रुक्नों (गणों) पर आधारित होती है। इस प्रकार बह्रें वर्णिक छंदों के अधिक निकट होती हैं जो बह्रें मात्रिक छंदों से मेल खाती हैं, उन्हें भी रुक्नों की सहायता से वर्णिक रूप दे दिया गया है। 
गण: 
छंदों में प्रयुक्त तीन वर्णों के लघु-गुरु क्रम-युक्त समूह को ‘गण’ कहते हैं, जो संख्या में आठ हैं। ‘यमाताराजभानसलगा’ सूत्र के अनुसार इनके नाम और लक्षण निम्नानुसार है: १. यगण आदि लघु ISS भवानी, २. मगण तीनों गुरु SSS मेधावी, ३. तगण अंत्य लघु SSI नीरोग, ४. रगण मध्य लघु SIS भारती, ५. जगण मध्य गुरु ISI गणेश, ६. भगण आदि गुरु SII राघव, ७. नगण तीनों लघु III कमल
८. सगण अंत्य गुरु IIS कमला। 
रुक्न या अरकान: 
बह्रों में प्रयुक्त वर्णों के लघु-गुरु क्रम को ‘रुक्न’(बहुवचन अरकान) कहते हैं। मुख्य अरकान कुल सात हैं, किंतु इनमें जिहाफ़ (काट-छाँट) देकर दो मात्राओं से लेकर सात मात्राओं तक के अन्य अनेक रुक्न बनाये गए हैं। इन सब रुक्नों की संख्या लगभग पचास है। मुख्य सात रुक्नों के नाम और उनके वर्णिक लघु-गुरु क्रम की जानकारी निम्नानुसार ल और गा के रूप में दर्शायी गयी है: १. फ़ऊलुन लगागा ISS नगीना, २. फ़ाइलुन गालगा SIS आदमी, ३. मुस्तफ़्इलुन गागालगा SSIS जादूगरी, ४. मफ़ाईलुन लगागागा ISSS अदाकारी, ५. फ़ाइलातुन गालगागा SISS साफ़गोई, ६. मुतफ़ाइलुन ललगालगा IISIS अभिसारिका, ७. मफ़्ऊलात गागागाल SSSI वीणापाणि। 
अब हम उन मूल बिंदुओं पर प्रकाश डालेंगे, जिनके कारण छंद और बह्र में अंतर जैसा प्रतीत होता है। निकटस्थ दो लघु = एक गुरु।  हिन्दी व्याकरण के अनुसार अ, इ, उ तथा ऋ, ये चार लघु स्वर हैं जिनमें एक-एक मात्रा होती है।  ये जिस व्यंजन पर लगते हैं, वह भी लघु अर्थात् एक मात्रावाला माना जाता है इसी प्रकार आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, तथा औ दीर्घ स्वर हैं, जिनमें दो मात्राएँ होती हैं। ये जिस व्यंजन पर लगते हैं, वह भी गुरु अर्थात् दो मात्राओंवाला होता है।  अनुस्वार तथा विसर्गयुक्त अक्षर भी गुरु कहे जाते हैं। छंदों में हर अक्षर की स्वतंत्र सत्ता होती है, किंतु बह्र में अनिवार्य लघु को छोड़कर दो निकटस्थ लघु वर्णों को एक गुरु के बराबर मान लिया जाता है। जैसे, ‘गगन’ शब्द हिंदी के वर्णिक छंद में III अर्थात् नगण के अंतर्गत आता है, जबकि बह्र में उसे IS अर्थात् 'फ़अल' रुक्न कहा जाता है| एक शे’र के माध्यम से इसे और अच्छी तरह समझ सकते हैं –महल का / सफ़र छो / ड़ कर आ / ज कल ( I S S / I S S / I S S / I S ) = १८ मात्राएँ ग़ज़ल कह / रही है / कुटी की / कथा ( I S S / I S S / I S S / I S ) = १८ मात्राएँ,  -स्वरचित
इस शे’र के अरकान 'फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल' हैं तथा लय पूरी तरह हिंदी के वर्णिक छंद ‘भुजंगी’ (तीन यगण + लघु गुरु) एवं मात्रिक छंद ‘शक्ति’ से मिलती है, जिसमें प्रति चरण पहली, छठी, ग्यारहवीं तथा सोलहवीं मात्रा को अनिवार्यत: लघु रखते हुए कुल अठारह मात्राएँ होती हैं। छंद में जो यगण (ISS) है, वही बह्र में 'फ़ऊलुन' है। उक्त शे’र के शब्दों में हल, फ़र, कर, कल तथा ज़ल को एक गुरु-तुल्य मानकर 'फ़ऊलुन' रुक्न की सिद्धि की गयी है। 
मात्रा-पातन: 
हिंदी में मात्रिक और वर्णिक दोनों प्रकारके छंद पाये जाते हैं।हिंदी भाषा में यह बंधन या विशेषता है कि उसमें जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है और उसीके अनुसार शब्द या अक्षर की मात्रा निश्चित होती है| उर्दू की तरह हिंदी  में किसी भी अक्षर की मात्रा गिराने या बढाने की छूट नहीं है। यदि ऐसा किया जाता है, तो वह छंद अशुद्ध माना जाता है| उदाहरण के लिए, किसी छंद में यदि ‘कोई’ शब्द का प्रयोग होता है तो उसमें SS के क्रम से चार मात्राएँ होंगीं जबकि बह्‌र में उसकी माँग के अनुसार इसी शब्द का उच्चारण कोइ (SI), कुई (IS) या कुइ (II) भी हो सकता है और तदनुसार ही उसका मात्रा-भार निश्चित होगा। निष्कर्ष यह है कि छंदों में अक्षर के लिखित रूप के अनुसार तथा बह्‌र में उसके उच्चरित रूप के अनुसार मात्राएँ तय होती हैं। जैसे:
कोई तो बा / त है जो सुब् / ह से ही (I S S S / I S S S / I S S)
नयन उनके / अँगारे हो / रहे हैं (I S S S / I S S S / I S S)      -स्वरचित
यह शे’र 'मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन' की बह्र में है, जो हिन्दी के मात्रिक छंद ‘सुमेरु’ से पूर्णत: मिलती है| सुमेरु में प्रति चरण १२-७ या १०-९ के क्रम से १९ मात्राएँ होती हैं जिसमें पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु होनी चाहिए| उक्त शे’र के प्रथम मिसरे को बह्र में लाने के लिए ‘कोई’ शब्द में ‘को’ (S) की दीर्घ मात्रा गिराकर उसे हृस्व (I) उच्चरित किया गया है। 
अर्धाक्षर: छंदों में संयुक्त व्यंजन में प्रयुक्त आधे अक्षर की कोई मात्रा नहीं गिनी जाती। उसकी भूमिका केवल इतनी है कि यदि उसके पूर्व का वर्ण लघु है और उसके उच्चारण में बल पड़ रहा है तो लघु होने पर भी उसे गुरु माना जाता है। जैसे सत्य, दग्ध, वज्र आदि में स, द और व गुरु माने जायेंगे और इनमें दो मात्राएँ गिनी जायेंगी। अपवाद स्वरूप कुम्हार, मल्हार, तुम्हारा जैसे शब्दों के कु, म और तु में एक ही मात्रा रहेगी, क्योंकि इनके उच्चारण में बल नहीं पड़ता| इसके विपरीत, बह्र में आधे अक्षर को भी आवश्यकतानुसार पूर्णवत मानकर उसकी एक मात्रा गिन ली जाती है| जैसे रास्ता, आस्था, ख़ात्मा, आत्मा, धार्मिक, आर्थिक जैसे शब्द छंद में प्रयुक्त होने पर SS के वज़्न मे आयेंगे किंतु बह्‌र में SIS के वज़्न में भी हो सकते हैं।  जैसे:
छंद: अर्थ दोस्ती का किसीको हम बतायें किस तरह ( S I S S S I S S S I S S S I S )
बह्‌र: दोस्ती का अर्थ हम उसको बतायें किस तरह ( S I S S S I S S S I S S S I S )  -स्वरचित
‘गीतिका’ छंद की इस पहली पंक्ति में (जिसकी बह्‌र ‘फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन’ है), ‘दोस्ती’ शब्द को S S के वज़्न में बाँधा गया है, जबकि बह्र वाली पंक्ति में S I S के वज़्न में। फाइलुन का रुक्न पूरा करने के लिए ‘दोस्ती’ का उच्चारण ‘दोसती’ जैसा किया गया है। यह पद्धति बह्र में तो ठीक है, किन्तु छंद में नहीं।  इसी प्रकार आचार्य भगवत दुबे के एक दोहे की यह पंक्ति देखिये – 'ईश्वर के प्रति आस्था, बढ़ जाती है और'।  इसमें ‘आस्था’ शब्द को बह्‌र की तर्ज़ पर फाइलुन अर्थात् S I S के वज़्न में बाँधा गया है।  मूलत: इस चरण में १३ के स्थान पर १२ मात्राएँ ही रह गयी हैं, जिससे दोहा अशुद्ध होगया है| डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ की दोहा-पंक्ति ‘अमराई की आत्मा, झेल रही संताप’ में ‘आत्मा’ की भी यही स्थिति है। 
स्वर संधि या अलिफ़ वस्ल: जब किसी स्वर का अपने सामने के किसी अन्य स्वर से मेल होता है, तब उसे स्वर-संधि कहते हैं।  उर्दू में इसे अलिफ़-वस्ल कहा जाता है। हिन्दी व्याकरण में ऐसे शब्दों के मिलन की एक निश्चित वैधानिक प्रक्रिया है।  जैसे: राम+अवतार = रामावतार, सर्व+ईश्वर = सर्वेश्वर, पर+उपकार = परोपकार। अरबी, फारसी, उर्दू में ये शब्द लिखित रूप में तो ‘राम अवतार’, ‘सर्व ईश्वर’, ‘पर उपकार’ ही रहेंगे, किंतु उच्चारण में क्रमश: रामवतार, सर्वीश्वर और परुपकार हो जायेंगे| उदाहरण के लिए एक मिसरा देखिये: 
हम उठ गए तो तेरी अंजुमन का क्या होगा – आलोक श्रीवास्तव
यह मिसरा ‘मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन’ (I S I S I I S S I S I S S S) की बह्‌र में है, जिसमें ‘हम उठ गये’ का उच्चारण ‘हमुठ गये’ जैसा करके 'मफ़ाइलुन' रुक्न में बाँधा गया है।  इसी प्रकार मिर्ज़ा ग़ालिब का मशहूर मिसरा ‘आख़िर इस दर्द की दवा क्या है’ बह्र में लाने के लिए ‘आख़िरिस दर्द की दवा क्या है’ पढ़ा जाता है। उल्लेख्य है कि छंद में न तो इस प्रकार की संधियाँ मान्य हैं और न उच्चारण। 
उचित मात्रा-विधान: जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मात्रिक छंदों के प्रत्येक चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है।  निर्दोष लय लाने के लिए उन मात्राओं में लघु-गुरु का उचित क्रम रखना भी आवश्यक होता है, जैसे त्रिकल के बाद त्रिकल या द्विकल के बाद द्विकल। कई बार हिंदी के छंदकार मात्राओं की संख्या तो पूरी कर देते हैं, किन्तु यह क्रम सही नहीं रख पाते| उदाहरणार्थ, तीन मात्राओं के लिए लघु-गुरु या गुरु-लघु का कोई भी क्रम उन्हें मान्य होता है। छंदशास्त्र में भी ऐसे प्रयोगों पर कोई प्रतिबंध नहीं है किंतु बह्र में इस प्रकार की छूट लेना वर्जित है| इससे बह्र ख़ारिज़ हो जाती है। देखिये:
ज़मीं तपती हुई थी और अपने पाँव नंगे थे / हुई है जेठ के दोपहर से तक़रार पहले भी
श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की ये पंक्तियाँ मफ़ाईलुन x ४ की बह्‌र में हैं, जो हिंदी के विधाता छंद पर आधारित है।  विधाता के प्रत्येक चरण में कुल २८ मात्राएँ होती हैं, जिसमें पहली, आठवीं, पंद्रहवीं तथा बाईसवीं मात्रा का लघु होना आवश्यक है।  इस विधान के अनुसार उक्त शे’र छंद की दृष्टि से तो शुद्ध है, किन्तु बह्र की दृष्टि से ख़ारिज़ है क्योंकि रचनाकार ने ‘दोपहर’ शब्द को S I S के बजाय S S I में बाँध लिया है। इस कारण सानी मिसरे में' मफाईलुन' का दूसरा रुक्न पूरा नहीं हो सका है। 
अब हम उन बह्रों पर दृष्टिपात करेंगे जो हिंदी वर्णिक छंदों पर आधारित हैं।  अपने ग़ज़ल-संग्रह ‘एक बह्‌र पर एक ग़ज़ल’ की रचना के समय मैंने पाया कि ग़ज़ल कि लगभग साठ बह्रें ऐसी हैं जिनकी लय हू-ब-हू छंदों से मिलती है अगर खोज की जाए तो यह संख्या बहुत अधिक भी हो सकती है। यहाँ सब का उल्लेख तो सम्भव नहीं, किंतु कुछ मुख्य बह्रें सोदाहरण प्रस्तुत हैं:
१. बह्र: फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल ( I S S I S S I S S I S ) मेरे खूँ में चीते हैं लेटे हुए / किसी तर’ह इनका सुकूँ भंग हो  -सादिक़
आधार : मात्रिक छंद ‘शक्ति’ ( मात्राएँ प्रति चरण, १, ६, ११, १६वीं लघु) 
२. बह्र: फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन ( I S S I S S I S S I S S ) गुलाबों की दुनिया बसाने की ख्वाहिश / लिये दिल में जंगल से हर बार निकले -शेरजंग गर्ग, आधार : वर्णवृत्त ‘भुजंगप्रयात’, (चार यगण (I S S) प्रति चरण, २० मात्राएँ)
३. बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन ( S I S S I S S I S S I S ) यक्ष प्रश्नों के उत्तर दिए बिन हमें / सुख के तालाब से कुछ कमल चाहिए-चंद्रसेन विराट, आधार : वर्णवृत्त ‘स्रग्विणी’, (चार रगण प्रति चरण, मात्रिक छंद अरुण – २० मात्राएँ)
४. बह्र: मुस्तफ़्इलुन मुस्तफ़्इलुन ( S S I S S S I S ) अब किसलिए पछता रहा / जैसा किया, वैसा भरा -दरवेश भारती, आधार : मात्रिक छंद ‘मधुमालती’ (प्रति चरण, ७-७ के क्रम से १४ मात्राएँ, अंत S I S)
५. बह्र: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन ( S I S S S I S S S I S ) साँस जाती है मगर आती नहीं / कुछ बताने से हवा लाचार है -रामदरश मिश्र, आधार : मात्रिक छंद ‘पीयूषवर्ष’, ‘आनंदवर्धक’  (१९ मात्राएँ, ३, १०, १७वीं लघु)
६.बह्र: फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन ( S I S S I S I S S S ) मन में सपने अगर नहीं होते / हम कभी चाँद पर नहीं होते -उदयभानु हंस, आधार : मात्रिक छंद ‘चंद्र’ (१७ मात्राएँ प्रति चरण)
७. बह्र: फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन ( S I S S I I S S S S ) हक़ बयानी की सज़ा देता है / मेरा क़द और बढ़ा देता है -हस्तीमल ‘हस्ती’, आधार : मात्रिक छंद ‘चंद्र’ (१७ मात्राएँ प्रति चरण)
८. बह्र: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन ( S I S S S I S S S I S S ) सामना सूरज का वो कैसे करेंगे / डर गये जो जुगनुओं की रौशनी से -राजेश आनंद ‘असीर’, आधार : मात्रिक छंद ‘कोमल’ (२१ मात्राएँ प्रति चरण, यति १०,११ )
९. बह्र – फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ा ( S I S S S I S S S I S S S )  घेरकर आकाश उनको पर दिए होंगे / राहतों पर दस्तखत यों कर दिए होंगे -- रामकुमार कृषक, आधार : वर्णवृत्त राधा – (रगण, तगण, मगण, यगण + एक गुरु, कुल २३ मात्राएँ
१०. बह्र: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन ( S I S S S I S S S I S S S I S ) एक दरिया कल मिला था राजधानी में हमें / आदमी के खून से अपना बदन धोता हुआ -अश्वघोष, आधार : मात्रिक छंद ‘गीतिका’ (२६ मात्राएँ प्रति चरण| ३, १०, १७, २४वीं मात्रा लघु)
११. बह्र: फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन ( S I S S I I S S I I S S S S ) अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई / मेरा घर छोड़ के कुल शह्‌र में बरसात हुई -नीरज, आधार : मात्रिक छंद ‘मोहन’, (२३ मात्राएँ प्रति चरण, यति ५, ६, ६, ६)। 
१२. बह्र: फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन (I S I S S I S I S S) दिया ख़ुदा ने भी खूब हमको / लुटाई हमने भी पाई-पाई -नरेश शांडिल्य, आधार : वर्णवृत्त ‘यशोदा’ (जगण + दो गुरु वर्ण, एक मिसरे में दो बार, १६ मात्राएँ)
१३. बह्र: मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन (I S S S I S S S I S S) करीब आये तो हमने ये भी जाना / मुहब्बत फ़ासला भी चाहती है - कुँवर बेचैन, आधार : मात्रिक छंद ‘सुमेरु’, प्रति चरण १९ मात्राएँ| १, ८, १५ वीं अनिवार्यत: लघु। 
१४. बह्र: मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन (I S S S / I S S S / I S S S) ख़ुदा से भी मैं बाज़ी जीत जाता पर / ख़ुदाई को न शर्मिंदा किया मैंने - ओमप्रकाश चतुर्वेदी, ‘पराग’ आधार : मात्रिक छंद ‘सिंधु’ (प्रति चरण २१ मात्राएँ| १, ८, १५वीं अनिवार्यत: लघु
१५. बह्र: मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन (I I S I S x ४ ) मैं जहाँ हूँ सिर्फ़ वहीँ नहीं, मैं जहाँ नहीं हूँ वहाँ भी हूँ/ मुझे यूँ न मुझमें तलाश कर, कि मेरा पता कोई और है – राजेश रेड्डी, आधार : वर्णवृत्त ‘गीता’ (सगण, जगण, जगण, भगण, रगण, सगण + एक गुरु)
१६. बह्र: मफ़्ऊल मफ़ाईलुन मफ़्ऊल मफ़ाईलुन ( S S I I S S S S S I I S S S ) हर एक सिकंदर का अंजाम यही देखा / मिट्टी में मिली मिट्टी, पानी में मिला पानी -सूर्यभानु गुप्त, आधार – वर्णवृत्त ‘भक्ति’ (तगण, यगण + एक गुरु, एक मिसरे में दो बार, २४ मात्राएँ)
१७. बह्र: मफ़्ऊल मफ़ाईल मफ़ाईल फ़ऊलुन ( S S I I S S I I S S I I S S ) शादी न करें, साथ में रहने के मज़े लें / इस दौर में औलाद हरामी नहीं होती -राम मेश्राम, आधार : मात्रिक छंद ‘बिहारी’ (प्रति चरण २२ मात्राएँ, यति १३ – ९)
१८.बह्र: मफ़्ऊल फ़ाइलातुन मफ़्ऊल फ़ाइलातुन (S S I S I S S S S I S I S S) आ जा कि दिल की नगरी, सूनी-सी हो चली है / टाला बहुत है तूने वादों पे आज-कल के -उपेंद्र कुमार, आधार : मात्रिक छंद ‘दिगपाल’ (प्रति चरण २४ मात्राएँ, यति १२, १२)
१९. बह्र: फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन ( S S S S S S S S) उसके घर जो दुनिया भर है / उस दुनिया में कितना घर है - विज्ञान व्रत, आधार : मात्रिक छंद ‘पादाकुलक’ (चार चतुष्कल के क्रम से १६ मात्राएँ प्रति चरण)
२०. बह्र: साढ़े सात बार फ़ेलुन (S S S S S S S S S S S S S S S ) हम पर दुख का परबत टूटा, तब हमने दो-चार कहे / उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शे’र हजार कहे -बालस्वरूप राही, आधार : ‘लावनी’, ‘ताटंक’ ( १६-१४ के क्रम से ३० मात्राएँ प्रति चरण)
स्पष्ट है कि छंद और बह्‌र 'लय' की दृष्टि से एक ही हैं जो अंतर है वह मात्रा-पातन, अर्धाक्षर को पूर्णाक्षर मानने, अथवा अलिफ़-वस्ल आदि के कारण है। उक्त उद्धरणों में कई शे’र पूर्णत: छंद में हैं, क्योंकि उनमें मात्रा-पातन या अलिफ़-वस्ल आदि नहीं हुआ है, जैसे दरवेश भारती, रामदरश मिश्र, रामकुमार कृषक, अश्वघोष, विज्ञान व्रत आदि के शे’र। आजकल हिंदी कवियों में ग़ज़ल कहने का शौक ख़ूब बढ़ा हुआ है, जिसकी रचना में मात्रा गिराना-बढ़ाना या अलिफ़-वस्ल करना आम बात है इसका प्रभाव उनके गीतों, कविताओं और छंदों में भी दिखाई देने लगा है। वे गीतों और दोहा जैसे छंदों में भी मात्रा गिराकर या आधे अक्षर को पपूर्णवत मानकर लय बनाने लगे हैं, जिससे छंद दूषित हो रहे हैं। कहते हैं कि पानी सदैव नींचाई की ओर बहता है।  मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा ही है, तभी तो आज के कवि इन सुविधाओं का लाभ लेने में कोई संकोच नहीं करते किंतु छंदाधारित रचनाओं में इस प्रवृत्ति से जितना बचा जाय, उतना ही श्रेयस्कर है। 
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बुधवार, 29 नवंबर 2017

गीत, नवगीत और छंद

आलेख:
गीति-काव्य में छंदों की उपयोगिता और प्रासंगिकता
आचार्य ​
संजीव
​ वर्मा​
'सलिल'
*
भूमिका: ध्वनि और भाषा
​आ
ध्यात्म, धर्म और विज्ञान तीनों सृष्टि की उत्पत्ति नाद अथवा ध्वनि से मानते हैं। सदियों पूर्व वैदिक ऋषियों ने ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति बताई, अब विज्ञान नवीनतम खोज के अनुसार सूर्य से नि:सृत ध्वनि तरंगों का रेखांकन कर उसे ॐ के आकार का पा रहे हैं। ऋषि परंपरा ने इस सत्य की प्रतीति कर सर्व
​सामान्य
को बताया कि धार्मिक अनुष्ठानों में ध्वनि पर आधारित मंत्रपाठ या जप ॐ से आरम्भ करने पर ही फलता है। यह ॐ परब्रम्ह है, जिसका अंश हर जीव में जीवात्मा के रूप में है। नव जन्मे जातक की रुदन-ध्वनि बताती है कि नया प्राणी आ गया है जो आजीवन अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से करेगा। आदि मानव वर्तमान में प्रचलित भाषाओँ तथा लिपियों से अपरिचित था। प्राकृतिक घटनाओं तथा पशु-पक्षियों के माध्यम से सुनी ध्वनियों ने उसमें हर्ष, भय, शोक आदि भावों का संचार किया। शांत सलिल-प्रवाह की कलकल, कोयल की कूक, पंछियों की चहचहाहट, शांत समीरण, धीमी जलवृष्टि आदि ने सुख तथा मेघ व तङित्पात की गड़गड़ाहट, शेर आदि की गर्जना, तूफानी हवाओं व मूसलाधार वर्ष के स्वर ने उसमें भय का संचार किया। इन ध्वनियों को स्मृति में संचित कर, उनका दोहराव कर उसने अपने साथियों तक अपनी
​ ​
अनुभूतियाँ सम्प्रेषित कीं। यही आदिम भाषा का जन्म था। वर्षों पूर्व पकड़ा गया भेड़िया बालक भी ऐसी ही ध्वनियों से शांत, भयभीत, क्रोधित होता देखा गया था।
कालांतर में सभ्यता के बढ़ते चरणों के साथ करोड़ों वर्षों में ध्वनियों को सुनने-समझने, व्यक्त करने का कोष संपन्न होता गया। विविध भौगोलिक कारणों से मनुष्य समूह पृथ्वी के विभिन्न भागों में गये और उनमें अलग-अलग ध्वनि संकेत विकसित और प्रचलित हुए जिनसे विविध भाषाओँ तथा बोलिओं का विकास हुआ। सुनने-कहने की यह परंपरा ही श्रुति-स्मृति के रूप में सहस्त्रों वर्षों तक भारत में फली-फूली। भारत में मानव कंठ में ध्वनि के उच्चारण स्थानों की पहचान कर उनसे उच्चरित हो सकनेवाली ध्वनियों को वर्गीकृत कर शुद्ध ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन्हें हम स्वर के तीन वर्ग हृस्व, दीर्घ व् संयुक्त तथा व्यंजन के ६ वर्गों क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग आदि के रूप में जानते हैं। अब समस्या इस मौखिक ज्ञान को सुरक्षित रखने की थी ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उसे सही तरीके से पढ़ा-सुना तथा सही अर्थों में समझा-समझाया जा सके। निराकार ध्वनियों का आकार या चित्र नहीं था, जिस शक्ति के माध्यम से इन ध्वनियों के लिये अलग-अलग संकेत मिले उसे आकार या चित्र से परे मानते हुए चित्र
​ ​
गुप्त संज्ञा दी जाकर ॐ से अभिव्यक्त कर ध्वन्यांकन के अपरिहार्य उपादानों असि-मसि तथा लिपि का अधिष्ठाता कहा गया। इसीलिए वैदिक काल से मुग़ल काल तक धर्म ग्रंथों में चित्रगुप्त का उल्लेख होने पर भी उनका कोई मंदिर, पुराण, उपनिषद, व्रत, कथा, चालीसा, त्यौहार आदि नहीं बनाये गये।
निराकार का साकार होना, अव्यक्त का व्यक्त होना, ध्वनि का लिपि, लेखनी, शिलापट के माध्यम से
​स्था
यित्व पाना और सर्व साधारण तक पहुँचना मानव सभ्यता
​का ​
सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। किसी भी नयी पद्धति का परंपरावादियों द्वारा विरोध किया ही जाता है। लिपि द्वारा ज्ञान को संचित करने का विरोध हुआ ही होगा और तब ऐसी-मसि-लिपि के अधिष्ठाता को कर्म देवता कहकर विरोध का शमन किया गया। लिपि का विरोध अर्थात अंत समय में पाप-पुण्य का ले
​खा
रखनेवाले का विरोध कौन करता? आरम्भ में वनस्पतियों की टहनियों को पैना कर वनस्पतियों के रस में डुबाकर शिलाओं पर संकेत अंकित-चित्रित किये गये। ये शैल-चित्र तत्कालीन मनुष्य की शिकारादि क्रियाओं, पशु-पक्षी
​,
सहचरों
​आदि ​
से संबंधित हैं। इनमें प्रयुक्त संकेत क्रमश: रुढ़, सर्वमान्य और सर्वज्ञात हुए। इस प्रकार भाषा के लिखित रूप लिपि (स्क्रिप्ट) का उद्भव हुआ। लिप्यांकन में प्रवीणता प्राप्त कायस्थ वर्ग को समाज, शासन तथा प्रशासन में सर्वोच्च स्थान सहस्त्रों वर्षों तक प्राप्त
​होता रहा जबकि ब्राम्हण वर्ग शिक्षा प्रदाय हेतु जिम्मेदार था
। ध्वनि के उच्चारण तथा अंकन का
​शास्त्र
विकसित होने से शब्द-भंडार का समृद्ध होना, शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति कर सकना तथा इसके समानांतर लिपि का विकास होने से ज्ञान का आदान-प्रदान, नव शोध और सकल मानव जीवन व संस्कृति का विकास संभव हो सका।
रोचक तथ्य यह भी है कि मौसम, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, तथा वनस्पति ने भी भाषा और लिपि के विकास में योगदान किया। जिस अंचल में पत्तों से भोजपत्र और टहनियों या पक्षियों के पंखों कलम बनायीं जा सकी वहाँ मुड्ढे (अक्षर पर आड़ी रेखा) युक्त लिपि विकसित हुई जबकि जहाँ ताड़पत्र पर लिखा जाता था वहाँ मुड्ढा खींचने पर उसके चिर जाने के कारण बिना मुड्ढे वाली लिपियाँ विकसित हुईं। क्रमश: उत्तर व दक्षिण भारत में इस तरह की लिपियों का अस्तित्व आज भी है। मुड्ढे हीन लिपियों के अनेक प्रकार कागज़ और कलम की किस्म तथा लिखनेवालों की अँगुलियों क्षमता के आधार पर बने। जिन क्षेत्रों के निवासी वृत्ताकार बनाने में निपुण थे वहाँ की लिपियाँ तेलुगु, कन्नड़ , बांग्ला, उड़िया आदि की तरह हैं जिनके अक्षर किसी बच्चे को जलेबी-इमरती की तरह लग सकते हैं। यहाँ बनायी जानेवाली अल्पना, रंगोली, चौक आदि में भी गोलाकृतियाँ अधिक हैं। यहाँ के बर्तन थाली, परात, कटोरी, तवा, बटलोई आदि और खाद्य रोटी, पूड़ी, डोसा, इडली, रसगुल्ला आदि भी वृत्त या गोल आकार के हैं।
रेगिस्तानों में पत्तों का उपचार कर उन पर लिखने की मजबूरी थी इसलिए छोटी-छोटी रेखाओं से निर्मित अरबी, फ़ारसी जैसी लिपियाँ विकसित हुईं। बर्फ, ठंड और नमी वाले क्षेत्रों में रोमन लिपि का विकास हुआ। चित्र अंकन करने की रूचि ने चित्रात्मक लिपि
​यों​
के विकास का पथ प्रशस्त किया। इसी तरह
​ वातावरण तथा ​
खान-पान के कारण विविध अंचल के निवासियों में विविध ध्वनियों के उच्चारण की क्षमता भी अलग-अलग होने से वहाँ विकसित भाषाओँ में वैसी ध्वनियुक्त शब्द बने। जिन अंचलों में जीवन संघर्ष कड़ा था वहाँ की भाषाओँ में कठोर ध्वनियाँ अधिक हैं, जबकि अपेक्षाकृत शांत और सरल जीवन वाले क्षेत्रों की भाषाओँ में कोमल ध्वनियाँ अधिक हैं। यह अंतर हरयाणवी, राजस्थानी, काठियावाड़ी और बांग्ला, बृज, अव
​धी
भाषाओँ में अनुभव किया जा सकता है।
सार यह कि भाषा और लिपि के विकास में ध्वनि का योगदान सर्वाधिक है। भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने में सक्षम मानव ने गद्य और पद्य दो शैलियों का विकास किया। इसका उत्स पशु-पक्षियों और प्रकृति से प्राप्त ध्वनियाँ ही बनीं। अलग-अलग रुक-रुक कर हुई ध्वनियों ने गद्य विधा को जन्म दिया जबकि नदी के कलकल प्रवाह या निरंतर कूकती कोयल की सी ध्वनियों से पद्य का जन्म हुआ। पद्य के सतत विकास ने गीति काव्य का रूप लिया जिसे गाया जा सके। गीतिकाव्य के मूल तत्व ध्वनियों का नियमित अंतराल पर दुहराव, बीच-बीच में ठहराव और किसी अन्य ध्वनि खंड के प्रवेश से हुआ। किसी नदी तट के किनारे कलकल प्रवाह के साथ निरंतर कूकती कोयल को सुनें तो एक ध्वनि आदि से अंत तक, दूसरी के बीच-बीच में प्रवेश से गीत के मुखड़े और अँतरे की प्रतीति होगी। मैथुनरत क्रौंच युगल में से
व्याध द्वारा
नर का
वध, मादा का आर्तनाद और आदिकवि वाल्मिकी के मुख से प्रथम कविता का प्रागट्य इसी सत्य की पुष्टि करता है
​​
​हो इस प्रसंग से प्रेरित होकर​
​ ​
हिरण शावक के वध के पश्चात अश्रुपात करती हिरणी के रोदन से ग़ज़ल की उत्पत्ति
​जैसी
मान्यताएँ गीति काव्य की उत्पत्ति में प्रकृति
​-
पर्यावरण का योगदान इंगित करते हैं
व्याकरण और पिंगल का विकास-
भारत में गुरुकुल परम्परा में साहित्य की सारस्वत आराधना का जैसा वातावरण रहा वैसा अन्यत्र कहीं नहीं रह सका
इसलिये भारत में कविता का जन्म ही नहीं हुआ पाणिनि व पिंगल ने विश्व के सर्वाधिक व्यवस्थित, विस्तृत और समृद्ध व्याकरण और पिंगल शास्त्रों का सृजन किया जिनका कमोबेश अनुकरण और प्रयोग विश्व की अधिकांश भाषाओँ में हुआ। जिस तरह व्याकरण के अंतर्गत स्वर-व्यंजन का अध्ययन ध्वनि विज्ञान के आधारभूत तत्वों के आधार पर हुआ वैसे ही
​ छंद शास्त्र
के अंतर्गत छंदों का निर्माण ध्वनि खण्डों की आवृत्तिकाल के आधार पर हुआ। पिंगल ने लय या गीतात्मकता के दो मूल तत्वों गति-यति को पहचान कर उनके मध्य प्रयुक्त की जा रही लघु-दीर्घ ध्वनियों को वर्ण या अक्षर
​मात्रा ​
के माध्यम से पहचाना तथा उन्हें क्रमश: १-२ मात्रा भार देकर उनके उच्चारण काल की गणना बिना किसी यंत्र या विधि न विशेष का प्रयोग किये संभव बना दी। ध्वनि खंड विशेष के प्रयोग और आवृत्ति के आधार पर छंद पहचाने गये। छंद में प्रयुक्त वर्ण तथा मात्रा के आधार पर छंद के दो वर्ग वर्णिक तथा मात्रिक बनाये गये। मात्रिक छंदों के अध्ययन को सरल करने के लिये ८ लयखंड (गण) प्रयोग में लाये गये सहज बनाने के लिए एक सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' बनाया गया।
गीति काव्य में छंद-
गणित के समुच्चय सिद्धांत (सेट थ्योरी) तथा क्रमचय और समुच्चय (परमुटेशन-कॉम्बिनेशन) का प्रयोग कर दोनों वर्गों में छंदों की संख्या का निर्धारण किया गया। वर्ण तथा मात्रा संख्या के आधार पर छंदों का नामकरण गणितीय आधार पर किया गया। मात्रिक छंद के लगभग एक करोड़ तथा वर्णिक छंदों के लगभग डेढ़ करोड़ प्रकार गणितीय आधार पर ही बताये गये हैं। इसका परोक्षार्थ यह है कि वर्णों या मात्राओं का उपयोग कर जब भी कुछ कहा जाता है वह किसी न किसी ज्ञात या अज्ञात छंद का छोटा-बड़ा अंश होता है।इसे इस तरह समझें कि जब भी कुछ कहा जाता है वह अक्षर होता है। संस्कृत के अतिरिक्त विश्व की किसी अन्य भाषा में गीति काव्य का इतना विशद और व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। संस्कृत से यह विरासत हिंदी को प्राप्त हुई तथा संस्कृत से कुछ अंश अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी , चीनी, जापानी आदि तक भी गयी। यह अलग बात है कि व्यावहारिक दृष्टि से हिंदी में भी वर्णिक और मात्रिक दोनों वर्गों के लगभग पचास छंद ही मुख्यतः: प्रयोग हो रहे हैं। रचनाओं के गेय और अगेय वर्गों का अंतर लय होने और न होने पर ही है। गद्य गीत और अगीत ऐसे वर्ग हैं जो दोनों वर्गों की सीमा रेखा पर हैं अर्थात जिनमें भाषिक प्रवाह यत्किंचित गेयता की प्रतीति कराता है। यह निर्विवाद है कि समस्त गीति काव्य ऋचा, मन्त्र, श्लोक, लोक गीत, भजन, आरती आदि किसी भी देश रची गयी हों छंदाधारित है। यह हो सकता है कि उस छंद से अपरिचय, छंद के आंशिक प्रयोग अथवा एकाधिक छंदों के मिश्रण के कारण छंद की पहचान न की जा सके।
वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ गीत का आदि रूप हैं। गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा। सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकर भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा।
अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर आदि गीत रूपों में लय तथा तुकांत-पदांत सहज साध्य रहे। यह अवश्य हुआ कि सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है।खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद-शुद्धता के समर्थन या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी।
छंदमुक्तता और छंद हीनता-
लम्बे काल खंड के पश्चात हिंदी पिंगल को महाप्राण निराला ने कालजयी अवदान छंदमुक्त गीति रचनाओं के रूप में दिया। उत्तर भारत के लोककाव्य व संगीत तथा रवींद्र संगीत में असाधारण पैठ के कारण निराला की छंद पर पकड़ समय से आगे की थी। उनकी प्रयोगधर्मिता ने पारम्परिक छंदों के स्थान पर सांगीतिक राग-ताल को वरीयता देते हुए जो रचनाएँ उन्हें प्रस्तुत कीं उन्हें भ्रम-वश छंद विहीन समझ लिया गया, जबकि उनकी गेयता ही इस बात का प्रमाण है कि उनमें लय अर्थात छंद अन्तर्निहित है। निराला की रचनाओं और तथाकथित प्रगतिशील कवियों की रचनाओं के सस्वर पाठ से छंदमुक्तता और छंदहीनता के अंतर को सहज ही समझा जा सकता है।
दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गये। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। विश्वविद्यालयों में हिंदी को शोधोपाधियां प्राप्त किन्तु छंद रचना हेतु आवश्यक प्रतिभा से हीं प्राध्यापकों का एक नया वर्ग पैदा हो गया जिसने अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलंब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण, सत्तासीन राजनेताओं और शिक्षा संस्थानों, पत्रिकाओं और समीक्षकों के समर्थन के बाद भी नयी कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती गयी। गीत के मरने की घोषणा करनेवाले प्रगतिवादी कवि और समीक्षक स्वयं काल के गाल में समा गये पर गीत लोक मानस में जीवित रहा। हिंदी छंदों को कालातीत अथवा अप्रासंगिक मानने की मिथ्या अवधारणा पाल रहे रचनाकार जाने-अनजाने में उन्हीं छंदों का प्रयोग बहर में करते हैं।
उर्दू काव्य विधाओं में छंद-
भारत के विविध भागों में विविध भाषाएँ तथा हिंदी के विविध रूप (शैलियाँ) प्रचलित हैं। उर्दू हिंदी का वह भाषिक रूप है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों के साथ-साथ मात्र गणना की पद्धति (तक़्ती) का प्रयोग किया जाता है जो अरबी लोगों द्वारा शब्द उच्चारण के समय पर आधारित हैं। पंक्ति भार गणना की भिन्न पद्धतियाँ, नुक्ते का प्रयोग, काफ़िया-रदीफ़ संबंधी नियम आदि ही हिंदी-उर्दू रचनाओं को वर्गीकृत करते हैं। हिंदी में मात्रिक छंद-लेखन को व्यवस्थित करने के लिये प्रयुक्त गण के समान, उर्दू बहर में रुक्न का प्रयोग किया जाता है। उर्दू गीतिकाव्य की विधा ग़ज़ल की ७ मुफ़र्रद (शुद्ध) तथा १२ मुरक्कब (मिश्रित) कुल १९ बहरें मूलत: २ पंच हर्फ़ी (फ़ऊलुन = यगण यमाता तथा फ़ाइलुन = रगण राजभा ) + ५ सात हर्फ़ी (मुस्तफ़इलुन = भगणनगण = भानसनसल, मफ़ाईलुन = जगणनगण = जभानसलगा, फ़ाइलातुन = भगणनगण = भानसनसल, मुतफ़ाइलुन = सगणनगण = सलगानसल तथा मफऊलात = नगणजगण = नसलजभान) कुल ७ रुक्न (बहुवचन इरकॉन) पर ही आधारित हैं जो गण का ही भिन्न रूप है। दृष्टव्य है कि हिंदी के गण त्रिअक्षरी होने के कारण उनका अधिकतम मात्र भार ६ है जबकि सप्तमात्रिक रुक्न दो गानों का योग कर बनाये गये हैं। संधिस्थल के दो लघु मिलाकर दीर्घ अक्षर लिखा जाता है। इसे गण का विकास कहा जा सकता है।
वर्णिक छंद मुनिशेखर - २० वर्ण = सगण जगण जगण भगण रगण सगण लघु गुरु
चल आज हम करते सुलह मिल बैर भाव भुला सकें
बहरे कामिल - मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
पसे मर्ग मेरे मज़ार परजो दिया किसी ने जला दिया
उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम से ही बुझा दिया
उक्त वर्णित मुनिशेखर वर्णिक छंद और बहरे कामिल वस्तुत: एक ही हैं।
अट्ठाईस मात्रिक यौगिक जातीय विधाता (शुद्धगा) छंद में पहली, आठवीं और पंद्रहवीं मात्रा लघु तथा पंक्त्यांत में गुरु रखने का विधान है।
कहें हिंदी, लिखें हिंदी, पढ़ें हिंदी, गुनें हिंदी
न भूले थे, न भूलें हैं, न भूलेंगे, कभी हिंदी
हमारी थी, हमारी है, हमारी हो, सदा हिंदी
कभी सोहर, कभी गारी, बहुत प्यारी, लगे हिंदी - सलिल
*
हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता
दिया विश्वास ने धोखा, भरोसा घात कर बैठा
हमारा खून भी 'सागर', हमने अपना नहीं लगता -रसूल अहमद 'सागर'
अरकान मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन से बनी उर्दू बहर हज़ज मुसम्मन सालिम, विधाता छंद ही है। इसी तरह अन्य बहरें भी मूलत: छंद पर ही आधारित हैं।
रुबाई के २४ औज़ान जिन ४ मूल औज़ानों (१. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़अल, २. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़अल, ३. मफ़ऊलु मफ़ाईलु मफ़ाईलु फ़ऊल तथा ४. मफ़ऊलु मफ़ाइलुन् मफ़ाईलु फ़ऊल) से बने हैं उनमें ५ लय खण्डों (मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाइलुन् , फ़अल तथा फ़ऊल) के विविध समायोजन हैं जो क्रमश: सगण लघु, यगण लघु, जगण २ लघु / जगण गुरु, नगण तथा जगण ही हैं। रुक्न और औज़ान का मूल आधार गण हैं जिनसे मात्रिक छंद बने हैं तो इनमें यत्किंचित परिवर्तन कर बनाये गये (रुक्नों) अरकान से निर्मित बहर और औज़ान छंदहीन कैसे हो सकती हैं?
औज़ान- मफ़ऊलु मफ़ाईलुन् मफ़ऊलु फ़अल
सगण लघु जगण २ लघु सगण लघु नगण
सलगा ल जभान ल ल सलगा ल नसल
इंसान बने मनुज भगवान नहीं
भगवान बने मनुज शैवान नहीं
धरती न करे मना, पाले सबको-
दूषित न करो बनो हैवान नहीं -सलिल
गीत / नवगीत का शिल्प, कथ्य और छंद-
गीत और नवगीत शैल्पिक संरचना की दृष्टि से समगोत्रीय है। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी गीत और दोनों नवगीत रचे जाते रहे आज भी रहे जा रहे हैं और भविष्य में भी रचे जाते रहेंगे। अनेक गीति रचनाओं में गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। इन्हें किसी वर्ग विशेष में रखे जाने या न रखे जाने संबंधी समीक्षकीय विवेचना बेसिर पैर की कवायद कही जा सकती है। इससे पाचनकाए या समीक्षक विशेष के अहं की तुष्टि भले हो विधा या भाषा का भला नहीं होता।
गीत - नवगीत दोनों में मुखड़े (स्थाई) और अंतरे का समायोजन होता है, दोनों को पढ़ा, गुनगुनाया और गाया जा सकता है। मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा यह क्रम सामान्यत: चलता है। गीत में अंतरों की संख्या प्राय: विषम यदा-कदा सम भी होती है । अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं। बहुधा मुखड़ा दोहराने के पूर्व अंतरे के अंत में मुखड़े के समतुल्य मात्रिक / वर्णिक भार की पंक्ति, पंक्तियाँ या पंक्त्यांश रखा जाता है। अंतरा और मुखड़ा में प्रयुक्त छंद समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित गृह का सा आभास कराते हैं। प्रयोगधर्मी रचनाकार इनमें एकाधिक छंदों, मुक्तक छंदों अथवा हिंदीतर भाषाओँ के छंदों का प्रयोग करते रहे हैं।गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है। नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है। दोहा, सोरठा, रोला, उल्लाला, त्रिभंगी, आल्हा, सखी, मानव, नरेंद्र छंद (फाग), जनक छंद, लावणी, हाइकु आदि का प्रयोग गीत-नवगीत में किया जाता रहा है।
गीत - नवगीत दोनों में कथ्य के अनुसार रस, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं। गेयता या लयबद्धता दोनों में होती है। गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है। गीत में कथ्य वर्णन के लिये प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करने की सरचनात्मक प्रयास कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता।
                                                                                
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(संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                        
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विश्ववाणी हिंदी भाषा-साहित्य शोध संस्थान
​                                                             
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
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जबलपुर ४८२००१
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​                                   
चलभाष 
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