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बुधवार, 27 दिसंबर 2017

doha


एक दोहा
मोदी राहुल जप रहे, राहुल मोदी नाम
नूरा कुश्ती कर रहे, जाता ठगा अवाम
***

रविवार, 27 दिसंबर 2015

navgeet

एक रचना:
*
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
लीक छोड़ तीनों चलें
शायर सिंह सपूत
लीक-लीक तीनों चलें
कायर स्यार कपूत
बहुत लड़े, आओ बने
आज शांति के दूत
दिल से लगाया
और
अंतर भुलाये रे
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
राह दोस्ती की चलें
चलो शत्रुता भूल
हाथ मिलायें आज फिर
दें न भेद को तूल
मिल बिखराएँ फूल कुछ
दूर करें कुछ शूल
जग चकराया
और
हम मुस्काये रे
तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*
जिन लोगों के वक्ष पर
सर्प रहे हैं लोट
उनकी नजरों में रही
सदा-सदा से खोट
अब मैं-तुम हम बन करें
आतंकों पर चोट
समय न बोले
मौके
हमने गँवाये रे!तुमने बुलाया
और
हम चले आये रे
*

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

peris se pati

बिटिया की पेरिस से पाती आई है....!

कुछ बड़े सवाल छोड़ता हमारे कोलकाता कार्यालय की साथी श्रीमती पूनम दीक्षित की बेटी अनन्या दीक्षित का पेरिस से अपनी माँ को लिखा पत्र !!!!

Mumma... here's my experience from the event with the PM last week smile emoticon
Thoda lamba hai... and kuch spelling mistakes ho sakti hain.. but anyhow... here you go !!!!

विगत सप्ताहमेरे लेटर बॉक्स में भारतीय दूतावास का एक आमंत्रण पत्र पड़ा मिला था. आमंत्रण था पेरिस मेंभारतीय समुदाय के कार्यक्रम काजिसमे हमारे प्रधान मंत्री, श्री नरेंद्र मोदीशिरकत करने वाले थे। मैं सबके बारे में तो नहीं बता सकतीपर पिछले करीब ४ सालों से विदेश में रहते हुएमैंने पाया है की अपने देश के प्रति मेरी भावनाएं और प्रगाढ़ हो गयी हैं। अंग्रेजी में कहावत है Distance makes the heart grow fonder , शायद मेरे साथ भी यही हुआ है। चतुर्दिक भिन्न संस्कृतियोंभिन्न भाषाओँ से घिरे रहने नेमुझे शायद भारतीयता के मूल्य का बेहतर आभास करवाया है. विदेश मेंअपने देश का कोई अनजान व्यक्ति,अपने देश का झंडाया कोई भी छोटा सा चिन्ह दिख जाये तो मन पुलकित हो उठता है।  तो ऐसे में,अशोक स्तम्भ से सजा हुआ भारतीय दूतावास का पत्र तो अनूठा था। कागज़ के छोटे से टुकड़े ने ख़ुशीगर्व,उत्साहजैसी कई अनुभूतियों के द्वार खोल दिये। मैं बेहद उत्सुक थी देखने के लिए कि दूर देश में भारतियों का और भारतीयता का समागम कैसा होगा। फ्रांस मेंकुछ घंटे के लिए भारत का एहसास कैसा होगा। 

कार्यक्रम का venue , पेरिस का प्रसिद्ध Louvre संग्रहालय था। विशालऐतिहासिक, आकर्षक, Louvre का नाम पेरिस के सबसे खूबसूरत नज़ारों में शुमार है। लिहाज़ामेरे अनुभव का आगाज़ बेहद शानदार हुआ. मैं वक़्त से कुछ पहले ही पहुँच गयी थीइसलिए मैं सोच रही थी की मुझे अधिक भीड़ का सामना नहीं करना पड़ेगा. पर जब मैं समारोह स्थल पर पहुंचीं मैं अनायास ही हंस पड़ी। मेरी हंसी का कारण आश्चर्य भी था और ये भी था की मुझे Deja vu का एहसास हुआ क्यूंकि Louvre की Carousel Gallery , हिंदुस्तान के रंग में ओत प्रोत थी। 

कार्यक्रम शुरू होने में ३ घंटे शेष थेपर यूरोप के हर कोने से आये हुए करीब ३ हज़ार लोग पहले ही कतार में खड़े थे. क्या बच्चेक्या बूढेक्या जवान.. ज्यादात्तर औरतों ने अपनी ठेठ हिंदुस्तानी पोशाकें पहन रखीं थींजैसे कोई त्यौहार हो.... और देखा जाये तो ऐसे मौके हम प्रवासी भारतीयों के लिए त्यौहार से कम भी नहीं होते। कइयों ने हाथ में भारत के झंडे पकड़ रखे थेकुछ के सर पर पगड़ी बंधी हुई थीऔर कुछ उत्साहीबीच बीच में भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। हिंदीबांग्ला और अलग अलग भारतीय भाषाओँ के कुछ शब्द उड़ते उड़ते कानों तक आ रहे थे। समस्त वातावरण जीवंत थात्वरित ऊर्जा से सराबोर। भारत और भारतीयों की जीवन्तताउनका जोश उन्हें समस्त विश्व से पृथक पहचान देता हैऔर इस उमंग का सीधा प्रसारण अपने सामने पाकरमैं मुस्कुराती हुईकुछ क्षण बस निहारती रही।
कतार में काफी देर खड़े रहना पड़ाऔर इस प्रतीक्षा ने कई और सवालकई और विचार जागृत कर दिये।

समारोह भारतउसकी संस्कृतिइतिहास और उसके विकास के सम्मान में आयोजित थापर अपने पास खड़े ज़्यदातर लोगों के व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दियाकी क्या हम वाकई अपनी सभ्यता और भारतीयता का सम्मान करते हैं क्या जो उत्साह मुझे दिख रहा थाक्या वह केवल सतही था क़तार में मेरे इर्द गिर्द खड़े सभी लोगशिक्षितसभ्य प्रवासी भारतीय प्रतिनिधि थेऐसे प्रतिनिधि जो शायद किसी स्तर पर राजदूतों और प्रधान मंत्री या विदेश मंत्रियों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं. कहीं न कहीं हम जैसे भारतीयों को देखकर ही संभावित पर्यटक और शायद कुछ हद तक भावी निवेशक भीदेश और उसके लोगों के विषय में अपनी राय बनाते हैं. तो ऐसे मेंहम हिंदुस्तान की कैसी छवि प्रदर्शित करते हैं ? Slumdog Millionaire के बाद से वैसे भी अमूमन हर विदेशी धारावी को ही भारत की असल पहचान मानता है।

चलिए कतार में खड़े अधिकांश लोगों को हम अपना data sample समझते हैँ ...। अपने छोटे सेसाधारण अवलोकन पर मैंने पाया किज़्यादातर लोग अपने बोलचाल की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग करते दिखे। आपस में भीऔर दुसरे भारतीयों से भी।  यह देखकर मुझे कुछ मायूसी हुईऔर कुछ हद तक क्रोध की भी अनुभूति हुई । 
एक ऐसा देशजो हज़ारों भाषाओँ का गढ़ हैउस देश के लोग एक ऐसी भाषा के प्रति झुकाव दिखाते हैंजो एक तरह से ३०० वर्षों की दासता की भी प्रतिरूप है. अंग्रेजी आज की दुनिया मेंअनिवार्य हैव्यवसाय के लिएशिक्षा के लिएपरन्तु आपसी स्तर पर क्यों? क्यों हम अपनी भिन्न मातृभाषाओं का उसी तरह सम्मान नहीं करते जिस तरह फ़्रांसिसी आज भी करते हैं। मेरे data sample में जो हिंदुस्तानी आपस मेंFrench का प्रयोग कर रहे थेउनसे मुझे शिकायत बेहद काम रहीक्यूंकि एक अरसा किसी देश और किसी भाषा के मध्य बिताने पर उसका आदतों में शुमार होना लाज़मी भी हैऔर यह भी दर्शाता है की हमने उस देश की भाषा का सम्मान किया है।मेरे क्रोध कामेरी निराशा का कारण यह थाकि पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के कारण हम शायद कहीं न कहीं भारत की एक लचर छवि प्रदर्शित करते हैं एक ऐसे देश की छविजो अपनी सभ्यता को तरज़ीह नहीं देता।  एक ऐसा देश जो अपनी संस्कृति से कहीं अधिक आस्था अमरीकी या बर्तानी सभ्यता पर रखता है। यदि हम इन्ही देशों के lifestyle को अपना लक्ष्य बना कर चलते हैंतो क्या केवल खान- पानया धार्मिक रीतियों का पालन भर कर लेने से ही क्या हम सच में अपने अंदर की भारतीयता को बचा रख सकते हैं ?
...और बात यहाँ केवल अंग्रेजी के व्यवहार तक सीमित नहीं थी। कतार में खड़े रहते हुए किसी भी प्रकार आगे जाने का अनुचित प्रयास करनाफ़्रांसिसी सुरक्षा कर्मियों पर आँखें तरेरनाअसंयत होकर भीड़ को और भी विश्रृंखल रूप देना। देश से हज़ारों मीलों की दूरी होने के बावजूद अपनी पहचान पंजाबी,बंगालीइत्यादि के साथ ज़ाहिर करना। क्या यह व्यवहार उचित था क्या केवल अंग्रेजी बोलने परऐसी व्यवहारगत खामियां छुप जाएंगी ? ऐसे कई प्रश्नकतार के १ घंटे की अवधि ने मेरे दिमाग में कुलबुलाते छोड़ दिए।

खैरआखिरकार प्रतीक्षा के पश्चात कार्यक्रम आरम्भ हुआ. शुरुआत सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ हुई. पेरिस के मध्यकर्नाटकराजस्थानऔर बांग्ला लोक संगीत की गुंजन अद्भुत थी. वह रोमांच अद्भुत थाजब मैं अपनी कुर्सी पर बैठी हुईमंच पर गा रहे गायकों के साथवन्दे मातरम और टैगोर के गीत गुनगुना रही थी। बेहद अभिमान वाला क्षण थाजब सभागार में उपस्थित देशी-विदेशी सारे श्रोताराजस्थानी लोक गायकों के साथ गा रहे थेझूम रहे थेऔर once more की मांग कर रहे थे।
पर सबसे बेहतरीन और रोंगटे खड़े करने वाला लम्हा शायद वह था जब प्रधानमंत्री के आगमन परसबने खड़े होकर भारतीय राष्ट्रगीत को सम्मान दिया। प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत सारी सभा ने नारोंतालियों और अतुल्य उत्साह के साथ किया। विदेशी भूमि परअपने देश के प्रतिनिधि के सम्मुख होना एक अलग ही आत्मीयता का भाव जगा रहा था।
हमेशा की तरहमोदी जी का भाषण उत्साहवर्धक और करारा था। हर नयी बात पर तालियों से गड़गड़ाता हुआ अभिनन्दन मिलता था।  भाषण का सीधा प्रसारण शायद आप सबने भी देखा ही होगा। यह जानकर अच्छा लगता है कि भारत की छवि को दुनिया भर में पुख्ता करने का प्रयास जारी है। भाषण में मोदी जी ने उल्लेख किया की कैसे एक काल में जगदगुरु की उपाधि पाने वालाशांति का दीपस्तंभ भारतकैसे आज भी UN Security Council की सदस्यता के लिए जूझ रहा हैपरन्तु पिछले कुछ वक़्त से भारत की वैश्विक छवि में परिवर्तन साफ नज़र आ रहा है. कूटनीति और राजनीति के गलियारों में भारतीय सिंह की गरज दोबारा जागने लगी हैऔर मोदी जी के कार्यक्रम और भाषण में इस जोश और भावना का पूरा अनुभव हुआ . एक देशवासी की हैसियत से यह अत्यन्य गर्व का विषय है. 
अंततः ११ अप्रैल की शाम बेहद यादगार थीऔर सदा रहेगी ।
                                                                                                                     अनन्या

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

patrkar ya deshdrohi?

विमर्श: 
पत्रकार का दायित्व 
राजदीप सरदेसाई का कुकृत्य : भारत की अस्मिता को लांछित  दुष्प्रयास
आप सबने अमेरिका में मोदी जी की विशाल जनसभा के पूर्व दुराग्रही पत्रकार राजदीप सरदेसाई को जनता द्वारा सबक सिखाये  वीडियो देखा किन्तु कुछ चैनलों पर उसकी व्याख्या गलत की गयी. कुछ चैनलों ने सभा के समाचार रोककर प्रलाप आरम्भ कर धरने की बात भी कही.  यहाँ सरदेसाई के सवाल जवाब देखिये:
राजदीप: क्या आप सोचते हैं कि एक आदमी भारत को बदल सकता है?
दर्शक: हाँ, यदि १ महिला भारत को लूट सकती है तो एक मनुष्य भारत को बदल सकता है.
राजदीप तुरंत सरक जाते हैं और अन्य युवा दर्शक से पूछते हैं: क्या आप सोचते हैं कि वह केवल एक समुदाय के प्रधान मंत्री हैं? (क्या यहाँ पत्रकार निर्वाचन आयोग, राष्ट्रपति और सर्विच्च न्यायलय की अवमानना नहीं  कर रहा जिन्होंने संवैधानिक प्रावधानों के परिपालन में मोदी जी को निर्वाचित, मनोनीत और शपथ दिलाकर प्रधानमंत्री की आसंदी पर पदासीन कराया?)
युवा दर्शक का उत्तर: यह किस तरह का प्रश्न है? क्या अपने उनके संबोधन में 'वसुधैव कुटुम्बकम, सर्वे भवन्तु सुखिनः तथा सबका साथ सबका विकास' नहीं सुना?
राजदीप: नहीं, मुझे यह बताइये आप २००२ के दंगों के बारे में क्या सोचते हैं? (प्रश्न पत्रकार की समझ, इरादे और सोच पर प्रश्न चिन्ह लगाता है.)
युवा दर्शक: क्या आप भारत के सर्वोच्च न्यायलय का सम्मान करते है? यह गोधरा काण्ड जहाँ कुस्लिमों द्वारा हिन्दू मारे गए थे, की प्रतिक्रिया थी. मोदी का इससे कुछ लेना-देना नहीं था.
राजदीप कैमरामैन से: यह सांप्रदायिक हिन्दुओं का आयोजन बन गया है. (राजदीप दर्शकों की प्रतिक्रिया  जानने गए थे या फैसला सुनाने? क्या उन्हें ऐसा निर्णय करने के अधिकार था? क्या वे इस तरह भीड़ को उत्तेजित नहीं कर रहे थे?)
भीड़ ने गगनभेदी नारा लगाया 'भारत माता की जय, राजदीप गद्दार है' राजदीप ने एक का कॉलर पकड़ लिया तो भीड़ उत्तेजित हो गयी और कैमरे उसे प्रसारित करने लगे. पूर्व संवाद हटकर सिर्फ भीड़ की उत्तेजना सैंकड़ों बार दिखाई जाने लगी.
क्या यह पत्रकारिता है? 
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राजदीप अन्य स्थान पर: 
प्रश्न. आप यहाँ क्यों हैं? क्या एक आदमी भारत को बदल सकता है? 
एक दर्शक: एक मनुष्य बदल नहीं, ऊर्जा को श्रृंखलाबद्ध कर रहा है.
दूसरा दर्शक: मोदी अकेले नहीं हैं, इनके साथ १.२५  भारतीय हैं.
प्रश्न.आपके टिकिट का भुगतान किसने किया? (वह सोच रहे थे कि किराये की भीड़ तो नहीं है?)
प्रश्न. क्या आप भारत जायेंगे? 
उत्तर: हाँ (राजदीप निराश)
प्रश्न: जिन्होंने मोदी को मत नहीं दिया, उनके बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर: वह चुनाव पूर्व की बात है, अब वे हम सबके प्रधानमंत्री हैं।
अन्य दर्शक: मैंने उन्हें नत नहीं दिया पर अब मैं उन्हें सुनने आया हूँ. 
प्रश्न: क्या  एक आदमी भारत बदल सकता है?
उत्तर: एक महिला भारत  तो एक मनुष्य भारत बदल सकता है. राजदीप ने  फिर जगह बदल ली। वे बार-बार यही सवाल पूछते रहे. वे जैसे उत्तर चाहते थे नहीं मिले। वे लगातार इंगित करते रहे कि भारत में दो तरह और एक वर्ग मोदी को नहीं चाहता लेकिन भीड़ उनके बहकावे में नहीं आयी। 
आखिरकार खीझकर बोल पड़े: ' भारतीय मूल के अमरीकी बातें बहुत करते हैं किन्तु देश के लिए अधिक नहीं करते।'  
किसी ने उत्तर दिया: 'हम सारा धन भारत भेजते हैं ताकि आर्थिक विकास में योगदान कर सकें।' 
भीड़ नारे लगाने लगी 'राजदीप मुर्दाबाद' 
राजदीप आक्रामक होकर एक दर्शक की और लपके कालर पकड़ने के लिए. राजदीप यही चाहते थे कि अव्यवस्था हो, मारपीट हो, कार्यक्रम स्थगित हो जाए और वे कैमरे में कैद कर भारत में बेचैनी फैला सकें। उनका दुर्भाग्य कि उनका दुष्प्रयास विफल हुआ. 
यूं ट्यूब परदेखें:  http://www.youtube.com/watch?v=dqOHCxmf2ak
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विचारणीय है कि जिस देश में गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी, धर्मवीर भारती 

रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे संवेदनशील पत्रकार हुए हों वहां अंग्रेजी का दंभ 

 कर रहे पूर्वाग्रही पत्रकार देश की छवि धूमिल कर गद्दारी नहीं कर रहे हैं क्या? इन्हें कब और 

कैसे दंड दिया जाए? मुझे लगता है इनकी चैनलों का बहिष्कार हो, टी. आर. पी. घटे तभी इन्हें 

अकल आएगी। 

आपका क्या विचार है?


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