एक कविता
भिक्षुक
राजीव कुमार वर्मा, पेंड्रारोड
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर,
दुआ माँगता हाथ उठाकर.
राहगीर से करता विनती,
अनगिन कभी न करता गिनती.
कोई भर जाता है झोली
कोई जाता नजर चुराकर,
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर...
मैली धोती तन पर पहना,
फटी बिमाई पग का गहना.
मुख पर दरिद्रता की छाया,
झुकी भर से उसकी काया.
कभी भूख को गले लगाता,
भोग कभी पाता है छककर.
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर...
मिला पीठ से पेट एक है,
करता प्रभु से दुआ नेक है.
फिरे नगर में मारा-मारा,
भिक्षाटन करता बेचारा.
चलता कभी, कभी रुक जाता,
कभी बैठ जाता है थककर.
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर...
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 9 अगस्त 2009
कविता: भिक्षुक -राजीव कुमार वर्मा,
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