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शनिवार, 25 मई 2013

gazal shardula

ग़ज़ल:
शार्दूला 
 
*
प्यार के ख़त किताब होने दो 
रतजगों का हिसाब होने दो 

इल्म की लौ ज़रा करो ऊँची 
इस सिहाई में आब होने दो 

गैर ही की सही, ग़ज़ल गाओ 
रात को ख़्वाब ख़्वाब होने दो 

ज़िन्दगी ख़ार थी, बयाँबा थी   
दफ़्न सँग में गुलाब होने दो 

जिस अबाबील का लुटा कुनबा *  
अबके उस को उकाब होने दो 

सूरमा तिल्फ़ से लड़े क्यों कर
अफसरों का दवाब? होने दो!


*  उकाब - ईगल ;  अबाबील - स्वालो पंछी
अबाबील प्रजाति के कुछ ख़ास पक्षी अपनी लार से घोंसला बनाते हैं। इसके स्वास्थ्यलाभकारी  गुणों के कारण चीन, दक्षिण-पूर्वी एशिया (सिंगापुर, हांकांग)  और अमरीका में इसकी बहुत मांग है और यह घोंसाला लगभग लाख-दो लाख रुपये किलो बिकता है - अधिकतर इसे " बर्ड्स नेस्ट सूप " के लिए खरीदा जाता है । इससे  अबाबील की प्रजाति को व्यापक दोहन का सामना करना पड़ता है। इससे उनके अस्तित्व को  खतरा है।

शनिवार, 18 मई 2013

shashthi purti kavivar rakesh khandelwal

युग कवि राकेश खंडेलवाल के प्रति प्रणतांजलि:

लेखनी में शारदा का वास है, रचते रहो,
युग हलाहल से कहो कवि -कंठ में पचते रहो।
काल चारण बन तुम्हारे गीत गायेगा-
कवि-चरण ठहराव से बचते रहो।।
*
तुम नहीं बस तुम, समय की चेतना हो,
ह्रदय में अन्तर्निहित मनु-वेदना हो।
नाद अनहद गुंजाते हो अक्षरों से-
भाव लय रस शब्द मंथित रेतना हो।।
*
अक्षरी आकाश के राकेश हो तुम,
शब्द के वातास में भावेश हो तुम।
नाद अनहद से निनादित गीत सर्जक-
नव प्रतीकों में बसे बिम्बेश हो तुम।।
*
गीत तुम लिखते नहीं हो, गीत तुममें प्रगट होते,
भाव उर में आ अजाने रसों की नव फसल बोते।
रस न बस में रह स्वयं के, मानते आदेश कवि का-
लय विलय हो प्राण में तब हो समाधित खो न खोते।।
*
विनयावनत
संजीव 
कविवर राकेश खंडेलवाल की षष्ठी पूर्ति पर विशेष वीडिओ
द्वारा शार्दूला नोगजा

 

अमिताभ त्रिपाठी

काव्याकाश के निर्मल राकेश को उनकी षष्ठिपूर्ति पर हार्दिक बधाई!
कुछ लोग जन्मना कवि होते हैं
कुछ लोग कवित्व का अर्जन कर लेते हैं श्रम से
और कुछ लोगों पर यह थोप दिया जाता है या वे इसे जबरदस्ती ओढ़ लेते हैं। 
यहाँ मैनें फ्रांसिस बेकन की नकल मारी है सिर्फ़ यह बताने के लिये की इसकी पहली पंक्ति पर राकेश जी विराजमान हैं और अन्तिम पर मैं सगर्व खड़ा हूँ। इन दोनों सीमाओं के बीच यदि समाकलन कर दिया जाय तो शेष सभी कवि आ जायेंगे। आज के भी, कल के भी और आने वाले कल के भी।
राकेश जी में कविता अजस्र पयस्विनी की भाँति बहती है बिना किसी अवरोध के और बिना किसी कृत्रिमता के। राकेश जी के काव्यलोक का भ्रमण करने पर ज्ञात होता है कि कविता वहाँ पर किसी लम्बे फीते की तरह खुलती चली जाती है। अविच्छिन्न और अनवरुद्ध। 
फ़िराक़ ने ग़ज़ल के बारे में कहा है कि यह गद्य की विधा है। अर्थात्‌ वहाँ पर बातों को कहा जाता है और सुना जाता हैं, जैसा कि सामान्य वार्तालाप में होता है। राकेश जी की कविताओं को पढ़ कर मेरे मन में कई बार यह विचार उठता है कि उनके गीत वास्तव में लयात्मक गद्य हैं। राकेश जी के काव्य में मानवीकरण, रूपक और बिम्ब प्रचुरता से समाविष्ट हैं जिसके कारण उसके वाचन या गायन से परिवेश स्वतः जीवन्त हो उठता है। उनका बिम्ब विधान इतना सार्थक और सटीक होता है कि वह अमूर्त का साक्षात स्पर्श करा देता है। 
मेरा बहुत मन है कि मैं उनकी काव्ययोजना और बिम्ब विधान पर कुछ लिखूँ परन्तु तथाकथित व्यस्तता और अपने अपरिभाषित आलस्य के कारण अवसर खिसकता जा रहा है। डर है किसी और ने लिख दिया तो मुझे बड़ा दुख होगा। फिर भी कुछ बातें...
राकेश जी आजीविका के लिये जिस व्यवसाय में हैं वह उन्हें इतना समय नहीं देता कि वे व्यवस्थित योजना के द्वारा लेखन करें फिर भी आश्चर्य हैं जब भी उनका कोई गीत 
हमारे सामने आता है तो वह एक सुचिन्तित और सुव्यस्थित योजना लिये हुये होता है। सहजता, सरलता और अकृत्रिमता उनके गीतों का प्रमुख गुण है। उनके बिम्ब प्रायः सुग्राह्य होते हैं। विस्तार भय से अभी उदाहरण नहीं दे रहा हूँ।
राकेश जी बहुत से प्रयोग नहीं करते। भावना को काव्य-यात्रा का पाथेय मानते हुये जिस भी प्रवाह (छन्द) में बात निकल पड़ती बहुत स्वाभावित रीति से उसी तरंग में बहते चले जाते हैं।
राकेश जी काव्य में बौद्धिक या छान्दसिक चमत्कार उत्पन्न करने की आधुनिक या प्राचीन किसी भी रीति (या आन्दोलन) का अनुसरण करते दिखाई नहीं देते।
उनकी शैली का लालित्य उनकी भाषा और काव्यगत वाक्य विन्यास में दिखाई देता है।
......अभी इतना ही
राकेश जी, आप शतायु हों आपकी लेखनी इसी तरह प्रवहमान रहे, उसका यश और कीर्ति अक्षुण्ण रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है। कुछ अनुचित लिख दिया हो तो क्षमा कर दीजियेगा।
सादर
अमित, रचनाधर्मिता
Amitabh Tripathi <amitabh.ald@gmail.com>