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गुरुवार, 14 मई 2009

शब्द-सलिला: ब्रहस्पति - अजित वडनेरकर

प्रा चीन भारतीय मनीषियों ने खगोलिकी पर बहुत चिन्तन किया था। ग्रह-नक्षत्रों, उनकी गतियों, ग्रहणों और उसके मानव जीवन पर प्रभावों के बारे में वे लगातार सोचते थे। खगोल संबंधी भारतीय ज्ञान फारस होते हुए अरब पहुंचा और फिर वहां से यूनानी, ग्रीक और रोमन समाज तक पहुंचा। हालांकि ज्ञान के आदान-प्रदान का यह सिलसिला दोनो तरफ से था। सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह का नाम गुरु है। इसे बृहस्पति भी कहते हैं जिसका अंग्रेजी नाम है जुपिटर। सप्ताह के सात दिनों में एक गुरु का होता है इसीलिए उसे गुरुवार कहते हैं। गुरु शब्द में ही गुरुता का भाव है। गुरु शब्द की व्युत्पत्ति भी ग्र या गृ जैसी प्राचीन भारोपीय ध्वनियों से मानी जा सकती है जिनमें पकड़ने या लपकने का भाव रहा। गौर करें गुरु में समाहित बड़ा , प्रचंड, तीव्र जैसे भावों पर। हिन्दी में आकर्षण का अर्थ होता है खिंचाव। ग्रह् का अर्थ भी खिंचाव ही है, इससे ही ग्रहण बना है। घर के अर्थ में ग्रह या गृह भी इसी मूल के हैं। ध्यान दें कि गृहस्थी और घर में जो खिंचाव और आकर्षण है जिसकी वजह से लोग दूर जाना पसंद नहीं करते। ग्रहों – खगोलीय पिंडों की खिंचाव शक्ति के लिए भी गुरुत्वीय बल शब्द प्रचलित है जिसे अंग्रेजी में ग्रैविटी कहते हैं जो इसी मूल से उपजा है। फारसी का एक शब्द है बिरजिस जिसका अभिप्राय तारामंडल के सर्वाधिक चमकीले तारे गुरु से ही है। यह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और बृहस्पति से बना है। संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं। आकार और फैलाव के संदर्भ में इससे ही बना है बृहत् (वृहद) शब्द जो बृह+अति के मेल से बना है। इसका मतलब होता है विस्तृत, प्रशस्त, प्रचुर, शक्तिशाली, चौड़ा, विशाल, स्थूल आदि। बृहत्तर शब्द भी इससे ही बना है। संस्कृत में इसके वृह, वृहत् और वृहस्पति, वृहत्तर जैसे रूप भी हैं जो हिन्दी में भी प्रचलित हैं। ऋषि-मुनियों ने गुरु के अत्यधिक प्रकाशमान होने से "..संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं.." उसके बड़े आकार की कल्पना की और उसे बृहस्पति कहा। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु भी कहा गया है। बृहस् ही ईरानी के प्राचीन रुपों में बिरहिस हुआ और फिर बिरजिस बना। वाजिदअली शाह के शहजादे का नाम बिरजिस कद्र था। बृहस्पति के बड़े आकार, उसकी द्युति अर्थात चमक ही इसके अंग्रेजी नाम जुपिटर के मूल में हैं। भाषाविज्ञानियों ने इसे प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का शब्द माना है। यह दो धातुओ के मेल से बना है। द्युस dyeu + पेटर peter = जुपिटर Jupiter जिसका मतलब होता है देवताओं के पिता जो बृहस्पति में निहित देवताओं के गुरु वाले भाव का ही विस्तार है। ग्रीक पुराकथाओं में जिऊस का उल्लेख है जो देवताओं का पिता था। प्राचीन भारोपीय धातु dyeu की संस्कृत धातु दिव् से समानता देखें जिसमें चमक, उज्जवलता, कांति, उजाला जैसे भाव हैं। इसी तरह पेटर की पितृ से। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने चमक, प्रकाश द्युति में ही देवताओं की कल्पना की है। सो द्युस-पेटर में जुपिटर अर्थात बृहस्पति का भाव स्पष्ट है। दिव् से ही बना है दिवस अर्थात दिन या दिवाकर यानी सूर्य। दिव् का एक अर्थ स्वर्ग भी होता है क्योंकि यह लोक हमेशा प्रकाशमान होता है। इन्द्र का एक नाम दिवस्पति भी है। जिसकी वजह से लोग दूर जाना पसंद नहीं करते। ग्रहों – खगोलीय पिंडों की खिंचाव शक्ति के लिए भी गुरुत्वीय बल शब्द प्रचलित है जिसे अंग्रेजी में ग्रैविटी कहते हैं जो इसी मूल से उपजा है। फारसी का एक शब्द है बिरजिस जिसका अभिप्राय तारामंडल के सर्वाधिक चमकीले तारे गुरु से ही है। यह इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और बृहस्पति से बना है। संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं। आकार और फैलाव के संदर्भ में इससे ही बना है बृहत् (वृहद) शब्द जो बृह+अति के मेल से बना है। इसका मतलब होता है विस्तृत, प्रशस्त, प्रचुर, शक्तिशाली, चौड़ा, विशाल, स्थूल आदि। बृहत्तर शब्द भी इससे ही बना है। संस्कृत में इसके वृह, वृहत् और वृहस्पति, वृहत्तर जैसे रूप भी हैं जो हिन्दी में भी प्रचलित हैं। ऋषि-मुनियों ने गुरु के अत्यधिक प्रकाशमान होने से "..संस्कृत में बृह् धातु है जिसमें उगना, बढ़ना, फैलना जैसे भाव हैं.." उसके बड़े आकार की कल्पना की और उसे बृहस्पति कहा। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु भी कहा गया है। बृहस् ही ईरानी के प्राचीन रुपों में बिरहिस हुआ और फिर बिरजिस बना। वाजिदअली शाह के शहजादे का नाम बिरजिस कद्र था। बृहस्पति के बड़े आकार, उसकी द्युति अर्थात चमक ही इसके अंग्रेजी नाम जुपिटर के मूल में हैं। भाषाविज्ञानियों ने इसे प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार का शब्द माना है। यह दो धातुओ के मेल से बना है। द्युस dyeu + पेटर peter = जुपिटर Jupiter जिसका मतलब होता है देवताओं के पिता जो बृहस्पति में निहित देवताओं के गुरु वाले भाव का ही विस्तार है। ग्रीक पुराकथाओं में जिऊस का उल्लेख है जो देवताओं का पिता था। प्राचीन भारोपीय धातु dyeu की संस्कृत धातु दिव् से समानता देखें जिसमें चमक, उज्जवलता, कांति, उजाला जैसे भाव हैं। इसी तरह पेटर की पितृ से। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने चमक, प्रकाश द्युति में ही देवताओं की कल्पना की है। सो द्युस-पेटर में जुपिटर अर्थात बृहस्पति का भाव स्पष्ट है। दिव् से ही बना है दिवस अर्थात दिन या दिवाकर यानी सूर्य। दिव् का एक अर्थ स्वर्ग भी होता है क्योंकि यह लोक हमेशा प्रकाशमान होता है। इन्द्र का एक नाम दिवस्पति भी है।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - निर्वाचन

नि र्वाचन के लिए चुनाव शब्द बड़ा आम और लोकप्रिय है। बोलचाल में निर्वाचन की जगह चुनाव शब्द का ही इस्तेमाल होता है। संचार माध्यम भी निर्वाचन के स्थान पर इसका प्रयोग ही करते हैं। पंचायत चुनाव, विधानसभा चुनाव या लोकसभा चुनाव-राज्यसभा चुनाव आदि। संसदीय चुनावों को आम चुनाव कहने का भी चलन है जो अंग्रेजी के जनरल इलेक्शन का अनुवाद ही है। चुनाव शब्द बना है चि धातु से जिससे चिनोति, चयति, चय जैसे शब्द बनते हैं जिनमें उठाना, चुनना, बीनना, ढेर लगाना जैसे भाव हैं। इन्ही भावों पर आधारित हिन्दी के चुनना, चुनाव,चयन जैसे शब्द भी हैं। निश्चय, निश्चित जैसे शब्द भी इसी कड़ी के हैं जो निस् उपसर्ग के प्रयोग से बने हैं जिनमें तय करना, संकल्प करना, निर्धारण करना शामिल है। इसके बावजूद सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए चुनाव शब्द में उतनी व्यापक अभिव्यक्ति नहीं है जितनी निर्वाचन शब्द में है। चि धातु में चुनने का जो भाव है वह सत्य की पड़ताल या विशिष्ट तथ्य के शोध से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि किसी समुच्चय में से कुछ चुन कर अलग समुच्चय बनाने जैसी भौतिक-यांत्रिक क्रिया अधिक लगती है और चिन्तन का अभाव झलकता है। चुनाव के लिए मराठी में निवडणूक शब्द है जो निर्वचन से ही बना है। निर्वचन का र मराठी के ड़ में तब्दील हुआ और अंत में ड में बदल गया। इसके साथ ही वर्ण विपर्यय भी हुआ। र ने व की जगह ली। क्रम कुछ यूं रहा। निर्वचन > निवड़अन > निवडन > निवडणूक। बीनने के लिए मराठी में निवड़न शब्द प्रचलित है और इसके क्रियारूप इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी का निर्वाचन शब्द मूलतः संस्कृत वाङमय का ही शब्द है मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शासन प्रबंध के लिए योग्य प्रतिनिधियों के चुनाव का अभिप्राय इसमें नहीं था क्योंकि मूल रूप में यह निर्वचन है। संस्कृत में निर्वचन शब्द का मतलब होता है व्याख्या, व्युत्पत्ति या अभिप्राय लगाना। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा बहुत पुरानी है। मोटे रूप में समझने के लिए साहित्य की टीका लिखने के चलन को याद करें। इसे निर्वचन कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य में निर्वचन की परम्परा शुरू होने के पीछे भी साहित्य की वाचिक परम्परा का ही योगदान है। पुराणकालीन सूक्तों, श्लोकों के रचनाकारों नें इन्हें रचते वक्त जो व्याख्याएं कीं वे कालांतर में अनुपलब्ध हो गई। इनके आधार पर जो भाष्य़ लिखे गए उनमें विविधता रही। वैदिक-निर्वचन का उद्धेश्य ही यह है कि तमाम विविधताओं और विसंगतियों के बीच किसी भी उक्ति, भाष्य, श्लोक आदि की सार्थक व्याख्या हो। जाहिर है इस सार्थक व्याख्या के जरिये किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। निर्वचन शब्द बना है निर्+वचन से अर्थात बहुत से वचनों के बीच से अर्थ को अलग करना। यूं कहें कि गूढ़ वचनों में छिपे संदेश को चुनना। स्पष्ट है कि निर्वचन में चुनने का भाव ही प्रमुखता से उभर रहा है। इसके दार्शनिक भाव को ग्रहण करें तो बहुत से तथ्यों, आयामों और व्याख्याओं में से किसी एक को चुनना। यह एक निश्चित ही सत्य है, क्योंकि असत्य या भ्रष्ट के चयन के लिए निर्वचन प्रक्रिया नहीं हो सकती। विडम्बना है कि वच् धातु, जिसमें कहना, बोलना, कथन, वचन जैसे भाव हैं, से बने इस शब्द में नेता के वचन ही प्रमुख हो गए। जो नेता जितनी वाचालता दिखाता है, उसके जीतने के योग उतने ही अधिक होते हैं। वाचाल-प्रयत्नों से चुनावी वैतरणी पार करने के तरीके सफल भी रहते हैं। इसके बाद जनप्रतिनधि महोदय के वचनों को सदन में चाहे असंदीय समझा जाए, जनता ने तो उन्ही वचनों के आधार पर उन्हें निर्वाचित कर अपना ईष्ट चुना है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता देने के बाद राजभाषा के तौर पर हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली बनाने का काम शुरू हुआ। चुनाव के अर्थ में राजभाषा समिति के विद्वानों ने निर्वाचन शब्द तय किया। सरकार चुनने की प्रक्रिया के लिए मानक शब्द बनाने में अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द को ही आधार बनाया गया। निर्वचन से बने निर्वाचन पर गौर करें तो इस शब्द की व्याख्या उसी तर्क प्रणाली पर आधारित जान पड़ती है जो इलेक्शन की है। इलेक्शन शब्द की रिश्तेदारी लैक्चर शब्द से है जिसमें पुस्तक से पाठ चुनने का जो भाव है वही भाव निर्वचन से बने निर्वाचन में आ रहा है यानी बहुतों में से एक को चुनना। विडम्बना है कि निर्वाचन जैसे गूढ़ दार्शनिक भावों वाले इस शब्द और प्रकारांतर से प्रक्रिया को वोट देने जैसी औपचारिकता का रूप दे दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां ही प्रत्याशी तय करती हैं। वहां निर्वाचन के पवित्र अर्थ का ध्यान नहीं रखा जाता। भ्रष्ट-अपराधी अगर उम्मीदवार है तो उसका पार्टी स्तर पर उसका निर्वाचन सही कैसे कहा जा सकता है? महान राजनीतिक दलों को बहुतों में से एक परम सत्य के रूप में अगर अपराधी और दागी चरित्र के लोग ही जनप्रतिनिधि के रूप में विधायी संस्थाओं में देखने है तो यह निर्वाचन शब्द की घोर अवनति है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है?

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा - 'चुनाव' : अजित वडनेरकर



लोकतंत्र में चुनाव के जरिये ही शासक चुना जाता है। पुराने दौर में राजा-महाराजा होते थे, वही शासक कहलाते थे। अब जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और बहुमत प्राप्त प्रतिनिधियों का समूह शासन व्यवस्था चलाता है। पसंद की सरकार बनाने की प्रक्रिया के लिए हिन्दी में निर्वाचन या चुनाव शब्द ज्यादा प्रचलित है। अरबी-फारसी-उर्दू में इसे इंतिखाबात कहते है और अंग्रेजी में इलेक्शन election। यह दिलचस्प है कि नेता का रिश्ता नेतृत्व से होता है मगर समाज को आगे ले जाने या राह दिखाने की बजाय नेता सिर्फ बोलता है। भाषण देता है। किसी ज़माने के नेताओं के मुखारविंद से जो वचन झरते थे उन्हें प्रवचन, व्याख्यान की श्रेणी में रखा जा सकता था मगर अब इनके भाषण सिर्फ शब्दों की जुगाली है जिसके प्रमुख तत्व हैं वोट की जुगत और विपक्षी को गाली। अंग्रेजी का इलेक्शन शब्द हिन्दी में सहज स्वीकार्य हो चुका है। यह बना है लैटिन के ऐलिगर से जिसका मतलब होता है उठाना, चुनना और जिसका रिश्ता है लैटिन के ही लीगर legere से जिसका अर्थ है पढ़ना। भारोपीय धातु लेग् leg, lego से बने ये शब्द जिसमें सामूहिकता, एकत्रीकरण या इकट्ठा होने का भाव है साथ ही इस धातु में चुनाव या चुनने का अर्थ भी निहित है। लैटिन का इलेक्टम भी इसी मूल का है जिसमें यही भाव समाए हैं। इलेक्शन में चुनने का भाव दरअसल अंग्रेजी के लैक्चर से आ रहा है जो खुद लैटिन के लीगर legere से ही बना है। लैक्चर का मतलब आज चाहे व्याख्यान या भाषण देना हो मगर लैटिन में इसका मूलार्थ है पुस्तक में से पठन-पाठन योग्य अंश को चुनना। यहां लैक्चर का मतलब पुस्तक के अध्याय अथवा आख्यान से है। व्याख्याता का काम हर रोज़ छात्रों को एक विशेष अध्याय अथवा आख्यान पढ़ाना ही है। वह उस आख्यान की विवेचना करता है, उसकी व्याख्या करता है। कुल मिला कर जो बात उभर रही है वह यह कि बहुत सारी सामग्री में से कुछ बातें सार रूप में चुनना। पुस्तकों में तथ्य होते हैं, शिक्षक का काम उनका निचोड़ निकाल कर, उनसे ज्ञान की बातें चुन कर छात्रों का मार्गदर्शन करना। इसी दार्शनिक भाव के साथ लैक्चर और इलेक्शन को देखना चाहिए। लैक्चर से ही बना है लैक्चरर अर्थात व्याख्याता। इस शब्द को भारतीय संस्कृति के आईने में देखें। प्राचीन गुरुकुलों के अधिष्ठाता प्रसिद्ध ऋषि-मुनि थे। प्रायः वे स्वयं अथवा अन्य विद्वान ब्राह्मण जो वेदोपनिषदों की दार्शनिक मीमांसा करते थे, आचार्य कहलाते थे। विद्यार्थी को वेदों के विशिष्ट अंश पढ़ाने के लिए नियमित वृत्ति अर्थात वेतन पर जो शिक्षक होते थे वे उपाध्याय कहलाते थे। कालांतर में शिक्षावृत्ति अर्थात पारिश्रमिक के बदले पढ़ानेवाले ब्राह्मणों का पदनाम ही उनकी पहचान बन गया। पुस्तक या ग्रंथ में समूह का भाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कोई भी पुस्तक कई पृष्ठों का समूह होती है। ये तमाम पृष्ठ अलग अलग अध्यायों में निबद्ध होते हैं। लेगो lego का ही एक रूप लेक्टम है जिसमें किसी समूह से चुनने का भाव आ रहा है। विभिन्न उपसर्गों के प्रयोग से इस धातु से बनी कुछ और भी क्रियाएं हैं जो हिन्दी परिवेश में भी बोली जाती हैं जैसे कलेक्ट यानी एकत्रित। उपेक्षा के अर्थ में नेगलेक्ट शब्द है जिसका मूलार्थ किसी समूह से निकाले जाने का भाव है। इसी श्रंखला में इलेक्टम से होते हए इलेक्शन शब्द बना है जिसका चुनाव या निर्वाचन अर्थ स्पष्ट है। अरबी, फारसी, उर्दू में चुनाव के लिए इंतिखाब या इंतिखाबात शब्द है। मूल रूप से यह अरबी का है जिसका रूप है इंतिक़ा या अल-इंतिक़ा। फारसी प्रभाव में यह इंतेख़ाब या इंतिखाब हुआ। मोटे तौर पर इंतिक़ा का मतलब होता है बहुतों में से किसी एक को या कुछ को छांट लेना या बीन लेना। अंग्रेजी के इलेक्शन शब्द के पीछे जो दर्शन है वही दर्शन और तर्कप्रणाली अरबी के इंतिक़ा में भी है अर्थात किन्हीं दो व्याख्याओं या विवेचनाओं में से किसी एक परम तार्किक व्याख्या का चयन। अरबी में चुनाव के लिए इज्तिहाद शब्द भी है और चुनाव को इज्तिहाद इंतिकाई भी कहा जाता है। ऐसे चुनाव जो नस्ली आधार पर हों यानी मुस्लिम मुस्लिम को वोट दे और हिन्दू हिन्दू को, उन्हें इंतिखाबे-जुदाग़ानः कहते हैं और संयुक्त निर्वाचन को इंतिखाबे-मख्लूत कहते हैं। गौर करें कि प्राचीन समाज की ज्ञान परम्परा में सत्य की थाह लेने और निष्कर्ष पर पहुंचने के प्रयासों के लिए ही ये शब्द अस्तित्व में आए जिनका व्यापक प्रयोग बाद में समूह या समष्टि में से किसी एक या कुछ इकाइयों को छांटने या बीनने के लिए होने लगा। मूल रूप में चुनाव अगर होना है सच्चे पंथ का। सच्चे ज्ञान का और अंततः परम सत्य का। लोकतंत्र के तहत हम लगातार चुनावों से गुज़रते हैं क्या उसमें छांटने, बीनने, चुनने के बाद वैसा मूल्यवान, प्रदीप्त और शाश्वत तत्व हमारे हाथ लगता है जिसका संकेत इलेक्शन या इंतिखाब जैसे शब्दों में छुपा हैं? चुनाव परम सत्य का होना चाहिए मगर दागी, अपराधी उम्मीदवारों, जोड़-तोड़ वाले राजनीतिक दलों के बीच इस सच का चुनाव कैसे हो?

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर

चमक

चमक सका वह जो हरे, तम् दे नित्य प्रकाश।

सब का हित कर तोड़ दे, निजी स्वार्थ के पाश।।

चमकदार सतह के अर्थ में इंडो-ईरानी भाषा परिवार में जहां रुच् या रुख धातुएं बनती हैं वहीं भारोपीय भाषा परिवार में यह ल्युक leuk का रूप लेती है। विज्ञान की नई खोजों और तकनीकों से विकास की दौड़ में लगातार मनुष्य आगे बढ़ा है। शब्द भी इसके साथ ही नए रूप और अर्थ ग्रहण करते चलते हैं। दीपवर्तिका जो मात्र कपास का सूत्र होता था, जिसे जलाकर पुराने समय में रात को रोशनी की जाती थी, दीयाबाती के रूप में प्रकाश का पर्याय बनी। बाद में सिर्फ बत्ती रह गई। बत्ती जलाना यानी प्रकाश करना। विद्युत बल्ब का आविष्कार होने के बाद बल्ब के आकार को ध्यान में रखकर इलेक्ट्रिक बल्ब को लट्टू कहा जाने लगा। यूं लट्टू शब्द हिन्दी में गढ़ा नहीं गया बल्कि गोल, घूमनेवाले खिलौने के तौर पर इसे पहले से जाना जाता है। इसके बावजूद लट्टू की बजाय लोग बत्ती शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं। विद्युतधारा के लिए अंग्रेजी में इलेक्ट्रिसिटी शब्द है मगर हिन्दी में विद्युत से बने देशज रूप बिजली का ज्यादा प्रयोग होता है। वैसे बिजली के लिए हिन्दी में लाईट शब्द का इस्तेमाल इतना आम हो चला है कि लाईट मारना जैसा मुहावरा बन गया जो नितांत हिन्दी से जन्मा है। बिजली न होने पर अक्सर यही कहा जाता है कि लाईट नहीं है, चाहे दिन का वक्त हो। इसी तर्ज पर बिजली न रहने पर बत्ती गुल मुहावरा प्रयोग भी कर लिया जाता है। हालांकि हर बार मकसद यही रहता है कि इलेक्ट्रिसिटी न रहने की वजह बिजली से काम करनेवाले उपकरण चल नहीं सकेंगे। रुच् , रुख की श्रंखला में भारोपीय ल्युक धातु से ही बना है अंग्रेजी का लाईट शब्द जिसका मतलब होता है रोशनी, प्रकाश। ल्युक से जर्मन में बना लिट (लिख्त Licht), मध्यकालीन डच में बना लुट (लुख्त lucht) और पुरानी अंग्रेजी में लेट-लोट leoht, leht जैसे रूप बने जिनसे आज की अंग्रेजी में लाईट light शब्द बना। दीप्ति, चमक आदि अर्थ में फारसी के रुख का ही एक और रूप बनता है अफ्रूख्तन afruxtan जिसके मायने हैं प्रकाशित करना, रोशनी करना। वेस्ट जर्मनिक के ल्युख्तम की इससे समानता गौरतलब है। इसका भी वही अर्थ है। फारसी ज़बान का फारुक़ (fo-ruq फारुख और फ़रोग़ उच्चारण भी है) भी इसी कड़ी का शब्द है जिसका मतलब उजाला, प्रकाश होता है जबकि अरबी में भी फारुक़ नाम होता है जिसका अर्थ सच की शिनाख्त करने वाला है। यूं देखा जाए तो सच हमेशा रोशन होता है, इस तरह अरबी फारुक़ की फारसी वाले फारुक़ से रिश्तेदारी मुमकिन है। फारूक़ के बाद इसी श्रंखला में जुड़ता है चिराग़ Ceraq जिसका मतलब होता है दीया, दीपक। इसमें roc का परिवर्तन raq में हुआ है। भारोपीय ल्युक धातु से बना ग्रीक का ल्युकोस leukos, लिथुआनी में बना लॉकास laukas, जिसका अर्थ है पीला, पीतवर्ण। प्राचीनकाल में मनुष्य के पास प्रकाश का मुख्य स्रोत अग्नि ही था जिसमें पीली आभा वाली रोशनी होती है। इसलिए दुनियाभर की भाषाओं में प्रकाश, कांति, दीप्ति से जुड़े जितने भी शब्द है उनमें पीले रंग का संदर्भ भी आमतौर पर आता है। इसी तरह अर्मीनियाई भाषा में lois का मतलब होता है प्रकाश जबकि lusin शब्द चंद्रमा के लिए प्रयुक्त होता है जो प्रकाश स्रोत है। इसी तरह लैटिन में लुसियर lucere यानी चमक और लक्स lux यानी प्रकाश जैसे संदर्भ महत्वपूर्ण हैं। हिन्दुस्तान लीवर कंपनी के प्रसिद्ध ब्रांड साबुन के जरिये लोग लक्स से परिचित है। साबुन के तौर पर लक्स नाम से यहां बदन को चमकाने से ही अभिप्राय है। चमक का सौदर्य से रिश्ता हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। चमक ही विशिष्टता की सूचक है इसीलिए शानो-शौकत और विलासिता के संदर्भ में डीलक्स शब्द का प्रचलन है। भारत में डीलक्स होटल, डीलक्स ट्रेन, डीलक्स बंगले भी होते हैं। यही नहीं, फुटपाथी चाय वाले की सबसे महंगी चाय का नाम भी डीलक्स ही होता है।

सूर्य चन्द्र जुगनू सभी, चमक रहे है देख।

किसने कितना तम् पिया, 'सलिल' यही अव्लेख॥

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गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर

स रपत एक खास किस्म की घास का नाम हैं। पहाड़ों से मैदानों तक समूचे हिन्दुस्तान में यह हर उस जगह पाई जाती है जहां जलस्रोत होते हैं। खास तौर पर पानी के जमाव वाले इलाके, कछारी क्षेत्र, उथले पानी वाले इलाकों में इसकी बढ़वार काफी होती है। सरपत घास ज़रूर है पर वनस्पतिशास्त्र की नजर में बालियों वाली सारी वनस्पतियां घास की श्रेणी में ही आती है। गेहूं से धान तक तक सब। हां, सबसे प्रसिद्ध घास है गन्ना। उससे लोकप्रिय और मीठी वनस्पति और कोई नहीं। जहां तक भीमकाय घास का सवाल है, बांसों के झुरमुट को घास कहने का मन तो नहीं करता, पर है वह भी घास ही। सरपत भी सामान्य घास की तुलना में काफी बड़ी होती है। इसे झाड़ी कहा जा सकता है जो नरकुल की तरह ही होती हैं। आमतौर पर इनकी ऊंचाई दो-तीन फुट तक होती हैं। इसकी पत्तियां इतनी तेज होती हैं कि बदन छिल जाता है। बचपन में अक्सर बरसाती नालों को पार करते हुए हमने इससे अपनी कुहनियां और पिंडलियों पर घाव बनते देखे हैं। इसकी पत्तियां बेहद चमकदार होती हैं और सुबह के वक्त इसकी धार पर ओस की बूंदें मोतियों की माला सी खूबसूरत लगती हैं। बसोर जाति के लोग सरपत से कई तरह की वस्तुएं बनाते हैं जिनमें डलिया, बैग, चटाई, सजावटी मैट, बटुए, सूप हैं। हां, झोपड़ियों के छप्पर भी इनसे बनते हैं। सरपत शब्द बना है संस्कृत के शरःपत्र से। शरः का अर्थ होता है बाण, तीर, धार, चोट, घाव। पत्र का मतलब हुआ पत्ता यानी ऐसी घास जिसके पत्ते तीर की तरह नुकीले हों। सरपत का पत्ते को तीर की तुलना में तलवार या बर्छी कहना ज्याद सही है क्योंकि तीर तो सिर्फ अपने सिरे पर ही नुकीला होता है, सरपत तो अपनी पूरी लंबाई में धारदार होती है। सरपत के चरित्र को बतानेवाले इतने सारे अर्थ उसने यूं ही नहीं खोज लिए। ये तमाम अर्थ बताते हैं कि प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। इसीलिए इसे शरः कहा गया है। सभ्यता क्रम में मनुष्य ने सरपत से ही शत्रु की देह पर जख्म बनाए होंगे, उसे चीरा होगा। सिरे पर तीक्ष्णधार वाला तीर तो आत्मरक्षा की उन्नत तकनीक है जिसे विकासक्रम में उसने बाद में सीखा। तीर की तीक्ष्णता कृत्रिम और सायास है जबकि शर में तीर का भाव और गुण प्राकृतिक है। जाहिर है तीर का शरः नामकरण शरः घास के गुणो के आधार पर बाद में हुआ होगा। शरः बना है शृ धातु से जिसका मतलब होता है फाड़ डालना, टुकड़े टुकड़े कर देना, क्षति पहुंचाना आदि। हिन्दी संस्कृत में शरीर के लिए देह और काया जैसे शब्द भी हैं मगर सर्वाधिक इस्तेमाल होता है शरीर का। यह शरीर भी इसी शृ धातु से जन्मा है जिसका अर्थ नष्ट करना, मार डालना, क्षत-विक्षत करना होता है। इस शब्द संधान से साबित होता है कि चाहे देह के लिए शरीर शब्द आज सर्वाधिक पसंद किया जाता हो, मगर प्राचीनकाल में इसका आशय मृत देह से अर्थात शव से ही था। मनुष्य के विकासक्रम में इस शब्द को देखें तो पता चलता है कि प्राचीन मनुष्य के भाग्य में अप्राकृतिक कारणों से मृत्यु अधिक थी। वह राह चलते किसी मनुष्य से लेकर पशु तक का शिकार बनता था। यहां तक कि किन्हीं समुदायों में सामान्य मृत्यु होने पर भी शवों को वन्यप्राणियों का भोग लगाने के लिए उन्हें आबादी से दूर लावारिस छोड़ दिया जाता था ऐसे अभागों की क्षतिग्रस्त देह के लिए प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। ही शृ धातु से बने शरीर का अभिप्राय था। घास की एक और प्रसिद्ध किस्म है सरकंडा। इसमें भी चीर देने वाला शरः झांक रहा है। यह बना है शरःकाण्ड से। काण्ड का मतलब होता है हिस्सा, भाग, खण्ड आदि। सरकंडे की पहचान ही दरअसल उसकी गांठों से होती है। सरपत को तो मवेशी नहीं खाते हैं मगर गरीब किसान सरकंडा ज़रूर मवेशी को खिलाते हैं या इसकी चुरी बना कर, भिगो कर पशुआहार बनाया जाता है। वैसे सरकंडे से बाड़, छप्पर, टाटी आदि बनाई जाती है। सरकंडे के गूदे और इसकी छाल से ग्रामीण बच्चे खेल खेल में कई खिलौने बनाते हैं। हमने भी खूब खिलौने बनाए हैं। बल्कि मैं आज भी इनसे कुछ कलाकारी दिखाने की इच्छा रखता हूं, पर अब शहर में सरकंडा ही कहीं नजर नहीं आता। खरपतवार भी इसी शरःपत्र से बना शब्द लगता है। संस्कृत-हिन्दी में श वर्ण के ख में बदलने की प्रवृत्ति है। खरपतवार भी खेतों में फसलों के बीच उगने वाली हानिकारक घास-पात ही होती है। आमतौर पर इसे उखाड़ कर मेड़ पर फेंक दिया जाता है जिसे बाद में जलाने या खाद बनाने के में काम लिया जाता है।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा, अजित वडनेरकर

शब्द-यात्रा

अजित वडनेरकर

गर आप संगीत प्रेमी हैं और बाऊल संगीत नहीं सुना तो आपको अभागा माना जा सकता है । क्योंकि बाऊल तो भक्ति संगीत की एक ऐसी धारा है जिसमें डुबकी लगाए बिना गंगासागर में स्नान का पुण्य भी शायद निरर्थक है। बंगाल भूमि से उपजे इस भक्तिनाद में माधुर्य और समर्पण का ऐसा राग-विराग है जो श्रोता पर परमात्मा से मिलने की उत्कट अभिलाषा का रहस्यवादी प्रभाव छोड़ता है।

बाऊल भी इस देश की अजस्र निर्गुण भक्ति धारा के महान अनुगामी हैं जिनमें सूफी फ़कीर भी हैं तो वैष्णव संत भी। बाऊल बंगाल प्रांत के यायावर भजनिक हैं। ये आचार-व्यवहार से वैष्णव परिपाटी के होते हैं और चैतन्यमहाप्रभु की बहायी हुई भक्तिधारा का इन पर प्रभाव स्पष्ट है। मगर इन्हें पूरी तरह से वैष्णव कहना गलत होगा। बाऊल सम्प्रदाय में हिन्दू जोगी भी होते हैं और मुस्लिम फकीर भी। ये गांव-गांव जाकर एकतारे के साथ निर्गुण-निरंजन शैली के गीत गाते हैं। न सिर्फ बंगाल भर में बल्कि अब तो दुनियाभर में ये बेहद लोकप्रिय हैं।

आप अगर बाऊल संगीत सुन सकें तो हिन्दी फिल्मों के कई गीत याद आ जाएंगे, जो इस सरल संगीत शैली से प्रभावित हैं। इस सम्प्रदाय में सूफी मत से लेकर बौद्धों के तंत्र-मंत्रवादी रहस्यवाद का भी प्रभाव मिलता है। वैष्णवों की प्रेमपगी भक्तिसाधना तो इनकी पहली पहचान ही है।

बाऊल शब्द के विषय में कई तरह के मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार यह शब्द फारस की सूफी परम्परा बा’अल से निकला है। यह पंथ बारहवीं सदी में यमन के प्रसिद्ध सूफी संत अली बा अलावी अल हुसैनी Ali Ba'Alawi al-Husaini के नाम से शुरू हुआ था। इस्लाम की सहज-सरल समानतावादी दृष्टि की शिक्षा देने वाले इस पंथ के सूफियों का भारत आगमन हुआ और बंगाल की संगीतमय पृष्ठभूमि में इन्हें अपने अध्यात्म को जोड़ते देर नहीं लगी।

एक अन्य मत के अनुसार बंगाल में बाऊल संगीत कब से शुरू हुआ कहना कठिन है मगर इसका रिश्ता संस्कृत के वातुल शब्द से है। वातुल बना है वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है। वातुल शब्द में वायु से उत्पन्न रोग का ही भाव है। आमतौर पर जिसकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं रहती उसके बारे में यही कहा जाता है कि इसे गैबी हवा लग गई है। बहकना शब्द पर ध्यान दीजिए। इसे आमतौर पर पागलपन से, उन्माद से ही जोड़ा जाता है। संस्कृत की वह् धातु का अर्थ भी वायु ही होता है अर्थात जो ले जाए। वायु की गति के आधार पर यह शब्द बना है। वह् का रूप हुआ बह जिससे बहाव, बहना या बहक-बहकना जैसे शब्द बने।

किसी रौ में चल पड़ना, या जिसका मन-मस्तिष्क किसी खास लहर पर सवार रहता हो, उसके संदर्भ में ही यह क्रिया बहक या बहकना प्रचलित हुई। जाहिर है, यहा वायुरोग के लिए ही संकेत है। वातुल के दार्शनिक भाव पर गौर करें। अपनी धुन में रहनेवाले, मनमौजी लोगों को भी समाज में पागल ही समझा जाता है। तमाम सूफी संतों, फकीरों, औलियाओं और पीरों की शख्सियत रहस्यवादी रही है। परमतत्व के प्रति इनकी निराली सोच, उसे पाने के अनोखे मगर आसान रास्ते और प्रचलित आराधना पद्धतियों-आराध्यों से हटकर अलग शैली में निर्गुण भक्ति का रंग इन्हें बावला साबित करने के लिए पर्याप्त था। स्पष्ट है कि वातुल से ही बना है बाऊल। इसी तरह वातुला से बना है बाउला या बावला। इसका एक अन्य रूप है बावरा। प्रख्यात गायक बैजू बावरा के नाम के साथ जुड़ा बावरा शब्द इसी वातुल से आ रहा है। बैजू की संगीत के प्रति दीवानगी के चलते उसे दीनो-दुनिया से बेखबर बनाती चली गई। सामान्य अर्थों में वह सामाजिक नहीं था, सो वातरोगी के लिए, उन्मादी के लिए प्रचलित बावला शब्द अपने दौर के एक महान गायक की पदवी बन गया।

किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर चाहे आह्लादकारी हों या विशादकारी, प्रभावित व्यक्ति के विचित्र क्रियाकलापों को बौराना कहा जाता है। कुछ लोग इसे आम्रबौर से जोड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यह बौराना दरअसल बऊराना ही है यानी वातुल से उपजे बाऊल की कड़ी का ही शब्द। जिस मूल से बावरा जैसा शब्द बना है, उससे ही बौराना-बऊराना भी बना है। एक अन्य दृष्टकोण के अनुसार निर्गुण वैष्णव भक्तिमार्गियों के इस विशिष्ट सम्प्रदाय के लिए बाऊल शब्द के मायने इनकी उत्कटता, लगन और परमतत्व से मिलने की व्याकुलता है। व्याकुल शब्द ने ही ब्याकुल और फिर बाऊल रूप लिया। यूं देखा जाए तो वात या वातुल शब्द से बाऊल की व्युत्पत्ति का आधार मुझे ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि उसके पीछे भाषावैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी है। अली सरदार जा़फरी भी अपनी कबीरबानी में इन्हें बाऊल=बावला अर्थात उन्मत्त लिखते हैं जो सभी परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं।

... अली सरदार ज़ाफरी साहब ने एके सेन की हिन्दुइज्म पुस्तक से एक बेहतरीन नजी़र दी है जो बाऊल क्या हैं, यह बताती है। सेन साहब ने ज्वार के वक्त गंगातट पर बैठे एक बाऊल से पूछा कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना वृत्तांत क्यों नहीं लिखते। बाऊल ने कहा कि हम तो सहजगामी है, पदचिह्न छोड़ना ज़रूरी नहीं समझते। उसी वक्त पानी उतरा और मांझी पानी में नाव धकेलने लगे। बाऊल ने सेन महाशय को समझाया, ‘क्या भरे पानी में कोई नाव निशान छोड़ती है ? केवल वही मांझी जो मजबूरी की वजह से कीचड़ में नाव चलाते हैं, निशान छोड़ते हैं। बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए।

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