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रविवार, 26 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २६, सॉनेट, हाइकु गीत, राम, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, शरत्पूर्णिमा, चाँद

 सलिल सृजन अक्टूबर २६

*
पूर्णिका
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
बिन पिए ही रहा झूम मैं
मिले नैन जब से गुलाबी
भँवरा रहा गुनगुना बाग में
दुनिया समझती शराबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली सुहाए
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
२६.१०.२०२४
•••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
***

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

अक्टूबर २६, सॉनेट, चाँद, हाइकु गीत, प्रतीप अलंकार, नैरंतरी छंद, नूर

सलिल सृजन अक्टूबर २६
*
'लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के

ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फसूँ 
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के'

इन अश्आर को क़लमबंद करने वाले शायर कृष्ण बिहारी ‘नूर’ ने तमाम उम्र लफ़्जों को संजीदगी से तराश कर शायरी की। मुशायरों में कलाम पढ़ने का उनका अंदाज़ भी अन्य शायरों से जुदा था। हालांकि, शुरुआत में वो अपना कलाम तरन्नुम में यानी गाकर पेश करते थे। लेकिन बाद में वह तहत में पढ़ने लगे। ८ नवंबर, १९२५ को लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में पैदा हुए नूर का शुमार लखनऊ की तहज़ीब का मेयार बुलंद करने वाली शख़्सियतों में है। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ के साथ कई मुशायरे पढ़नेवाले मुनव्वर राना का उनसे ख़ास राब्ता रहा।

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा 'मीर आ के लौट गया' में मुनव्वर राना शायर नूर के बारे में लिखते हैं, "उन्हीं दिनों की बात है कि जनाब कृष्ण बिहारी नूर जो फ़ज़ल लखनवी के शागिर्द हैं, मुशायरों में बेहद मक़बूल हो रहे थे। इसी मुशायरे में फ़िराक़ साहब भी मौजूद थे और सदारत कर रहे थे। नूर साहब ग़ज़ल पढ़ने के लिए माइक पर आए और सद्रे मुशायरा से कलाम पढ़ने की इजाज़त तलब की। फ़िराक़ साहब ने हस्बे आदत फब्ती कसते हुए कहा कि 'गाओ, गाओ'। नूर साहब ने निहायत अदब के साथ फ़िराक़ साहब से अर्ज़ किया कि आइन्दा आप मुझे कभी गाते हुए नहीं सुनेंगे। वह दिन है और आज का दिन, नूर साहब तहत में अपना कलाम सुनाते हैं और उनके कलाम सुना चुकने के बाद अच्छे से अच्छा तरन्नुम का शायर कामयाब होने के लिए ख़ून थूक देता है।

सरापा शायर

नूर साहब लखनवी शायरी की उसी नस्ल से तअल्लुक़ रखते हैं जो सरापा शायर कहलाती है। लहजे में शाइस्तगी, तबीयत में इन्क़िसारी, मिज़ाज में शराफ़त और होंठों पर हमेशा क़ुर्बान हो जाने वाली मुस्कुराहट। कुर्ते पाजामे और सदरी से पहचान लिए जाते हैं। मुशायरे के स्टेज पर बैठे हों तो महसूस होता है कि लखनऊ बैठा हुआ है। उठें तो महसूस होता है कि लखनऊ उठ रहा है। चलें तो यूं लगता है तहज़ीब चहल क़दमी कर रही है। आहिस्ता से गुफ़्तुगू करना वह भी नपी तुली, ज़बान पर गाली नाम का कोई लफ़्ज़ नहीं... शायद गाली कभी सीखी ही नहीं।"

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की शख़्सियत के बारे में राना लिखते हैं, "छोटों के आदाब पर हमेशा खिल कर ऐसे दुआएं देते हैं जैसे शहद वाला मिट्टी की हंडिया में शहद उंडेलता है। शायरी में चुने लफ़्जों को चुन-चुन कर ऐसा एहतमाम करते हैं जैसे अरब के लोग मेहमान नवाज़ी में अपने ख़ुलूस की आबरू के लिए अपना सब कुछ झोंक देते हैं। उनकी तहज़ीब, उनकी गुफ़्तुगू उनकी शायरी और उनके रख-रखाव का सबसे बड़ा ईनाम ये है कि बेश्तर मुसलमान उनको अपना हम मज़हब समझते हैं और क्यों न समझें, जब नूर साहब अपनी ज़बान को पाकीज़ा लफ़्जों से वज़ू कराते हुए शेर पढ़ते हैं कि -

वो मलक हों कि बशर हों कि ख़ुदा हों लेकिन
आपकी सबको ज़रूरत है रसूले अरबी
ख़िज्रो ईसा क बुलन्दी की है दुनिया क़ाएल
हाँ मगर तेरी बदौलत है रसूले अरबी

तो उनका भरम ठीक ही लगता है। लखनऊ की धुली धुलाई उर्दू ज़बान के सहारे जब वह औसाफ़े रसूल (रसूल का गुणगान) बयान करते हैं तो फ़रिश्ते उनके दिल में लगे हुए पेसमेकर की हिफ़ाज़त के लिए बारगाहे ख़ुदाबन्दी में दुआएँ करते होंगे। नूर साहब क़ुदरत की तरफ़ से फ़िरक़ा परस्तों के गाल पर उर्दू तहज़ीब का तमाचा हैं। उन्हे देर तक ज़िन्दा रहना चाहिए क्योंकि लखनऊ से ऐसे लोग जब उठ जाते हैं तो गोमती की आँखों का पानी ख़ुश्क होने लगता है। नूर साहब अपनी हाज़िर जवाबी और तबीयत की शोख़ी की बिना पर भी बहुत पसन्द किए जाते हैं।"

मुनव्वर राना और कृष्ण बिहारी ‘नूर’...


मुनव्वर राना और कृष्ण बिहारी ‘नूर’ सिगरेट पीने के काफ़ी शौकीन थे। लेकिन लाल किले के मुशायरे में एक बार ऐसा हुआ कि नूर मुशायरा गाह में मौजूद थे और राना मुशायरे में अपने साथ सिगरेट ले जाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। मुनव्वर राना लिखते हैं, "लाल किले पर मुशायरा हो रहा था। दहशत गर्दी के ख़ौफ़ से पुलिस वाले सिगरेट और माचिस वग़ैरह मुशायरागाह में नहीं ले जाने दे रहे थे। मैं जब वी.आई.पी. गेट पर पहुँचा तो वहाँ तक़रीबन डेढ़ सौ सिगरेट के पैकेट और माचिस की डिबियाँ पड़ी हुई थीं। पुलिस वालों ने मेरी तलाशी ली, फिर सिगरेट और माचिस निकाल कर वहीं छोड़ देने का हुक्म दिया। मैं काहे का हुक्म मानने वाला...मैं उन लोगों से उलझ गया और सिगरेटों का पैकेट वहाँ फेंकने से इंकार कर दिया। चूँकि मैं बीचो-बीच खड़ा था लिहाज़ भीढ़ बढ़ती जा रही थी। पुलिस वाले बहुत पसोपेश में पड़े हुए थे। उन्होंने मुझे फिर समझाने की कोशिश की तो मैंने उनको समझाया कि ये बुरी आदतें जब मेरे वालिदैन नहीं छुड़वा सके तो आप क्या छुड़ायेंगे। मैंने उनसे यह भी कहा कि आप जाइए और देख कर आइए कि स्टेज पर एश्ट्रे भी रखे हुए हैं। मैं सिगरेट के पैकेट उसी सूरत में यहाँ रख सकता हूँ कि आप मेरा कुर्ता भी रख लें...मैं नंगे बदन मुशायरा गाह में जाऊँगा। यह कर मैंने अपना कुर्ता तक़रीबन उतार लिया। पुलिस वाले फ़ौरन पहचान गये कि मैं उन लोगों से ज़्यादा नंगा हूँ। लिहाज़ा दिल न चाहते हुए भी उन्होंने मुझे जाने दिया और मैं जंग जीतने वाले सिपाही की तरह अकड़ कर स्टेज पर पहुँचा।

मुशायरे में उस वक़्त दिल्ली के वज़रीआला मदनलाल खुराना, सिकन्दर बख़्त, नजमा हैपतुल्ला और उस वक़्त के मरकज़ी सिविल एविएशन वज़ीर ग़ुलाम नबी आज़ाद मौजूद थे। मैंने हस्बे आदत सिगरेट का पैकेट नूर साहब की तरफ़ बढ़ाया तो नूर साहब ने कहा- ''भई! जीते रहिए। मैं जानता था कि मुनव्वर मियाँ सिगरेट लेकर आयेंगे। उन्होंने तकल्लुफ़ करते हुए एक सिगरेट निकाली और ढेर सारी दुआएँ दीं। फिर कहने लगे, इस वक़्त मुझे सिगरेट पिला कर आपको वही सवाब मिला है जो किसी प्यासे को पानी पिला कर मिलता है।"
***
पूर्णिका
मिले नैन जब से गुलाबी
हुई साँस अपनी शराबी 
दुनिया भले हो हिसाबी
कुदरत नहीं है हिजाबी
काँटों की संगत सुहाए
देखो कली की नवाबी
शबनम सहेली लुभाए 
रंगत कई हर शबाबी
पैगाम लाएँ तितलियाँ
लेतीं सँदेशा जवाबी
ताला लगा पाए माली
बनी ही नहीं है वो चाबी
•••
चंद अशआर
चाँद की क्या मजाल घर आए।
बहुत गुरूर से 'मावस बोली।।
मिट तो सकता हूँ घट नहीँ सकता।
चाँद से रात सितारे ने कहा।।
चाँद बंजर न कुछ वहाँ उगता।
खोपड़ी देख कह रही बीबी।।
पैर में लगा क्या शनीचर है?
चाँद का पैर ही नहीं टिकता।
भाई से जब न भाई-चारा हो।
चाँद-सूरज की तरह हो जाते।।
मिट्टी-पत्थर तो मिट्टी-पत्थर है।
चाँद पे हो या के धरती पर।।
रूठ सागर से हुआ चाँद जुदा।
ऐसा मुँह फेरा फिर मिला ही नहीँ।
२६.१०.२०२४
••
सॉनेट
बैठ चाँद पर
बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।
उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
***
नैरंतरी छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
२६-१०-२०१४
***
बाबू लाल शर्मा, बौहरा सिकंदरा,303326 दौसा,राजस्थान,9782924479 ढूँढाड़ी

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

सॉनेट, इटैलियन, हाइकु गीत, राम, प्रतीप अलंकार

सॉनेट
बैठ चाँद पर

बैठ चाँद पर धरा देखकर व्रत तोड़ेंगी
कथा कहेंगी सात भाई इक बहिना वाली
कैसे बिगड़ी बात, किस तरह पुनः बना ली
सात जन्म तक पति का पीछा नहिं छोड़ेंगी
शरत्पूर्णिमा पर धारा उल्टी मोड़ेंगी
वसुधा की किरणों में रखें खीर की प्याली
धरा बुआ दिखलाएँ जसोदा धरकर थाली
बाल कृष्ण को बहला-समझा खुश हो लेंगी।

उल्टी गंगा बहे चाँद पर, धरती निरखें
कैसे छू लें धरा? सोच शशि- मानव तरसें
उस कक्षा से इस कक्षा में आकर हरषें
अभियंता-वैज्ञानिक कर नव खोजें परखें
सुमिर सुमिर मंगल-यात्रा को नैना बरसें
रवि की रूप छटाएँ मन को मन आकरषें।
२६.१०.२०२३
•••
अभिनव प्रयोग
राम
हाइकु गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
२६-१०२०२२
***
अलंकार सलिला: २५
प्रतीप अलंकार
*
अलंकार में जब खींचे, 'सलिल' व्यंग की रेख.
चमत्कार सादृश्य का, लें प्रतीप में देख..
उपमा, अनन्वय तथा संदेह अलंकार की तरह प्रतीप अलंकार में भी सादृश्य का चमत्कार रहता है, अंतर यह है कि उपमा की अपेक्षा इसमें उल्टा रूप दिखाया जाता है। यह व्यंग पर आधारित सादृश्यमूलक अलंकार है। प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान सिद्ध कर चमत्कारपूर्वक उपमेय या उपमान की उत्कृष्टता दिखाये जाने पर प्रतीप अलंकार होता है।जब उपमेय के समक्ष उपमान का तिरस्कार किया जाता है तो प्रतीप अलंकार होता है।
प्रतीप अलंकार के ५ प्रकार हैं।
उदाहरण-
१. प्रथम प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय के रूप में वर्णित किया जाता है अर्थात उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान बनाकर।
उदाहरण-
१. यह मयंक तव मुख सम मोहन
२. है दाँतों की झलक मुझको दीखती दाडिमों में.
बिम्बाओं में पर अधर सी राजती लालिमा है.
मैं केलों में जघन युग की देखती मंजुता हूँ.
गुल्फों की सी ललित सुखमा है गुलों में दिखाती
३. वधिक सदृश नेता मुए, निबल गाय सम लोग
कहें छुरी-तरबूज या, शूल-फूल संयोग?
२. द्वितीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान को अपेक्षाकृत हीन उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय का निरादर किया जाता है।
उदाहरण-
१. नृप-प्रताप सम सूर्य है, जस सम सोहत चंद
२. का घूँघट मुख मूँदहु नवला नारि.
चाँद सरग पर सोहत एहि अनुसारि
३. बगुला जैसे भक्त भी, धारे मन में धैर्य
बदला लेना ठनकर, दिखलाते निर्वैर्य
3. तृतीय प्रतीप:
जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के आगे निरादर होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान मुख?, तुम सम मंजू मयंक
२. मृगियों ने दृग मूँद लिए दृग देख सिया के बांके.
गमन देखि हंसी ने छोडा चलना चाल बनाके.
जातरूप सा रूप देखकर चंपक भी कुम्हलाये.
देख सिया को गर्वीले वनवासी बहुत लजाये.
३. अभिनेत्री के वसन देख निर्वासन साधु शरमाये
हाव-भाव देखें छिप वैश्या, पार न इनसे पाये
४. चतुर्थ प्रतीप:
जहाँ उपमेय की बराबरी में उपमान नहीं तुल/ठहर पाता है, वहाँ चतुर्थ प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. काहे करत गुमान ससि! तव समान मुख-मंजु।
२. बीच-बीच में पुष्प गुंथे किन्तु तो भी बंधहीन
लहराते केश जाल जलद श्याम से क्या कभी?
समता कर सकता है
नील नभ तडित्तारकों चित्र ले?
३. बोली वह पूछा तो तुमने शुभे चाहती हो तुम क्या?
इन दसनों-अधरों के आगे क्या मुक्ता हैं विद्रुम क्या?
४. अफसर करते गर्व क्यों, देश गढ़ें मजदूर?
सात्विक साध्वी से डरे, देवराज की हूर
५. पंचम प्रतीप:
जहाँ उपमान का कार्य करने के लिए उपमेय ही पर्याप्त होता है और उपमान का महत्व और उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है, वहाँ पंचम प्रतीप होता है।
उदाहरण-
१. का सरवर तेहि देऊँ मयंकू
२. अमिय झरत चहुँ ओर से, नयन ताप हरि लेत.
राधा जू को बदन अस चन्द्र उदय केहि हेत..
३. छाह करे छितिमंडल में सब ऊपर यों मतिराम भए हैं.
पानिय को सरसावत हैं सिगरे जग के मिटि ताप गए हैं.
भूमि पुरंदर भाऊ के हाथ पयोदन ही के सुकाज ठये हैं.
पंथिन के पथ रोकिबे को घने वारिद वृन्द वृथा उनए हैं.
४. क्यों आया रे दशानन!, शिव सम्मुख ले क्रोध
पाँव अँगूठे से दबा, तब पाया सत-बोध
२८-१०-२०१५
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