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रविवार, 19 दिसंबर 2010

कविता चिर पिपासु -- श्यामलाल उपाध्याय


कविता                                                                             

चिर पिपासु

श्यामलाल उपाध्याय
*
चिरंतन सत्य के बीच
श्रांति के अवगुंठन के पीछे
चिर प्रतीक्षपन्न निस्तब्ध
निरखता उस मुकुलित पुष्प को
और परखता उस पत्र का
निष्करुण निपात
जिसमें नव किसलय के
स्मिति-हास की परिणति
तथा रोदन के आवृत्त प्रलाप.

निदर्शन-दर्शन के आलोक
विकचित-संकुचित
अन्वेषण-निमग्न
निरवधि विस्तीर्ण बाहुल्य में
उस सत्य के परिशीलन को.

निर्विवाद नियति-नटी का
रक्षण प्रयत्न महार्णव मध्य
उत्ताल तरंग आलोड़ित
उस पत्रस्थ पिपीलक का.
मैं एकाकी
विपन्न, विक्षिप्त, स्थिर
अन्वेक्षणरत
भयंकर जलप्रपात के समक्ष
चिर पिपासु मौन-मूक
ऊर्ध्व दृष्ट निहारता
अगणित असंख्य
तारक लोक, तारावलि
जिनके रहस्य
अधुनातन विज्ञानं के परे
सर्वथा अज्ञात
अस्थापित-अनन्वेषित.

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