लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव
-- सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
संजीव 'सलिल'
*वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव
चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही
सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार
अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की
कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना
कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च
तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन
इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों
को सुख मिले, ही वास्तु
विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य
और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये
ऐसा
घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी
घर या तो
बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन
का अधिकांश
समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण
कई तत्वों पर निर्भर
करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से
सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-
पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन
में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई,
ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति,
जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की
दिशा, अग्नि का स्थान आदि।
हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर
निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते
हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किये जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में
रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम,
दक्षिण-पूर्व (आग्नेय)
तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु
दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण-
पूर्व (आग्नेय) से
प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश
अनिवार्य हो
तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा
वृक्ष, मोची, मद्य, मांस
आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो।
* वायव्य दिशा में अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि
हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने
की अधिक सम्भावना होती है।
* शयन कक्ष में दक्षिण की
और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की
तरह कार्य करता है
जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक
दिशा
में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण
प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते
हैं। सोते
समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली
किरणों के सकारात्मक
प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है।
पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य
से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के
दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना
मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।
* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
*
पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले
का मुँह पूर्व
या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की
ओर रहे। बहुमंजिला
भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या
अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में
इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा
आग्नेय दिशा में पूर्व
या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा
एक दूसरे
से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में
रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो.
दीवारों का रंग सफेद,
पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर
लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों,
भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश
फर्नीचर
आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण,
पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों।
सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम
हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या
नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर
तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
*
घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि
दीवारें अधिक मोटी हों।
तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के
ऊपर हो। सूर्य किरनें तहखाने तक
पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद
संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के
अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह
आरोग्य, पुत्र धन -
धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
*-- सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम