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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

doha

दोहा सलिला 

परमब्रम्ह ओंकार है, निराकार-साकार 
चित्रगुप्त कहते उसे, जपता सब संसार 
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गणपति-शारद देह-मन, पिंगल ध्वनि फूत्कार
लघु-गुरु द्वैताद्वैत सम, जुड़-घट छंद अपार 
वेद-पाद बिन किस तरह, करें वेद-अभ्यास 
सुख-सागर वेदांग यह, पढ़-समझें सायास 
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नेह नर्मदा की लहर, सम अवरोहारोह 
गति-यति, लय का संतुलन, सार्थक मन ले मोह 
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लिपि-अक्षर मिल शब्द हो, देते अर्थ प्रतीति 
सार्थक शब्दों में निहित, सबके हित की नीति 
*
वर्ण-मात्रा-समुच्चय, गद्य-पद्य का मूल
वाक्य गद्य, पद पद्य बन, महके जैसे फूल 
*
सबका हित साहित्य में, भर देता है जान   
कथ्य रुचे यदि समाहित, भाव-बिम्ब-रसवान  
*
वर्ण मात्रा भाव मिल, रच देते हैं छंद 
गति-यति-लय की त्रिवेणी, लुटा सके आनंद 
*
दृश्य-प्रतीकों से बने, छंद सरस गुणवान 
कथन सारगर्भित रहे, कहन सरस रसखान 
*


सोमवार, 20 अप्रैल 2009

सामयिक रचना...

शक्कर मंहगी होना पर...

दोहा गजल

आचार्य संजीव 'सलिल'

शक्कर मंहगी हो रही, कडुवा हुआ चुनाव.
क्या जाने आगे कहाँ, कितना रहे अभाव?

नेता को निज जीत की, करना फ़िक्र-स्वभाव.
भुगतेगी जनता'सलिल',बेबस करे निभाव.

व्यापारी को है महज, धन से रहा लगाव.
क्या मतलब किस पर पड़े कैसा कहाँ प्रभाव?

कम ज़रूरतें कर 'सलिल',कर मत तल्ख़ स्वभाव.
मीठी बातें मिटतीं, शक्कर बिन अलगाव.

कभी नाव में नदी है, कभी नदी में नाव.
डूब,उबर, तरना'सलिल',नर का रहा स्वभाव.

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